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शनिवार, जुलाई 26, 2014

हिंदी मीडिया भारतीय भाषाओँ के आंदोलन के साथ क्यों नहीं है?

हिंदी मीडिया का ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन

अगर कोई आंदोलन यानी धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल दिल्ली में हो, उसमें हजारों युवा शामिल हों, उसमें शामिल होने के लिए सांसद-विधायक-नेता-लेखक-बुद्धिजीवी पहुँच रहे हों और आंदोलन के मुद्दे से देश भर में लाखों युवा प्रभावित हों तो पूरी सम्भावना है कि वह आंदोलन अखबारों/न्यूज चैनलों की सुर्खी बने.
यही नहीं, यह भी संभव है कि अखबार/चैनल खुलकर उस आंदोलन के समर्थन में खड़े हो जाएँ. लेकिन दिल्ली में संघ लोकसेवा आयोग (यू.पी.एस.सी) की परीक्षाओं में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व और हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओँ की उपेक्षा और बेदखली के खिलाफ चल रहा आंदोलन शायद इतना भाग्यशाली या कहिए कि टी.आर.पी बटोरू नहीं है कि वह अखबारों/चैनलों की सुर्खी बन सके.
नतीजा, यह आंदोलन न्यूज चैनलों की सुर्ख़ियों और प्राइम टाइम चर्चाओं/बहसों में नहीं है. यहाँ तक कि उनकी २४ घंटे-चौबीस रिपोर्टर या न्यूज बुलेट/न्यूज हंड्रेड में भी जिनमें जाने कैसी-कैसी ‘खबरें’ चलती रहती हैं, इस खबर को कुछेक चैनलों में एकाध बार जगह मिल पाई है.

हालाँकि दिल्ली के मुखर्जी नगर में अपनी मांगों को लेकर अनशन पर बैठे छात्रों/युवाओं के आंदोलन को भारी जन-समर्थन मिल रहा है, सोशल मीडिया पर यह मुद्दा गर्म है और नेता उसके राजनीतिक महत्व को समझकर, दिखाने के लिए ही सही, वहां पहुँच रहे हैं लेकिन हजारों की भीड़ के साथ आमतौर पर मौजूद रहनेवाले न्यूज चैनलों के कैमरे, जिमि-जिम, ओ.बी वैन और 24x7 लाइव रिपोर्ट करते उत्साही रिपोर्टर वहां से नदारद हैं.

यह समझा जा सकता है कि यू.पी.एस.सी में अंग्रेजी के बढ़ते दबदबे के खिलाफ चल रहे इस आंदोलन को अंग्रेजी न्यूज चैनलों/अखबारों में जगह न मिले या उसकी अनदेखी हो लेकिन हिंदी के अखबारों और न्यूज चैनलों में भी इस खबर की उपेक्षा को समझना थोड़ा मुश्किल है.
हिंदी के अखबारों/चैनलों के लिए यह एक बड़ी ‘खबर’ क्यों नहीं है? ज्यादा समय नहीं गुजर जब यही चैनल/अखबार नए प्रधानमंत्री और एन.डी.ए सरकार के हिंदी प्रेम की बलैय्याँ ले रहे थे. लेकिन यू.पी.एस.सी में हिंदी के परीक्षार्थियों के साथ अन्याय और उनकी बेदखली के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन के प्रति हिंदी के अखबार/चैनल इतनी बेरुखी क्यों दिखा रहे हैं?
कहीं यह हिंदी अखबारों/चैनलों की उस “हीनता ग्रंथि” के कारण तो नहीं है जिसमें वे खुद को अंग्रेजी के अप-मार्केट के सामने गंवार ‘हिंदीवाला’ नहीं दिखाना चाहते हैं? सच यह है कि हिंदी के अधिकांश अखबार/चैनल आज ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन चला रहे हैं. पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी के ज्यादातर अखबारों/चैनलों में खुद को अपमार्केट दिखने के लिए अंग्रेजी के ज्यादा करीब जाने और उसके ही सरोकारों, मुहावरों और प्रस्तुति पर जोर बढ़ा है.

आश्चर्य नहीं कि आज कई हिंदी अखबारों/चैनलों की भाषा हिंदी नहीं बल्कि हिंगलिश है. अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों पर अंग्रेजी के बड़े बुद्धिजीवियों की छोडिये, औसत दर्जे के पत्रकारों/स्तंभकारों को अनुवाद करके छापने और चैनलों की बहसों/चर्चाओं में अंग्रेजी के पत्रकारों/बुद्धिजीवियों/सेलिब्रिटी को बुलाने की कोशिश की जाती है.

यहाँ तक कि हिंदी के एक बड़े अखबार ने काफी पहले न सिर्फ धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों को इस्तेमाल करना शुरू किया बल्कि शीर्षकों में रोमन लिपि का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकिचाया. एक और बड़े अखबार ने अपने पाठकों को अंग्रेजी पढ़ाने का अभियान चलाया. हिंदी के ज्यादातर चैनलों के एंकरों/रिपोर्टरों की हिंदी के बारे में जितनी कम बात की जाए, उतना अच्छा है.
जाहिर है कि हिंदी के जिन चैनलों/अखबारों के न्यूजरूम पर मानसिक/व्यावसायिक रूप से अंग्रेजी और अंग्रेजी मानसिकता हावी है और हिंदी मजबूरी जैसी है, वहां उनकी दिलचस्पी एक ऐसे आंदोलन में कैसे हो सकती है जो अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ भारतीय भाषाओँ के हक में आवाज़ उठा रहा हो?
लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर यही अखबार/चैनल देश की आज़ादी के आंदोलन के समय रहे होते तो उनका रवैया क्या आज से कुछ अलग होता?



(यह टिप्पणी 'तहलका' के लिए 11 जुलाई को लिखी थी. उसके बाद से इस आंदोलन ने और गति पकड़ी है और मीडिया का ध्यान भी उसकी ओर गया है लेकिन क्या वह पर्याप्त है?)                                 

शुक्रवार, मई 30, 2014

क्या यही हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ है?

हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ में पत्रकारों की घुटन बढ़ी है

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष

क्या १८८ साल की भरी-पूरी उम्र में कई उतार-चढाव देख चुकी हिंदी पत्रकारिता का यह ‘स्वर्ण युग’ है? जानेमाने संपादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने बहुत पहले ८०-९० के दशक में ही यह एलान कर दिया था कि यह हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्ण युग’ है. बहुतेरे और भी संपादक और विश्लेषक इससे सहमत हैं.
उनका तर्क है कि आज की हिंदी पत्रकारिता हिंदी न्यूज मीडिया उद्योग के विकास और विस्तार के साथ पहले से ज्यादा समृद्ध हुई है. उसके प्रभाव में वृद्धि हुई है. वह ज्यादा प्रोफेशनल हुई है, पत्रकारों के विषय और तकनीकी ज्ञान में वृद्धि हुई है, विशेषज्ञता के साथ उनके वेतन और सेवाशर्तों में उल्लेखनीय सुधार आया है और उनका आत्मविश्वास बढ़ा है.
हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ के पक्षधरों के मुताबिक, न्यूज चैनलों की लोकप्रियता, विस्तार और प्रभाव ने बची-खुची कसर भी पूरी कर दी है क्योंकि वहां हिंदी न्यूज चैनलों का ही बोलबाला है. हिंदी न्यूज चैनलों और कुछ बड़े हिंदी अखबारों के संपादक/एंकर आज मीडिया जगत के बड़े स्टार हैं. उनकी लाखों-करोड़ों में सैलरी है.

इसके अलावा हिंदी न्यूज चैनलों के आने से पत्रकारों के वेतन बेहतर हुए हैं. उनका यह भी कहना है कि दीन-हीन और खासकर आज़ादी के बाद सत्ता की चाटुकारिता करनेवाली हिंदी पत्रकारिता के तेवर और धार में भी तेजी आई है. आज वह ज्यादा बेलाग और सत्ता को आईना दिखानेवाली पत्रकारिता है.

इसमें कोई शक नहीं है कि इनमें से कई दावे और तथ्य सही हैं लेकिन उन्हें एक परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की जरूरत है. इनमें से कई दावे और तथ्य १९७७ से पहले की हिंदी पत्रकारिता की तुलना में बेहतर दिखते हैं लेकिन वे तुलनात्मक हैं.
दूसरे, इनमें से अधिकतर दावे और तथ्य हिंदी मीडिया उद्योग के ‘स्वर्णकाल’ की पुष्टि करते हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि वे हिंदी पत्रकारिता के बारे में भी उतने ही सच हों. क्या हिंदी अखबारों का रंगीन होना, ग्लासी पेपर, बेहतर छपाई और उनका बढ़ता सर्कुलेशन या हिंदी चैनलों के प्रभाव और ग्लैमर को हिंदी पत्रकारिता के बेहतर होने का प्रमाण माना जा सकता है?
हिंदी पत्रकारिता को पहचान देनेवाले बाबूराव विष्णुराव पराडकर के आज़ादी के पहले दिए गए ‘आछे दिन, पाछे गए’ वाले मशहूर भाषण को याद कीजिए जिसमें उन्होंने आज से कोई ७५ साल पहले भविष्यवाणी कर दी थी कि भविष्य के अखबार ज्यादा रंगीन, बेहतर कागज और छपाई वाले होंगे लेकिन उनमें आत्मा नहीं होगी.

सवाल यह है कि जिसे पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ बताया जाता है, उसके कई उल्लेखनीय और सकारात्मक पहलुओं को रेखांकित करने के बावजूद क्या यह सही नहीं है कि उसमें आत्मा नहीं है? 

अंग्रेजी के मशहूर लेखक आर्थर मिलर ने कभी एक अच्छे अखबार की परिभाषा करते हुए कहा था कि, ‘अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से बातें करता है.’ सवाल यह है कि क्या हमारे आकर्षक-रंगीन-प्रोफेशनल अखबारों और न्यूज चैनलों में देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई देता है?
क्या आज की हिंदी पत्रकारिता में पूरा देश, उसकी चिंताएं, उसके सरोकार, उसके मुद्दे और विचार दिखाई या सुनाई देते हैं? कितने हिंदी के अखबार/चैनल या उनके पत्रकार पूर्वोत्तर भारत, कश्मीर, उडीसा, दक्षिण भारत और पश्चिम भारत से रिपोर्टिंग कर रहे हैं? उसमें देश की सांस्कृतिक, एथनिक, भाषाई, जाति-वर्ग, धार्मिक विविधता और विचारों, मुद्दों, सरोकारों की बहुलता किस हद तक दिखती है?
मुख्यधारा की यह हिंदी पत्रकारिता कितनी समावेशी और लोकतांत्रिक है? तात्पर्य यह कि उसमें भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों खासकर दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की कितनी भागीदारी है?

क्या हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ का एलान करते हुए यह सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि हिंदी क्षेत्र के कितने जिला मुख्यालयों पर पूर्णकालिक महिला पत्रकार काम कर रही हैं? कितने हिंदी अखबारों और चैनलों की संपादक महिला या फिर दलित या अल्पसंख्यक हैं? क्या हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ का मतलब सिर्फ पुरुष और वह भी समाज के अगड़े वर्गों से आनेवाले पत्रकार हैं?

यही नहीं, हिंदी अखबारों और चैनलों में काम करनेवाले पत्रकारों के वेतन और सेवाशर्तों में सुधार का ‘स्वर्णयुग’ सिर्फ चुनिंदा अखबारों/चैनलों और उनके मुठी भर पत्रकारों तक सीमित है. कड़वी सच्चाई यह है कि छोटे-मंझोले से लेकर देश के सबसे ज्यादा पढ़े/देखे जानेवाले अखबारों/चैनलों के हजारों स्ट्रिंगरों के वेतन और सेवाशर्तों में कोई सुधार नहीं आया है. वह अभी भी अन्धकार युग में हैं जहाँ बिना नियुक्त पत्र, न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा के वे काम करने को मजबूर हैं.
उन्हें सांस्थानिक तौर पर भ्रष्ट होने और दलाली करने के लिए मजबूर किया जा रहा है. उनकी बदहाल हालत देखकर आप कह नहीं सकते हैं कि हिंदी अखबारों और चैनलों में बड़ी कारपोरेट पूंजी आई है, वे शेयर बाजार में लिस्टेड कम्पनियाँ हैं, उनके मुनाफे में हर साल वृद्धि हो रही है और वे ‘स्वर्णयुग’ में पहुँच गए हैं.
उदाहरण के लिए हिंदी के बड़े अखबारों की मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने में आनाकानी को ही लीजिए. उनका तर्क है कि इस वेतन आयोग के मुताबिक तनख्वाहें दी गईं तो अखबार चलाना मुश्किल हो जाएगा. अखबार बंद हो जाएंगे. सवाल यह है कि अखबार या चैनल स्ट्रिंगरों की छोडिये, अपने अधिकांश पूर्णकालिक पत्रकारों को भी बेहतर और सम्मानजनक वेतन देने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं?

क्या यह एक बड़ा कारण नहीं है कि हिंदी अखबारों/चैनलों में बेहतरीन युवा प्रतिभाएं आने के लिए तैयार नहीं हैं? आप मानें या न मानें लेकिन यह सच है कि आज हिंदी पत्रकारिता के कथित ‘स्वर्णयुग’ के बावजूद हिंदी क्षेत्र के कालेजों/विश्वविद्यालयों के सबसे प्रतिभाशाली और टापर छात्र-छात्राएं इसमें आने के लिए तैयार नहीं हैं या उनकी प्राथमिकता सूची में नहीं है.

दूसरी ओर, हिंदी अखबारों और चैनलों में बेहतर और सरोकारी पत्रकारिता करने की जगह भी दिन पर दिन संकुचित और सीमित होती जा रही है. आश्चर्य नहीं कि आज हिंदी पत्रकारिता का एक बड़ा संकट उसके पत्रकारों की वह प्रोफेशल असंतुष्टि है जो उन्हें सृजनात्मक और सरोकारी पत्रकारिता करने का मौका न मिलने या सत्ता और कारपोरेट के सामने धार और तेवर के साथ खड़े न होने की वजह से पैदा हुई है.
हैरानी की बात नहीं है कि हिंदी पत्रकारिता के इस ‘स्वर्णयुग’ में पत्रकारों की घुटन बढ़ी है, उनपर कारपोरेट दबाव बढ़े हैं और पेड न्यूज जैसे सांस्थानिक भ्रष्ट तरीकों के कारण ईमानदार रहने के विकल्प में घटे हैं.
यही नहीं, हिंदी पत्रकारिता की अपनी मूल पहचान भी खतरे में है. वह न सिर्फ अंग्रेजी के अंधानुकरण में लगी हुई है बल्कि उसकी दिलचस्पी केवल अपमार्केट उपभोक्ताओं में है. उसे उस विशाल हिंदी समाज की चिंताओं की कोई परवाह नहीं है जो गरीब हैं, हाशिए पर हैं, बेहतर जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ चाहते हैं. लेकिन मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता को उसकी कोई चिंता नहीं है.

क्या यही हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ है?

(समाचार4मीडिया वेबसाइट पर प्रकाशित यह टिप्पणी यहाँ भी पढ़ सकते हैं: http://www.samachar4media.com/Is-this-the-golden-era-of-hindi-journalism )