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रविवार, फ़रवरी 16, 2014

मोदीनोमिक्स की सच्चाई

गैर बराबरी बढ़ानेवाली नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार हैं मोदी  

हालिया चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में लोकसभा चुनावों में एन.डी.ए के सत्ता के करीब पहुँचने और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की बढ़ती संभावनाओं से भाजपा नेताओं और समर्थकों के बाद सबसे ज्यादा खुशी कारपोरेट जगत और मुंबई शेयर बाजार को हुई है.
आश्चर्य नहीं कि शेयर बाजार तुरंत उछलने लगा, कारपोरेट जगत ने अर्थव्यवस्था के लिए स्थिर सरकार की जरूरत बताते हुए संतोष जाहिर किया और गुलाबी अखबारों ने राहत की सांस ली. निश्चय ही, भारतीय अर्थव्यवस्था की कमजोर स्थिति के कारण अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी- मूडी की रेटिंग गिराने (डाउनग्रेड) की चेतावनी के बावजूद मोदी के सत्ता में आने की ‘खबर’ से उछलते शेयर बाजार की खुशी बहुत कुछ कहती है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और उसके कारपोरेट प्रतिनिधियों ने इस बार लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी पर दांव लगाया है और वे हर हाल में उन्हें प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं. इसकी वजह भी किसी से छुपी नहीं है.

घोषित तौर पर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को नरेन्द्र मोदी में एक “सख्त, निर्णायक और परिणामोन्मुखी” प्रशासक दिखाई पड़ रहा है जो अर्थव्यवस्था को मौजूदा “संकट” और “नीतिगत लकवे” की स्थिति से बाहर निकालकर पटरी पर ला सकता है. कार्पोरेट्स की मोदी में इस भरोसे की बड़ी वजह यह है कि गुजरात में मोदी ने यह करके दिखाया है.

असल में, कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी पूंजी को नरेन्द्र मोदी से बहुत उम्मीदें हैं. उसे लगता है कि मौजूदा परिस्थितियों में मोदी में ही वह राजनीतिक कौशल और क्षमता है कि वे कारपोरेट-परस्त नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों के हलक में उतार और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को और अधिक रियायतें और छूट दे सकते हैं.
कार्पोरेट्स को अच्छी तरह से पता है कि अगले दौर के आर्थिक सुधार आसान नहीं हैं और उन्हें लागू करने में कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार की नाकामी के बाद मोदी से ही उम्मीदें बची हैं. हैरानी की बात नहीं है कि नव उदारवादी अर्थशास्त्रियों से लेकर शेयर बाजार के सटोरियों तक और बड़ी पूंजी के मुखपत्र गुलाबी अखबारों से लेकर औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठनों जैसे फिक्की, सी.आई.आई आदि तक सभी खुलकर मोदी की वकालत कर रहे हैं.
दूसरी ओर, मोदी भी कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने में पीछे नहीं हैं. उदाहरण के लिए, पिछले महीने गांधीनगर में उद्योगपतियों के बड़े संगठन- फिक्की की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी ने कार्पोरेट्स की हर मांग पर मोहर लगाई.

कार्पोरेट्स ने मोदी के सामने श्रम सुधारों यानी श्रम कानूनों को ढीला करने, स्थाई नौकरियों की जगह कांट्रेक्ट व्यवस्था, हायर एंड फायर यानी जब चाहें भर्ती और जब चाहें छंटनी और यूनियनों को काबू में करने के अलावा रक्षा उत्पादन के निजीकरण की मांगें उठाईं. मोदी ने वायदा किया कि वे श्रम को राज्य विषय बना देंगे और निजी पूंजी निवेश को बढ़ाने के लिए सभी अनुकूल उपाय करेंगे.

लेकिन मोदी यहीं नहीं रुके. उन्होंने कहा कि वे सत्ता में आयेंगे तो ‘टैक्स आतंकवाद’ खत्म करेंगे. आखिर यह ‘टैक्स आतंकवाद’ क्या है? असल में, देशी-विदेशी कार्पोरेट्स पिछले कई महीनों से वोडाफोन, आई.बी.एम से लेकर नोकिया और दूसरी कई कंपनियों के मामले में आयकर विभाग द्वारा टैक्स नोटिस जारी करने को टैक्स आतंकवादबता रहे हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियाँ टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का चतुराई से फायदा उठाकर टैक्स देने से बचने से लेकर वास्तविक टैक्स से कम टैक्स देती रही हैं. मजे की बात यह है कि हर साल केन्द्र सरकार कार्पोरेट्स और अमीरों को साढ़े चार लाख करोड़ रूपये से अधिक की टैक्स छूट और रियायतें देती रही हैं.
इसके बावजूद कार्पोरेट्स वास्तविक टैक्स देने से बचने के लिए तीन-तिकडम करते रहे हैं. इससे हर साल सरकारी खजाने को हजारों करोड़ रूपये का चूना लगता है. उल्लेखनीय है कि वोडाफोन को ११ हजार करोड़ रूपये से ज्यादा का टैक्स भरने की नोटिस दी गई थी. ऐसे और कई मामले हैं लेकिन ये कम्पनियाँ इसे ज्यादती बताते हुए टैक्स भरने के लिए तैयार नहीं हैं.

तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने इन कंपनियों से टैक्स वसूलने के लिए टैक्स कानून में संशोधन करके पीछे से टैक्स वसूलने (रेट्रोस्पेक्टिव) का प्रावधान शामिल किया था. इसके अलावा टैक्स देने से बचने की तिकड़मों पर अंकुश लगाने के लिए गार नियम लाये गए थे लेकिन कार्पोरेट्स ने इन प्रावधानों पर खूब हंगामा किया, इसे निवेश विरोधी बताया और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को इन्हें ठंडे बस्ते में डालने के लिए मजबूर कर दिया.

कहने की जरूरत नहीं है कि कार्पोरेट्स इसी रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स प्रावधान और गार नियमों को ‘टैक्स आतंकवाद’ कहते हैं जिससे मोदी निजात दिलाने का वायदा कर रहे हैं. यह और बात है कि इससे टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का लाभ उठानेवाले कार्पोरेट्स को खुली छूट मिल जाएगी. भला ऐसे प्रधानमंत्री को कार्पोरेट्स क्यों नहीं पसंद करेंगे?
असल में, एन.डी.ए और उनके प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी की अर्थनीति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी यह कारपोरेट-परस्ती है जिसे वह छुपाने की कोशिश नहीं करते हैं. यहाँ तक कि कार्पोरेट्स को खुश करने के चक्कर में मोदी अपनी मातृ संस्था- आर.एस.एस की प्रिय अर्थनीति- स्वदेशी का भूल से भी जिक्र नहीं करते हैं.
याद रहे कि मोदी राजनीतिक तौर पर उस दक्षिणपंथी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो मुक्त बाजार आधारित अर्थव्यवस्था और निजी पूंजी और उद्यमशीलता को खुली छूट देनेवाली नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी की वकालत करती रही है.             

सच पूछिए तो इस मामले में भाजपा-नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस के आर्थिक दर्शन में कोई बुनियादी फर्क नहीं है. अगर कोई फर्क है तो सिर्फ उसके विभिन्न पहलुओं पर जोर और उसकी प्रस्तुति, पैकेजिंग और मार्केटिंग के तरीके में फर्क है.

उल्लेखनीय है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित या न के बराबर भूमिका और निजी पूंजी खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को अगुवा भूमिका देने की वकालत करती है.

यही नहीं, नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी मूलतः मुक्त बाजार पर आधारित भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण को आगे बढाती है और वह राज्य की कल्याणकारी भूमिका को भी सीमित करने यानी सब्सिडी आदि खत्म करने की पैरवी करती है.
लेकिन बुनियादी तौर पर मुक्त बाजारपर आधारित नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार होने के बावजूद जहाँ मोदी उसे सख्ती से लागू करने और उसके विरोध की हर आवाज़ को दबा देने के पक्षधर हैं वहीँ कांग्रेस थोड़ी नरमी बरतने और लोगों को उसकी मार से राहत देने और बदले में उनका समर्थन जीतने के लिए मनरेगा जैसी योजनाओं की वकालत करती है.
लेकिन देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को लगता है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की कांग्रेसी रणनीति अब अप्रभावी हो गई है. उसे इन सुधारों को सख्ती से आगे बढ़ाने वाले नेता की जरूरत है. मोदी के रूप में उसे मुंहमांगा नेता मिल गया है जो बिना किसी शर्म या हिचक के कार्पोरेट्स के एजेंडे को देश के ‘विकास और खुशहाली’ का एजेंडा बताने और उसे आमलोगों खासकर गरीबों-निम्न मध्यवर्ग में स्वीकार्य बनाने में कामयाब होता दिख रहा है.   

यह और बात है कि पिछले दो दशकों से देश में नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी पर आधारित आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाए जाने और जी.डी.पी के पैमाने पर आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत तेज गति के बावजूद गरीबों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है, आर्थिक गैर बराबरी तेजी से बढ़ी है और गरीबों, निम्न मध्यमवर्ग, छोटे-मध्यम किसानों, श्रमिकों, दलितों और आदिवासियों में असंतोष बढ़ा है.
इसकी मुख्य वजह यह है कि उन्हें आर्थिक सुधारों का कोई खास फायदा नहीं मिला है. उल्टे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है. सच यह है कि इन वर्गों के लिए आर्थिक सुधार एक कड़वी गोली की तरह साबित हुए हैं जिसे और निगलने के लिए वे तैयार नहीं हैं.
यहाँ तक कि इन आर्थिक सुधारों के लाभार्थी- मध्यम वर्ग में भी हाल के वर्षों में अवसरों के सीमित होने और याराना पूंजीवाद की अगुवाई में बेतहाशा भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ने से निराशा का माहौल है. इसके कारण नव उदारवादी आर्थिक सुधारों पर सवाल उठने लगे हैं और राजनीतिक तौर पर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आम लोगों के बीच स्वीकार्य बनाना एक बड़ी चुनौती बन गई है.

कांग्रेस के नेतृत्ववाले यू.पी.ए ने इसी चुनौती के मद्देनजर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसे मनरेगा जैसी योजनाओं की चाशनी में लपेट कर पेश करने और गरीबों, कृषि मजदूरों, दलितों और आदिवासियों का समर्थन जीतने की कोशिश की लेकिन शुरूआती सफलता के बाद यह रणनीति भी दस सालों में फीकी पड़ने लगी है.

('सबलोग' के फ़रवरी अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली क़िस्त। बाकी आप पत्रिका खरीद कर पढ़िए) 

शनिवार, जनवरी 25, 2014

नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के नए दांव हैं मोदी

लोगों के सामने है सीमित और संकीर्ण आर्थिक विकल्पों के बीच चुनाव की मजबूरी 

लोकसभा चुनावों के मद्देनजर केन्द्रीय सत्ता की दावेदार पार्टियों और उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों के आर्थिक दर्शन और कार्यक्रमों/योजनाओं को लेकर आम लोगों से लेकर अर्थशास्त्रियों तक और शेयर बाजार के सटोरियों से लेकर देशी-विदेशी औद्योगिक लाबी संगठनों जैसे फिक्की, सी.आई.आई आदि तक सभी की उत्सुकता और दिलचस्पी बढ़ गई है.
यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इन चुनावों में आर्थिक-राजनीतिक तौर पर बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. सवाल यह है कि सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने से लेकर महंगाई और बेरोजगारी से निपटने तक, कृषि से लेकर उद्योगों तक, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक और गरीबी से लेकर बढ़ती गैर बराबरी तक अनेकों गंभीर आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए प्रधानमंत्री के दावेदारों का आर्थिक दर्शन क्या है और उनके पास कौन से कार्यक्रम/योजनाएं हैं?
हालाँकि दोनों ही गठबंधनों के विस्तृत आर्थिक दर्शन, कार्यक्रम और योजनाओं के लिए उनके घोषणापत्र और विजन दस्तावेज का इंतज़ार करना पड़ेगा लेकिन बीते सप्ताह कांग्रेस की ओर से चुनाव अभियान की अगुवाई कर रहे राहुल गाँधी ने कांग्रेस महासमिति और खासकर भाजपा/एन.डी.ए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में अपना आर्थिक दर्शन और कार्यक्रम पेश किया है.

इसमें भी जहाँ राहुल गाँधी आर्थिक दर्शन के नामपर यू.पी.ए सरकार की उपलब्धियों (आर.टी.आई, मनरेगा, आर.टी.ई और भोजन के अधिकार आदि) को गिनाने और समावेशी विकास के रटे-रटाए जुमलों को दोहराने से आगे नहीं बढ़ पाए, वहीँ नरेन्द्र मोदी ने बड़े-बड़े कार्यक्रमों/योजनाओं और कुछ लोकप्रिय मैनेजमेंट जुमलों के एलान के जरिये सपनों की सौदागरी करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी.

लेकिन अगर बारीकी से देखा जाए तो मोदी और राहुल के आर्थिक दर्शन में बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है. अगर कोई फर्क है तो सिर्फ उसके विभिन्न पहलुओं पर जोर और उसकी प्रस्तुति, पैकेजिंग और मार्केटिंग के तरीके में फर्क है.
लेकिन बुनियादी तौर पर दोनों ‘मुक्त बाजार’ पर आधारित नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार हैं जो अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित या न के बराबर भूमिका और निजी पूंजी खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को अगुवा भूमिका देने की वकालत करती है. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी मूलतः मुक्त बाजार पर आधारित भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण को आगे बढाती है और वह न सिर्फ अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित भूमिका पर जोर देती है बल्कि राज्य की कल्याणकारी भूमिका को भी सीमित करने की पैरवी करती है.
लेकिन मुश्किल यह है कि पिछले दो दशकों से देश में नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी पर आधारित आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाए जाने और जी.डी.पी के पैमाने पर आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत तेज गति के बावजूद गरीबों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है, आर्थिक गैर बराबरी तेजी से बढ़ी है और गरीबों, निम्न मध्यमवर्ग, छोटे-मध्यम किसानों, श्रमिकों, दलितों और आदिवासियों में असंतोष बढ़ा है.

इसकी मुख्य वजह यह है कि उन्हें आर्थिक सुधारों का कोई खास फायदा नहीं मिला है लेकिन कीमत भारी चुकानी पड़ी है. सच यह है कि इन वर्गों के लिए आर्थिक सुधार एक कड़वी गोली की तरह साबित हुए हैं जिसे और निगलने के लिए वे तैयार नहीं हैं. यहाँ तक कि इन आर्थिक सुधारों के लाभार्थी- मध्यम वर्ग में भी हाल के वर्षों में अवसरों के सीमित होने और याराना पूंजीवाद की अगुवाई में बेतहाशा भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ने से निराशा का माहौल है.

इसके कारण नव उदारवादी आर्थिक सुधारों पर सवाल उठने लगे हैं और राजनीतिक तौर पर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आम लोगों के बीच स्वीकार्य बनाना एक बड़ी चुनौती बन गई है. कांग्रेस के नेतृत्ववाले यू.पी.ए ने इसी चुनौती के मद्देनजर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसे मनरेगा जैसी योजनाओं की चाशनी में लपेट कर पेश करने और गरीबों, कृषि मजदूरों, दलितों और आदिवासियों का समर्थन जीतने की कोशिश की लेकिन शुरूआती सफलता के बाद यह रणनीति भी दस सालों में फीकी पड़ने लगी है.
दूसरी ओर, देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स आर्थिक सुधारों की गति धीमी पड़ने के कारण बेचैन होने लगे हैं. वे सरकार से सुधारों की गति तेज करने यानी सब्सिडी में कटौती और खुद के लिए अधिक से अधिक रियायतें मांग रहे हैं.    
हैरानी की बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी ने यू.पी.ए/कांग्रेस की अर्थनीति की आलोचना करते हुए कहा कि वे ‘खैरात बाँटने’ वाली आर्थिक सैद्धांतिकी (डोलोनोमिक्स) यानी सब्सिडी के विरोधी हैं. हालाँकि वे गरीबों और कमजोर वर्गों के वोट को लुभाने के दबाव के कारण यह खुलकर नहीं कहते लेकिन इसका सीधा संकेत यह है कि वे मनरेगा और ऐसी दूसरी ‘लोकलुभावन योजनाओं’ में सब्सिडी दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं.

उनका तर्क है कि सिर्फ वोट बटोरने के लिए शुरू की गई लोकलुभावन योजनाएं गरीबों और कमजोर वर्गों को अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देतीं, कीमती संसाधनों की बर्बादी है, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं और सबसे बढ़कर मुक्त बाजार की व्यवस्था को तोडमरोड (डिसटार्ट) करती है.

नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों की तरह उनका भी दावा है कि वे अर्थव्यवस्था में निजी निवेश को प्रोत्साहित करके रोजगार के नए अवसर पैदा करेंगे ताकि गरीबों को अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका मिल सके.

दरअसल, मोदी नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसकी ‘विकास’ और ‘गुड गवर्नेंस’ के सपनों के साथ पैकेजिंग करने की कोशिश कर रहे हैं. एक अच्छे सेल्समैन की तरह वे देश के चारों दिशाओं में बुलेट ट्रेन से लेकर १०० स्मार्ट शहर बसाने, देश के हर राज्य में आई.आई.टी-आई.आई.एम-एम्स खोलने से लेकर ब्रांड इंडिया को चमकाने और गैस ग्रिड से लेकर राष्ट्रीय फाइबर आप्टिक ब्राडबैंड नेटवर्क बनाने तक की बड़ी और अत्यंत महत्वाकांक्षी योजनाओं के एलान से निम्न, मध्यम और उच्च मध्यमवर्ग को चमत्कृत करने की कोशिश कर रहे हैं.
दूसरी ओर, कृषि से लेकर गांव तक और किसान से लेकर महिलाओं और युवाओं की बातें करके सबको खुश करने की कोशिश कर रहे हैं, वहीँ आर.एस.एस से जुड़े अपने कोर समर्थकों को पारिवारिक मूल्यों से लेकर भारत माता के नारों से बाँधने में जुटे हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी कोई कसर नहीं छोड़ना नहीं चाहते हैं. आश्चर्य नहीं कि वे अपने आर्थिक दर्शन और कार्यक्रम/योजनाओं को वोटरों के सभी वर्गों के लिए आकर्षक और लुभावना बनाने के लिए हर उस सपने को बेच रहे हैं जो पिछले डेढ़ दशकों में बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स ने देश को बेचने की कोशिश की है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी की बड़ी-बड़ी घोषणाएं और योजनाएं उनकी मौलिक सोच से नहीं बल्कि वहीँ से आईं हैं. आप चाहें तो पिछले सालों में विश्व बैंक-मुद्राकोष से लेकर मैकेंसी, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, डेलोइट, प्राइस-हॉउस कूपर्स जैसी बड़ी कारपोरेट कंसल्टिंग कंपनियों और योजना आयोग तक और सी.आई.आई-फिक्की-एसोचैम जैसी औद्योगिक लाबी संगठनों से लेकर गुलाबी अखबारों और मैनेजमेंट गुरुओं के भाषणों, सलाहों, पालिसी दस्तावेजों और कंट्री पेपर्स में इन बड़ी और महत्वाकांक्षी योजनाओं के ब्लू-प्रिंट देख सकते हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी की इन घोषणाओं पर शेयर बाजार, देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों से लेकर अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां तक खुश हैं और मोदी के सत्ता में आने की संभावनाओं को लेकर उत्साहित हैं. कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को अब सिर्फ मोदी से ही उम्मीदें हैं कि वे नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा सकते हैं क्योंकि कांग्रेस/यू.पी.ए की साख भ्रष्टाचार और महंगाई के कारण बहुत नीचे गिर गई है.
देशी-विदेशी कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी को मोदी के रूप में एक ऐसा नेता दिखाई पड़ रहा है जिसकी नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने की प्रतिबद्धता असंदिग्ध है और जो इसे बेहतर तरीके से पैकेज और मार्केट करके लोगों में स्वीकार्य भी बना सकता है.
यही नहीं, कार्पोरेट्स को यह भी भरोसा है कि मोदी ही इन सुधारों और बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं (पास्को, वेदांता आदि) की राह में रोड़ा बन रहे ‘जल, जंगल और जमीन’ बचाने के जनांदोलनों से राजनीतिक और पुलिसिया तरीके से सख्ती से निपट सकते हैं. मोदी ने जिस तरह से गुजरात में नर्मदा बचाओ आंदोलन को दबाने की कोशिश की या अपने हाल के भाषणों में ‘झोलावालों’ (एन.जी.ओ और जनांदोलनों) को निशाना बनाया है, उससे भी कारपोरेट क्षेत्र आश्वस्त है.

गुजरात में मोदी ने ‘डिलीवर’ करके दिखाया है जबकि यू.पी.ए/कांग्रेस का ‘समावेशी विकास’ का नव उदारवादी माडल अब उस तरह से ‘डिलीवर’ नहीं कर पा रहा है, जैसे उसने २००४ के बाद के शुरूआती पांच-सात वर्षों में ‘डिलीवर’ किया था. यही नहीं, कार्पोरेट्स का भरोसा जीतने के लिए मोदी ने हाल में फिक्की के सम्मेलन में वायदा किया कि वे यू.पी.ए सरकार के राज में शुरू किये गए ‘टैक्स आतंकवाद’ को खत्म करेंगे.

उल्लेखनीय है कि देशी-विदेशी कार्पोरेट्स पिछले काफी दिनों से वोडाफोन से लेकर नोकिया टैक्स विवाद को सरकार का ‘टैक्स आतंकवाद’ बता रहे हैं. मोदी इससे निजात दिलाने का वायदा कर रहे हैं. यह और बात है कि इससे टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का लाभ उठानेवाले कार्पोरेट्स को खुली छूट मिल जाएगी. दोहराने की जरूरत नहीं है कि कार्पोरेट्स मोदी से खुश क्यों हैं?
लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि क्या मोदी अपने आर्थिक दर्शन और योजनाओं/कार्यक्रमों से गरीबों और आम आदमी को अपनी ओर खींच पाएंगे? दूसरे, क्या वे जो वायदे कर रहे हैं, उसे ‘डिलीवर’ कर पाएंगे? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि बड़ी-बड़ी घोषणाएं करना एक बात है और उसे आर्थिक तौर पर लागू करना बिलकुल दूसरी बात है.
याद रहे कि देश में कई बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं इसलिए ठप्प हैं क्योंकि उनकी आर्थिक-वित्तीय उपयोगिता (वायबिलिटी) पर सवाल उठ गए हैं. उदाहरण के लिए, बुलेट ट्रेन की योजना दुनिया के अधिकांश देशों में नाकाम साबित हुई है.
दूसरी ओर, कांग्रेस/यू.पी.ए ने २०१२ के उत्तरार्ध से खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और पेट्रोलियम उत्पादों से सब्सिडी खत्म करने से लेकर हाल में के.जी. बेसिन गैस की कीमतों और पर्यावरण सम्बन्धी रुकावटों को हटाने के फैसलों के जरिये बड़ी पूंजी को खुश करने और उसका भरोसा जीतने की कोशिश की है लेकिन लगता है कि अब तक काफी देर हो चुकी है.

यही कारण है कि राहुल गाँधी के सी.आई.आई और फिक्की के सम्मेलनों में जाकर कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने के बावजूद वे उनका भरोसा नहीं हासिल कर पा रहे हैं. यही नहीं, कांग्रेस की आर्थिकी अपने ही अंतर्विरोधों में उलझकर रह गई है और वह न कार्पोरेट्स का और न आम आदमी का भरोसा जीत पा रही है.

लेकिन असली मुद्दा यह है कि प्रधानमंत्री पद के दोनों दावेदारों की बुनियादी तौर पर एक तरह के आर्थिक दर्शन- नव उदारवादी और कारपोरेटपरस्त सैद्धांतिकी और योजनाओं/कार्यक्रमों के कारण आमलोगों के पास चुनने को वास्तव में बहुत सीमित और संकीर्ण विकल्प रह गया है.   

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 25 जनवरी को प्रकाशित टिप्पणी)

शनिवार, जून 08, 2013

आई.सी.यू की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था

आर्थिक संकट से निपटने की यू.पी.ए सरकार की रणनीति से माया मिली, न राम वाली स्थिति पैदा हो रही है


संकट में फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था की फिसलन जारी है. जैसीकि आशंका थी, पिछले वित्तीय वर्ष (१२-१३) की चौथी तिमाही (जनवरी से मार्च’१३) में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर मात्र ४.८ फीसदी रही और पूरे वर्ष में पांच फीसदी दर्ज की गई जोकि आर्थिक वृद्धि दर के मामले में पिछले एक दशक में अर्थव्यवस्था का सबसे फीका और बदतर प्रदर्शन है.
यही नहीं, चौथी तिमाही की ४.८ फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर इसलिए और भी निराशाजनक है क्योंकि यह तीसरी तिमाही की वृद्धि दर ४.७ फीसदी की तुलना न के बराबर सुधार की ओर संकेत करती है. इससे न सिर्फ अर्थव्यवस्था के एक गंभीर गतिरुद्धता में फंस जाने का पता चलता है बल्कि उसमें सुधार की उम्मीदों को भी गहरा झटका लगा है.
हालाँकि इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है क्योंकि केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सी.एस.ओ) ने फ़रवरी में जारी पूर्वानुमान में वर्ष १२-१३ में जी.डी.पी वृद्धि दर के पांच फीसदी रहने का संकेत दिया था. लेकिन उस समय अर्थव्यवस्था के सरकारी मैनेजरों ने इससे बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद जाहिर की थी क्योंकि उन्हें चौथी तिमाही में अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत दिखाई दे रहे थे.

उन्हें लग रहा था कि अर्थव्यवस्था तीसरी तिमाही में सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुकी है जहाँ से उसमें सुधार होना शुरू हो जाएगा. उनकी उम्मीद की दूसरी वजह यह थी कि पिछले साल अगस्त में पी. चिदंबरम के वित्त मंत्रालय की कमान संभालने के बाद से यू.पी.ए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले कई बड़े फैसले किये हैं जिसका असर चौथी तिमाही में दिखने की उम्मीद थी.

लेकिन ताजा रिपोर्टों से साफ़ है कि अर्थव्यवस्था अभी भी आई.सी.यू में पड़ी हुई है. सी.एस.ओ के मुताबिक, वर्ष २०१२-१३ में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर मात्र एक फीसदी और उसमें सबसे महत्वपूर्ण विनिर्माण क्षेत्र (मैन्युफैक्चरिंग) की वृद्धि दर मात्र १.२ फीसदी रही.
क्रेडिट रेटिंग एजेंसी- क्रिसिल के अनुसार, मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का यह प्रदर्शन पिछले दशक का सबसे बदतर प्रदर्शन है. क्रिसिल के मुताबिक, यह १९९१-९२ के संकट की याद दिलाता है जब औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर गिरकर मात्र ०.६ फीसदी और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर नकारात्मक (-)०.८ फीसदी रह गई थी.
चिंता की बात यह भी है कि न सिर्फ जनवरी से मार्च की तिमाही में बल्कि चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने- अप्रैल में आठ मूल ढांचागत उद्योगों की वृद्धि दर मात्र २.३ फीसदी दर्ज की गई है जोकि पिछले साल इसी अवधि में दर्ज की गई ५.७ फीसदी की वृद्धि दर की आधी से भी कम है.

यही नहीं, इस सप्ताह जारी एच.एस.बी.सी की पी.एम.आई रिपोर्ट के मुताबिक, बीते मई महीने में औद्योगिक गतिविधियों में सुधार तो दूर अप्रैल की तुलना में मामूली गिरावट के संकेत हैं. पी.एम.आई औद्योगिक इकाइयों के मैनेजरों से मांग सम्बन्धी सर्वेक्षण के आधार पर तैयार किया जाता है और वह मई महीने में पिछले ५० महीने के सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुका है.

लेकिन संकट सिर्फ औद्योगिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है. इसका असर अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों खासकर सेवा क्षेत्र पर भी पड़ा है. यहाँ तक कि कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन भी बीते वित्तीय वर्ष में वर्ष ११-१२ की तुलना में लगभग आधी रह गई है. कृषि की वृद्धि दर वर्ष १२-१३ में १.९ फीसदी रही जबकि उससे पहले के वर्ष में ३.६ फीसदी दर्ज की गई थी.
यही हाल निर्यात में बढ़ोत्तरी का है जिसमें चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने- अप्रैल में मात्र १.६८ फीसदी (डालर में) की वृद्धि दर्ज की गई है. उल्लेखनीय है कि पिछले वित्तीय वर्ष १२-१३ में निर्यात की वृद्धि दर में (-) १.८ फीसदी की गिरावट और आयात में ०.४ फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई जिसके कारण न सिर्फ व्यापार घाटे में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई बल्कि सबसे अधिक चिंताजनक वृद्धि चालू खाते के घाटे में हुई है जो बढ़कर जी.डी.पी के ५.१ फीसदी तक पहुँच गई है.
खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अपने बजट भाषण में स्वीकार किया है कि चालू खाते के घाटे में हुई वृद्धि सबसे बड़ी चुनौती है. चालू खाते के घाटे में भारी वृद्धि के कारण डालर के मुकाबले रूपये पर दबाव बना हुआ है.

हालाँकि इस बीच मुद्रास्फीति की दर में नरमी आई है लेकिन वह अब भी सरकार और रिजर्व बैंक के अनुमानों से कहीं ज्यादा ऊँचाई पर बनी हुई है. वर्ष २०१२-१३ में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर ७.४ फीसदी और खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर ८.१ फीसदी रही.

कहने की जरूरत नहीं है कि महंगाई पर काबू पाने में नाकामी यू.पी.ए सरकार की अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में सबसे बड़ी विफलता साबित हुई है.

इसकी कीमत आम आदमी के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी चुकानी पड़ी है. असल में, पिछले चार सालों से लगातार ऊँची महंगाई की दर से निपटने में नाकाम रही यू.पी.ए सरकार ने हाथ खड़े कर दिए और यह जिम्मा रिजर्व बैंक को सौंप दिया.
नतीजा, रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति को काबू में लाने के लिए ब्याज दरों में लगातार वृद्धि की जिसका सीधा असर निवेश पर पड़ा. निवेश में कमी आने के कारण आर्थिक वृद्धि की दर में गिरावट दर्ज की गई है जोकि लुढ़ककर पिछले एक दशक के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है. इसके बावजूद मुद्रास्फीति पूरी तरह से काबू में नहीं आई है.
इस तरह ‘माया मिली, न राम’ की स्थिति पैदा हो गई है. उल्टे ऊँची मुद्रास्फीति की दर के साथ आर्थिक वृद्धि में गिरावट की स्थिति के कारण अर्थव्यवस्था के मुद्रास्फीति जनित मंदी (स्टैगफ्लेशन) में फंसने की आशंका बढ़ती जा रही है.
जैसे इतना ही काफी नहीं था. एक के बाद दूसरे भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे ने यू.पी.ए सरकार की साख पाताल में पहुंचा दी. यही नहीं, अर्थव्यवस्था की स्थिति में सुधार की रही-सही उम्मीदों पर यू.पी.ए सरकार के अंदर आर्थिक सुस्ती से निपटने की रणनीति पर मतभेदों, खींचतान और अनिर्णय ने पानी फेर दिया.

आखिरकार जब सरकार की नींद खुली और उसने घबराहट और जल्दबाजी में फैसले करने शुरू किये तो वह अर्थव्यवस्था को उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की दवा की बड़ी खुराक से ठीक करने की कोशिश करने लगी जिसके कारण अर्थव्यवस्था बीमार हुई है और जिसकी सफलता को लेकर पूरी दुनिया में सवाल उठाये जा रहे हैं.

असल में, यू.पी.ए सरकार ने अर्थव्यवस्था की हालत सुधारने के लिए एक ओर बड़ी पूंजी खासकर विदेशी पूंजी के लिए दरवाजे खोलने से लेकर नियमों/शर्तों को उदार बनाने तक और दूसरी ओर, बड़ी विदेशी वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए राजकोषीय घाटे में कमी यानी सरकारी खर्चों और सब्सिडी में कटौती जैसे किफायतशारी (आस्ट्रिटी) के उपायों को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया.
इसके तहत ही वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने के लिए न सिर्फ पिछले वित्तीय वर्ष के बजट में भारी कटौती की बल्कि चालू साल के बजट में भी बहुत मामूली वृद्धि की है.
लेकिन इसका नतीजा उल्टा हुआ है. आर्थिक वृद्धि को लेकर सी.एस.ओ के ताजा अनुमान से साफ़ है कि आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट की एक वजह सरकारी खर्चों में भारी कटौती भी है. दरअसल, जब अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता हो और आर्थिक वृद्धि गिर रही हो, उस समय सरकारी खर्चों खासकर सार्वजनिक निवेश में कटौती का उल्टा असर होता है.

इसकी वजह यह है कि आर्थिक विकास को तेज करने के लिए निवेश जरूरी है और जब आर्थिक अनिश्चितता और वैश्विक संकट के कारण निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे न आ रहा हो, उस समय सार्वजनिक निवेश में कटौती से स्थिति और बिगड़ जाती है. भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ भी यही होता दिखाई दे रहा है.

इससे एक बार फिर ‘माया मिली, न राम’ वाली स्थिति पैदा हो रही है. आर्थिक वृद्धि में गिरावट का सीधा असर सरकार के टैक्स राजस्व पर पड़ेगा और टैक्स वसूली कम होने से राजकोषीय घाटे में बढ़ोत्तरी तय है. इस तरह न आर्थिक विकास को गति मिल पाएगी और न राजकोषीय घाटे में कोई कमी आ पाएगी. यह एक दुश्चक्र है.
माना जाता है कि इस दुश्चक्र को तोड़ने के लिए राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने की चिंता छोड़कर आर्थिक वृद्धि को गति देने के लिए सार्वजनिक निवेश खासकर ढांचागत और सामाजिक क्षेत्र में भारी बढ़ोत्तरी करनी चाहिए.
इससे अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और उसके साथ मांग बढ़ेगी जिसे पूरा करने के लिए निजी निवेश भी आगे आएगा. इससे आर्थिक गतिरुद्धता भंग होगी.
यह कोई समाजवादी फार्मूला नहीं है बल्कि यह पूंजीवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में  कींसवादी अर्थशास्त्र है जिसे १९३० के दशक की महामंदी से निपटने के लिए जान मेनार्ड कींस ने पेश किया था.

लेकिन मुश्किल यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के व्यामोह में फंसे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों तक को यह भरोसा है कि खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर विदेशी पूंजी को तमाम रियायतें देने जैसे आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ानेवाले फैसलों से देश में विदेशी निवेश तेजी से आएगा और उससे अर्थव्यवस्था एक बार फिर तेजी से दौड़ने लगेगी.

कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार बड़ा जोखिम ले रही है. वह अर्थव्यवस्था के साथ एक बड़ा दाँव खेल रही है जिसमें हालिया वैश्विक उदाहरणों को देखते हुए कामयाबी की सम्भावना कम दिखाई दे रही है.
लेकिन अगर वह सफल भी हुई तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी का और बड़ा मोहताज बना देगी.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 8 जून को प्रकाशित टिप्पणी)                     


सोमवार, अप्रैल 29, 2013

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की विरासत

आंदोलन ने देश भर में पहले से चल रहे जनतांत्रिक और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों को भी पुनरुज्जीवन दिया है

हालाँकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का उत्ताप और बेचैनी अब कमजोर पड़ चुकी है लेकिन उस आंदोलन से पैदा हुई नई नागरिक चेतना, सक्रियता और बदलाव की आकांक्षा की तीव्रता कतई कमजोर नहीं पड़ी है. दिल्ली में १६ दिसंबर की बर्बर सामूहिक बलात्कार की घटना के खिलाफ भड़के आंदोलन में उसी नई नागरिक सक्रियता और बदलाव की आकांक्षा की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है.
इस अर्थ में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने न सिर्फ लोगों खासकर मध्यवर्ग में नागरिकता बोध को जगाया, उन्हें बंद कमरों से बाहर आकर सामूहिक कार्रवाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया बल्कि उसने सत्ता और उसके दमनतंत्र को चुनौती देकर लोकतंत्र में लोगों को अपनी ताकत का अहसास करवाया.
उसी नागरिकता बोध और सामूहिक कार्रवाई के साथ अपनी ताकत के अहसास ने लोगों खासकर युवाओं-महिलाओं को स्त्रियों के लिए बेख़ौफ़ आज़ादी के आंदोलन में उतरने की प्रेरणा और हिम्मत दी.

असल में, वर्ष २०११ में शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने देश में लंबे अरसे बाद उस शहरी मध्यवर्ग को सड़कों पर उतार दिया जो नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का महत्वपूर्ण लाभार्थी होने के कारण उसका सबसे मुखर पैरोकार बन गया था.

यह उसकी सबसे बड़ी ताकत थी. लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने उद्देश्य, स्वरुप और चरित्र में बुनियादी बदलाव का वर्गीय आंदोलन नहीं था और न ही उसका कोई व्यापक एजेंडा और कार्यक्रम था.

यह भी सही है कि उसमें कई अंतर्विरोधों, विसंगतियों के साथ-साथ सांप्रदायिक-जातिवादी-प्रतिक्रियावादी राजनीतिक रुझान भी दिखाई दिए. उसकी संकीर्णताएँ खासकर राजनीति विरोधी अभियान भी किसी से छुपी नहीं हैं. इन कमियों, सीमाओं और तात्कालिक विफलता के बावजूद भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र को बहुत कुछ दिया है.
इस आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि इसने मध्यवर्गीय नागरिक समाज के एक
बड़े हिस्से में बढ़ रहे अलगाव-निराशा और हताशा को तोडा, उनमें नागरिकता बोध पैदा किया और सामूहिक कार्रवाई में उतरने के लिए प्रेरित किया. इस प्रक्रिया में इस आंदोलन ने न सिर्फ लोगों में राजनीतिकरण की ठहर गई प्रक्रिया को तेज किया बल्कि उनके अंदर सत्ता के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत दी.
इस अर्थ में इस आंदोलन ने देश भर में पहले से चल रहे अनेकों जनतांत्रिक और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों को भी एक नया पुनरुज्जीवन दिया है.

हैरानी की बात नहीं है कि इस आंदोलन के दौरान और उसके बाद चाहे वह नर्मदा बचाओ आंदोलन के विस्थापितों की लड़ाई हो या कुडनकुलम/जैतापुर परमाणु बिजलीघर के खिलाफ अभियान हो या पास्को/वेदांता जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स के खिलाफ चल रहे जनांदोलनों की गतिशीलता- सबमें एक तेजी और नई उर्जा दिखाई दी है.

ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने आर्थिक सुधारों के मुखर समर्थक मध्यवर्ग में जनांदोलनों के प्रति एक नई संवेदनशीलता पैदा की, शासक वर्गों की साख को जबरदस्त धक्का दिया और सबसे बढ़कर इसने जनतंत्र में जनांदोलनों की भूमिका को पुनरुस्थापित किया.    

यही नहीं, इस आंदोलन की कमियों, सीमाओं और अंतर्विरोधों को स्वीकार करते हुए भी यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया भर में और भारत में भी न सिर्फ कई नए प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक जनांदोलनों/आन्दोलनों ने दस्तक दी है बल्कि कई पारंपरिक जनांदोलनों के स्वरुप, चरित्र और मिजाज में भी उल्लेखनीय बदलाव आया है.
पिछले दो दशकों में भारत में पर्यावरण संरक्षण, विस्थापन विरोधी, बड़े बांधों के खिलाफ, परमाणु बिजली विरोधी, ‘जल-जंगल-जमीन-खनिजों’ को कारपोरेट लूट से बचाने के लिए आदिवासियों और किसानों के आन्दोलनों, अस्मिताओं के आंदोलनों के अलावा भूमंडलीकरण विरोधी आंदोलन भी उभरे हैं.
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन भी इन्हीं नए सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों में से एक है. हालाँकि भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ संगठित राजनीतिक आंदोलन का इतिहास इतना नया भी नहीं है. सबसे पहले १९७४ में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी बड़ा संगठित आंदोलन चला जो जल्दी ही लोकतंत्र की रक्षा के आंदोलन में बदल गया.

१९८८-८९ में वी.पी सिंह ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर अभियान चलाया और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रहे. लेकिन इन दोनों भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों और अभियानों से २०११ का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इस मायने में अलग था कि इसके नेतृत्व में स्थापित राजनीतिक दलों से इतर नागरिक समाज के संगठन और नेता थे, इसका एजेंडा सुधारवादी होते हुए भी राजनीतिक सत्तातंत्र के मर्म पर चोट करनेवाला था और भागीदारी के स्तर पर भी इसमें छात्राओं-युवाओं के साथ मध्यवर्ग में उभरा नया तबका- प्रोफेशनल्स शामिल थे.

इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का उल्लेखनीय पहलू यह भी था कि इसमें लोगों को आंदोलित करने, उन्हें संगठित करने और सड़कों पर उतारने के लिए पारंपरिक माध्यमों के बजाय पहली बार नए माध्यमों खासकर सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया गया.
यही नहीं, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के नेतृत्ववाले आंदोलन को कारपोरेट मीडिया का भी खुला समर्थन मिला. याद रहे कि यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन एक ऐसे दौर में उभरा, जब दुनिया भर में आन्दोलनों की एक नई लहर दिखाई पड़ रही थी.
ट्यूनीशिया और मिस्र से तानाशाह सत्ताओं के खिलाफ लोकतंत्र बहाली के लिए शुरू हुआ अरब वसंत हो या अमेरिका और पश्चिम के कई देशों में बड़ी वित्तीय पूंजी की लूट के खिलाफ आक्युपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन- इन सबका असर दुनिया के तमाम देशों पर पड़ा.
इससे पहले दुनिया भर में वित्तीय पूंजी के नेतृत्व में कारपोरेट भूमंडलीकरण और उसकी लूट के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन- विश्व सामाजिक मंच (वर्ल्ड सोशल फोरम) के जरिये एकजुट होने लगे थे. इससे वैश्विक स्तर पर जनांदोलन के लिए एक नया समर्थन पैदा हुआ है.

इसकी वजह यह भी थी कि बड़ी वित्तीय पूंजी के लोभ से पैदा हुए सब-प्राइम बुलबुले के २००७-०८ में
फूटने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा चुकी थी और उसके साथ यूरोप और वैश्विक अर्थव्यवस्था भी गहरे संकट में फंस चुकी थी.

इससे निपटने के नामपर जिस तरह से बड़ी वित्तीय पूंजी ने आमलोगों के सामाजिक सुरक्षा के बजट में कटौती करने से लेकर उनपर बोझ डालना शुरू किया, उसके खिलाफ यूरोप के तमाम देशों में लोगों के गुस्से और आन्दोलनों की लहर सी फूट पड़ी.

कहने की जरूरत नहीं कि भारत पर भी इसका असर पड़ा. इसी दौरान लोगों ने यह देखा कि भारत में भी नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत देशी-विदेशी बड़ी पूंजी-कारपोरेट क्षेत्र को सार्वजनिक संसाधनों-जल-जंगल-जमीन-खनिजों से लेकर २-जी तक की लूट की खुली छूट दे दी गई है.
इसे सुधारों के मुखर पैरोकार रहे मध्यवर्ग ने अपनी आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और भरोसे पर खुले हमले की तरह देखा. लेकिन यह सिर्फ उच्च मध्यवर्ग का ही गुस्सा नहीं था बल्कि इसमें वह निम्न मध्यवर्ग और गरीब का भी बड़ा हिस्सा शामिल था जो भ्रष्टाचार की असली कीमत चुका रहा है.
वह निम्न मध्यवर्ग और गरीब समुदाय ही हैं जिन्हें अपने वाजिब अधिकारों- सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लाभों, रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे बुनियादी हकों और न्याय के लिए सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों, दलालों और नेताओं को घूस देनी पड़ती है.
यह ठीक है कि इस आंदोलन में गरीबों और निम्न मध्यवर्ग के अलावा समाज में हाशिए पर पड़े वंचित समुदायों की सीधी भागीदारी नहीं थी. इसमें महिलाएं और खासकर अल्पसंख्यक भी नहीं जुड़ पाए.

यह इस आंदोलन की बड़ी कमजोरी थी कि वह एक समावेशी आंदोलन नहीं बन पाया और न ही भ्रष्टाचार के मुद्दे को व्यापक बदलाव के आन्दोलनों के साथ जोड़ पाया. यह भविष्य के जनांदोलनों के लिए एक सबक भी है.

लेकिन इन कमियों और नाकामियों के बावजूद इस आंदोलन ने राजनीतिक और शासन व्यवस्था की सड़न को उघाड़कर लोगों को भारतीय जनतंत्र की सीमाओं और खामियों से अवगत कराया है, उसने नागरिक समाज को अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति सक्रिय और सचेत बनाया है और व्यवस्था पर जनतांत्रिक सुधारों/बदलाव का दबाव बढ़ा दिया है.

लेकिन क्या अब यह मान लिया जाए कि यह आंदोलन इतिहास का विषय बन चुका है? ऐसा सोचनेवाले जल्दबाजी में हैं. सच यह है कि लोग सत्ता और उसपर बैठे राजनीतिक तंत्र की प्रतिक्रिया को गौर से देख रहे हैं. लेकिन इतना तय है कि लोग लंबे समय तक इंतज़ार नहीं करेंगे.
('राष्ट्रीय सहारा' के 27 जुलाई)