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शुक्रवार, जनवरी 24, 2014

एक सितारे का पतन

बहुत पहले हो गई थी तेजपाल के फिसलन और विचलनों की शुरुआत

पहली क़िस्त

विडम्बना देखिए कि मुख्यधारा की कारपोरेट पत्रकारिता और उसके नैतिक विचलनों के खिलाफ आवाज़ उठानेवाली और खुद को वैकल्पिक पत्रकारिता के साथ जोड़नेवाली पत्रिका ‘तहलका’ के प्रधान संपादक तरुण तेजपाल अपनी ही एक युवा रिपोर्टर के साथ बलात्कार और यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोपों में जेल में हैं.
यही नहीं, युवा रिपोर्टर की शिकायत पर त्वरित, उचित और कानून के मुताबिक कार्रवाई न करने, मामले को दबाने और लीपापोती करने की कोशिश के आरोप में ‘तहलका’ की प्रबंध संपादक शोमा चौधरी को भी इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा है.
हालाँकि तेजपाल पर लगे आरोपों पर फैसला कोर्ट में होगा और उन्हें अपने कानूनी बचाव का पूरा हक है लेकिन इस मामले में तेजपाल ने खुद अपना स्टैंड जिस तरह से कई बार बदला है और पहले पश्चाताप के एलान के बाद अब उस युवा रिपोर्टर पर सवाल उठा रहे हैं, उसे लेखिका अरुंधती राय ने ठीक ही ‘दूसरा बलात्कार’ कहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि तेजपाल प्रकरण सामने आने और उससे सख्ती से निपटने में पत्रिका प्रबंधन की नाकामी के बाद ‘तहलका’ के आधा दर्जन से ज्यादा पत्रकारों ने इस्तीफा दे दिया है.

इस बीच, ‘तहलका’ की फंडिंग और खासकर तेजपाल के व्यावसायिक लेनदेन को लेकर भी गंभीर सवाल उठने लगे हैं. इस कारण एक संस्थान और पत्रिका के रूप में ‘तहलका’ के भविष्य पर भी गंभीर सवाल उठने लगे हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि ‘तहलका’ के संस्थापक तरुण तेजपाल पर लगे यौन उत्पीडन और बलात्कार के आरोपों और संदिग्ध व्यावसायिक लेनदेन और संबंधों के कारण पत्रिका की साख को गहरा धक्का लगा है और उससे उबरना आसान नहीं होगा.
यही नहीं, ‘तहलका’ पर जिस तरह से चौतरफा हमले हो रहे हैं, उसमें पत्रिका के लिए टिके रहना खासकर अपने युवा और वरिष्ठ पत्रकारों को पत्रिका के साथ खड़े रहने और इन हमलों का मुकाबला करने के लिए तैयार करना बड़ी चुनौती बन गया है.

यह सच है कि ‘तहलका’ की भंडाफोड और आक्रामक पत्रकारिता से नाराज और चिढ़ी राजनीतिक ताकतों और निहित स्वार्थी तत्वों खासकर भगवा ब्रिगेड ने इस मौके का फायदा उठाते हुए ‘तहलका’ पर हमले तेज कर दिए हैं.

यह किसी से छुपा नहीं है कि एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में रक्षा सौदों में दलाली के मामले के भंडाफोड के बाद भाजपा को जितनी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण से लेकर तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज को इस्तीफा देना पड़ा था, उस चोट को वे कभी भुला नहीं पाए.

यही नहीं, इसके बाद भी गुजरात के २००२ के दंगों के आरोपियों की स्टिंग आपरेशन के जरिये पहचान करवाने, उनके खिलाफ सबूत इकठ्ठा करने और उन्हें सजा दिलवाने में ‘तहलका’ की साहसिक पत्रकारिता की भूमिका किसी से छुपी नहीं है.
यह भी तथ्य है कि ‘तहलका’ के खुलासों से बौखलाई तत्कालीन एन.डी.ए सरकार ने उसे बर्बाद करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रहा. इसके अलावा भगवा संगठन हमेशा से ये आरोप लगाते रहे हैं कि ‘तहलका’ कांग्रेस समर्थक, पूर्वाग्रह-ग्रसित और हिंदू विरोधी है और केवल भाजपा या दूसरी भगवा ताकतों के भ्रष्टाचार, घोटालों और अपराधों को सामने लाने की कोशिश करता है.
लेकिन सच यह है कि ‘तहलका’ ने कोयला खान आवंटन घोटाले से लेकर महाराष्ट्र सिंचाई घोटाले तक कई ऐसे घोटालों का पर्दाफाश किया है जिसके निशाने पर कांग्रेस और उसके समर्थक दल रहे हैं.
इसके बावजूद जब तरुण तेजपाल ने जब अपनी कनिष्ठ सहयोगी के यौन उत्पीड़न और बलात्कार के आरोपों पर खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हुए इसे सांप्रदायिक ताकतों की साजिश बताने की कोशिश की तो यह साफ़ था कि वे खुद को बचाने के लिए धर्मनिरपेक्षता की आड़ ले रहे हैं.

ऐसा करते हुए वे न सिर्फ एक बहुत कमजोर और अनैतिक तर्क पेश कर रहे हैं बल्कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई को भी कमजोर कर रहे हैं. आखिर सांप्रदायिक शक्तियों को ‘तहलका’ के खिलाफ पलटवार करने का मौका किसने दिया?

क्या तरुण तेजपाल और शोमा चौधरी को मालूम नहीं था कि ‘तहलका’ और उसकी पत्रकारिता जिन ऊँचे आदर्शों, मूल्यों और प्रतिमानों की कसौटी पर राजनेताओं, अफसरों से लेकर बाकी दूसरे ताकतवर लोगों को कसती रही है, उसी कसौटी पर उसे भी खरा उतरना होगा?              

खासकर तब जब आप ताकतवर और प्रभावशाली लोगों की अनियमितताओं और अपराधों का पर्दाफाश करने में लगे हों और उनसे जवाबदेही मांग रहे हों, यह याद रखना चाहिए कि आपसे कहीं ज्यादा जवाबदेही मांगी जाएगी और ऊँची कसौटियों पर कसा जाएगा.

सवाल यह है कि एक ओर ‘तहलका’ महिलाओं के यौन उत्पीडन और बलात्कार के मामले जोरशोर से उठा रहा था, सोनी सोरी से लेकर मनोरमा देवी जैसे अनेकों मामलों पर अभियान चला रहा था और यहाँ तक कि गोवा के जिस थिंक-फेस्ट के दौरान तरुण तेजपाल पर अपनी कनिष्ठ सहयोगी के साथ बलात्कार और यौन उत्पीड़न के आरोप लगे हैं, वहां भी एक सत्र यौन उत्पीड़न और बलात्कार पीडितों के संघर्ष पर था लेकिन तरुण तेजपाल को अपनी सहयोगी पत्रकार, मित्र की बेटी और अपनी बेटी की दोस्त पर सख्त विरोध के बावजूद दो बार यौन हमला करने का साहस कहाँ से आया?

ऐसा लगता है कि तेजपाल जिन सरोकारों और उद्देश्यों की पत्रकारिता को आगे बढ़ाने का दावा कर रहे थे, उन उद्देश्यों और सरोकारों से खुद को बड़ा मान बैठने की भूल कर बैठे. उन्हें यह मुगालता हो गया कि वे खुद जनहित की पत्रकारिता के पर्याय बन गए हैं.
यह भी कि वे जैसे चाहेंगे, जनहित को पारिभाषित करेंगे और मुद्दे, सरोकार और उद्देश्य उनके पीछे चलेंगे. कहने की जरूरत नहीं है कि जैसे ही कोई व्यक्ति खुद को उन आदर्शों, मूल्यों, सरोकारों और उद्देश्यों से बड़ा और अहम मानने लगता है जिससे उसे पहचान और सम्मान मिला है, उसके फिसलन और विचलनों की शुरुआत हो जाती है.
तेजपाल भी इसके अपवाद नहीं हैं. मीडिया से आ रही रिपोर्टों से साफ़ है कि तेजपाल के फिसलन और विचलनों की शुरुआत बहुत पहले हो गई थी जब उन्होंने बड़ी पूंजी की कारपोरेट पत्रकारिता के जवाब में वैकल्पिक और जनहित पत्रकारिता को आगे बढ़ाने के नाम पर संदिग्ध उद्योगपतियों और व्यवसायियों से समझौते करने शुरू कर दिए.

‘तहलका’ के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के नामपर तेजपाल ने नैतिक रूप से संदिग्ध उपक्रम शुरू किये, जैसे व्यवसायियों के साथ हाथ मिलाये और खुद और परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ पैसे और संपत्ति बनाई, वह वैकल्पिक और सरोकारी जनहित की पत्रकारिता के मूल्यों और आदर्शों के कहीं से भी अनुकूल नहीं थे.

यही नहीं, तेजपाल के कुछ पूर्व सहयोगियों का आरोप है कि उन्होंने कुछ खोजी रिपोर्टें जैसे गोवा में अवैध खनन से संबंधित रिपोर्ट को प्रकाशित होने से रोक दिया और बदले में गोवा सरकार और खनन कंपनियों से अनुचित फायदा उठाया. गोवा के कुछ वरिष्ठ और सम्मानित पत्रकारों ने गोवा में नियमों को तोड़कर बने तेजपाल के बंगले और संपत्ति पर गंभीर सवाल उठाए हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन आरोपों में अगर जरा भी दम है तो यह तेजपाल पर लगे बलात्कार और यौन उत्पीड़न के आरोपों से कम गंभीर नहीं हैं. साफ़ है कि ‘तहलका’ के घोषित आदर्शों और सरोकारों के विपरीत नैतिक विचलन की शुरुआत बहुत पहले ही हो चुकी थी और उसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार खुद तेजपाल थे.
अफसोस और चिंता की बात यह है कि वैकल्पिक पत्रकारिता के दावों के बावजूद ‘तहलका’ का खुद का सांस्थानिक ढांचा इतना लोकतांत्रिक और पारदर्शी नहीं था कि उसमें तेजपाल की महत्वाकांक्षाओं और उसके कारण उनके नैतिक विचलनों पर अंकुश लगाया जा सकता.

ऐसा लगता है कि तेजपाल ‘तहलका’ को एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चला रहे थे जिसमें ‘तहलका’ की जनहित पत्रकारिता के घोषित उद्देश्य और सरोकार पीछे चले गए थे और निजी हित ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रभावी हो गए थे.

इसकी वजह यह थी कि ‘तहलका’ के घोषित उद्देश्यों और सरोकारों को सितारा (स्टार) समझने के बजाय तेजपाल खुद को स्टार समझने लगे थे और सरोकारों की मार्केटिंग और कारोबार में लग गए थे. उसकी स्वाभाविक परिणति अनैतिक समझौतों और विचलनों में ही होनी थी.

जारी.... 

('कथादेश' के जनवरी अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली क़िस्त)

मंगलवार, जनवरी 24, 2012

लोकतंत्र और मीडिया उद्योग के लिए रिलायंस-टी.वी 18 डील के निहितार्थ

मीडिया का बढ़ता कारपोरेटीकरण और उसके मायने




भारतीय मीडिया और खासकर टी.वी उद्योग में इन दिनों खासी हलचल है. वर्ष २०१२ की शुरुआत बहुत धमाकेदार रही. देश में शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनियों में बाजार पूंजीकरण के लिहाज से सबसे बड़ी कंपनी, मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज ने टी.वी-18/नेटवर्क-18 (मनोरंजन चैनल कलर्स और न्यूज चैनल सी.एन.एन-आई.बी.एन, सी.एन.बी.सी आदि) में कोई 17 अरब रूपये के निवेश का एलान करके सबको चौंका दिया.

इस डील के तहत रिलायंस के मालिकाने वाले इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट ने टी.वी-18/नेटवर्क-18 में 1700 करोड़ रूपये का निवेश किया है जिसके बदले में टी.वी-18/नेटवर्क-18 ने इनाडु टी.वी समूह के सभी क्षेत्रीय समाचार चैनलों को पूरी तरह और मनोरंजन चैनलों में बड़ी हिस्सेदारी खरीद ली है.

इस डील के साथ एक ही झटके में मुकेश अंबानी और उनकी कंपनी रिलायंस मीडिया और मनोरंजन उद्योग की एक बड़ी खिलाड़ी बन गई है. खबरें यह भी हैं कि रिलायंस टी.वी वितरण के क्षेत्र में भी घुसने का रास्ता तलाश रही है और उसकी कई वितरण कंपनियों से उनके अधिग्रहण के लिए सौदा पटाने की कोशिश कर रही है.

इसके अलावा वह कुछ खेल चैनलों को भी अधिग्रहीत करने के प्रयास में भी है. उल्लेखनीय है कि रिलायंस आई.पी.एल क्रिकेट में सबसे महँगी टीमों में से एक मुंबई इंडियन की भी मालिक है. इसके अलावा रिलायंस को पूरे भारत में चौथी पीढ़ी (4 जी) ब्राडबैंड सेवाएं उपलब्ध करने का भी लाइसेंस मिल गया है.

रिलायंस के ताजा फैसले से जाहिर है कि मुकेश अंबानी की तैयारी अब नेपथ्य से मीडिया की राजनीतिक-रणनीतिक ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल करने के बजाय खुद उसके एक बड़े खिलाड़ी की तरह खेल में उतरने की है.

हालांकि यह डील खुद में बहुत जटिल प्रक्रिया के जरिये पूरी होगी और उसकी बारीकियां अभी भी स्पष्ट नहीं हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके जरिये मुकेश अंबानी की नेटवर्क18 में कोई 44 फीसदी और टी.वी18 में 28.5 फीसदी हिस्सेदारी होगी और वे इन कंपनियों में अकेले सबसे बड़े हिस्सेदार होंगे. तात्पर्य यह कि वे इन कंपनियों के वास्तविक मालिक होंगे.

साफ़ है कि मुकेश अंबानी और रिलायंस को अब मीडिया और मनोरंजन उद्योग में व्यवसाय की दृष्टि से भी बेहतर संभावनाएं दिखने लगी हैं और रिलायंस के विस्तार के नए क्षेत्रों में मीडिया व्यवसाय भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है.

पिछले एक-डेढ़ दशक में भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग का जिस गति और पैमाने पर विस्तार हुआ है, उसके कारण कई बड़े उद्योग और कारोबारी समूहों की उसमें दिलचस्पी बढ़ी है. पिछले वर्ष की फिक्की-के.पी.एम.जी मीडिया और मनोरंजन उद्योग रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में मीडिया उद्योग 2009 में 587 अरब रूपये का था जो 11 फीसदी की वृद्धि दर के साथ बढ़कर वर्ष 2010 में 652 अरब रूपये का हो गया.

इस रिपोर्ट का अनुमान है कि पिछले साल कोई 13 फीसदी की बढोत्तरी के साथ इसका आकार बढ़कर 738 अरब रूपये हो जाएगा. यही नहीं, इस रिपोर्ट का यह भी आकलन है कि भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग आनेवाले वर्षों में औसतन 14 फीसदी सालाना की वृद्धि दर के साथ वर्ष 2015 में लगभग 1275 अरब रूपये का विशाल उद्योग हो जाएगा. साफ़ है कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग का तेजी से विस्तार हो रहा है. इसके साथ ही, इसमें दांव ऊँचे और बड़े होते जा रहे हैं.

स्वाभाविक तौर पर इसके विस्तार के साथ इसमें बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की दिलचस्पी भी बढ़ रही है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आमतौर पर छोटी-मंझोली पूंजी के इस असंगठित उद्योग में पिछले डेढ़-दो दशकों में कई मीडिया कंपनियों ने शेयर बाजार से पूंजी उठाई है और उनमें देशी-विदेशी निवेशकों ने पैसा लगाया है.

आज ऐसी दर्जनों मीडिया कंपनियां हैं जो शेयर बाजार में लिस्टेड हैं और जिनमें देशी-विदेशी पूंजी लगी हुई है. इनमें से कुछ कम्पनियाँ परंपरागत मीडिया कम्पनियाँ हैं जो पिछले कई दशकों से समाचारपत्र और फिल्म कारोबार में सक्रिय थीं.

मौजूदा ट्रेंड को देखते हुए कहा जा सकता है कि आनेवाले वर्षों में देर-सबेर इनमें से अधिकांश शेयर बाजार में आएँगी और लिस्टेड कंपनी होंगी. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग में जिस तरह से गलाकाट प्रतियोगिता बढ़ रही है और दांव ऊँचे से ऊँचे होते जा रहे हैं, उसमें अधिकांश कंपनियों के लिए बड़ी पूंजी की शरण में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है.

आश्चर्य नहीं कि टी.वी-18 को रिलायंस की शरण में जाना पड़ा है. जाहिर है कि रिलायंस कोई मामूली कंपनी नहीं है. बाजार पूंजीकरण के लिहाज से वह लगभग 257089 करोड़ रूपये की कंपनी है जिसका अर्थ यह हुआ कि उसके आगे अधिकांश मीडिया कम्पनियाँ बहुत बौनी हैं.

यहाँ तक कि शेयर बाजार में लिस्टेड सभी मीडिया और मनोरंजन कंपनियों के मौजूदा कुल पूंजीकरण को भी जोड़ दिया जाए तो रिलायंस के पूंजीकरण के आधे से भी कम हैं. यही नहीं, रिलायंस नगद जमा कंपनी के मामले में भी देश की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है जिसके पास 30 सितम्बर’11 को लगभग 14 अरब डालर यानी 70000 करोड़ रूपये का नगद जमा था जिसके इस वित्तीय वर्ष के आखिर तक बढ़कर 25 अरब डालर (125000 करोड़ रूपये) हो जाने का अनुमान है.

मजे की बात यह है कि बाजार में इस बाबत कयास लगाये जा रहे हैं कि रिलायंस इतने अधिक नगद जमा का क्या और कैसे इस्तेमाल करेगा? उसपर दबाव है कि वह इस पैसे कोई अधिक से अधिक मुनाफा देनेवाले उद्योगों/कारोबारों में इस्तेमाल करे.

इसका अर्थ यह है कि अगर रिलायंस अपने नगद जमा का 10 फीसदी भी मीडिया और मनोरंजन कारोबार में लगाये तो जी नेटवर्क और सन नेटवर्क को छोडकर वह सभी टी.वी कंपनियों को खरीद सकता है. यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि दुनियाभर में खासकर अमेरिका समेत कई विकसित देशों में सक्रिय बड़ी बहुराष्ट्रीय मीडिया कम्पनियाँ वास्तव में बड़े उद्योग समूहों की उपांग है.

उदाहरण के लिए, दुनिया की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक (जी.ई) है जिसके मीडिया कारोबार के दर्जनों चैनल और अन्य मीडिया उत्पाद है लेकिन यह उसका मुख्य कारोबार नहीं है. वह अमेरिका की छठी सबसे बड़ी कंपनी है और उसका मुख्य कारोबार उर्जा, टेक्नोलोजी इन्फ्रास्ट्रक्चर, वित्त, उपभोक्ता सामान आदि क्षेत्रों में है.

ऐसे कई और उदाहरण हैं. दूसरी ओर, दुनिया की कई ऐसी बड़ी बहुराष्ट्रीय मीडिया कम्पनियाँ हैं जिन्होंने पिछले दो-ढाई दशकों में दर्जनों छोटी और मंझोली मीडिया कंपनियों को अधिग्रहीत या समावेशन (एक्विजेशन और मर्जर) के जरिये गड़प कर लिया है.

असल में, यह पूंजीवाद का सहज चरित्र है जिसमें बड़ी मछली, छोटी मछली को निगल जाती है. इसी तरह बड़ी पूंजी धीरे-धीरे छोटी और मंझोली पूंजी को निगलती और बड़ी होती जाती है. अमेरिका में यह प्रक्रिया 70 के दशक के मध्य में शुरू हुई और 80 और 90 के दशक में आकर पूरी हो गई जहां आज सिर्फ छह बड़ी मीडिया कंपनियों का पूरे अमेरिकी मीडिया और मनोरंजन उद्योग पर एकछत्र राज है जबकि 1983 तक वहां लगभग 50 बड़ी मीडिया कम्पनियाँ थीं.

इसका अर्थ यह हुआ कि आनेवाले महीनों और वर्षों में छोटी, मंझोली और यहाँ तक कि कुछ बड़ी मीडिया कंपनियों के लिए तीखी प्रतियोगिता में टिके रहना बहुत मुश्किल होता चला जाएगा. खासकर उन मीडिया कंपनियों को बहुत मुश्किल होनेवाली है जो इक्का-दुक्का न्यूज चैनलों या एक अखबार/पत्रिका या रेडियो चैनल पर टिकी कम्पनियाँ हैं और किसी बड़े उद्योग या मीडिया समूह का हिस्सा नहीं हैं.

यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि मीडिया उद्योग में यह प्रक्रिया पिछले कई वर्षों से जारी है लेकिन उसकी गति धीमी थी. उदाहरण के लिए, पिछले कुछ वर्षों में कई क्षेत्रीय मीडिया समूह बड़ी मीडिया कंपनियों से मुकाबले में कमजोर हुए हैं और प्रतिस्पर्द्धा में बाहर होते जा रहे हैं.

स्पष्ट है कि मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण यानी कुछ बड़ी कंपनियों के और बड़ी होने और छोटी-मंझोली कंपनियों के खत्म होने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है जिसके गहरे राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक निहितार्थ हैं.

मीडिया उद्योग में बढ़ते कारपोरेटीकरण के साथ तेज होती संकेन्द्रण की प्रक्रिया का सीधा अर्थ यह है कि पाठकों/दर्शकों को सूचनाओं, विचारों और मनोरंजन के लिए मुट्ठी भर कंपनियों पर निर्भर रहना होगा. यह संभव है कि उनके पास चयन के लिए मात्रात्मक तौर पर कई अखबार/पत्रिकाएं और चैनल उपलब्ध हों लेकिन गुणात्मक तौर पर बहुत कम विकल्प हों.

इसकी वजह यह होगी कि उनमें से कई अखबार/चैनल/फिल्म/रेडियो एक ही मीडिया समूह के हों. जाहिर है कि उनका सुर कमोबेश एक सा ही होगा. इस तरह मीडिया उद्योग में विविधता और बहुलता कम होगी जो किसी भी गतिशील लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है.

लोकतंत्र की बुनियाद विचारों की विविधता और बहुलता पर टिकी है और एक सर्व सूचित और सक्रिय नागरिक के लिए जरूरी है कि उसके पास सूचनाओं और विचारों के अधिकतम संभव स्रोत हों.

यही नहीं, यह भी देखा गया है कि प्रतियोगिता में जितने ही कम खिलाड़ी रह जाते हैं, उनमें विचारों और सृजनात्मकता के स्तर पर एक-दूसरे की नक़ल बढ़ती जाती है और जोखिम लेने की प्रवृत्ति कम होती जाती है.

यही नहीं, बड़ी कंपनियों के लिए दांव इतने ऊँचे होते हैं कि वे मुनाफे के लिए मीडिया और पत्रकारिता के मूल्यों और उसूलों को तोड़ने में हिचकते नहीं हैं. ऊँचे दांव के कारण बड़ा कारपोरेट मीडिया अकसर सत्ता और दूसरी प्रभावशाली शक्तियों के करीब दिखाई देती हैं.

असल में, मीडिया के कारपोरेटीकरण के साथ यह सबसे बड़ा खतरा होता है कि उन कंपनियों के आर्थिक हित शासक वर्गों के साथ इतनी गहराई से जुड़े होते हैं कि वे आमतौर पर शासक वर्गों की भोपूं और यथास्थितिवाद के सबसे बड़े पैरोकार बन जाते हैं या अपने हितों के अनुकूल बदलाव की लाबीइंग करते हैं. उनमें वैकल्पिक स्वरों के लिए न के बराबर जगह रह जाती है.

यही नहीं, वे शासक वर्गों के पक्ष में जनमत बनाने से लेकर अपने राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अख़बारों/चैनलों का पूरी बेशर्मी से इस्तेमाल करते हैं. इसके अलावा चूँकि बड़ी मीडिया कंपनियों का मुनाफा मुख्य रूप से विज्ञापनों से आता है, इसलिए बड़े विज्ञापनदाता परोक्ष रूप से इन मीडिया कंपनियों के कंटेंट को भी नियंत्रित और प्रभावित करने लगते हैं.

आश्चर्य नहीं कि कारपोरेट मीडिया में जहां राजनेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार की खबरें और भंडाफोड दिख जाते हैं लेकिन ऐसी रिपोर्टें अपवाद स्वरुप ही दिखती हैं जिनमें कारपोरेट क्षेत्र के भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का पर्दाफाश किया गया हो.

ऐसे में, मीडिया और मनोरंजन उद्योग में बड़ी देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी के निर्बाध प्रवेश और बढ़ते संकेन्द्रण के खतरे और भी स्पष्ट हो गए हैं. इसे अनदेखा करना बहुत बड़ी भूल होगी.

('राजस्थान पत्रिका' के २२ जनवरी'१२ के अंक में रविवारी संस्करण में प्रकाशित लेख का असंपादित पूर्ण संस्करण...इस मुद्दे पर और विस्तार से पढने के लिए कृपया, 'कथादेश' के फरवरी'१२ अंक में स्तम्भ 'इलेक्टानिक मीडिया' देखें..) 

शुक्रवार, दिसंबर 31, 2010

वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करने के लिए आपने क्या किया?

नए साल की शुभकामनाएं और एक व्यक्तिगत अपील 

वर्ष 2011 को वैकल्पिक मीडिया का साल बना दें

प्रिय मित्रों,

सबसे पहले आप सभी को नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं. उम्मीद है कि नए वर्ष में एक बेहतर देश और समाज बनाने की लड़ाई और मजबूत होगी. आप सभी पढ़ने-लिखनेवाले लोगों के लिए अपनी कामना है कि यह वर्ष आपकी सृजनात्मकता को नयी ऊंचाई दे. आपकी कलम देश के गरीबों, बेजुबान और हाशिए पर पड़े लोगों की आवाज़ बने और संघर्ष और रचना की यात्रा इसी तरह आगे बढ़ती रहे.

नए साल में मेरी आपसे एक व्यक्तिगत अपील भी है और मुझे पूरा विश्वास है कि आप उसपर ध्यान जरूर देंगे. जैसाकि आप सभी जानते हैं कि गुजरे साल में कारपोरेट मीडिया की विश्वसनीयता और साख को और बड़े झटके लगे हैं. पेड न्यूज और राडियागेट ने कारपोरेट मीडिया को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है. आश्चर्य नहीं कि मुख्यधारा का कारपोरेट मीडिया न सिर्फ बड़ी पूंजी और सत्ता का भोंपू बनता जा रहा है बल्कि अपनी विश्वसनीयता भी गंवाता जा रहा है.

इस बारे में आपसे लगातार संवाद चलता रहा है. पिछले कई वर्षों से यह हम सभी लोगों के लिए यह बड़ी चिंता का विषय है. इस साल यह चिंता कुछ हद तक निराशा और हताशा में भी बदलने लगी है. ऐसा लगने लगा है कि कारपोरेट मीडिया में बदलाव संभव नहीं है. उल्टे इस बात की आशंका बढ़ती जा रही है कि आनेवाले वर्षों में कारपोरेट मीडिया में स्थितियां और खराब ही होंगी.

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि क्या किया जाए? आप में से बहुतेरे लोग एक सवाल अक्सर करते हैं कि इस सबका विकल्प क्या है? मेरा मानना है कि हमें दो स्तरों पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है. पहली यह कि कारपोरेट मीडिया से बहुत उम्मीद न करते हुए भी उसे मनमानी करने के लिए छोड़ा नहीं जा सकता है. तात्पर्य यह कि हमें कारपोरेट मीडिया के विचलनों पर सवाल खड़ा करते हुए और उसकी आलोचना करते हुए एक ओर उसका भंडाफोड करते रहना चाहिए और दूसरी ओर, उसपर अपने तौर-तरीकों को बदलने का दबाव बनाये रखना चाहिए.

लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है कि वैकल्पिक मीडिया को खड़ा किया और बढ़ावा दिया जाए. मेरी इस बारे में बिल्कुल साफ समझ है कि अब वैकल्पिक मीडिया के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. वैकल्पिक मीडिया से ही मुख्यधारा के कारपोरेट मीडिया पर भी दबाव बनाया जा सकता है.

मेरी आपसे सभी से अपील है कि आप वर्ष 2011 को वैकल्पिक मीडिया का साल बनाने के लिए काम करें. इसके लिए जरूरी है कि जिस तरह से आप मुख्यधारा के अख़बारों और पत्रिकाओं, टी.वी. चैनलों आदि के लिए हर महीने पैसे खर्च करते हैं, वैसे ही वैकल्पिक मीडिया की पत्र-पत्रिकाओं, वेबसाइटों और वैकल्पिक सिनेमा के लिए भी कुछ पैसे जरूर खर्च करें. इसके बिना वैकल्पिक मीडिया खड़ा नहीं हो सकता है.

हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओँ में ऐसी बहुत सी पत्र-पत्रिकाएं हैं. इन पत्र-पत्रिकाओं में एक पत्रिका है : “समकालीन जनमत”. मेरी आपसे व्यक्तिगत अपील है कि आप वैकल्पिक मीडिया को मजबूत करने के लिए ‘समकालीन जनमत’ की वार्षिक सदस्यता जरूर लें. आप उसे विज्ञापन दिलाने में भी मदद कर सकते हैं. आप उसे आर्थिक सहयोग भी दे सकते हैं.

जनमत की वार्षिक सदस्यता सिर्फ 150 रूपये है और अगर आप इलाहाबाद से बाहर का चेक भेज रहे हैं तो उसमें 25 रूपये और जोड़ दें. इसके अलावा आप पांच सौ रूपये से ऊपर की आर्थिक सहायता भी भेज सकते हैं. आप अपना सहयोग ड्राफ्ट या चेक ‘समकालीन जनमत’ के नाम से बनवा के इस पते पर भेज सकते हैं. पता है: मीना राय, प्रबंध संपादक, समकालीन जनमत, 171, कर्नलगंज (स्वराज भवन के सामने), इलाहबाद-211002.

मुझे उम्मीद है कि आप मेरी इस अपील पर जरूर गौर करेंगे. एक बार फिर नए साल की शुभकामनाओं सहित.

आपका,
आनंद प्रधान