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सोमवार, जून 24, 2013

एक वर्चुअल मौत का सुसाइड नोट

फेसबुक उर्फ़ सोशल मीडिया के स्वर्ग से विदाई   

जहाँ तक याद आता है, ८० के दशक में अमिताभ बच्चन की एक फिल्म आई थी- ‘मि. नटवरलाल’! उन दिनों अपनी उम्र के बाकी दोस्तों की तरह मैं भी अमिताभ का दीवाना था और मुझे अमिताभ-रेखा की जोड़ी पसंद थी.
इस फिल्म में शायद पहली बार अमिताभ ने बच्चों के लिए एक गाना गया था-‘मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों! एक किस्सा सुनाऊं...’
इस गाने के आखिर में अमिताभ थोड़ा नाटकीय अंदाज़ में कहते हैं-“...खुदा की कसम मजा आ गया...मुझे मारकर बेशरम खा गया...” इसपर तपाक से एक बच्चा पूछता है, ‘लेकिन आप तो जिन्दा हैं?’ अमिताभ थोड़े खुन्नस में कहते हैं, ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू?’

कुछ दिनों पहले तक लगता था कि फेसबुक के बिना जीना भी क्या जीना है? इसलिए कि मार्शल मैक्लुहान ने कभी मीडिया को मनुष्य का ही विस्तार कहा था. आज फेसबुक वास्तविक दुनिया का सिर्फ आभासी विस्तार नहीं बल्कि उससे कुछ ज्यादा हो गया है.

वह आपकी नई पहचान और मित्रों का नया अड्डा बनने लगा है. इस अड्डे पर क्या चल रहा है, यह उत्सुकता बार-बार इसके अंजुमन तक खींच ले जाती है. उससे ज्यादा यहाँ कुछ कहने और बहस छेड़ने की बेचैनी के कारण लगता था कि फेसबुक से जाना मुमकिन नहीं होगा.
लेकिन आज फेसबुक एकाउंट को डीएक्टीवेट करने यानी आभासी दुनिया में आत्महत्या के बाद पांच दिन हो गए. शुरूआती बेचैनी के बाद अब एक निश्चिन्तता सी है. इससे पहले कि फेसबुक मुझे मारकर खा जाता. उसे विदा कहने में ही भलाई दिखी. नहीं जानता कि इस निश्चय पर कब तक टिकना होगा.

उस दिन शाम को जे.एन.यू से टहलकर लौटते हुए बीते साल के कुछ छात्र मिल गए, छूटते ही पहला सवाल कि आपने फेसबुक छोड़ दिया? फिर कहने लगे कि सर लौट आइये. ईमानदारी की बात है कि फेसबुक से विदाई के बाद जब-तब एक बेचैनी सी उठती है.

असल में, पिछले कई हप्तों से फेसबुक के साथ आभासी दुनिया (वर्चुअल वर्ल्ड) में जीने पर अपन को भी यह अहसास हो रहा था कि एक लत सी लगती जा रही है. अपना एक्टिविस्ट भी जाग उठता था. सच कहूँ तो सोया एक्टिविस्ट जग गया था.
चाहे यू.पी.ए सरकार का भ्रष्टाचार और जन विरोधी नीतियां हों या भगवा गणवेशधारियों की सांप्रदायिक राजनीति- उनकी कारगुजारियों, सबकी पोल खोलने की बेचैनी सुबह-दोपहर-शाम फेसबुक पर खींच ही लाती थी. खासकर भगवा राजनीति के दोहरे चरित्र का पर्दाफाश और सांप्रदायिक फासीवादी अभियान के खतरों को बताने के उत्साह ने एक मिशनरी जिद सी हासिल कर ली थी.

हालाँकि इंटरनेट के धर्मान्ध हिंदुओं से गालियाँ भी खूब मिलती थीं लेकिन एक आश्वस्ति भी रहती थी कि चोट निशाने पर लगी है. फेसबुक पर लिखने और अपनी बात कहने का उत्साह का आलम यह था कि जिस वर्ड फ़ाइल में लिखकर टिप्पणियां करता था, उसमें से एक फ़ाइल में ४८५१२ शब्द और एक फ़ाइल में ३३१४ शब्द हैं. मतलब दो-तीन सालों में फेसबुक एक्टिविज्म में कोई ५२ हजार शब्द लिख डाले यानी एक छोटी किताब पूरी हो गई.   
कई बार लगता था कि देखें तो वहां क्या बहस या चर्चा चल रही है? क्या मुद्दे उठ रहे हैं? इसमें कोई दो राय नहीं है कि फेसबुक का ‘हिंदी पब्लिक स्फीयर’ वास्तविक दुनिया के पब्लिक स्फीयर से कहीं ज्यादा खुला, लोकतांत्रिक और गर्मागर्म है. यह भी कि यहाँ आपको विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक-वैचारिक धाराओं के दोस्तों की आवाजें सुनने को मिल जाती हैं.

यह भी कि बहसें भी कई बार ज्यादा तीखी और आक्रामक होती हैं. कई बार निपटाने का भाव ज्यादा होता है और बहसों में गहराई और गंभीरता कम होती है. गहरी बहस के लिए जो धैर्य और विस्तार चाहिए, वह तो न के बराबर दिखता है.
इस मायने में फेसबुक एक ऐसे खुले और भीड़ भरे पब्लिक मैदान की तरह है जहाँ सबको एक हैंड माइक मिला हुआ है. आप इस मैदान बोलते-ललकारते-कटाक्ष और लाइक करते रहिये. बदले में इस सबके लिए तैयार रहिये. कई बार ऐसा लगता है कि यहाँ सब बोल रहे हैं और कोई किसी की सुन नहीं रहा है.

कई बार यह भी लगता है कि कुछ मित्र इन झगडों में छुपे-चुपके ‘परपीड़ा सुख’ और कुछ ‘पर-रति सुख’ का मजा भी ले रहे होते हैं. झूठ नहीं बोलूँगा, कई बार खुद भी आभासी/वास्तविक दोस्तों के ऐसे झगडों और बहसों में दूर से ताक-झाँक करके मजा लेता रहा हूँ.
लेकिन इधर काफी दिनों से लगने लगा था कि इसके कारण वास्तविक दुनिया का पढ़ना-लिखना कम हो रहा है. यह अहसास इन दिनों कुछ ज्यादा ही होने लगा था. इसलिए तय किया कि फेसबुक की आभासी दुनिया से फिलहाल, विदाई ली जाए.

संभव है कि इस दुनिया में फिर लौटूं. कब? खुद नहीं जानता. लेकिन यह कह सकता हूँ कि अपने कई दोस्तों को और फेसबुक की कुछ दिलचस्प बहसों को मिस कर रहा हूँ.
 
सोचा है कि जब भी मन कुछ टिप्पणी करने का करेगा तो यहाँ ब्लॉग पर ही लिखूंगा. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा.       

रविवार, जुलाई 31, 2011

प्रेमचंद, 'हंस' और राजेंद्र जी के बहाने कुछ अपने दुखड़े


बैठे-ठाले : रविवारी गपशप

आज रविवार है. हप्ते भर इसका इंतज़ार रहता है. लगता है कोई दिन ऐसा हो जब बिना किसी काम के अपने मन का काम हो. चाय हो, कुछ अच्छी धुनें हों, कुछ पढ़ने को हो और जो मन में आए, वह लिखने की आज़ादी हो. ब्लाग ने यह मौका भी दे दिया है.

इस तरह आज से शुरू होता है, “बैठे-ठाले : रविवारी गपशप”. कोशिश रहेगी कि अब आगे से हर रविवार कुछ अपने मन की बातें करें. हालांकि मन का ठिकाना नहीं. लेकिन अभी तो मन कह रहा है. आइये, शुरू करते हैं..

प्रेमचंद

क्या संयोग है? आज प्रेमचंद का जन्मदिन है. हिंदी कथा साहित्य के शिखर पुरुष हैं प्रेमचंद. किशोरावस्था से लेकर कालेज के दिनों में उनकी न जाने कितनी कहानियां पढ़ी हैं. हालांकि प्रेमचंद की किसी कहानी से पहला परिचय तो आठ-नौ साल की उम्र में ही हो गया था जब सबसे पहले ‘ईदगाह’ पढ़ी थी. शायद पांचवीं कक्षा में हिंदी की किताब में यह कहानी थी. उस कहानी ने रुला दिया था मुझे. वैसे कई कहानियों ने रुलाया है. उनमें एक और कहानी की याद आ रही है. फणीश्वर नाथ रेणु की ‘ठेस’ भी एक ऐसी ही कहानी थी.

लेकिन प्रेमचंद से विस्तृत परिचय कराया बड़े भैया अवधेश प्रधान (प्रोफ़ेसर, हिंदी, बी.एच.यू) ने. उनके पास प्रेमचंद की कहानियों के अलावा उनके सभी उपन्यास भी थे. हालांकि मैं सब नहीं पढ़ पाया और कुछ जो पढ़ा, उसकी भी अब बहुत क्षीण सी यादें हैं. लेकिन यह अफसोस आज तक है कि उनकी सबसे मशहूर कृति ‘गोदान’ नहीं पढ़ पाया. क्यों? नहीं जानता. ऐसा नहीं कि उपन्यास पढ़ने का धैर्य नहीं था.

यूनिवर्सिटी के दिनों में कई बार कोई उपन्यास लगातार एक या दो दिन में पढ़ जाता था. होस्टल के कमरे में बिना खाए-पिए सिर्फ चाय पर उपन्यास खत्म किये हैं. उन्हीं दिनों में सबसे ज्यादा पढ़ा. खूब मजा आता था. कई बार उन्हीं दिनों को फिर से जीने की इच्छा जोर मारने लगती है. क्या दिन थे वे भी!

आज जिस चीज को सबसे अधिक मिस करता हूँ, वह एक साथ आठ-दस घंटे का पढ़ना है. सोचता हूँ कि क्या हो गया है मुझे? ऐसा नहीं कि अब पढता नहीं हूँ. अब भी पढता हूँ लेकिन साहित्य से इतर ज्यादा पढ़ना होता है. उसमें भी खूब मजा आता है. अच्छा लगता है. लेकिन फुर्सत के साथ कोई कहानी या उपन्यास पढ़े अरसा हो गया. उसकी बात ही अलग है. उसका सुख वही जानता है जिसने उसे जिया है.

आज प्रेमचंद को याद करते हुए सोच रहा हूँ कि अब ‘गोदान’ पढ़ लिया जाए. देखें, यह मौका कब बनता है. आप भी मेरे लिए दुआ कीजिये.

‘हंस’

कभी प्रेमचंद के संपादन में निकली पत्रिका ‘हंस’ दोबारा १९८६ में हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार-बुद्धिजीवी राजेंद्र यादव के संपादन में निकलनी शुरू हुई. आज उसके पच्चीस साल पूरे हो गए. निश्चय ही, यह एक बड़ी उपलब्धि है. राजेंद्र जी को बधाई और ‘हंस’ की उनकी टीम को शुभकामनाएं.

आज के समय में समाज और साहित्य को लेकर चलनेवाली कई महत्वपूर्ण और जरूरी बहसों के लिए ‘हंस’ को पढ़ना अनिवार्य है. मौजूदा दौर में ‘हंस’ की विचारोत्तेजक उपस्थिति हम सभी लोगों के लिए एक बड़ा संबल है. कहने की जरूरत नहीं कि ‘हंस’ का नियमित पाठक हूँ और बेहिचक सबसे पहले राजेंद्र जी का लिखा संपादकीय पढता हूँ. राजेंद्र जी की सबसे बड़ी खूबी उनका खुलापन, जनतांत्रिक व्यवहार और नए लेखकों को प्रोत्साहन देना है.

मुझपर भी गाहे-बगाहे उनकी कृपा-दृष्टि पड़ती रही है. कोई आठ-नौ साल पहले पता नहीं उन्हें क्या सूझी कि उन्होंने ३१ जुलाई की गोष्ठी में मुझे भी ‘वैश्वीकरण और संस्कृति’ विषय पर बोलने के लिए बुला लिया था. मैंने भी बिना आगा-पीछा सोचे कि वहां साहित्य, समाज विज्ञान और संस्कृति के जाने-माने विद्वान होंगे, वह न्यौता स्वीकार कर लिया. कृष्ण कुमार, सुधीश पचौरी, योगेन्द्र यादव और रमाकांत अग्निहोत्री जैसे दिग्गजों के बीच मैंने क्या बोला, यह मत पूछिए लेकिन आज भी राजेंद्र जी के साहस की दाद देता हूँ.

ऐसे ही, राजेंद्र जी ने पिछले साल हंस की गोष्ठी में संचालन के लिए बुला लिया. विषय काफी विचारोत्तेजक था और पता था कि आज पुर्जे उड़ने वाले हैं. वही हुआ. ऐसा हंगामा हुआ कि बस पूछिए मत. मैं बड़े अपराधबोध के साथ घर लौटा कि संचालक की जिम्मेदारी नहीं निभा पाया. उस अफरा-तफरी में राजेंद्र जी से माफ़ी भी नहीं मांग पाया.

लेकिन इससे पहले कि मैं फोन कर पाटा, अगले दिन उनका फोन आ गया और वे कहने लगे कि आपने बहुत अच्छा संचालन किया. मैं हैरान. अब क्या कहूँ? कहने लगे कि आप परेशान मत होइएगा. ऐसा होता रहता है. क्या कहता? मैंने माफ़ी भी मांगने की कोशिश की तो कहने लगे कि इसमें माफ़ी मांगने की कोई बात नहीं है. गोष्ठी बहुत अच्छी रही.

ऐसे हैं राजेंद्र जी. ऐसे ही स्वस्थ-सक्रिय रहें, यही कामना है.

चलते-चलते

आज प्रेमचंद का जन्मदिन के साथ हिंदी फिल्मों के एक बेहतरीन गायक मोहम्मद रफ़ी की पुण्यतिथि है. उन्हें याद करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है कि प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ पर इसी नाम से बनी फिल्म का एक गीत पेश करूँ जिसे रफ़ी साहब ने गाया है. यह गीत फिल्म में महमूद पर फिल्माया गया है. सबसे खास बात यह है कि इसका संगीत पंडित रविशंकर ने दिया है. गीत अनजान ने लिखे हैं जो बनारस के रहनेवाले थे. गीत के बोल बनारसी भोजपुरी में हैं.

उसी फिल्म का एक और गीत मुकेश की आवाज़ में...इसकी बात ही कुछ अलग है:

अरे हाँ, आपकी राय और टिप्पणियों का इंतजार रहेगा. फिर मिलते हैं अगले रविवार.