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बुधवार, नवंबर 13, 2013

डौंडिया खेडा की कौतुक कथा

चैनलों के लिए गांव का मतलब अभी भी कौतुक है

भारत को भले ही गांवों का देश कहा जाता हो लेकिन अपने न्यूज चैनलों पर गांव बिरले ही दिखाई देते हैं. ऐसा नहीं है कि गांवों में खबरें नहीं हैं.
गहराते कृषि संकट से लेकर किसानों की आत्महत्याओं तक और गरीबी-भूखमरी से लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में मामूली बीमारियों से होनेवाली मौतों तक और सामंती जुल्म और मध्ययुगीन खाप पंचायतों की बर्बरता से लेकर विकास योजनाओं की लूट के बीच ग्रामीण समाज खासकर दबे-कुचले वर्गों, युवाओं और महिलाओं की उमड़ती आकांक्षाओं तक गांवों में खबरें ही खबरें हैं. 
लेकिन चैनलों की इन खबरों और उन्हें रिपोर्ट करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. कारण, उन्हें ये खबरें ‘डाउन मार्केट’ लगती हैं. उनका मानना है कि उनके शहरी मध्यवर्गीय दर्शकों की इसमें कोई रूचि नहीं है. नतीजा, चैनलों से गांव गायब हैं. कुछ इस हद तक कि उन्हें देखकर नहीं लगेगा कि भारत में गांव भी हैं जहाँ इस देश के ६० फीसदी से ज्यादा लोग रहते हैं.

चैनलों पर अगर कभी भूले-भटके गांव दिखते भी हैं तो उसकी वजह किसी बड़े नेता का उस गांव का दौरा होता है जिसके पीछे-पीछे चैनल और उनके पत्रकार गांव तक जाते और वैसे ही लौट आते हैं. फोकस नेता पर होता है और गांव पृष्ठभूमि में ही रहता है. राहुल गाँधी की टप्पल यात्रा याद कीजिए.

लेकिन ठहरिये, चैनल खुद अपनी पहले पर भी कभी-कभार गांव जाते हैं. उन्हें गांव की याद तब आती है जब वहां कोई बहुत असामान्य, अजीबोगरीब और कौतुकपूर्ण घटना हो. जैसे कुछ सालों पहले मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में एक ज्योतिषी कुंजीलाल ने एलान कर दिया कि वह दो दिन बाद मरनेवाला है.
फिर क्या था? उत्साह और उत्तेजना से भरे सारे चैनल अपनी ओ.बी वैन के साथ वहां पहुँच गए और कई दिनों तक कुंजीलाल को लाइव दिखाया गया. ऐसे ही, चैनलों ने हरियाणा के एक गांव में बोरवेल में गिरकर फंस गए ५ साल के प्रिंस को बचाने के अभियान की ७२ से ९६ घंटों तक लाइव कवरेज की थी.
इसी तरह, कारगिल युद्ध के दौरान लापता घोषित सैनिक के कुछ सालों पहले अचानक मेरठ के अपने गांव पहुँचने, वहां उसकी पूर्व पत्नी की दूसरी शादी और उससे पैदा हुए प्रसंग को चैनलों ने जबरदस्त मेलोड्रामा बनाकर पेश किया. कई दिनों तक उस गांव में चैनलों का मेला लगा रहा.

इसी कड़ी में इस बार उन्नाव के डौंडिया खेडा की लाटरी खुल गई जहाँ एक बाबा शोभन सरकार को सपना आया कि गांव के एक किले के नीचे हजार टन सोना दबा है. कहते हैं कि बाबा और उनके शिष्यों ने एक केन्द्रीय मंत्री को प्रेरित किया और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ए.एस.आई) वहां खुदाई करने पहुँच गया.

ऐसे में, चैनल कहाँ पीछे रहनेवाले थे? ए.एस.आई के पीछे-पीछे चैनल भी बाबा के सपने सोने पर दांव लगाने पहुँच गए. चैनलों पर डौंडिया खेडा लाइव शुरू हो गया. गांव में मीडिया का पूरा मेला सा लग गया. चैनलों की उत्तेजना और उत्साह देखते ही बनता था.
डौंडिया खेडा जल्दी पीपली लाइव में बदल गया. 24x7 पल-पल की रिपोर्ट दी जाने लगी- ‘कितनी, कैसे और कहाँ खुदाई हुई, किन औजारों का इस्तेमाल किया गया, खुदाई की नई तकनीक क्या है, वहां क्या माहौल है’ से लेकर बाबा शोभन सरकार के रहस्य और सोना मिलेगा या नहीं, कितना सोना मिलेगा, उसपर किसका अधिकार होगा और हजार टन सोने से देश की कितनी समस्याएं हल हो जाएंगी आदि-आदि.
यह और बात है कि यहाँ भी डौंडिया खेडा पृष्ठभूमि में और सोने की खोज की कौतुक कथा फोकस में थी. अफ़सोस, अन्धविश्वास के सोने की चमक से चौंधियाए चैनलों को एक बार फिर डौंडिया खेडा जैसे गांवों का असली दर्द नहीं दिखाई दिया.

असल में, कुंजीलाल, गुडिया, प्रिंस से शोभन सरकार तक चैनलों की गांव यात्रा और कुछ नहीं, कौतुक कथाओं की खोज भर है. चैनलों के लिए गांव का मतलब अभी भी कौतुक बना हुआ है. डौंडिया खेडा इसका ताजा सबूत है. 

('तहलका' के 15 नवम्बर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)             

सोमवार, सितंबर 23, 2013

अपराधी से घृणा और अपराध का महिमामंडन

आशाराम की पोल खोलने में जुटे चैनलों पर निर्मल बाबा से लेकर स्वामियों-बाबाओं-बापूओं का महिमामंडन क्यों है?

खुद को ‘बापू’ और ‘संत’ कहनेवाले आशाराम अपने एक भक्त की बेटी के साथ यौन दुर्व्यवहार के आरोप में जेल पहुँच गए हैं. ये वही आशाराम हैं जिन्होंने पिछले साल दिल्ली में १६ दिसंबर की बर्बर बलात्कार की घटना के बाद महिलाओं को भारतीय संस्कृति के पालन का ‘उपदेश’ देते हुए कहा था कि, ‘अगर वह लड़की बलात्कारियों को भैय्या कहके बुलाती तो उसके साथ बलात्कार नहीं होता.’ हालाँकि आशाराम और उनके आश्रम पर पहले भी ऐसे आरोप लगे हैं लेकिन वे हर बार बच निकले.
इस बार भी गिरफ्तारी से बचने के लिए उन्होंने सभी पैंतरे आजमाए. उनके खुले-छिपे समर्थकों ने भी ‘बापू’ को बचाने के लिए पत्रकारों को पीटने से लेकर उपद्रव करने तक और इसे हिंदू धर्म पर हमला बताने तक, क्या कुछ नहीं किया लेकिन  आशाराम बच नहीं पाए.

निस्संदेह इसका श्रेय काफी हद तक चैनलों और अखबारों को जाता है. पुलिस-प्रशासन और राज्य सरकार पर दबाव बनाने के लिए कुछ असहमतियों के बावजूद न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की आक्रामक कवरेज की प्रशंसा करनी पड़ेगी.

इस कवरेज का कारण भले ही इस मामले के साथ जुड़ी सनसनी, विवाद और उससे मिलनेवाली टीआरपी रही हो लेकिन यह भी सच है कि अगर चैनलों ने इसे मुद्दा नहीं बनाया होता और आशाराम के पिछले कारनामों की पोल नहीं खोली होती (‘आजतक’ का स्टिंग आपरेशन) तो ‘बापू’ एक बार फिर पुलिस को ठेंगा दिखाते हुए मजे में घूम रहे होते.

लेकिन आशाराम अकेले नहीं हैं. धर्म का कारोबार, लोगों की आस्था से खिलवाड़ करनेवाले और धर्म की आड़ में गैर-कानूनी कामों में लगे उन जैसे बहुतेरे संत, बापू, स्वामी, महाराज, श्री-श्री और मौलवी-खादिम हैं जो धड़ल्ले से लोगों को बेवकूफ बनाने और कानून की आँखों में धूल झोंकने में लगे हुए हैं.
अफ़सोस की बात यह है कि इनमें से कई न्यूज मीडिया और चैनलों के बनाए और चढाये हुए हैं. इनमें से कई अपने संदिग्ध कारनामों के बावजूद न्यूज चैनलों पर चमक रहे हैं और सुबह-सवेरे उनके उपदेश अहर्निश जारी हैं. जैसे विवादों और आलोचनाओं के बावजूद निर्मल बाबा की ‘कृपा’ कई चैनलों पर बरस रही है.
यही नहीं, चैनलों पर खूब लोकप्रिय एक योगगुरु स्वामी तो योग से इतर सभी विषयों, यहाँ तक कि देश की अर्थनीति-विदेशनीति पर भी बोलते दिख जाएंगे. चैनल उनके ‘एक्सक्लूसिव’ इंटरव्यू दिखाने के लिए लाइन लगाए रहते हैं. 

हैरानी की बात नहीं है कि आशाराम के खिलाफ अभियान चलानेवाले चैनलों में से कई उनके ‘एक्सक्लूसिव’ इंटरव्यू दिखाने में भी एक-दूसरे से होड़ कर रहे थे. क्या पता वे पत्रकारीय संतुलन का पालन करने की कोशिश कर रहे हों! शायद इसी संतुलन धर्म के तहत वे आज भी पूरी आस्था से अंधविश्वास बढ़ानेवाले कार्यक्रम और रिपोर्टें दिखाते रहते हैं.

चैनलों पर ज्योतिष और दैनिक भाग्य बताने वाले कार्यक्रम भी दिखाए जा रहे हैं और अखबारों में ज्योतिष-भाग्यफल के अलावा विज्ञापनों में काला जादू, भूत भगाने, वशीकरण से लेकर लंबे होने के नुस्खे खुलेआम बेचे जा रहे हैं.
हालाँकि दवा और जादुई उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) कानून’१९५४ के मुताबिक, ऐसे विज्ञापन गैर-कानूनी हैं लेकिन कुछ चैनलों और खासकर हिंदी और भाषाई अखबारों में क्लासिफाइड विज्ञापनों में उनकी भरमार रहती है. फिर क्या चैनल आशाराम के मामले में नाख़ून कटाकर शहीद बनने की कोशिश कर रहे हैं?
लगता तो ऐसा ही है. असली बापू ने कहा था कि अपराधी नहीं, अपराध से घृणा करो. लेकिन लगता है कि आशाराम के खिलाफ मुहिम चलानेवाला न्यूज मीडिया अपराधी से घृणा और अपराध के महिमामंडन में यकीन करता है. 

('तहलका' के 30 सितम्बर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)      

शनिवार, अप्रैल 28, 2012

निर्मल बाबा और चैनलों की बंद आँख

निर्मल बाबा मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के नए ‘एगोनी आंट’ या ‘संकटमोचक’ हैं

कहते हैं कि भक्ति में बहुत शक्ति है. लेकिन भक्ति से ज्यादा शक्ति बाबाओं/बापूओं/स्वामियों में है. विश्वास न हो तो चैनलों को देखिये, जहाँ भक्ति से ज्यादा बाबा/बापू/स्वामी छाए हुए हैं. यह ठीक है कि चैनलों पर बाबाओं/बापूओं/स्वामियों की मौजूदगी कोई नई बात नहीं है. आधा दर्जन से अधिक धार्मिक चैनलों पर चौबीसों घंटे इन बाबाओं/बापूओं/स्वामियों का अहर्निश प्रवचन और उससे अधिक उनकी लीलाएं चलती रहती हैं.
लेकिन इन बाबाओं का साम्राज्य सिर्फ धार्मिक चैनलों तक सीमित नहीं है. मनोरंजन चैनलों से लेकर न्यूज चैनलों तक पर भी सुबह की कल्पना उनके बिना संभव नहीं है. इन बाबाओं/बापूओं/स्वामियों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि धर्म और ईश्वर भक्ति से उनका बहुत कम लेना-देना है. वे भक्तों को ईश्वर भक्ति की सही राह दिखाने से ज्यादा उनकी समस्याओं के हल बताने में दिलचस्पी लेते हैं. वे लाइलाज बीमारियों की दवाइयां बेचते/बांटते हैं.
यही नहीं, उनमें से कई जीवन-जगत की सभी समस्याओं को अपने पेड शिविरों में योग और ध्यान लगाकर दूर करने से लेकर शनिवार को काली बिल्ली को पीला दूध और काले तिल के सफ़ेद लड्डू जैसे टोटकों से विघ्नों/कठिनाइयों को साधने के रास्ते सुझाते दिखते हैं. ये नए जमाने के बाबा हैं जिन्हें चैनलों ने बनाया और चढ़ाया है और जो अब चैनलों को बना/चढ़ा रहे हैं.
इन्हीं में से एक निर्मल बाबा आजकल सुर्ख़ियों में हैं. कुछ अपवादों को छोडकर हिंदी के अधिकांश न्यूज चैनलों पर वे छाए हुए हैं. हिंदी न्यूज चैनलों पर उनका प्रायोजित कार्यक्रम “थर्ड आई आफ निर्मल बाबा” यानी निर्मल बाबा की तीसरी आँख इन दिनों सबसे हिट कार्यक्रमों में से है.
रिपोर्टों के मुताबिक, यह कार्यक्रम हिंदी न्यूज चैनलों के टाप ५० कार्यक्रमों की सूची में ऊपर से लेकर नीचे तक छाया हुआ है. कहने की जरूरत नहीं है कि उनके कार्यक्रम की ऊँची टी.आर.पी और कार्यक्रम दिखाने के लिए बाबा से मिलने वाले मोटे पैसों के कारण इन दिनों चैनलों में निर्मल बाबा की तीसरी आँख दिखाने की होड़ सी लगी हुई है.
लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि देश को निर्मल बाबा और उनकी तीसरी आँख देने का बड़ा श्रेय चैनलों को जाता है. हालाँकि चैनलों ने देश को पहले भी कई बाबा/बापू/स्वामी दिए हैं लेकिन निर्मल बाबा शायद पहले ऐसे बाबा हैं जिनका पूरा कारोबार चैनलों के आशीर्वाद से खड़ा और फल-फूला है.
उनसे पहले इंडिया टी.वी और कुछ और चैनलों के सहयोग से दाती महाराज (मदन लाल राजस्थानी) उर्फ शनिचर बाबा ने खासी लोकप्रियता (और दान-दक्षिणा) बटोरा था. वैसे चैनलों की मदद से कारोबार चमकाने वाले बाबाओं/स्वामियों में स्वामी रामदेव का कोई जवाब नहीं है और उनकी सफलता ने बहुतेरे बाबाओं/बापूओं/स्वामियों को चैनलों की ओर आकर्षित किया.
इसके बावजूद मानना होगा कि रामदेव कम से कम योग/कसरत पर मेहनत करते हैं. लेकिन निर्मल बाबा को अपना शरीर भी बहुत हिलाना-डुलाना नहीं पड़ता है. वे हर मायने में ‘अद्दभुत’ और अनोखे हैं. वे मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के नए ‘एगोनी आंट’ या ‘संकटमोचक’ हैं जिसके पास शादी न होने से लेकर नौकरी न मिलने और कारोबार न चलने से लेकर पति के दूसरी महिला के चक्कर में फंसने जैसे आम मध्यमवर्गीय समस्याओं/उलझनों का बहुत आसान और शर्तिया इलाज है.
यह इलाज बटन धीरे-धीरे खोलने से लेकर दायें के बजाय बाएं हाथ से पानी पीने और दस के बजाय बीस रूपये का भोग चढाने तक कुछ भी हो सकता है. हंसिए मत, यही निर्मल बाबा की सफलता का राज है. असल में, निर्मल बाबा के इलाज बहुत आसान, सस्ते और दिलचस्प हैं. इन टोटकों पर अमल करने में किसी एब या आदत को छोड़ना नहीं पड़ता, बहुत समय और उर्जा नहीं खर्च करनी पड़ती और समस्या के हल होने की ‘उम्मीद’ बनी रहती है.
ये नए किस्म के अन्धविश्वास हैं. बाबा चैनलों की ‘साख’ का सहारा लेकर उन्हें आसानी से भक्तों के गले में उतार देते हैं. नतीजा, बाबा के निर्मल दरबार में “भक्तों की भीड़” लगी हुई है. चैनलों पर इस भीड़ और बाबा की जय-जयकार सुनकर मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के सैकड़ों और दुखियारे बाबा के दरबार में पहुँच रहे हैं.
रिपोर्टों के मुताबिक, बाबा के इन शंका समाधान शिविरों में प्रवेश के लिए दो हजार रूपये देने पड़ते हैं. कहते हैं कि इन शिविरों से बाबा करोड़पति हो गए हैं. हालाँकि पैसा देकर आनेवाले इन दुखियारों में से बहुत कम को ही सवाल पूछने का मौका मिल पाता है क्योंकि आरोप हैं कि ज्यादातर सवाल पूछनेवाले बाबा के ही चेले और यहाँ तक कि मासिक तनख्वाह पर काम करनेवाले टी.वी के जूनियर आर्टिस्ट होते हैं.
बाबा की दूकान सजाने में इनकी बहुत बड़ी भूमिका है. चैनल देखने वाले लोगों को लगता है कि उनकी तरह के ही लोगों की, उन जैसी ही समस्याओं को बाबा किस तरह चुटकी बजाते हल किये दे रहे हैं. इस तरह बाबा का कारोबार फैलता जा रहा है. वह एक चैनल से शुरू होकर अनेक चैनलों पर पहुँच चुका है. लेकिन ऐसा लगता है कि चैनलों ने बाबा की तीसरी आँख के चक्कर में अपनी आँखें बंद कर ली हैं.
उन्हें बाबा की दिन-दहाड़े की ठगी नहीं दिख रही है. उन्हें यह नहीं दिख रहा है कि बाबा अपने भक्तों को किस तरह खुलेआम बेवकूफ बना रहे हैं. अंधविश्वासों को मजबूत कर रहे हैं. लोगों की समस्याओं और भावनाओं से खेल रहे हैं. यह ठीक है कि निर्मल बाबा का यह कार्यक्रम प्रायोजित या एक तरह का विज्ञापन कार्यक्रम है. लेकिन क्या प्रायोजित कार्यक्रमों की कोई आचार संहिता नहीं होती है?
क्या इसपर कार्यक्रम या विज्ञापन कोड लागू नहीं होता है जो साफ तौर पर अंधविश्वास, जादू और टोटकों के प्रचार या महिमामंडन को प्रतिबंधित करता है? क्या यह ड्रग एंड मैजिकल रिमेडीज (आब्जेक्शनल एडवर्टीजमेंट) कानून के उल्लंघन का मामला नहीं है? आखिर बाबा मैजिकल रिमेडीज नहीं तो और क्या बेचते हैं?

आखिर चैनलों की आँख सरकार के डंडे के बिना क्यों नहीं खुलती है? सबसे अफसोस की बात यह है कि यह कार्यक्रम देश के कुछ प्रतिष्ठित न्यूज चैनलों पर चल रहा है जो स्व-नियमन के सबसे अधिक दावे करते हैं. अच्छी बात यह है कि एक बार फिर सोशल और न्यू मीडिया में इस मुद्दे पर चैनलों की खूब थू-थू हो रही है. देखें, चैनलों के ‘ज्ञान चक्षु’ कब खुलते हैं?

टिप्पणी : "तहलका" के लिए यह आलेख ११-१२ अप्रैल को लिखा गया जो उनके ३० अप्रैल के अंक में छपा है..उस समय न्यूज एक्सप्रेस और न्यू मीडिया की वेबसाईट और सोशल मीडिया को छोड़कर सारे चैनल निर्मल बाबा पर चुप्पी साधे हुए थे..लेकिन इस बीच, स्टार और आजतक समेत कई और चैनलों ने बाबा की पोल खोलनी शुरू कर दी है..लेकिन इस आलेख में उठाये गए कई सवाल मौजूं बने हुए है...आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा.    

रविवार, अप्रैल 22, 2012

कृपा का फलता-फूलता कारोबार

धर्म और आस्था के नाम पर लोगों को उल्लू बनानेवाले कारोबारी बाबाओं/स्वामियों/बापूओं की देश में कमी नहीं

कहते हैं कि समय बदलते देर नहीं लगती है. लोगों की धार्मिक आस्थाओं को भुनाने और अपना उल्लू सीधा करने में लगे आधुनिक बाबा/स्वामी/बापू आदि भी इसके अपवाद नहीं हैं. लगता है कि ‘कृपा के कारोबार’ के नए सौदागर निर्मल बाबा उर्फ निर्मलजीत सिंह नरूला से भी आख़िरकार समय और उन्हें आसमान पर चढानेवाले चैनलों ने मुंह फेर लिया है. नतीजा यह कि निर्मल बाबा की ‘तीसरी आँख’ की इन दिनों चैनलों और अखबारों में खूब छिछालेदर हो रही है.
कल तक बाबा की कृपा के लिए उनकी उल्टी-सीधी सलाहों को आँख मूंदकर पालन करनेवाले उनके भक्त उनके खिलाफ धोखाधड़ी के मामले दर्ज करा रहे हैं और सुबह-दोपहर-शाम ‘थर्ड आई आफ निर्मल बाबा’ उर्फ निर्मल दरबार सजाने वाले ३५ से ज्यादा देशी-विदेशी चैनलों में कई की आँखें खुल गई हैं और वे उनकी पोल खोलने में जुट गए हैं.
हालाँकि बाबा अब भी मैदान में डटे हैं, उनकी टीम मीडिया मैनेज करने में जुटी है लेकिन उनके दरबार में भक्तों की भीड़ घटने लगी है और उससे ज्यादा उनके बैंक एकाउंट पर भक्तों की कृपा सूखने लगी है. इसके बावजूद यह कहना मुश्किल है कि निर्मल बाबा और उन जैसे दूसरे बाबाओं/स्वामियों/बापूओं का खेल खत्म हो गया है.
सच यह है कि धर्म और आस्था के नाम पर लोगों को उल्लू बनानेवाले कारोबारी बाबाओं/स्वामियों/बापूओं की देश में कमी नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई बाबाओं के ‘चमत्कारों’ और आपराधिक कारनामों का देर-सबेर पर्दाफाश भी हुआ है. इसके बावजूद धर्म और आस्था के कारोबार में कोई कमी नहीं आई है बल्कि उत्तर उदारीकरण-भूमंडलीकरण के इस दौर में मीडिया-बिजनेस-इवेंट मैनेजमेंट के ज्वाइंट वेंचर के रूप में वह एक संगठित उद्योग बन गया है जिसका टर्न-ओवर तेजी से बढ़ता जा रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि न्यूनतम निवेश और मंदी से अप्रभावित हजारों करोड़ रूपयों के इस सनराइज उद्योग के जबरदस्त मुनाफे (रेट आफ रिटर्न) ने पिछले कुछ वर्षों में भांति-भांति के उद्यमियों को आकर्षित किया है. इस उद्योग और कारोबार का कानून और किसी भी तरह के रेगुलेशन से बाहर होना भी आकर्षण की एक बड़ी वजह है. 
आश्चर्य नहीं कि जो निर्मलजीत सिंह नरूला कपड़े से लेकर ईंट-भट्ठे के कई कारोबारों में नाकाम रहा, निर्मल बाबा बनते ही उसका कारोबार सैकड़ों करोड़ रूपये में पहुँच गया. सचमुच, निर्मल बाबा का चमत्कारिक उदय और खुद बाबा के शब्दों में उनके कृपा के कारोबार का सालाना टर्न-ओवर २३५ करोड़ रूपये से अधिक पहुँच जाना इस धर्म और आस्था उद्योग की सफलता और संभावनाओं का चौंकानेवाला उदाहरण है.
हालाँकि निर्मल बाबा इस कारोबार के अकेले खिलाड़ी नहीं हैं और न ही सबसे बड़े खिलाडी हैं. उन जैसे दर्जनों खिलाडियों का धंधा अभी भी चोखा है और उनका टर्न-ओवर ५०० से लेकर १५०० हजार करोड़ रूपये के बीच है. लेकिन निर्मल बाबा परिघटना कई मायनों में सबसे अलग और हैरान करनेवाली है.             
इसमें कोई दो राय नहीं है कि निर्मल बाबा की तीसरी आँख की कारोबारी सफलता उत्तर उदारीकरण दौर में मध्य और निम्न-मध्यवर्ग के असीमित लालच और जल्दी से जल्दी सफलता के शार्टकट की खोज और दूसरी ओर, बढ़ती आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा से निपटने में उसकी नाकामी के बीच से निकली है. असल में, उदारीकरण-भूमंडलीकरण के साथ भारतीय समाज के एक छोटे से हिस्से में आई समृद्धि और उसकी चकाचौंध ने मध्य और निम्न-मध्यवर्ग की लालसाओं को भी भडका दिया है. वह भी सफलता के शार्टकट खोज रहा है. शेयर बाजार से लेकर ऐसे ही दूसरे जोखिम भरे कारोबारों के जरिये रातों-रात अमीर होने के ख्वाब देख रहा है.
इस जोखिम भरे रास्ते में उसे किसी चमत्कार और साथ ही साथ, ‘बीमा’ की जरूरत है जो निर्मल बाबा अपने समोसों/रसगुल्लों जैसे आसान और सहज टोटकों से मुहैय्या करा रहे थे. आश्चर्य नहीं कि बाबा के समागम में ऐसे लोगों की तादाद अच्छी-खासी थी जो दो हजार रूपये की फीस देकर बाबा की कृपा सीधे अपने पर्स में हासिल कर रहे थे.  
दूसरी ओर, निर्मल बाबा के भक्तों में उदारीकरण-भूमंडलीकरण के मारे निम्न-मध्यवर्गीय दुखियारों की संख्या भी बहुत ज्यादा है जो अपने डूबते छोटे-मोटे काम-धंधों और व्यापार/कारोबार में बरकत से लेकर असाध्य/अनजानी बीमारियों के इलाज और अतृप्त इच्छाओं के समाधान की उम्मीद में बाबा के दरबार में अपनी बची-खुची संपत्ति भी लुटाने के लिए तैयार थे.
यह किसी से छुपा नहीं है कि आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में परंपरागत काम-धंधे और छोटे-मोटे कारोबार गहरे संकट में हैं और दूसरी ओर, रोजगार के नए अवसर सूखते जा रहे हैं या जो हैं उनमें भी काम का दबाव बहुत ज्यादा, वेतन कम, बदतर सेवा शर्तें और असुरक्षा बहुत ज्यादा है. उसे बेहतर अवसरों और मानसिक शांति की तलाश है जो मौजूदा व्यवस्था में दिन पर दिन दुर्लभ होता जा रहा है.
हालाँकि इस मध्यवर्ग की आकांक्षाएं कम नहीं हैं लेकिन उनका आर्थिक-सामाजिक यथार्थ उनका रास्ता रोके खड़ा है और मुश्किल यह कि भारतीय राज्य उसे किसी तरह की सामाजिक/आर्थिक सुरक्षा देने के लिए तैयार नहीं है. ऐसे में, इस डूबते हुए मध्यवर्ग को निर्मल बाबा में तिनके का सहारा दिखता है.
लेकिन इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण विस्थापित और असुरक्षित हुए मध्यवर्ग की सुध लेने के लिए न भारतीय राज्य तैयार है और न और कोई राजनीतिक-सामाजिक संगठन-समुदाय. उसके पास धर्म और आस्था की शरण में जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. लेकिन अफसोस यह कि यहाँ भी उसे निर्मल बाबा और धोखा ही मिल रहा है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि धर्म और आस्था को भी निर्मल बाबा जैसे कारोबारियों ने अपहृत कर लिया है.
लेकिन यह कहानी अधूरी रह जाएगी अगर निर्मल बाबा के उदय और उन्हें एक तरह की प्रतिष्ठा और साख देने में उदारीकरण की एक और संतान टी.वी चैनलों की भूमिका को रेखांकित न किया जाये. सच पूछिए तो ‘थर्ड आई आफ निर्मल बाबा’ नामक यह पूरा उपक्रम टी.वी चैनलों, इवेंट मैनेजमेंट और नए माध्यमों के जरिये खड़ा हुआ.
यही नहीं, इसका पूरा ढांचा और कार्यप्रणाली किसी भी कारपोरेट कंपनी से कम नहीं है जहाँ समागम में भागीदारी से लेकर दसवंद दान की पूरी व्यवस्था अत्यंत आधुनिक, आनलाइन और सक्षम है. इस मायने में निर्मल बाबा सचमुच उत्तर आधुनिक बाबा हैं जिन्होंने धर्म और कृपा को उपभोक्ताओं की जरूरत के मुताबिक इतना आसान और सहज बना दिया कि धर्म पालन की कठिन परीक्षाएं और जटिलताएं चुटकियों में आसान हो गईं.
नतीजा, कृपा की उम्मीद में दोनों हाथों से पैसा लुटा रहे लोगों के हाथ भले कुछ न आया हो, बाबा का टर्न-ओवर २३५ करोड़ रूपये से ऊपर पहुँच गया. लेकिन बाबा के कारोबार का ग्राफ जितनी तेजी से ऊपर चढ़ा, उतनी ही तेजी से नीचे भी गिरने लगा है.
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि निर्मल बाबा जैसे और बाबाओं का कारोबार खत्म हो गया. सच यह है कि जब तक मौजूदा सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां लोगों में असीमित लालसाएं और असुरक्षा पैदा करती रहेंगी, निर्मल बाबा जैसे बाबाओं का धंधा मंदा नहीं पड़नेवाला है. 

('राजस्थान पत्रिका' के रविवारीय संसकरण में २२ अप्रैल'१२ को प्रकाशित आलेख का असंपादित रूप..आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा.)