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शुक्रवार, मार्च 15, 2013

आर्थिक सर्वेक्षण की उलटबांसी: रोजगार चाहिए तो छंटनी का अधिकार दीजिये

श्रम सुधारों के नामपर श्रमिकों को हायर-फायर का अधिकार मांग रहे हैं कार्पोरेट्स
 
दूसरी और आखिरी क़िस्त 
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि रोजगार के ज्यादा और बेहतर अवसर क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं? आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सख्त श्रम कानून संगठित क्षेत्र में बड़े विनिर्माण उद्योग के विकास में बाधा बने हुए हैं.
सर्वेक्षण का दावा है कि भारत के श्रम कानून कम से कम किताब दुनिया के अधिकांश देशों की तुलना में बहुत सख्त हैं. सिर्फ दो विकसित देशों में इससे सख्त कानून हैं. लेकिन सर्वेक्षण का तर्क है कि बहुत कम श्रमिकों को इन कानूनों का संरक्षण हासिल है. लेकिन इसके कारण बड़ी औद्योगिक इकाइयां स्थाई श्रमिकों को नौकरी देने से हिचकिचाती हैं.
हालाँकि आर्थिक सर्वेक्षण मानता है कि इस मुद्दे पर देश में बहुत तीखी बहस है कि क्या सख्त श्रम कानून रोजगार के अवसरों को बढ़ने की राह में रोड़ा बने हुए हैं? लेकिन खुद सर्वेक्षण का दावा है कि रोजगार के नए और बेहतर अवसरों के सृजन में सख्त श्रम कानून ही सबसे प्रमुख बाधा हैं.

सर्वेक्षण के अनुसार, देश में सख्त श्रम कानूनों के कारण ज्यादातर रोजगार अनौपचारिक क्षेत्र में हैं यानी बिना किसी संविदा और सुविधाओं के श्रमिकों को काम करना पड़ता है. सर्वेक्षण के मुताबिक, अभी ९५ फीसदी रोजगार अनौपचारिक क्षेत्र में है और कोई ८० फीसदी श्रमिक बिना किसी संविदा के काम करने को मजबूर हैं.

सर्वेक्षण के मुताबिक, अगर भारत को जनसांख्यकीय लाभांश का पूरा फायदा उठाना है तो उसे न सिर्फ व्यापक आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाना पड़ेगा बल्कि कृषि में निवेश और तकनीक को बढ़ाने से लेकर विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में श्रम सुधारों को प्राथमिकता देनी होगी.
इसके अलावा प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार होगा ताकि सेवा क्षेत्र को योग्य प्रत्याशियों की कमी का सामना न करना पड़े. इसके साथ ही विनिर्माण क्षेत्र में अप्रेंटिसशिप को बढ़ावा देने और युवाओं को नए कौशल सिखाने पर जोर देना होगा ताकि रोजगार की गुणवत्ता में सुधार हो.
हालाँकि आर्थिक सर्वेक्षण रोजगार खासकर गुणवत्तापूर्ण रोजगार सृजन के लिए श्रम सुधारों को प्राथमिकता देते हुए आर्थिक सुधारों खासकर उद्योगों के अनुकूल माहौल बनाने, रेगुलेशनों को ढीला और सीमित करने और कौशल बढ़ाने जैसे कई सुझाव देता है.

लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि उसका सबसे अधिक जोर श्रम सुधारों खासकर औद्योगिक विवाद क़ानून के अध्याय V-B और धारा ९ A को खत्म करने यानी नियोजकों को बिना सरकार की इजाजत के श्रमिकों/कर्मचारियों की छंटनी की छूट देने पर है. सर्वेक्षण को लगता है कि इससे नियोजकों को वह लचीलापन हासिल होगा जिसके अभाव में वे अभी स्थाई या संविदा पर रोजगार देने से हिचकिचाते हैं.

गौरतलब है कि आर्थिक सर्वेक्षण का यह सुझाव ऐसे समय में आया है जब हाल में ही देश की सभी प्रमुख ट्रेड यूनियनों ने रोजगार की सुरक्षा से लेकर श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर दो दिनों की देशव्यापी हड़ताल की थी. ट्रेड यूनियनें पिछले कई वर्षों से सरकार और नियोजकों पर श्रम कानूनों का खुला मखौल उड़ाने का आरोप लगाते हुए रोजगार के अनौपचारिकीकरण और ठेकाकरण का विरोध कर रही हैं.
खुद सर्वेक्षण भी स्वीकार करता है कि स्थिति अच्छी नहीं है. सवाल यह है कि क्या श्रम कानूनों को ढीला करने और नियोजकों को हायर-फायर का अधिकार देने से वे श्रमिकों को स्थाई नौकरी और सभी सामाजिक लाभ देने लगेंगे? देश में रोजगार के मौके बढ़ने लगेंगे और उनकी गुणवत्ता में सुधार आ जायेगा?
देश में संगठित और असंगठित क्षेत्र में नियोजकों के मौजूदा रवैये को देखकर बहुत उम्मीद नहीं बंधती है. जब देश में विनिर्माण क्षेत्र के सबसे चमकते उदाहरणों में से एक मारुति में श्रमिकों को ट्रेड यूनियन बनाने का बुनियादी मौलिक अधिकार हासिल करने के लिए हड़ताल करनी पड़ती है, अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि अन्य प्रतिष्ठानों में क्या स्थिति होगी?

दूसरे, देश भर में श्रमिकों को तेज वृद्धि दर और तुलनात्मक रूप से औद्योगिक शांति के बावजूद जिस तरह से बदतर परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है, वह गहरी चिंता की बात है. जैसाकि हालिया हड़ताल से साफ़ है कि श्रमिकों का धैर्य जवाब दे रहा है. उसे अनदेखा करके किसी भी सुधार की कोशिश औद्योगिक माहौल को बिगड़ सकती है.
 
लेकिन हैरानी की बात यह है कि आर्थिक सर्वेक्षण श्रम कानूनों को कड़ाई से लागू करने और उन्हें उनके बुनियादी अधिकार दिलाने की बात करने के बजाय उनके संरक्षण के प्रावधानों को समाप्त करने की मांग कर रहा है.
आर्थिक सर्वेक्षण यह भूल रहा है कि सवाल सिर्फ रोजगार और गुणवत्तापूर्ण रोजगार का ही नहीं बल्कि रोजगार की गरिमा का भी है. रोजगार की गरिमा का अर्थ यह है कि श्रमिकों को न सिर्फ बेहतर तनख्वाह मिले बल्कि उन्हें काम का माहौल मानवीय हो, सेवा शर्तें बेहतर हों, सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो और युनियन बनाने से लेकर अपने लोकतान्त्रिक अधिकार इस्तेमाल करने की आज़ादी हो.

('योजना' के मार्च अंक में प्रकाशित टिप्पणी) 

गुरुवार, मार्च 14, 2013

जनसांख्यकीय लाभांश का फायदा उठाने की चुनौती

असल मुद्दा है गुणवत्तापूर्ण और गरिमा के साथ रोजगार का 

पहली क़िस्त

भारत अपने आर्थिक-सामाजिक इतिहास के एक बहुत दिलचस्प दौर से गुजर रहा है जब उसकी कुल आबादी में २५ साल से कम आयु के युवाओं की संख्या लगभग ५० फीसदी और ३५ साल से कम उम्र के युवाओं की तादाद ६५ फीसदी के आसपास है. आज भारत दुनिया के सबसे युवा देशों में से एक है.
अनुमानों के मुताबिक, वर्ष २०२० में एक आम भारतीय की औसत उम्र २९ साल होगी जबकि उस समय एक आम चीनी की औसत उम्र ३७ साल होगी. यही नहीं, वर्ष २०३० में भारत में निर्भरता अनुपात (डिपेंडेंसी रेशियो) यानी आयु-जनसंख्या अनुपात सिर्फ ०.४ फीसदी होगी जिसका अर्थ यह है कि देश की कुल आबादी में काम करनेवालों की संख्या बहुत ज्यादा और निर्भर लोगों की तादाद कम होगी.
अर्थशास्त्री इसे जनसांख्यकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) की स्थिति कहते हैं जो किसी भी देश को एक बड़ा आर्थिक उछाल दे सकता है और उसकी अर्थव्यवस्था को तीव्र वृद्धि दर के रास्ते पर ले जा सकता है. माना जाता है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में भारत की अपेक्षाकृत तेज विकास दर के पीछे यह एक प्रमुख कारण रहा है.

इस वजह से पिछले कुछ वर्षों से भारत में अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं के बीच यह चर्चा और गंभीर बहस का मुद्दा रहा है कि जनसांख्यकीय लाभांश की इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?

यह चर्चा और बहस इसलिए और भी मौजूं हो जाती है क्योंकि अगर देश जनसांख्यकीय लाभांश का फायदा उठाने में नाकामयाब रहता है तो यह जनसांख्यकीय शाप या विपदा में भी बदल सकती है.
इसमें सबसे बड़ा चुनौती यह है कि श्रम शक्ति में शामिल होनेवाली इस युवा आबादी को बेहतर शिक्षा के साथ सिर्फ रोजगार ही नहीं बल्कि गरिमा और गुणवत्तापूर्ण रोजगार के अवसर कैसे उपलब्ध कराए जाएँ ताकि उसकी क्षमताओं का पूरा लाभ अर्थव्यवस्था को मिल सके और उसकी उत्पादकता बढ़ाई जा सके?
यह न सिर्फ जनसांख्यकीय लाभांश की इस स्थिति का पूरा लाभ उठाने के लिए बल्कि समावेशी विकास के लिए भी सबसे बड़ी शर्त है.
लेकिन मुश्किल यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) की तेज गति के बावजूद रोजगार के पर्याप्त अवसर खासकर उच्च गुणवत्तापूर्ण रोजगार के अवसर नहीं पैदा हो रहे हैं.

हाल में आई इंस्टीच्यूट आफ एप्लाइड मैनपावर रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष २००५-१० के बीच विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) में लगभग ५० लाख रोजगार घट गए जबकि तेजी से वृद्धि कर रहे सेवा क्षेत्र में जहाँ वर्ष २०००-२००५ के बीच १.८ करोड़ रोजगार के अवसर बने, वहीँ वर्ष २००५-१० के बीच सिर्फ ४० लाख नए रोजगार के अवसर पैदा हुए.

इस रिपोर्ट से साफ़ है कि उद्योगों खासकर विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार के अवसर नहीं पैदा हो रहे हैं जबकि इस बीच कृषि क्षेत्र से बड़ी संख्या में युवा रोजगार की तलाश में सेवा और उद्योगों की ओर आ रहे हैं.

लेकिन रोजगार वृद्धि की इस धीमी दर के कारण ही अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग मौजूदा विकास को ‘रोजगारविहीन विकास’ की संज्ञा देता रहा है. इसके साथ ही दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि कृषि क्षेत्र से जो युवा रोजगार के लिए उद्योगों और सेवा क्षेत्र की ओर आ रहे हैं, उन्हें ज्यादातर अस्थाई श्रमिक के रूप में काम मिल रहा है जहाँ कम आय के साथ-साथ बहुत मामूली सामाजिक सुरक्षा हासिल है.
उदाहरण के लिए, वर्ष २०१० में निर्माण क्षेत्र कोई ४.४ करोड़ श्रमिक काम कर रहे थे लेकिन उनमें कोई ४.२ करोड़ को सामाजिक सुरक्षा का बहुत मामूली या कोई कवच हासिल नहीं था. जाहिर है कि यह एक बड़ी चुनौती है जो नीति निर्माताओं को परेशान कर रही है.
इसका ताजा उदाहरण इस वर्ष का आर्थिक सर्वेक्षण (१२-१३) है जिसमें जनसांख्यकीय लाभांश का फायदा उठाने की चुनौती की खास तौर पर अध्याय-२ में विस्तार से चर्चा की गई है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि आर्थिक सर्वेक्षण ने रोजगार खासकर गुणवत्तापूर्ण रोजगार के बहुत ही महत्वपूर्ण, जरूरी और संवेदनशील मुद्दे को उठाया है.

सर्वेक्षण ने माना है कि अर्थव्यवस्था के सामने सबसे महत्वपूर्ण और दीर्घकालिक चुनौती यह है कि गुणवत्तापूर्ण रोजगार के अवसर कहाँ से आयेंगे? उत्पादक रोजगार विकास के लिए अत्यंत जरूरी है. सर्वेक्षण के मुताबिक, एक गुणवत्तापूर्ण रोजगार समावेशी विकास सुनिश्चित करने का सबसे उपयुक्त माध्यम है.

यही नहीं, सर्वेक्षण ने यह कहकर इस समस्या की नब्ज पर पर उंगली रख दी है कि हालाँकि उद्योगों में रोजगार पैदा हो रहा है लेकिन इनमें से ज्यादातर नौकरियां असंगठित क्षेत्र में कम उत्पादक और अस्थाई प्रवृत्ति की हैं जहाँ आय कम है, कोई सामाजिक सुरक्षा और लाभ नहीं हैं.
सर्वेक्षण के अनुसार, सेवा क्षेत्र में रोजगार की प्रकृति उच्च उत्पादक है लेकिन हाल के वर्षों में सेवा क्षेत्र में रोजगार वृद्धि धीमी रही है. सर्वेक्षण मानता है कि भारत के सामने कृषि क्षेत्र की उत्पादकता बढाते हुए उससे बाहर खासकर विनिर्माण क्षेत्र और सेवा क्षेत्र में उत्पादक रोजगार पैदा करने की बड़ी चुनौती है. इस चुनौती का सामना करके ही आनेवाले दशकों में तेज और समावेशी विकास का रास्ता खोला जा सकता है.
यह कितनी बड़ी चुनौती है, इसका अंदाज़ा आर्थिक सर्वेक्षण में दिए गए कुछ संभावनाओं से लगाया जा सकता है. उदाहरण के लिए अगर वर्ष २०१० से २०२० तक के दशक में उद्योगों और सेवा क्षेत्र में २०००-१० के दशक की गति से रोजगार के अवसर बढ़े तो कृषि क्षेत्र का कुल रोजगार में हिस्सा मौजूदा ५१ फीसदी से घटकर मात्र ४० फीसदी रह जाएगा.

इसी तरह अगर श्रमशक्ति में भागीदारी की दर (कुल आबादी में उनलोगों की संख्या जो रोजगार पाने की उम्र में हैं और रोजगार की तलाश में भी हैं) और बेरोजगारी दर २०१० के स्तर पर रहे तो वर्ष २०२० में कोई २८ लाख रोजगार के अवसर कम होंगे.

सर्वेक्षण को लगता है कि यह समस्या है लेकिन इसमें चिंतित होने या घबराने की बात नहीं है क्योंकि यह कुल श्रमशक्ति का मात्र ०.५ फीसदी होगा.

लेकिन अगर श्रमशक्ति में भागीदारी की दर में सिर्फ दो फीसदी की बढ़ोत्तरी हो जाए और ५६ की बजाय ५८ प्रतिशत हो जाए यानी कुछ ज्यादा महिलायें रोजगार मांगने निकल आएं तो गुमशुदा रोजगार की संख्या बढ़कर १.६७ करोड़ पहुँच जाती है.
यह निश्चय ही चिंता की बात होगी. सर्वेक्षण स्वीकार करता है कि इस गणना में किसी भी अनुमान के गडबड होने पर स्थिति बहुत नाजुक हो सकती है और रोजगार की मांग का अनुमान करोड़ों में बढ़ सकता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि आनेवाले वर्षों-दशकों में रोजगार खासकर बेहतर रोजगार की मांग पहले ज्यादा बढ़ेगी क्योंकि न सिर्फ ज्यादा शिक्षित युवा रोजगार बाजार में आयेंगे बल्कि उसमें महिलाओं की संख्या भी पहले से बढ़ेगी. साफ़ है कि आनेवाले वर्षों में नीति निर्माताओं के सामने अधिक से अधिक रोजगार और खासकर गुणवत्तापूर्ण रोजगार पैदा करने की चुनौती बनी रहेगी.
 
जारी ...
('योजना' के लिए लिखे लेख की पहली क़िस्त)