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शुक्रवार, मई 25, 2012

आम आदमी की या तेल कंपनियों की सरकार?

निजी तेल कंपनियों के मुनाफे और सरकारी तेल कंपनियों के निजीकरण की तैयारी है पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करना 

ऐसा लगता है कि जैसे यू.पी.ए सरकार पेट्रोल की कीमतों में बढोत्तरी के लिए मौके का इंतज़ार कर रही थी. उसके उतावलेपन का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जैसे ही संसद का बजट सत्र समाप्त हुआ, उसने सरकारी तेल कंपनियों को कीमतें बढाने का संकेत कर दिया.

दूसरी ओर, सरकारी तेल कम्पनियाँ भी जैसे इसी मौके का इंतज़ार कर रही थीं. उन्हें लगा कि पेट्रोल की कीमतों में बढोत्तरी का मौका पता नहीं फिर कब मिलेगा, इसलिए एक झटके में कीमतों में कोई ६.५० रूपये (टैक्स सहित लगभग ७.५० रूपये) प्रति लीटर की बढोत्तरी कर दी. पेट्रोल की कीमतों में यह अब तक की सबसे बड़ी बढोत्तरी है.

हालाँकि इस बढोत्तरी के लिए सरकार यह कहते हुए बहुत दिनों से माहौल बना रही थी कि बढ़ते आर्थिक संकट को देखते हुए कड़े फैसले करने का वक्त आ गया है. लेकिन यह बढोत्तरी इतनी बे-हिसाब और अतार्किक है कि खुद सरकार के मंत्रियों और कांग्रेस के नेताओं को भी इसका बचाव करना मुश्किल हो रहा है. 

हैरानी की बात नहीं है कि कड़े फैसले की दुहाईयाँ देनेवाले वित्त मंत्री भी यह कहकर इस फैसले से हाथ झाड़ने की कोशिश कर रहे हैं कि पेट्रोल की कीमतें वि-नियमित की जा चुकी हैं और उसे सरकार नहीं, बाजार और तेल कम्पनियाँ तय करती हैं. तकनीकी तौर पर यह बात सही होते हुए भी सच यह है कि तेल कम्पनियां सरकार की हरी झंडी के बिना एक कदम आगे नहीं बढ़ाती हैं.

इसका सबसे बड़ा सुबूत यह है कि तेल कंपनियों की मांग और दबाव के बावजूद पिछले छह महीनों से उन्हें पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने की इजाजत नहीं दी गई कारण, पहले उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव थे और उसके तुरंत बाद संसद का बजट सत्र शुरू हो गया, जहाँ सरकार विपक्ष को एकजुट और आक्रामक होने का मौका नहीं देना चाहती थी.

इसीलिए संसद सत्र के समाप्त होने का इंतज़ार किया गया. इस मायने में यह संसद के साथ धोखा है और चोर दरवाजे का इस्तेमाल है. अगर सरकार को यह फैसला इतना जरूरी और तार्किक लगता है तो उसे संसद सत्र के समाप्त होने का इंतज़ार करने के बजाय उसे विश्वास में लेकर यह फैसला करना चाहिए था.

दूसरी बात यह है कि पेट्रोल की कीमतों में इतनी भारी वृद्धि के फैसले का कोई आर्थिक तर्क और औचित्य नहीं है. खासकर एक ऐसे समय में जब महंगाई आसमान छू रही है, इस फैसले के जरिये सरकार ने महंगाई की आग में तेल डालने का काम किया है.

इस तथ्य से सरकार भी वाकिफ है लेकिन उसने आमलोगों के हितों की कीमत पर तेल कंपनियों खासकर निजी तेल कंपनियों और उनके देशी-विदेशी निवेशकों के अधिक से अधिक मुनाफे की गारंटी को ध्यान में रखकर यह फैसला किया है. इस फैसले का एक मकसद डूबते शेयर बाजार को आक्सीजन देना भी है. आश्चर्य नहीं कि इस फैसले के बाद शेयर बाजार में इन तेल कंपनियों के शेयरों की कीमतों में तेजी दिखाई दी है.

मजे की बात यह है कि तेल कम्पनियाँ पेट्रोल की कीमतों में रिकार्ड वृद्धि के बावजूद घाटे का रोना रो रही हैं और पेट्रोल सहित अन्य पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में और अधिक वृद्धि की दुहाई दे रही हैं. हैरानी नहीं होगी, अगर अगले कुछ दिनों में सरकार डीजल और रसोई गैस की कीमतों में भी वृद्धि का फैसला करे. बाजार का तर्क तो यही कहता है और देशी-विदेशी निवेशक भी यही मांग कर रहे हैं.

साफ़ है कि सरकार कड़े फैसले कंपनियों, शेयर बाजार और निवेशकों को खुश करने के लिए ले रही है. यही नहीं, सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि तेल कंपनियों को घाटा नहीं, मुनाफा हो रहा है. वर्ष २०११ में तीनों सरकारी तेल कंपनियों को भारी मुनाफा हुआ था. इंडियन आयल को ७४४५ करोड़ रूपये, एच.पी.सी.एल को १५३९ करोड़ रूपये और बी.पी.सी.एल को १५४७ करोड़ रूपये का मुनाफा हुआ था.   

तेल कंपनियों का यह तर्क भी आधा सच है कि पेट्रोल और अन्य पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि के अलावा कोई उपाय नहीं बचा है क्योंकि कच्चे तेल की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ऊँची बनी हुई हैं और हाल के महीनों में डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में खासी गिरावट आने से आयात महंगा हुआ है.

सवाल यह है कि जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में नरमी आ रही है और कीमतें गिरी हैं तब कीमतों में वृद्धि का क्या औचित्य है? दूसरे, क्या रूपये की कीमत में इतनी गिरावट आ गई है कि पेट्रोल की कीमतों में रिकार्डतोड़ बढ़ोत्तरी की जाये?

यही नहीं, सवाल यह भी है कि क्या कीमतों में वृद्धि के अलावा और कोई रास्ता नहीं था? यह सवाल इसलिए भी मौजूं है क्योंकि सरकार समेत सबको पता है कि  पेट्रोल की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी से पहले से ही बेकाबू महंगाई को काबू में करना और मुश्किल हो जाएगा? यह किसी से छुपा नहीं है कि ऊँची मुद्रास्फीति दर का अर्थव्यवस्था पर कितना बुरा असर पड़ रहा है.

आखिर सरकार ने और विकल्पों पर विचार करना जरूरी क्यों नहीं समझा? यह तथ्य है कि पेट्रोल की कीमतों में लगभग आधा केन्द्र और राज्यों के टैक्स का अधिभार है. सच पूछिए तो केन्द्र और राज्य सरकारें पेट्रोल को दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल करती हैं. सवाल है कि क्या पेट्रोल पर लगनेवाले टैक्स को कम करने का विकल्प नहीं इस्तेमाल किया जा सकता था?

असल में, सरकार इस फैसले के जरिये देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को यह संकेत देना और उनका विश्वास हासिल करना चाहती है कि वह उनके हितों को आगे बढ़ाने के लिए कड़े फैसले लेने के लिए तैयार है. यह किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी यह आरोप लगाती रही है कि वह ‘नीतिगत लकवेपन’ का शिकार हो गई है और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी कड़े फैसले करने से बच रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार कारपोरेट और बड़ी पूंजी के जबरदस्त दबाव में है. आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के एजेंडे के तहत सभी पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को पूरी तरह विनियमित करने से लेकर सरकारी तेल कंपनियों को निजी क्षेत्र को सौंपना शामिल है.

सच यह है कि यू.पी.ए सरकार इसी एजेंडे को आगे बढ़ा रही है. पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को पूरी तरह विनियमित करने का सबसे ज्यादा फायदा देशी-विदेशी बड़ी निजी तेल कंपनियों को होगा. वे लंबे अरसे से लेवल प्लेईंग फील्ड की मांग कर रही है. यही नहीं, इससे सरकारी तेल कंपनियों के निजीकरण का तर्क भी बनेगा.

लेकिन सवाल यह है कि जब पूरी दुनिया खासकर अमेरिका और दूसरे विकसित देशों में आम आदमी की कीमत पर निजी तेल कंपनियों के आसमान छूते मुनाफे को लेकर सवाल उठ रहे हैं, उस समय भारत में तेल कंपनियों के मुनाफे के लिए सरकार आम आदमी के हितों को दांव पर लगाने से नहीं हिचक रही है.

लाख टके का सवाल यह है कि यह आम आदमी की सरकार है या तेल कंपनियों की सरकार?

('राष्ट्रीय सहारा'के 25 मई के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)                   

बुधवार, सितंबर 28, 2011

सस्ते तेल का जमाना गया, उसके विकल्प के बारे में सोचिये


कच्चे तेल पर सट्टेबाजों की नजर और बड़ी तेल कंपनियों को भारी मुनाफे की लत लग चुकी है



यू.पी.ए सरकार ने जब से पेट्रोल की कीमतें सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दी हैं, देशी तेल कम्पनियाँ बिना नागा हर दूसरे-तीसरे महीने पेट्रोल की कीमतों में एकमुश्त बड़ी बढोत्तरी किये जा रही हैं. इसके लिए कभी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ती कीमतों का बहाना बनाया जाता है और कभी डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में गिरावट का रोना रोया जाता है.

सरकार हर बार हाथ झाड़कर खड़ी हो जाती है कि इस मामले में कुछ नहीं कर सकती है क्योंकि देश अपने कुल पेट्रोलियम खपत का ७० फीसदी आयात करता है. एक खालिस कारोबारी की तरह सरकार का तर्क है कि चूँकि कच्चे तेल का आयात अंतर्राष्ट्रीय कीमतों पर होता है, इसलिए घरेलू उपभोक्ताओं को भी पेट्रोलियम उत्पादों के लिए अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कीमतें अदा करने के लिए तैयार रहना चाहिए.

दूसरी ओर, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे पेट्रोलियम की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव का दौर जारी है. पिछले तीन वर्षों में कच्चे तेल की कीमतें १४५ डालर प्रति बैरल से लेकर ८० डालर प्रति बैरल के रेंज में चढ़-उतर रही हैं. फ़िलहाल, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जहाँ अमेरिकी डब्ल्यू.टी.आई कच्चे तेल की कीमत ८५ डालर प्रति बैरल के आसपास है, वहीँ ब्रेंट कच्चे तेल की कीमत ११० डालर प्रति बैरल के आसपास है.

माना जा रहा है कि आनेवाले महीनों में कच्चे तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव का यह दौर जारी रहेगा. हालांकि तात्कालिक तौर पर यूरोपीय देशों सहित अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सुस्ती के कारण तेल की कीमतों पर दबाव कम हुआ है लेकिन इसके बावजूद अधिकतर विश्लेषकों का मानना है कि आनेवाले महीनों और वर्षों में कच्चे तेल की कीमतें ऊपर की ओर ही जाएँगी.

साफ है कि सस्ते तेल का जमाना बीत गया. मतलब यह कि कच्चा तेल अब ४० से ५५ डालर प्रति बैरल नहीं मिलनेवाला है. यही नहीं, वह ६० से ८० डालर प्रति बैरल के रेंज से भी बाहर निकल चुका है. कच्चे पेट्रोलियम का नया नार्मल रेंज ९० से ११० डालर प्रति बैरल के बीच माना जा रहा है.

कहने का मतलब यह कि इस दर को लेकर अब कोई खास शिकायत या बहस नहीं रह गई है. कहीं कोई हंगामा नहीं है. दुनिया के बड़े या छोटे देशों की ओर से विरोध में आवाजें नहीं उठ रही हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि दुनिया और खासकर भारत जैसे देशों को अब कच्चे पेट्रोल की ऊँची कीमतें चुकाने के लिए तैयार रहना होगा.

असल में, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे पेट्रोलियम की लगातार बढ़ती कीमतों के पीछे कई कारण हैं. तात्कालिक तौर पर मध्य पूर्व के तेल उत्पादक देशों में राजनीतिक अस्थिरता, जन असंतोष और युद्ध के कारण आपूर्ति में बाधा के अलावा चीन और भारत जैसे विकासशील देशों तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में तेल की बढ़ती मांग को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है.

दीर्घकालिक कारणों में सबसे जोर-शोर से “पीक आयल” की थीसिस पर चर्चा हो रही है जिसके मुताबिक, दुनिया में तेल के भण्डार सीमित हैं और तेल की बढ़ती जरूरतों के कारण जिस तेजी से उसका दोहन हो रहा है, उससे तेल के भंडार निरंतर छीज रहे हैं. ऐसे में , वह दिन दूर नहीं जब कच्चे तेल का उत्पादन अपने सर्वोच्च स्तर (पीक आयल) पर पहुंचकर ठहर जाएगा और फिर गिरना शुरू हो जाएगा.

हालांकि विश्लेषकों में इस मुद्दे पर मतभेद है कि “पीक आयल” की स्थिति कब आएगी लेकिन अधिकांश विश्लेषक वर्ष २०१२ से लेकर २०१८ के बीच इस स्थिति के आने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं. इसका मतलब यह हुआ कि अगले कुछ वर्षों में पीक आयल की स्थिति आनेवाली है जब कच्चे तेल के उत्पादन में ठहराव और फिर गिरावट आना शुरू हो जाएगा.

लेकिन निकट भविष्य में तेल की मांग में कमी आती नहीं दिखाई पड़ रही है. खासकर चीन और भारत जैसे देशों में तेल की खपत और तेजी से बढ़ेगी. जाहिर है कि मांग और आपूर्ति में बढ़ते फासले के कारण कीमतों पर दबाव और बढ़ेगा.

हालांकि तेल की खपत और मांग में वृद्धि के मौजूदा ट्रेंड को देखते हुए अगले चालीस-पचास वर्षों तक तेल के भण्डार खत्म होनेवाले नहीं हैं लेकिन तेल की आपूर्ति में थोड़े भी उतार-चढ़ाव से उसकी कीमतों में कहीं ज्यादा उतार-चढ़ाव की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है. तेल की कीमतों की इस संवेदनशील स्थिति ने हाल के वर्षों में सट्टेबाजों को इसपर दांव लगाने के लिए ललचाया है.

इसके अलावा दुनिया भर में शेयर बाजार समेत अन्य वित्तीय बाजारों की खस्ताहाल स्थिति ने भी वित्तीय बाजार के बड़े सट्टेबाजों को जिंस बाजार की ओर आकर्षित किया है. आश्चर्य नहीं कि पिछले दो-ढाई वर्षों में जिंस बाजार में लगभग सभी जिंसों की कीमतों में भारी उछाल दर्ज किया गया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि सट्टेबाजों ने कच्चे तेल पर बड़े दांव लगाने शुरू कर दिए हैं. इसका सीधा असर उसकी कीमतों पर पड़ रहा है. तेल की कीमतों को जमकर ‘मैनीपुलेट’ किया जा रहा है. हैरानी की बात नहीं है कि पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्थाओं की सुस्ती के कारण कच्चे तेल की मांग में धीमी वृद्धि के बावजूद कीमतें नीचे आना तो दूर लगातार चढ़ रही हैं.

इसे बड़ी बहुराष्ट्रीय तेल कम्पनियाँ भी शह दे रही हैं क्योंकि इससे उनका मुनाफा भी खूब तेजी से बढ़ रहा है. हालत यह हो गई है कि तेल की मांग और कीमतों में गिरावट के बावजूद बड़ी तेल कंपनियों के मुनाफे में भारी बढोत्तरी दर्ज की गई है.

इससे साफ है कि अंतर्राष्ट्रीय तेल बाज़ार में न सिर्फ बड़े सट्टेबाजों और बड़ी तेल कंपनियों का दबदबा बढ़ता जा रहा है बल्कि कीमतों का मैनिपुलेशन भी नए रिकार्ड बना रहा है. यह भारत जैसे देशों के लिए खतरे की घंटी है. इससे तुरंत सबक लेने की जरूरत है. भारत को जल्दी से जल्दी पेट्रोल पर अपनी निर्भरता कम करने और उर्जा के वैकल्पिक साधनों की खोज को राष्ट्रीय प्राथमिकता पर लाना होगा अन्यथा भारतीय अर्थव्यवस्था सहित आम लोगों को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.

अफसोस की बात यह है कि नीति निर्माताओं में ऐसी कोई चिंता नहीं दिखाई पड़ रही है. सरकार और नीति निर्माताओं में एक तरह की निश्चिन्तता का माहौल है. गोया देश में तेल का कभी न खत्म होनेवाला कुआं खोज निकला गया है.

सच यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की पेट्रोलियम पर निर्भरता बढ़ती जा रही है. इसके लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं जो अंधाधुंध निजी वाहनों और आटोमोबाइल उद्योग को बढ़ा रही है. भारतीय औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठन एसोचैम के मुताबिक, भारत में तेल की बढ़ती मांग के कारण २०१२ तक देश को अपनी कुल जरूरतों का लगभग ८५ फीसदी कच्चा तेल आयात करना पड़ेगा.

इसका मतलब यह हुआ कि आनेवाले वर्षों में आयातित कच्चे तेल पर निर्भरता के कारण भारत अंतर्राष्ट्रीय तेल बाज़ार के ‘मैनिपुलेशन’ की कीमत चुकाता रहेगा और सट्टेबाजों और बड़ी तेल कंपनियों की थैलियाँ भरता रहेगा. यह और बात है कि इसकी असली कीमत हमें-आपको चुकानी पड़ेगी.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में २४ सितम्बर को प्रकाशित )