शनिवार, फ़रवरी 13, 2010

मीडियानामा 

पुलिस नहीं, तथ्यों का प्रवक्ता बने मीडिया    
  
मानवाधिकार संगठनों की समाचार मीडिया से एक पुरानी लेकिन जायज शिकायत रही है। यह शिकायत हाल के दिनों में कम होने के बजाय और बढ़ी है। शिकायत यह है कि पिछले कुछ वर्षों में माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद से लड़ने के नामपर पुलिस या दूसरी सरकारी एजेंसियां मीडिया को ''हथियार और अपनी बंदूक की गोली'' की तरह इस्तेमाल कर रही हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का आरोप है कि पुलिस और सरकारी एजेंसियां माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद से लड़ने के नामपर जो भी करती हैं, खासकर उनके द्वारा होनेवाले मानवाधिकार हनन के मामलों में भी मीडिया उनका आंख मूंदकर समर्थन करता है। यही नहीं, वह अक्सर पुलिस के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करता दिखता है। आमतौर पर पुलिसिया दावों को अकाट्य तथ्य की तरह पेश करता है। कई बार तो पुलिस से भी एक कदम आगे बढ़कर ऐसी-ऐसी कहानियां छापता-दिखाता है कि उसकी इस "कल्पनाशीलता" पर एक साथ हैरानी, अफसोस और चिंता तीनों होती है।

ताजा मामला उत्तर प्रदेश का है। उत्तरप्रदेश पुलिस ने पिछले सप्ताह इलाहाबाद की पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय आजाद को 'माओवादी' बताकर गिरफ्तार कर लिया इनकी गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने रटे-रटाए ढर्रे के मुताबिक दावा किया कि वे माओवादी संगठन से जुड़े हैं, उनके पास से 'आपत्तिजनक' माओवादी साहित्य बरामद हुआ है और वे राज्य में माओवादी पार्टी का आधार तैयार करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर अधिकांश अखबारों और चैनलों ने पुलिस के दावों पर संदेह करने और सवाल उठाने के बजाय उसे 'अकाट्य तथ्य' की तरह छापा-दिखाया। जबकि मानवाधिकार संगठनों का दावा है कि सीमा पिछले दो दशक से भी अधिक समय से इलाहाबाद में एक पत्रकार, सामाजिक-राजनीतिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय हैं। वे फिलहाल, पीयूसीएल की प्रदेश संगठन मंत्री हैं जबकि उनके पति विश्वविजय लंबे समय तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रनेता रहे हैं। मानवाधिकार संगठनों को सबसे अधिक क्षोभ और दुख इस बात का है कि इलाहाबाद के पत्रकार इस सच्चाई से वाकिफ हैं लेकिन अधिकांश ने पुलिस के आरोपों और दावों पर सवाल उठाने की जहमत उठाना तो दूर उसे इस तरह से छापा जैसे पुलिस ने कोई बहुत बड़ी कामयाबी हासिल की है।

इस प्रक्रिया में बुनियादी पत्रकारीय उसूलों और मूल्यों की भी परवाह नहीं की गयी। क्या समाचार माध्यमों और पत्रकारों से यह अपेक्षा करना गलत है कि वे पुलिस के दावों/आरोपों की बारीकी से छानबीन करें? क्या उन्हें पुलिस से यह नहीं पूछना चाहिए था कि गिरफ्तार कार्यकर्ताओं के पास से बरामद कथित 'आपत्तिजनक साहित्य' में क्या था? ऐसे ही और कई सवाल और प्रक्रियागत मुद्दें हैं जिन्हें समाचार मीडिया माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर नजरअंदाज कर रहा है जिसका फायदा उठाकर पुलिस और दूसरी सरकारी एजेंसिया न सिर्फ निर्दोष नागरिकों को फंसा और परेशान कर रही हैं बल्कि मानवाधिकार संगठनों, जनांदोलनों और जनसंघर्षों से जुड़े कार्यकर्ताओं, नेताओं और  बुद्धिजीवियों   को निशाना बना रही है। मानवाधिकार संगठन इफ्तिरवार गिलानी और डा. विनायक सेन के मामले से लेकर सीमा आजाद तक ऐसे दर्जनों उदाहरणों के जरिए यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि किस तरह मीडिया पुलिस का प्रवक्ता बनता और इस तरह अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है। जबकि समाचार मीडिया से उनकी अपेक्षा यह थी कि वह मानवाधिकारों के हक में अपनी आवाज बुलंद करेगा, सच्चाई को सामने लाएगा और पूरी निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता के साथ रिपोर्टिंग करेगा।

समाचार मीडिया से यह अपेक्षा अब भी बनी हुई है। इस संदर्भ में युवा पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के संगठन जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल लिबर्टीज (जेयूसीएस) की ओर  से  माओवाद/नक्सलवाद/आतंकवाद की  रिपोर्टिंग में  बरती जानेवाली सजगता और सावधानियों को लेकर अभी हाल में जारी निर्देंश उल्लेखनीय हैं।इन निर्देशों में पत्रकारों से और कुछ नहीं बल्कि  अतिरिक्त  सजगता और संवेदनशीलता  दिखाने के साथ-साथ वस्तुनिष्ठता, संतुलननिष्पक्षता  और तथ्यपूर्णता जैसे पत्रकारीय मूल्यों को बरतने की अपील की गई है। समाचार माध्यमों और पत्रकारों को उनपर गंभीरता से विचार और अमल करना चाहिए। इससे न सिर्फ पत्रकारिता बेहतर,संतुलित,तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ होगी बल्कि पुलिस को भी किसी इफ्तिखार गिलानी, विनायक सेन और सीमा आजाद को गिरफ्तार करने से पहले दस बार सोचना पड़ेगा।

शनिवार, फ़रवरी 06, 2010

ओबामा को भी चाहिए 'दुश्मन'


 
हालिया सीनेट उपचुनाव में राजनीतिक झटका झेलने और गिरती लोकप्रियता से परेशान अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने  अमरीकी राजनीति के जाने-पहचाने टोटकों का इस्तेमाल शुरू कर दिया है. उन्होंने अमेरिकी कांग्रेस में 'स्टेट आफ नेशन' भाषण में अमेरिकियों को भारत, चीन और जर्मनी का भय दिखाते हुए चेताया है कि अगर अमेरिका ने जल्दी अपना ढंग-ढर्रा नहीं बदला और उनके प्रशासन द्वारा प्रस्तावित सुधारों को समर्थन नहीं दिया तो इन देशों की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं उसे पीछे छोड़ देंगी. ओबामा ने लगभग ललकारते हुए कहा कि उन्हें यह मंजूर नहीं है कि उनका देश दूसरे स्थान पर आये. जाहिर है कि यह कहते हुए ओबामा का मकसद अपने देशवासियों को उन सुधारों के लिए तैयार करना था जो वे अमेरिका की कथित सर्वोच्चता बनाये रखने के नाम पर आगे बढ़ाना चाहते हैं लेकिन जिन्हें लेकर अमेरिकी जनता में संदेह और असंतोष गहरा रहे हैं.

यह अमेरिकी राजनीति का सबसे आजमाया हुआ फार्मूला है. असल में, जैसे ही किसी राष्ट्रपति और उसके प्रशासन की लोकप्रियता गिरने लगती है और घरेलू समस्याओं को सुलझाना मुश्किल होने लगता है, वह बाहरी खतरों का डर दिखाना शुरू कर देता है. इस प्रक्रिया में वह एक सच्चा-झूठा "दुश्मन" गढ़ता है. फिर उससे लड़ने के नाम पर पूरे देश को अपने सही-गलत फैसलों का समर्थन करने के लिए तैयार कर लेता है. पिछले कोई सौ सालों का अमेरिकी इतिहास ऐसे ही प्रकरणों से भरा पड़ा है. अमेरिका के बारे में माना जाता है कि वह एक असली या नकली "दुश्मन" के बिना जिन्दा नहीं रह सकता है. इतिहास गवाह है कि पहले कम्युनिज्म का डर दिखा कर अमेरिकी जनता को गोलबंद किया गया, फिर सोवियत संघ का खतरा दिखा कर शीत युद्ध लड़ने के बहाने एक विशाल सैन्य-औद्योगिक तंत्र खड़ा किया गया और उसके बाद 'सभ्यताओं के संघर्ष' के नाम पर जेहादी इस्लाम को शत्रु घोषित किया गया.

हालांकि कथित जेहादी इस्लाम के खिलाफ अमेरिकी युद्ध अभी भी ख़त्म नहीं हुआ है लेकिन अमेरिकी जनता के सामने उसकी असलियत उजागर होने लगी है. खुद ओबामा इराक और अफगानिस्तान में जेहादी इस्लाम से एक बेमानी और अंतहीन लड़ाई में फंसे अमेरिका को इससे बाहर निकालने का वायदा करके सत्ता में आये थे. लेकिन इस वायदे को पूरा करना तो दूर ओबामा इसमे और फंसते जा रहे हैं. दूसरी ओर, अमेरिकी जनता पर पिछले एक-डेढ़ साल से पड़ रही वित्तीय संकट की मार और तीखी होती जा रही है. बेरोजगारी दर 10 प्रतिशत से ऊपर चल रही है. ओबामा वित्तीय व्यवस्था से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के जो वायदे करके सत्ता में आये थे, उनमें से कोई वायदा वे पूरा करते नहीं दिखाई दे रहे हैं. उलटे वे उन्ही पिटी-पिटाई नव उदारवादी नीतियों को आगे बढ़ा रहे हैं जिन्हें मौजूदा वित्तीय संकट के लिए जिम्मेदार माना जाता है.

जाहिर है कि ओबामा का राजनीतिक संकट बढ़ रहा है. मौजूदा हालत को देखकर अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि आनेवाले दिनों में उनकी परेशानियाँ और बढ़ेगी. ऐसे में, ओबामा प्रशासन को बहुत शिद्दत से एक ऐसे 'दुश्मन' की तलाश है जिसका डर दिखाकर लोगों को अपने पीछे लामबंद किया जा सके. लेकिन दिक्कत यह है कि इस बीच जेहादी इस्लामी के हव्वे की हवा काफी हद तक निकल चुकी है. हालांकि अब भी किसी एयरलाइंस को उड़ाने के षड्यंत्र और कभी किसी और षड़यंत्र के बहाने जेहादी इस्लाम के भूत को जिन्दा रखने की कोशिश जारी है लेकिन उसे बहुत दूर तक खींचना मुश्किल हो रहा है. इसलिए एक नए 'दुश्मन' की तलाश है. राष्ट्रपति ओबामा के ताजा भाषण से ऐसा लगता है कि अमेरिका ने कम से कम तात्कालिक तौर पर भारत-चीन के रूप में नया 'दुश्मन' तलाश लिया है. वित्तीय संकट की मार से परेशान अमेरिकी नागरिकों को भारत-चीन का डर दिखाना थोडा आसान और विश्वसनीय भी है. ओबामा प्रशासन अमेरिकियों को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि उनकी आर्थिक और वित्तीय मुश्किलों के लिए भारतीय-चीनी जिम्मेदार हैं जो उनकी नौकरियां छिन रहे हैं, सस्ते आयात से अमेरिकी कंपनियों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. इसी आधार पर वे आउटसोर्सिंग के खिलाफ मुहिम चलाने का ऐलान कर रहे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह टिपिकल अमेरिकी 'पैरानोइया' है कि अगर अमेरिका ने अपने को नहीं संभाला और मुकाबले के लिए तैयार नहीं हुआ तो भारत-चीन जैसे देशों की अर्थव्यवस्थाएं उसे पीछे छोड़ देंगी. तथ्य यह है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मौजूदा खस्ताहाल स्थिति के लिए बाहरी नहीं अंदरूनी कारण और घरेलू आर्थिक नीतियां ज्यादा जिम्मेदार हैं. लेकिन उन्हें ठीक करने के बजाय ओबामा प्रशासन भारत और चीन को निशाना बनाकर अपनी विफलताओं पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहा है.

हालांकि कई विश्लेषक इस बयान को अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा अपने देशवासियों को एक स्वस्थ आर्थिक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करने के परिप्रेक्ष्य में देखने की बात  कह रहे हैं लेकिन ओबामा के बयान के टोन से साफ है कि बात इतनी सीधी  और सरल नहीं है. अगर वह सचमुच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा चाहते हैं तो उन्हें एक के बाद एक संरक्षणवादी कदम उठाने से परहेज करना चाहिए था. लेकिन इसके बजाय ओबामा लगातार आउटसोर्सिंग को निशाना बना रहे हैं और संरक्षणवादी कदम उठा रहे हैं. यही नहीं, चाहे कोपेनहेगेन का जलवायु सम्मलेन रहा हो या डब्लू.टी.ओ का मंच या फिर संयुक्त राष्ट्र का मंच- ओबामा प्रशासन लगातार भारत और चीन को निशाना बना रहा है.

जाहिर है कि यह स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का नहीं बल्कि किसी भी तरह अपनी सर्वोच्चता बनाये रखने की जिद है. इसमें छुपे एक अंधराष्ट्रवादी अमेरिकी सर्वोच्चता के भाव को साफ पढ़ा जा सकता है. स्वस्थ प्रतिस्पर्धा वह होती है जिसमें आप दूसरे या तीसरे स्थान पर भी आ सकते हैं लेकिन अमेरिका के रूख से जाहिर है कि वह ऐसी किसी भी स्थिति के लिए तैयार नहीं है. दरअसल, वह इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि अमेरिका अब एक ढलती हुई ताकत है. यही इतिहास का सत्य है. एक से बड़े एक साम्राज्यों का पतन इतिहास का सबसे बड़ा सच है. अमेरिकी 'साम्राज्य' की भी यही गत होनी है. आज नहीं तो 40-50 साल बाद ही सही. दूसरी बात यह है कि इसके लिए कोई और नहीं खुद अमेरिका और उसकी 'साम्राज्यवादी' नीतियां जिम्मेदार हैं. वह अपने ही बोझ से ढह रहा है.

ओबामा अगर इस 'साम्राज्य' को ढहने से बचाना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले बाहरी 'दुश्मन' तलाशने के बजाय अपने घर के अन्दर झांकना चाहिए. उन्हें और अमेरिका को स्वीकार करना पड़ेगा कि भारत- चीन समेत हर देश को आगे बढ़ने का पूरा हक़ है और अमेरिका को उसमें अड़ंगे लगाने का कोई अधिकार नहीं है. लेकिन इसके लिए उन्हें अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक तंत्र के खिलाफ लड़ना पड़ेगा जिसका निहित स्वार्थ हमेशा से टकराव और युद्धों में रहा है. क्या ओबामा में यह साहस है या वह भी पूर्व राष्ट्रपतियों की तरह गढ़े हुए "दुश्मन" के खिलाफ लड़ने की राजनीति को आगे बढ़ाएंगे ?