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शुक्रवार, जून 06, 2014

अटकलकारिता और फील गुड पत्रकारिता का युग

लेकिन ख़बरों के इर्द-गिर्द है आयरन कर्टेन और लुटियन पत्रकारिता मुश्किल में   

दिल्ली में मोदी सरकार आने के साथ न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की ‘पत्रकारिता’ में कई बदलाव दिखने लगे हैं. इसका पहला सुबूत यह है कि राजधानी के धाकड़ रिपोर्टरों, सत्ता के गलियारों में दूर तक पहुंच रखनेवाले संवाददाताओं और सर्वज्ञानी संपादकों को मोदी मंत्रिमंडल के संभावित मंत्रियों और उनके विभागों के बारे में तथ्यपूर्ण सूचनाएं नहीं थीं.
इसकी भरपाई वे परस्पर विरोधी सूचनाओं और अटकलों से करने की कोशिश कर रहे थे. यहाँ तक कि ‘अच्छे दिन लौटने’ की उम्मीद कर रहे भाजपा बीट के रिपोर्टरों के पास भी अटकलों के अलावा कुछ नहीं था.
नतीजा यह कि चैनल-दर-चैनल और अख़बारों तक में सिर्फ अटकलें थीं. चैनलों पर घंटों नहीं बल्कि कई दिनों तक एंकरों, रिपोर्टरों और चर्चाकारों में संभावित मंत्रिमंडल और मंत्रियों के विभागों को लेकर जिस तरह की अटकलबाजी चलती रही, क्या वह न्यूज मीडिया में पत्रकारिता की बजाय ‘अटकलकारिता’ युग के आगमन का संकेत है?

ऐसा लगता है कि सत्ता में बदलाव के साथ न सिर्फ सूचनाओं के स्रोत बदल गए हैं बल्कि खुद भाजपा और मोदी सरकार के अंदर सूचनाओं खासकर नकारात्मक सूचनाओं के बाहर आने पर पर सख्त नियंत्रण का युग शुरू हो चुका है.

इस लिहाज से मंत्रिमंडल का गठन और विभागों का वितरण सूचनाओं के नियंत्रण और प्रबंधन के लिए खड़े किये जा रहे इस नए ‘लौह दीवार’ (आयरन कर्टेन) की पहली परीक्षा थी जिसमें वह न सिर्फ कामयाब रही बल्कि उसने लुटियन दिल्ली के उन धाकड़ पत्रकारों को ‘अटकलकारिता’ करने पर मजबूर कर दिया जो कल तक मंत्रिमंडल बनवाने के दावे किया करते थे.
यह उन धाकड़ पत्रकारों/संपादकों के लिए एक चुनौती है जिनकी ‘पत्रकारिता’ लुटियन दिल्ली के भवनों और बंगलों की गणेश परिक्रमा में फल-फूल रही थी. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वे इस नए ‘आयरन कर्टेन’ से कैसे निपटें?
अफसोस यह कि इसका नतीजा सिर्फ अटकलकारिता में ही नहीं बल्कि ‘फील गुड पत्रकारिता’ के पुनरागमन में भी दिख रहा है. आश्चर्य नहीं कि इन दिनों चैनलों और अखबारों में नई सरकार के बारे में या तो गुडी-गुडी ‘खबरें’ चल रही हैं या उसे बिन मांगी सलाहें दी जा रही हैं या फिर सरकार के लिए कारपोरेट समर्थित एजेंडा तय किया जा रहा है.

लेकिन यह सिर्फ चैनलों और अखबारों और मोदी सरकार के बीच शुरूआती हनीमून का नतीजा भर नहीं है बल्कि सूचनाओं खासकर नकारात्मक सूचनाओं/ख़बरों के बाहर निकलने पर आयद आयरन कर्टेन और सूचनाओं के अनुकूल प्रबंधन की सुविचारित रणनीति का भी नतीजा है.

यह नए प्रधानमंत्री की कार्यशैली का अभिन्न हिस्सा रहा है. आश्चर्य नहीं कि यह सरकार जहाँ एक ओर महत्वपूर्ण खासकर नकारात्मक सूचनाओं को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है, वहीँ दूसरी ओर मीडिया को उदारतापूर्वक ‘खबरें’ और ‘विजुअल्स’ दी जा रही हैं.
ये वे फीलगुड ‘खबरें’ और ‘विजुअल्स’ हैं जिनमें वास्तविक और जनहित से जुड़ी जानकारी कम और पी.आर ज्यादा है.
असल में, सरकार के मीडिया मैनेजरों को अच्छी तरह से मालूम है कि 24X7 न्यूज चैनलों के दौर में चैनलों के पर्दे को भरना और उन्हें चर्चा के लिए विषय देना बहुत जरूरी है.
इसलिए सूचना के प्रवाह को रोकने के बजाय उसे नियंत्रित और प्रबंधित करने पर ज्यादा जोर है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों के कैमरों को प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर मंत्रिमंडल की बैठकों तक पहुँच दी गई है और आधिकारिक तौर पर हर दिन चर्चा के लिए अनुकूल विषय भी दिए जा रहे हैं.

मजे की बात यह है कि चैनल बिना किसी जांच-पड़ताल और छानबीन के उसे लपककर अपनी अटकलकारिता और फील गुड पत्रकारिता से खुश हैं. सचमुच, अच्छे दिन आ गए हैं.             

('तहलका' के 15 जून के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित अंश)

शुक्रवार, मई 30, 2014

क्या यही हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ है?

हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ में पत्रकारों की घुटन बढ़ी है

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष

क्या १८८ साल की भरी-पूरी उम्र में कई उतार-चढाव देख चुकी हिंदी पत्रकारिता का यह ‘स्वर्ण युग’ है? जानेमाने संपादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने बहुत पहले ८०-९० के दशक में ही यह एलान कर दिया था कि यह हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्ण युग’ है. बहुतेरे और भी संपादक और विश्लेषक इससे सहमत हैं.
उनका तर्क है कि आज की हिंदी पत्रकारिता हिंदी न्यूज मीडिया उद्योग के विकास और विस्तार के साथ पहले से ज्यादा समृद्ध हुई है. उसके प्रभाव में वृद्धि हुई है. वह ज्यादा प्रोफेशनल हुई है, पत्रकारों के विषय और तकनीकी ज्ञान में वृद्धि हुई है, विशेषज्ञता के साथ उनके वेतन और सेवाशर्तों में उल्लेखनीय सुधार आया है और उनका आत्मविश्वास बढ़ा है.
हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ के पक्षधरों के मुताबिक, न्यूज चैनलों की लोकप्रियता, विस्तार और प्रभाव ने बची-खुची कसर भी पूरी कर दी है क्योंकि वहां हिंदी न्यूज चैनलों का ही बोलबाला है. हिंदी न्यूज चैनलों और कुछ बड़े हिंदी अखबारों के संपादक/एंकर आज मीडिया जगत के बड़े स्टार हैं. उनकी लाखों-करोड़ों में सैलरी है.

इसके अलावा हिंदी न्यूज चैनलों के आने से पत्रकारों के वेतन बेहतर हुए हैं. उनका यह भी कहना है कि दीन-हीन और खासकर आज़ादी के बाद सत्ता की चाटुकारिता करनेवाली हिंदी पत्रकारिता के तेवर और धार में भी तेजी आई है. आज वह ज्यादा बेलाग और सत्ता को आईना दिखानेवाली पत्रकारिता है.

इसमें कोई शक नहीं है कि इनमें से कई दावे और तथ्य सही हैं लेकिन उन्हें एक परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की जरूरत है. इनमें से कई दावे और तथ्य १९७७ से पहले की हिंदी पत्रकारिता की तुलना में बेहतर दिखते हैं लेकिन वे तुलनात्मक हैं.
दूसरे, इनमें से अधिकतर दावे और तथ्य हिंदी मीडिया उद्योग के ‘स्वर्णकाल’ की पुष्टि करते हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि वे हिंदी पत्रकारिता के बारे में भी उतने ही सच हों. क्या हिंदी अखबारों का रंगीन होना, ग्लासी पेपर, बेहतर छपाई और उनका बढ़ता सर्कुलेशन या हिंदी चैनलों के प्रभाव और ग्लैमर को हिंदी पत्रकारिता के बेहतर होने का प्रमाण माना जा सकता है?
हिंदी पत्रकारिता को पहचान देनेवाले बाबूराव विष्णुराव पराडकर के आज़ादी के पहले दिए गए ‘आछे दिन, पाछे गए’ वाले मशहूर भाषण को याद कीजिए जिसमें उन्होंने आज से कोई ७५ साल पहले भविष्यवाणी कर दी थी कि भविष्य के अखबार ज्यादा रंगीन, बेहतर कागज और छपाई वाले होंगे लेकिन उनमें आत्मा नहीं होगी.

सवाल यह है कि जिसे पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ बताया जाता है, उसके कई उल्लेखनीय और सकारात्मक पहलुओं को रेखांकित करने के बावजूद क्या यह सही नहीं है कि उसमें आत्मा नहीं है? 

अंग्रेजी के मशहूर लेखक आर्थर मिलर ने कभी एक अच्छे अखबार की परिभाषा करते हुए कहा था कि, ‘अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से बातें करता है.’ सवाल यह है कि क्या हमारे आकर्षक-रंगीन-प्रोफेशनल अखबारों और न्यूज चैनलों में देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई देता है?
क्या आज की हिंदी पत्रकारिता में पूरा देश, उसकी चिंताएं, उसके सरोकार, उसके मुद्दे और विचार दिखाई या सुनाई देते हैं? कितने हिंदी के अखबार/चैनल या उनके पत्रकार पूर्वोत्तर भारत, कश्मीर, उडीसा, दक्षिण भारत और पश्चिम भारत से रिपोर्टिंग कर रहे हैं? उसमें देश की सांस्कृतिक, एथनिक, भाषाई, जाति-वर्ग, धार्मिक विविधता और विचारों, मुद्दों, सरोकारों की बहुलता किस हद तक दिखती है?
मुख्यधारा की यह हिंदी पत्रकारिता कितनी समावेशी और लोकतांत्रिक है? तात्पर्य यह कि उसमें भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों खासकर दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की कितनी भागीदारी है?

क्या हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ का एलान करते हुए यह सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि हिंदी क्षेत्र के कितने जिला मुख्यालयों पर पूर्णकालिक महिला पत्रकार काम कर रही हैं? कितने हिंदी अखबारों और चैनलों की संपादक महिला या फिर दलित या अल्पसंख्यक हैं? क्या हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ का मतलब सिर्फ पुरुष और वह भी समाज के अगड़े वर्गों से आनेवाले पत्रकार हैं?

यही नहीं, हिंदी अखबारों और चैनलों में काम करनेवाले पत्रकारों के वेतन और सेवाशर्तों में सुधार का ‘स्वर्णयुग’ सिर्फ चुनिंदा अखबारों/चैनलों और उनके मुठी भर पत्रकारों तक सीमित है. कड़वी सच्चाई यह है कि छोटे-मंझोले से लेकर देश के सबसे ज्यादा पढ़े/देखे जानेवाले अखबारों/चैनलों के हजारों स्ट्रिंगरों के वेतन और सेवाशर्तों में कोई सुधार नहीं आया है. वह अभी भी अन्धकार युग में हैं जहाँ बिना नियुक्त पत्र, न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा के वे काम करने को मजबूर हैं.
उन्हें सांस्थानिक तौर पर भ्रष्ट होने और दलाली करने के लिए मजबूर किया जा रहा है. उनकी बदहाल हालत देखकर आप कह नहीं सकते हैं कि हिंदी अखबारों और चैनलों में बड़ी कारपोरेट पूंजी आई है, वे शेयर बाजार में लिस्टेड कम्पनियाँ हैं, उनके मुनाफे में हर साल वृद्धि हो रही है और वे ‘स्वर्णयुग’ में पहुँच गए हैं.
उदाहरण के लिए हिंदी के बड़े अखबारों की मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने में आनाकानी को ही लीजिए. उनका तर्क है कि इस वेतन आयोग के मुताबिक तनख्वाहें दी गईं तो अखबार चलाना मुश्किल हो जाएगा. अखबार बंद हो जाएंगे. सवाल यह है कि अखबार या चैनल स्ट्रिंगरों की छोडिये, अपने अधिकांश पूर्णकालिक पत्रकारों को भी बेहतर और सम्मानजनक वेतन देने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं?

क्या यह एक बड़ा कारण नहीं है कि हिंदी अखबारों/चैनलों में बेहतरीन युवा प्रतिभाएं आने के लिए तैयार नहीं हैं? आप मानें या न मानें लेकिन यह सच है कि आज हिंदी पत्रकारिता के कथित ‘स्वर्णयुग’ के बावजूद हिंदी क्षेत्र के कालेजों/विश्वविद्यालयों के सबसे प्रतिभाशाली और टापर छात्र-छात्राएं इसमें आने के लिए तैयार नहीं हैं या उनकी प्राथमिकता सूची में नहीं है.

दूसरी ओर, हिंदी अखबारों और चैनलों में बेहतर और सरोकारी पत्रकारिता करने की जगह भी दिन पर दिन संकुचित और सीमित होती जा रही है. आश्चर्य नहीं कि आज हिंदी पत्रकारिता का एक बड़ा संकट उसके पत्रकारों की वह प्रोफेशल असंतुष्टि है जो उन्हें सृजनात्मक और सरोकारी पत्रकारिता करने का मौका न मिलने या सत्ता और कारपोरेट के सामने धार और तेवर के साथ खड़े न होने की वजह से पैदा हुई है.
हैरानी की बात नहीं है कि हिंदी पत्रकारिता के इस ‘स्वर्णयुग’ में पत्रकारों की घुटन बढ़ी है, उनपर कारपोरेट दबाव बढ़े हैं और पेड न्यूज जैसे सांस्थानिक भ्रष्ट तरीकों के कारण ईमानदार रहने के विकल्प में घटे हैं.
यही नहीं, हिंदी पत्रकारिता की अपनी मूल पहचान भी खतरे में है. वह न सिर्फ अंग्रेजी के अंधानुकरण में लगी हुई है बल्कि उसकी दिलचस्पी केवल अपमार्केट उपभोक्ताओं में है. उसे उस विशाल हिंदी समाज की चिंताओं की कोई परवाह नहीं है जो गरीब हैं, हाशिए पर हैं, बेहतर जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ चाहते हैं. लेकिन मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता को उसकी कोई चिंता नहीं है.

क्या यही हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ है?

(समाचार4मीडिया वेबसाइट पर प्रकाशित यह टिप्पणी यहाँ भी पढ़ सकते हैं: http://www.samachar4media.com/Is-this-the-golden-era-of-hindi-journalism )

मंगलवार, मई 13, 2014

क्या यह कांग्रेस विरोधी लहर का संकेत है?

यह कारपोरेट-मीडिया गठजोड़ की बढ़ती ताक़त का भी संकेत है
 
एक्ज़िट पोल और ओपिनियन पोल के नतीजों के बारे जितना कम कहा जाए, उतना अच्छा है. पिछले दो आम चुनावों में उनके अनुमान लगातार ग़लत साबित हुए हैं. इसे ध्यान में रखते हुए २०१४ के आम चुनावों के बारे में विभिन्न चैनलों के एक्ज़िट पोल के अनुमानों में जिस तरह से बीजेपी और एनडीए को बहुमत दे दिया गया है, उसपर हैरानी नहीं होनी चाहिए. 

लेकिन चर्चा और बहस के लिए एक क्षण के वास्ते इसके रुझानों को सही मान लिया जाए तो इसके क्या मायने है? इसके  कुछ मोटे मतलब तो बिल्कुल साफ़ हैं:

१. यह यूपीए ख़ासकर कांग्रेस विरोधी लहर का संकेत है. कांग्रेस का जिस तरह से पूरे देश से सफ़ाया हो रहा है और वह ऐतिहासिक पराजय की ओर बढ़ रही है, उससे साफ़ है कि लोगों ने बढ़ते भ्रष्टाचार, कारपोरेट लूट, महँगाई और बेरोज़गारी के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराते हुए उसे राजनीतिक रूप से बिल्कुल हाशिए पर ढकेल दिया है. 

२. निश्चित तौर पर यह कारपोरेट-मीडिया गठजोड़ की बढ़ती ताक़त का भी संकेत है. कारपोरेट्स ने जिस तरह से भाजपा/एनडीए और उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर दाँव लगाया, पानी की तरह पैसा बहाया है और उसके नेतृत्व में कारपोरेट मीडिया ने जिस तरह से मोदी की एक 'विकासपुरूष, निर्णायक फ़ैसला करनेवाला और सख़्त प्रशासक' की छवि गढ़ी है, उससे लगता है कि कारपोरेट्स और कारपोरेट्स मीडिया के गठजोड़ ने भारतीय लोकतंत्र में जनमत को तोड़ने-मरोड़ने (मैनुपुलेट) करने में निर्णायक बढ़त हासिल कर ली है.

३. यह मोदी को आगे करके ९० के दशक के रामजन्मभूमि अभियान के बाद पहली बार हिंदुत्व की राजनीति को एक बड़ी उछाल देने और उत्तर और पश्चिम भारत के सीमित दायरे से बाहर निकालकर उसे पूर्वी और दक्षिण भारत में घुसने, अपने बल पर ख़ुद को खड़ा करने और अपने फुटप्रिंट को बढ़ाने की आरएसएस के प्रोजेक्ट की पहली बड़ी और गंभीर कोशिश के रूप में भी देखा जाना चाहिए. उसने जिस तरह से विकास के छद्म के पीछे हिंदू ध्रुवीकरण का इस्तेमाल किया है, वह आरएसएस की बड़ी कामयाबी है. 

४. यह रोज़ी-रोटी और बेहतर शिक्षा-स्वास्थ्य के बुनियादी मुद्दों से काटकर सिर्फ जातियों के जोड़तोड़ से सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई लड़ने या कांग्रेस/सपा/बसपा/राजद के भरोसे सांप्रदायिकता से लड़ने की राजनीति की सीमाओं को भी उजागर कर रहा है.

फ़िलहाल इतना ही. बाक़ी विस्तार से जल्दी ही. 

गुरुवार, अप्रैल 03, 2014

पत्रकारिता के नीरा राडिया काल में ‘निष्पक्षता’

नत्थी पत्रकारिता के खतरे   

न्यूज चैनल- ‘आज तक’ के एंकर-पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी और आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल के बीच ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत का एक वीडियो इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर न्यूज मीडिया और चैनलों पर सुर्ख़ियों में है.
अरुण जेटली जैसे वरिष्ठ भाजपा नेताओं से लेकर कुछ न्यूज चैनल तक एंकर-पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी पर पत्रकारिता की नैतिकता (एथिक्स) और मर्यादा लांघने का आरोप लगा रहे हैं. इस ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत में वाजपेयी की केजरीवाल से अति-निकटता और सलाहकार जैसी भूमिका को निशाना बनाते हुए उनकी निष्पक्षता पर ऊँगली उठाई जा रही है.
आरोप लगाया जा रहा है कि वाजपेयी आम आदमी पार्टी की ओर झुके हुए हैं और चैनल के अंदर आप के प्रतिनिधि/प्रवक्ता की तरह काम कर रहे हैं. यह भी कहा जा रहा है कि वाजपेयी भी आशुतोष जैसे कई पत्रकार-संपादकों की तरह हैं जो चैनल/अखबार में आम आदमी पार्टी के पक्ष में काम कर रहे हैं, खबरों के साथ तोडमरोड कर रहे हैं और पार्टी के अनुकूल जनमत बनाने के अभियान में शामिल हैं.

इस कारण केजरीवाल के साथ उनका इंटरव्यू ‘फिक्सड’ और पी-आर किस्म का है जिसका मकसद केजरीवाल की सकारात्मक छवि गढना है और जिसमें शहीद भगत सिंह तक को इस्तेमाल किया जा रहा है.

सवाल यह है कि क्या वाजपेयी और केजरीवाल की ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत सिर्फ एक स्वाभाविक
सौजन्यता/औपचारिकता या हद से हद तक एक तरह का बडबोलापन है या फिर इसे पत्रकारीय निष्पक्षता और स्वतंत्रता के साथ समझौता माना जाए?
हालाँकि पत्रकारिता के नीरा राडिया और पेड न्यूज काल में पुण्य प्रसून और केजरीवाल की बातचीत काफी शाकाहारी लगती है लेकिन इसमें पत्रकारिता की नैतिकता, मानदंडों और प्रोफेशनलिज्म के लिहाज से असहज और बेचैन करनेवाले कई पहलू हैं. इस बातचीत में वाजपेयी किसी स्वतंत्र पत्रकार और नेता के बीच बरती जानेवाली अनिवार्य दूरी को लांघते हुए दिखाई पड़ते हैं.
दूसरे, पत्रकारिता और पी-आर में फर्क है और पत्रकार का काम किसी भी नेता (चाहे वह कितना भी लोकप्रिय और सर्वगुणसंपन्न हो) की अनुकूल ‘छवि’ गढना नहीं बल्कि उसकी सच्चाई को सामने लाना है.

असल में, किसी भी पत्रकारीय साक्षात्कार में पत्रकार-एंकर अपने दर्शकों का प्रतिनिधि होता है और इस नाते उससे अपेक्षा होती है कि वह साक्षात्कारदाता से वे सभी सवाल पूछेगा जो उसके दर्शकों को मौका मिलता तो उससे पूछते. याद रहे कि कोई भी पत्रकारीय इंटरव्यू पत्रकार और साक्षात्कारदाता खासकर सार्वजनिक जीवन में सक्रिय या पद पर बैठे नेता के बीच की निजी बातचीत नहीं है.

सच यह है कि जब कोई नेता अपने को इंटरव्यू के लिए पेश करता है तो इसके जरिये वह लोगों के बीच यह सन्देश देने की कोशिश करता है कि वह अपने विचारों/क्रियाकलापों में पूरी तरह पारदर्शी है, कुछ भी छुपाना नहीं चाहता है और हर तरह के सार्वजनिक सवाल-जवाब और जांच-पड़ताल के लिए तैयार है.
ऐसे में, पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह उस नेता से कड़े से कड़े और मुश्किल सवाल पूछे ताकि उसके विचारों/क्रियाकलापों से लेकर उसकी कथनी-करनी के बीच के फर्क और अंतर्विरोधों को उजागर किया जा सके. क्या पुण्य प्रसून वाजपेयी, केजरीवाल से इंटरव्यू करते हुए इस कसौटी पर खरे उतरते हैं?
इसका फैसला दर्शकों पर छोड़ते हुए भी जो बात खलती है, वह यह है कि ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत में केजरीवाल कार्पोरेट्स और प्राइवेट सेक्टर के बारे में बात करने से बचने की दुहाई देते नजर आते हैं क्योंकि इससे मध्यवर्ग नाराज हो जाएगा.

लेकिन क्या यह वही अंतर्विरोध नहीं है जिसे इंटरव्यू में उजागर किया जाना चाहिए? यही नहीं, यह और भी ज्यादा चिंता की बात है कि वाजपेयी जैसा जनपक्षधर पत्रकार केजरीवाल को अपनी ‘क्रांतिकारी’ छवि गढ़ने के लिए भगत सिंह के इस्तेमाल का मौका दे.

कहने की जरूरत नहीं है कि यहीं से फिसलन की शुरुआत होती है जब कोई पत्रकार किसी नेता-पार्टी के साथ ‘नत्थी’ (एम्बेडेड) दिखने लगता है. 
('तहलका' के ३० मार्च के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)                                       

सोमवार, मार्च 10, 2014

आरोप-प्रत्यारोपों के लपेटे में चैनल

खेल में पार्टी बनते जा रहे चैनल आरोप-प्रत्यारोपों के उछलते कीचड़ से भला कब तक बचेंगे?

जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं और पार्टियों-नेताओं के लिए दांव ऊँचे होते जा रहे हैं, आपसी आरोप-प्रत्यारोप भी तीखे और व्यक्तिगत होने लगे हैं. न्यूज मीडिया हमेशा से ऐसे आरोप-प्रत्यारोपों का मंच और अखाड़ा बनता रहा है.
चुनावों के दौरान यह बहुत असामान्य बात नहीं है. न्यूज मीडिया खासकर चैनल इसमें खूब दिलचस्पी भी लेते रहे हैं. लेकिन इसबार पहली दफा खुद न्यूज मीडिया खासकर चैनल इन आरोप-प्रत्यारोपों के लपेटे में आ गए हैं. इससे चैनल बिलबिलाये हुए हैं.
हुआ यह है कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी से लेकर गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे और पूर्व सेनाध्यक्ष पलट नेता बने जनरल वी.के सिंह तक खुलेआम न्यूज मीडिया पर खुन्नस निकाल रहे हैं. यहाँ तक कि न्यूज के डार्लिंग समझे जानेवाले आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने तो न्यूज मीडिया खासकर चैनलों के खिलाफ पूरा मोर्चा ही खोल दिया है.

केजरीवाल का आरोप है कि कई मीडिया कंपनियों में मुकेश और अनिल अम्बानी का पैसा लगा हुआ है और इस कारण वे आम आदमी पार्टी और व्यक्तिगत तौर पर उनके खिलाफ अभियान झूठी ख़बरें दिखा और अभियान चला रही हैं.

दूसरी ओर, भाजपा नेताओं और मोदी समर्थकों का आरोप है कि अखबार और चैनल केजरीवाल का महिमामंडन कर रहे हैं क्योंकि उनके ज्यादातर पत्रकार वामपंथी, छद्म धर्मनिरपेक्ष और कांग्रेसी हैं. यही नहीं, भाजपा नेता सुब्रमणियम स्वामी और आर.एस.एस से जुड़े एस. गुरुमूर्ति ने एन.डी.टी.वी पर धन शोधन (मनी लांडरिंग) का आरोप लगाते हुए अभियान छेड रखा है.
खुद मोदी ने एक न्यूज चैनल के कार्यक्रम में एन.डी.टी.वी पर सरकारी पैसे से चलने और बाद में दिल्ली की एक रैली में इसी चैनल की एक पत्रकार पर नवाज़ शरीफ की मिठाई खाने का आरोप लगाया था.
जैसे इतना ही काफी नहीं हो, सोशल मीडिया- ट्विटर और फेसबुक पर भी चैनलों और उनके
संपादकों/एंकरों को मोदी और केजरीवाल समर्थक जमकर गरिया रहे हैं. इससे चैनलों और मीडिया के साथ पत्रकारों में भी बेचैनी है.

नतीजा, एडिटर्स गिल्ड को न्यूज मीडिया के बचाव में उतरना पड़ा. लेकिन इससे लगता नहीं है कि न्यूज मीडिया खासकर चैनलों पर हमले कम होंगे. इसकी वजह यह है कि इस बार चुनावों में न सिर्फ दांव बहुत ऊँचे हैं, केजरीवाल जैसे नए खिलाड़ी ‘नियमों को तोड़कर’ खेल रहे हैं बल्कि इसबार खेल में न्यूज मीडिया खासकर चैनल खुद खिलाड़ी बन गए हैं.

आप मानें या न मानें लेकिन यह तथ्य है कि २०१४ के चुनाव जितने जमीन पर लड़े जा रहे हैं, उतने ही चैनलों पर और उनके स्टूडियो में लड़े जा रहे हैं. शोशल मीडिया से ज्यादा यह न्यूज चैनलों का चुनाव है. केजरीवाल और मोदी की ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि गढ़ने में न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है.
यह पहला आम चुनाव है जिसमें चैनल इतनी बड़ी और सीधी भूमिका निभा रहे हैं. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि हर रविवार को होनेवाली मोदी की रैलियां जिनका असली लक्ष्य चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट के जरिये करोड़ों वोटरों तक पहुंचना है. आश्चर्य नहीं कि इन रैलियों की टाइमिंग से लेकर मंच की साज-सज्जा तक और कैमरों की पोजिशनिंग से लेकर भाषण के मुद्दों तक का चुनाव टी.वी दर्शकों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है.
चुनावी दंगल में इस बढ़ती और निर्णायक भूमिका के कारण ही चैनल नेताओं और पार्टियों के निशाने पर आ गए हैं. इसके जरिये चैनलों पर दबाव बनाने और उन्हें विरोधी पक्ष में झुकने से रोकने की कोशिश की जा रही है. लेकिन इसके लिए काफी हद तक खुद चैनल भी जिम्मेदार हैं.

सच यह है कि चैनल खुद दूध के धोए नहीं हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि कई चैनल चुनावी दंगल की तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग और व्याख्या के बजाये खेल में खुद पार्टी हो गए हैं. यह भी सही है कि उनमें से कई की डोर बड़े कार्पोरेट्स के हाथों में है और वे उन्हें अपनी मर्जी से नचा रहे हैं. कुछ बहती गंगा में हाथ धोने में लग गए हैं और कुछ बेगानी शादी में अब्दुल्ला की तरह झूम रहे हैं.

ऐसे में, हैरानी क्यों? जब चैनल खेल में पार्टी बनते जा रहे हैं तो आरोप-प्रत्यारोपों के उछलते कीचड़ से भला कब तक बचते?
                      
('तहलका' के १५ मार्च के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

शुक्रवार, फ़रवरी 07, 2014

मीडिया आक्सीजन के बिना ‘आप’

मीडिया की अहर्निश प्रशंसा का नशा आप पार्टी के मंत्रियों, नेताओं और कार्यकर्ताओं के सिर चढ़कर बोलता रहा है

आम आदमी पार्टी (आप) और उसके नेता अरविंद केजरीवाल इन दिनों न्यूज मीडिया से खासे नाराज और खिन्न से दिख रहे हैं. उन्हें लगता है कि न्यूज चैनल और अखबार पूर्वाग्रह और एक एजेंडे के तहत उनकी सरकार की गैर जरूरी आलोचना कर रहे हैं और नकारात्मक खबरें दिखा रहे हैं. केजरीवाल के मुताबिक, पत्रकार तो ईमानदार हैं लेकिन मीडिया के मालिक इस या उस पार्टी से जुड़े हैं और पत्रकारों पर दबाव डालकर ‘आप’ के खिलाफ खबरें करवा रहे हैं.
दूसरी ओर, नस्लवाद, मोरल पुलिसिंग और विजिलैंटिज्म के आरोपों से घिरे दिल्ली सरकार में कानून मंत्री सोमनाथ भारती की मीडिया से नाराजगी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि टी.वी रिपोर्टरों के सवालों पर वे आपा खो बैठे और उल्टे रिपोर्टर पर सवाल दाग दिया कि सवाल पूछने के लिए (नरेन्द्र) मोदी ने कितने पैसे दिए हैं?
हालाँकि भारती ने बाद में माफ़ी मांग ली लेकिन आप पार्टी के दूसरे नेताओं और कार्यकर्ताओं की न्यूज मीडिया से नाराजगी खत्म नहीं हुई है. असल में, वे चैनलों और अखबारों के लगातार तीखे होते सवालों और आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं. आप पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की बौखलाहट से ऐसा लगता है कि उनमें आलोचना सुनने की आदत नहीं है.

गोया वे भगवान हों जो गलतियाँ नहीं कर सकता और किसी भी तरह की आलोचना से परे है. आलोचना के हर सुर को वे संदेह और साजिश की तरह देख रहे हैं. वे अपनी गलतियों और कमजोरियों को देखने के लिए तैयार नहीं हैं. उल्टे गलतियाँ और कमियां बतानेवालों को निशाना बना रहे हैं.
 

लेकिन इसके लिए न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनल भी जिम्मेदार हैं. दिल्ली विधानसभा चुनावों में आप की कामयाबी के बाद चैनलों और अखबारों में जिस तरह से दिन-रात राग आप क्रांति बज रहा था और उसमें सिर्फ खूबियां ही खूबियां नजर आ रही थीं, वह किसी भी नेता, पार्टी और उसके समर्थकों का दिमाग खराब कर सकती है.
यही हुआ. चैनलों और अखबारों की अहर्निश प्रशंसा का नशा आप पार्टी के कई मंत्रियों, नेताओं और कार्यकर्ताओं के सिर चढ़कर बोल रहा है. कानून मंत्री सोमनाथ भारती हों या कवि-नेता कुमार विश्वास या फिर आप के अन्य नेता- उनके क्रियाकलापों, हाव-भाव और बयानों में अहंकार और आक्रामकता के अलावा आलोचनाओं के प्रति उपहास का रवैया साफ़ देखा जा सकता है.
लेकिन इससे न्यूज मीडिया का नहीं बल्कि आप पार्टी को नुकसान हो रहा है. केजरीवाल और उनके साथी अपने अंदर झांकने और अपनी गलतियों और कमियों को दूर करने के बजाय इसकी ओर इशारा करनेवाले न्यूज मीडिया को निशाना बनाकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं. चैनलों और अखबारों से लड़कर उन्हें कुछ हासिल होनेवाला नहीं है.

आखिर केजरीवाल से बेहतर कौन जानता है कि न्यूज मीडिया की सकारात्मक कवरेज आप पार्टी की आक्सीजन है? ‘आप’ को याद रखना चाहिए कि उन्होंने खुद सार्वजनिक जीवन में नैतिक आचार-विचार के इतने ऊँचे मानदंड तय किये हैं कि उन मानदंडों पर सबसे पहले उनकी ही परीक्षा होगी. वे इससे बच नहीं सकते हैं बल्कि उनपर कुछ ज्यादा ही कड़ी निगाह रहेगी या रहनी चाहिए. आखिर लोगों को उनसे बहुत उम्मीदें हैं.

लेकिन ‘आप’ के प्रति न्यूज मीडिया के रवैये में अचानक आए बदलाव और तीखी होती आलोचनाओं के पीछे कोई एजेंडा या पूर्वाग्रह नहीं है? यह मानना भी थोड़ा मुश्किल है.
क्या मीडिया के रुख में इस बदलाव के पीछे खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति नहीं देने या निजी बिजली कंपनियों की आडिट करवाने जैसे फैसलों की भी कोई भूमिका है? क्या चैनलों/अखबारों पर मोदी को ज्यादा और सकारात्मक कवरेज देने का दबाव नहीं है? हाल में कुछ संपादक किस दबाव के कारण हटाए गए हैं? कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.                 
('तहलका' के स्तम्भ 'तमाशा मेरे आगे' में प्रकाशित टिप्पणी)

सोमवार, फ़रवरी 03, 2014

सरोकारों और आदर्शों की मार्केटिंग और कारोबार के खतरे

कारपोरेट पत्रकारिता के मुकाबले वैकल्पिक पत्रकारिता को उसी बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूहों की मदद से खड़ा नहीं किया जा सकता

दूसरी और आखिरी क़िस्त

लेकिन सफलता की चमक ने तेजपाल और उनके समर्थकों की आँखों पर पट्टी बाँध दी थी. अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि तेजपाल जिस फिसलन के रास्ते पर बढ़ रहे थे लेकिन दूसरी ओर, ‘तहलका’ के साहसी, प्रतिबद्ध और मेहनती युवा पत्रकारों के सरोकारी और खोजी रिपोर्टों के कामों की चमक से उसे ढंकने में कामयाब हो रहे थे, उससे उन्हें भ्रम हो गया था कि उन्हें रोकनेवाला और उनपर सवाल उठानेवाला कोई नहीं है.
जाहिर है कि इस दुस्साहस को अपनी बेटी के समान कनिष्ठ सहयोगी पर यौन हमले जैसे नैतिक और आपराधिक स्खलन में पतित होना था. कहने की जरूरत नहीं है कि तरुण तेजपाल जैसे सितारे का इस तरह से पतित होना वैकल्पिक और जनहित की पत्रकारिता और दूसरे मानवीय मूल्यों, आदर्शों और सरोकारों के लिए एक बड़ा धक्का है.
लेकिन इसके साथ ही यह उन सभी लोगों के लिए एक सबक भी है जो बड़ी पूंजी की समझौता-परस्त पत्रकारिता के मुकाबले गरीबों, कमजोर और बेआवाज़ लोगों के हक में बेहतर मानवीय आदर्शों, सरोकारों और उद्देश्यों की वैकल्पिक पत्रकारिता करना चाहते हैं.

निस्संदेह, तेजपाल के पतन का सबसे बड़ा सबक यह है कि उद्देश्य और सरोकार बड़े होते हैं न कि उनके लिए काम करने का दावा करनेवाला पत्रकार-संपादक. दूसरे, आप जिन सिद्धांतों, मूल्यों और आदर्शों के पालन की अपेक्षा दूसरों से करते हैं, उनपर सबसे पहले आपको खुद खरा उतरना होगा. इसके बिना आप लोगों का भरोसा नहीं जीत सकते हैं.

तीसरे, सरोकारों और आदर्शों की मार्केटिंग और कारोबार का मतलब फिसलन और विचलन की शुरुआत है और जिसका अंत बहुत त्रासद होता है.

चौथे, वैकल्पिक पत्रकारिता के लिए सांस्थानिक ढांचा भी वैकल्पिक होना चाहिए. अगर ‘तहलका’ का ढांचा इतना व्यक्ति केंद्रित और अलोकतांत्रिक नहीं होता तो संस्थान में सुप्रीम कोर्ट के विशाखा फैसले के मुताबिक कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से निपटने की ज्यादा सक्रिय और पारदर्शी व्यवस्था होती.
पांचवां और सबसे महत्वपूर्ण यह कि बड़ी पूंजी की कारपोरेट पत्रकारिता के मुकाबले वैकल्पिक और सरोकारी पत्रकारिता को उसी बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूहों की मदद से खड़ा नहीं किया जा सकता है. इन दोनों में एक स्वाभाविक हितों का टकराव है जिसे बचा पाना असंभव है और जिसमें अंततः बड़ी और कारपोरेट पूंजी के हित ही भारी पड़ते हैं.   
लेकिन सवाल यह है कि क्या तरुण तेजपाल के विचलनों और अपराध की सजा ‘तहलका’ को दी जानी चाहिए? निश्चय ही, तेजपाल पर लग रहे आरोपों पर कानूनी फैसला आना बाकी है और उन्हें बचाव करने का पूरा हक है. यही नहीं, इस मामले की कई न्यूज चैनलों और अखबारों में जिस तरह से सनसनीखेज तरीके और एक परपीडक आनंद और चटखारे के साथ रिपोर्टिंग की गई, उनकी मंशा भी किसी से छुपी नहीं है.

लेकिन आरोपों की गंभीरता और साक्ष्यों को देखते हुए इस सच्चाई को अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि तेजपाल पर लगे आरोपों से ‘तहलका’ की साख पर असर पड़ा है. तरुण तेजपाल और ‘तहलका’ जिस तरह से एक-दूसरे के पर्याय बन गए थे, उसमें पत्रिका के लिए खुद को उस दाग से बचा पाना आसान नहीं है.

सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि यह एक ऐसी त्रासदी है जिसकी तेजपाल से अधिक कीमत ‘तहलका’ और उसके प्रतिबद्ध पत्रकारों को चुकानी पड़ रही है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि साख और विश्वसनीयता हासिल करने में बरसों लग जाते हैं लेकिन एक बड़ी भूल और गलती उसे मिनटों में मिट्टी में मिला सकती है. इस तथ्य के बावजूद कि ‘तहलका’ खासकर हिंदी संस्करण में युवा और प्रतिबद्ध पत्रकार पत्रिका की साख को बनाए रखने के लिए कटिबद्ध हैं, पत्रिका के लिए आनेवाले महीने चुनौती के होंगे.
उनके लिए यह परीक्षा की घड़ी है और निश्चय ही, उन्हें यह साबित करने का मौका दिया जाना चाहिए कि ‘तहलका’ का तेजपाल से अलग भी अस्तित्व है और वह वैकल्पिक पत्रकारिता के उन आदर्शों, सरोकारों और उद्देश्यों के लिए पहले से कहीं ज्यादा प्रतिबद्ध है.
खासकर ‘तहलका’ पर हो रहे उन दक्षिणपंथी-प्रतिक्रियावादी और भगवा ताकतों के हमलों का पर्दाफाश जरूर किया जाना चाहिए जो इस मौके का इस्तेमाल न सिर्फ ‘तहलका’ बल्कि दूसरे सभी प्रगतिशील और जनोन्मुखी वैकल्पिक पत्रकारिता के प्रयोगों को निशाना बनाने के लिए कर रहे हैं.

इसके साथ ही, न्यूज मीडिया ने तेजपाल प्रकरण में जिस तरह से उन्मत्त (हिस्टरिकल) मीडिया ट्रायल चलने की कोशिश की है, उससे इस आशंका को बल मिल रहा है कि वह ‘भीड़ न्याय’ (लिंच मॉब) मानसिकता को आगे बढ़ा रहा है. यह कहने का आशय कतई नहीं है कि न्यूज मीडिया को ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग नहीं करनी चाहिए या उसे दबाने-छुपाने की कोशिश करनी चाहिए.

इसके उलट ऐसे मामलों में न्यूज मीडिया से अतिरिक्त संवेदनशीलता और सक्रियता की अपेक्षा की जाती है. आरोपी जितना ताकतवर और प्रभावशाली हो, न्यूज मीडिया को उतने ही साहस और प्रतिबद्धता के साथ सच को सामने लाने की कोशिश करनी चाहिए.
लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि रिपोर्टिंग में पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों- तथ्यों की पुष्टि, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और अनुपातबोध का ध्यान नहीं रखा जाए. इस रिपोर्टिंग का उद्देश्य यह होना चाहिए कि सच सामने आए, यौन हिंसा की पीड़िता को न्याय मिले और अपराधी चाहे जितना बड़ा और रसूखदार हो, वह बच न पाए.
लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि यौन हिंसा के मामलों की रिपोर्टिंग में पूरी संवेदनशीलता बरती जाए. जैसे पीड़िता की पहचान गोपनीय रखी जाए और बलात्कार के चटखारे भरे विवरण और विस्तृत चित्रीकरण से हर हाल में बचा जाए. उसे सनसनीखेज बनाने के लोभ से बचा जाए.

लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि न्यूज मीडिया के एक बड़े हिस्से में ठीक इसका उल्टा हो रहा है. इस मामले को जिस तरह से सनसनीखेज तरीके से पेश किया जा रहा है और ‘भीड़ का न्याय’ (लिंच मॉब) मानसिकता को हवा दी जा रही है, उससे सबसे ज्यादा नुकसान न्याय का ही हो रहा है.

यही नहीं, न्यूज मीडिया की रिपोर्टिंग और चैनलों की प्राइम टाइम बहसों से ऐसा लग रहा है कि यौन उत्पीडन और हिंसा के मामले में खुद न्यूज मीडिया के अंदर सब कुछ ठीक-ठाक है और न्यूज मीडिया में एकमात्र ‘सड़ी मछली’ तेजपाल थे. तेजपाल मामले में चैनलों और अखबारों की अति सक्रियता कहीं उसी चोर भाव से तो नहीं निकल रही है?
झांसा देने के लिए चोर खुद बहुत जोरशोर से चिल्लाता है. क्या न्यूज मीडिया के शोर के पीछे भी यही वजह है? सच यह है कि न्यूज मीडिया में भी महिला पत्रकारों को उतना ही यौन उत्पीड़न झेलना पड़ता है जितना अन्य किसी भी प्रोफेशन में झेलना पड़ता है. खासकर हाल के वर्षों में जैसे-जैसे न्यूज मीडिया विशेषकर चैनलों में महिला कर्मियों की संख्या बढ़ी है, यौन उत्पीड़न की घटनाएं भी बढ़ी हैं.
लेकिन ज्यादातर मामलों में न्यूज मीडिया संस्थानों के अंदर के सामंती माहौल और पुरुषवादी वर्चस्व के कारण महिला पत्रकारों/कर्मियों के लिए उसे उठाना और न्याय पाना लगभग मुश्किल है. न्यूज मीडिया संस्थानों का प्रबंधन और नेतृत्वकर्ता संपादक शिकायतों को सुनने के लिए तैयार नहीं होते और उसे दबाने और छुपाने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखते हैं.

सच यह है कि न्यूज मीडिया के अन्तःपुर में कई तेजपाल हैं और उनके बारे में प्रबंधन सहित बहुतों को जानकारी है लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती है.

सच पूछिए तो तेजपाल प्रकरण इस मामले भी एक टेस्ट केस है कि कितने अखबारों और चैनलों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीडन और हिंसा के मामलों से तुरंत और सक्षम तरीके से निपटने और पीडितों को संरक्षण और न्याय दिलाने की सांस्थानिक व्यवस्था है?
क्या न्यूज मीडिया ने इसकी कभी आडिट की? तथ्य यह है कि इस मामले में पहले सुप्रीम कोर्ट के विशाखा निर्देशों और बाद में कानून बनने के बावजूद ज्यादातर अखबारों और चैनलों में कोई स्वतंत्र, सक्रिय और प्रभावी यौन उत्पीडन जांच और कार्रवाई समिति नहीं है या सिर्फ कागजों पर है.
क्या तेजपाल प्रकरण से सबक लेते हुए न्यूज मीडिया अपने यहाँ यौन उत्पीडन के मामलों से ज्यादा तत्परता, संवेदनशीलता और सख्ती से निपटना शुरू करेगा और अपने संस्थानों में प्रभावी और विश्वसनीय व्यवस्था बनाएगा? इसपर सबकी नजर रहनी चाहिए.

('कथादेश' के जनवरी'14 अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और आखिरी क़िस्त)

शुक्रवार, जनवरी 24, 2014

एक सितारे का पतन

बहुत पहले हो गई थी तेजपाल के फिसलन और विचलनों की शुरुआत

पहली क़िस्त

विडम्बना देखिए कि मुख्यधारा की कारपोरेट पत्रकारिता और उसके नैतिक विचलनों के खिलाफ आवाज़ उठानेवाली और खुद को वैकल्पिक पत्रकारिता के साथ जोड़नेवाली पत्रिका ‘तहलका’ के प्रधान संपादक तरुण तेजपाल अपनी ही एक युवा रिपोर्टर के साथ बलात्कार और यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोपों में जेल में हैं.
यही नहीं, युवा रिपोर्टर की शिकायत पर त्वरित, उचित और कानून के मुताबिक कार्रवाई न करने, मामले को दबाने और लीपापोती करने की कोशिश के आरोप में ‘तहलका’ की प्रबंध संपादक शोमा चौधरी को भी इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा है.
हालाँकि तेजपाल पर लगे आरोपों पर फैसला कोर्ट में होगा और उन्हें अपने कानूनी बचाव का पूरा हक है लेकिन इस मामले में तेजपाल ने खुद अपना स्टैंड जिस तरह से कई बार बदला है और पहले पश्चाताप के एलान के बाद अब उस युवा रिपोर्टर पर सवाल उठा रहे हैं, उसे लेखिका अरुंधती राय ने ठीक ही ‘दूसरा बलात्कार’ कहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि तेजपाल प्रकरण सामने आने और उससे सख्ती से निपटने में पत्रिका प्रबंधन की नाकामी के बाद ‘तहलका’ के आधा दर्जन से ज्यादा पत्रकारों ने इस्तीफा दे दिया है.

इस बीच, ‘तहलका’ की फंडिंग और खासकर तेजपाल के व्यावसायिक लेनदेन को लेकर भी गंभीर सवाल उठने लगे हैं. इस कारण एक संस्थान और पत्रिका के रूप में ‘तहलका’ के भविष्य पर भी गंभीर सवाल उठने लगे हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि ‘तहलका’ के संस्थापक तरुण तेजपाल पर लगे यौन उत्पीडन और बलात्कार के आरोपों और संदिग्ध व्यावसायिक लेनदेन और संबंधों के कारण पत्रिका की साख को गहरा धक्का लगा है और उससे उबरना आसान नहीं होगा.
यही नहीं, ‘तहलका’ पर जिस तरह से चौतरफा हमले हो रहे हैं, उसमें पत्रिका के लिए टिके रहना खासकर अपने युवा और वरिष्ठ पत्रकारों को पत्रिका के साथ खड़े रहने और इन हमलों का मुकाबला करने के लिए तैयार करना बड़ी चुनौती बन गया है.

यह सच है कि ‘तहलका’ की भंडाफोड और आक्रामक पत्रकारिता से नाराज और चिढ़ी राजनीतिक ताकतों और निहित स्वार्थी तत्वों खासकर भगवा ब्रिगेड ने इस मौके का फायदा उठाते हुए ‘तहलका’ पर हमले तेज कर दिए हैं.

यह किसी से छुपा नहीं है कि एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में रक्षा सौदों में दलाली के मामले के भंडाफोड के बाद भाजपा को जितनी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण से लेकर तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज को इस्तीफा देना पड़ा था, उस चोट को वे कभी भुला नहीं पाए.

यही नहीं, इसके बाद भी गुजरात के २००२ के दंगों के आरोपियों की स्टिंग आपरेशन के जरिये पहचान करवाने, उनके खिलाफ सबूत इकठ्ठा करने और उन्हें सजा दिलवाने में ‘तहलका’ की साहसिक पत्रकारिता की भूमिका किसी से छुपी नहीं है.
यह भी तथ्य है कि ‘तहलका’ के खुलासों से बौखलाई तत्कालीन एन.डी.ए सरकार ने उसे बर्बाद करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रहा. इसके अलावा भगवा संगठन हमेशा से ये आरोप लगाते रहे हैं कि ‘तहलका’ कांग्रेस समर्थक, पूर्वाग्रह-ग्रसित और हिंदू विरोधी है और केवल भाजपा या दूसरी भगवा ताकतों के भ्रष्टाचार, घोटालों और अपराधों को सामने लाने की कोशिश करता है.
लेकिन सच यह है कि ‘तहलका’ ने कोयला खान आवंटन घोटाले से लेकर महाराष्ट्र सिंचाई घोटाले तक कई ऐसे घोटालों का पर्दाफाश किया है जिसके निशाने पर कांग्रेस और उसके समर्थक दल रहे हैं.
इसके बावजूद जब तरुण तेजपाल ने जब अपनी कनिष्ठ सहयोगी के यौन उत्पीड़न और बलात्कार के आरोपों पर खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हुए इसे सांप्रदायिक ताकतों की साजिश बताने की कोशिश की तो यह साफ़ था कि वे खुद को बचाने के लिए धर्मनिरपेक्षता की आड़ ले रहे हैं.

ऐसा करते हुए वे न सिर्फ एक बहुत कमजोर और अनैतिक तर्क पेश कर रहे हैं बल्कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई को भी कमजोर कर रहे हैं. आखिर सांप्रदायिक शक्तियों को ‘तहलका’ के खिलाफ पलटवार करने का मौका किसने दिया?

क्या तरुण तेजपाल और शोमा चौधरी को मालूम नहीं था कि ‘तहलका’ और उसकी पत्रकारिता जिन ऊँचे आदर्शों, मूल्यों और प्रतिमानों की कसौटी पर राजनेताओं, अफसरों से लेकर बाकी दूसरे ताकतवर लोगों को कसती रही है, उसी कसौटी पर उसे भी खरा उतरना होगा?              

खासकर तब जब आप ताकतवर और प्रभावशाली लोगों की अनियमितताओं और अपराधों का पर्दाफाश करने में लगे हों और उनसे जवाबदेही मांग रहे हों, यह याद रखना चाहिए कि आपसे कहीं ज्यादा जवाबदेही मांगी जाएगी और ऊँची कसौटियों पर कसा जाएगा.

सवाल यह है कि एक ओर ‘तहलका’ महिलाओं के यौन उत्पीडन और बलात्कार के मामले जोरशोर से उठा रहा था, सोनी सोरी से लेकर मनोरमा देवी जैसे अनेकों मामलों पर अभियान चला रहा था और यहाँ तक कि गोवा के जिस थिंक-फेस्ट के दौरान तरुण तेजपाल पर अपनी कनिष्ठ सहयोगी के साथ बलात्कार और यौन उत्पीड़न के आरोप लगे हैं, वहां भी एक सत्र यौन उत्पीड़न और बलात्कार पीडितों के संघर्ष पर था लेकिन तरुण तेजपाल को अपनी सहयोगी पत्रकार, मित्र की बेटी और अपनी बेटी की दोस्त पर सख्त विरोध के बावजूद दो बार यौन हमला करने का साहस कहाँ से आया?

ऐसा लगता है कि तेजपाल जिन सरोकारों और उद्देश्यों की पत्रकारिता को आगे बढ़ाने का दावा कर रहे थे, उन उद्देश्यों और सरोकारों से खुद को बड़ा मान बैठने की भूल कर बैठे. उन्हें यह मुगालता हो गया कि वे खुद जनहित की पत्रकारिता के पर्याय बन गए हैं.
यह भी कि वे जैसे चाहेंगे, जनहित को पारिभाषित करेंगे और मुद्दे, सरोकार और उद्देश्य उनके पीछे चलेंगे. कहने की जरूरत नहीं है कि जैसे ही कोई व्यक्ति खुद को उन आदर्शों, मूल्यों, सरोकारों और उद्देश्यों से बड़ा और अहम मानने लगता है जिससे उसे पहचान और सम्मान मिला है, उसके फिसलन और विचलनों की शुरुआत हो जाती है.
तेजपाल भी इसके अपवाद नहीं हैं. मीडिया से आ रही रिपोर्टों से साफ़ है कि तेजपाल के फिसलन और विचलनों की शुरुआत बहुत पहले हो गई थी जब उन्होंने बड़ी पूंजी की कारपोरेट पत्रकारिता के जवाब में वैकल्पिक और जनहित पत्रकारिता को आगे बढ़ाने के नाम पर संदिग्ध उद्योगपतियों और व्यवसायियों से समझौते करने शुरू कर दिए.

‘तहलका’ के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के नामपर तेजपाल ने नैतिक रूप से संदिग्ध उपक्रम शुरू किये, जैसे व्यवसायियों के साथ हाथ मिलाये और खुद और परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ पैसे और संपत्ति बनाई, वह वैकल्पिक और सरोकारी जनहित की पत्रकारिता के मूल्यों और आदर्शों के कहीं से भी अनुकूल नहीं थे.

यही नहीं, तेजपाल के कुछ पूर्व सहयोगियों का आरोप है कि उन्होंने कुछ खोजी रिपोर्टें जैसे गोवा में अवैध खनन से संबंधित रिपोर्ट को प्रकाशित होने से रोक दिया और बदले में गोवा सरकार और खनन कंपनियों से अनुचित फायदा उठाया. गोवा के कुछ वरिष्ठ और सम्मानित पत्रकारों ने गोवा में नियमों को तोड़कर बने तेजपाल के बंगले और संपत्ति पर गंभीर सवाल उठाए हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन आरोपों में अगर जरा भी दम है तो यह तेजपाल पर लगे बलात्कार और यौन उत्पीड़न के आरोपों से कम गंभीर नहीं हैं. साफ़ है कि ‘तहलका’ के घोषित आदर्शों और सरोकारों के विपरीत नैतिक विचलन की शुरुआत बहुत पहले ही हो चुकी थी और उसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार खुद तेजपाल थे.
अफसोस और चिंता की बात यह है कि वैकल्पिक पत्रकारिता के दावों के बावजूद ‘तहलका’ का खुद का सांस्थानिक ढांचा इतना लोकतांत्रिक और पारदर्शी नहीं था कि उसमें तेजपाल की महत्वाकांक्षाओं और उसके कारण उनके नैतिक विचलनों पर अंकुश लगाया जा सकता.

ऐसा लगता है कि तेजपाल ‘तहलका’ को एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चला रहे थे जिसमें ‘तहलका’ की जनहित पत्रकारिता के घोषित उद्देश्य और सरोकार पीछे चले गए थे और निजी हित ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रभावी हो गए थे.

इसकी वजह यह थी कि ‘तहलका’ के घोषित उद्देश्यों और सरोकारों को सितारा (स्टार) समझने के बजाय तेजपाल खुद को स्टार समझने लगे थे और सरोकारों की मार्केटिंग और कारोबार में लग गए थे. उसकी स्वाभाविक परिणति अनैतिक समझौतों और विचलनों में ही होनी थी.

जारी.... 

('कथादेश' के जनवरी अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली क़िस्त)