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मंगलवार, जून 07, 2011

कौन कर रहा है सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों की मदद ?



कांग्रेस इमरजेंसी के दौर की भाषा बोलने लगी है



कांग्रेस अब अपने असली फार्म में आ गई है. कल तक बाबा रामदेव की अगवानी में बिछी और उनसे अंदरखाते की ‘डील’ के लिए बेचैन कांग्रेस को अब इलहाम हुआ है कि रामदेव न सिर्फ ‘ठग’ हैं बल्कि वे संघ परिवार के मुखौटे हैं. कांग्रेस के मुताबिक, राष्ट्रविरोधी सांप्रदायिक ताकतें देश को अस्थिर करने की कोशिश कर रही हैं, देश में दंगा भडकाने और अराजकता फैलाने की कोशिश की जा रही है और सरकार के खिलाफ दुर्भावना पैदा करने का अभियान चलाया जा रहा है.

कांग्रेस ने इसके साथ ही यह भी एलान कर दिया है कि वह सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों से निपटने और उनका मुकाबला करने से पीछे नहीं हटेगी. माफ़ कीजियेगा, कांग्रेस की यह भाषा नई नहीं है. ७० और ८० के दशक में खासकर इमरजेंसी के दौरान देश यह भाषा सुन और भुगत चुका है. याद करिये, भ्रष्टाचार और तानाशाही के आरोपों में घिरी इंदिरा गाँधी और बाद में राजीव गाँधी के ज़माने में भी कांग्रेस लगभग यही भाषा बोलती सुनी गई थी. तब और अब में फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों के साथ-साथ अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सी.आई.ए को भी जिम्मेदार ठहराया जाता था.

लेकिन सी.आई.ए का नाम इसलिए नहीं लिया जा रहा है क्योंकि अब सी.आई.ए इस सरकार को ‘स्थिर करने में’ खासी दिलचस्पी ले रही है (सौजन्य: विकिलिक्स). यह भी देश से छुपा नहीं है कि जब कांग्रेस ऐसी भाषा बोलना शुरू करती है तो उसका मतलब क्या होता है? देश का हालिया इतिहास इसका गवाह है. इसका मतलब होता है कि सरकार आनेवाले दिनों में भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ मध्यमवर्गीय समाज के शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक आन्दोलनों को भी बर्दाश्त नहीं करने जा रही है. गरीबों, आदिवासियों, दलितों और खेतिहर मजदूरों के खिलाफ तो ग्रीन हंट पहले से ही जारी है.

साफ है कि यह बाबा रामदेव के अनशन और मजमे के साथ जो हुआ, वह शुरुआत भर है. कांग्रेस ने संकेतों में अपनी असली मंशा भी जाहिर कर दी है. अब किसी को कोई शंका नहीं रह जाना चाहिए कि अगला निशाना अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन है. कांग्रेस और सरकार से आ रहे आक्रामक बयानों से साफ है कि सिविल सोसायटी के साथ हनीमून लगभग सभी व्यवहारिक अर्थों में खत्म हो चुका है. कांग्रेस को संसद की सर्वोच्चता और संविधान की याद आने लगी है. उसने तय कर लिया है कि देश को ‘भीड़तंत्र’ से नहीं चलाया जा सकता है और शनिवार की रात उसने ‘रेडलाइन’ खींच दी है.

सवाल है कि क्या सचमुच, कांग्रेस रामलीला मैदान में पुलिसिया कार्रवाई के जरिये सांप्रदायिक फासीवाद से लड़ रही है? सच यह है कि वह संघ परिवार से नहीं बल्कि भ्रष्टाचार विरोधी नागरिक आंदोलन से लड़ रही है और इस तरह संघ परिवार-भाजपा को मजबूत करने में लगी है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस को चुपचाप देखनेवाली और वैचारिक-राजनीतिक तौर पर संघ परिवार के आगे घुटने टेक चुकी कांग्रेस सांप्रदायिक फासीवाद से नहीं लड़ रही है बल्कि संघ परिवार को नई राजनीतिक जमीन मुहैया करवाने में लगी है.

राजनीतिक रूप से कोई अंधा भी देख सकता है कि कांग्रेस के रवैये से राजनीतिक तौर पर किसे फायदा हो रहा है? कांग्रेस और यू.पी.ए की मदद से खुद भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी और येदियुरप्पा से लेकर निशंक तक भ्रष्ट मुख्यमंत्रियों की पैरोकार भाजपा को गंगा नहाने और भ्रष्टाचार विरोध की अगुवाई करने का मौका मिल गया है. इस हकीकत को अनदेखा करना मुश्किल है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी और विदेशों में जमा कालेधन के मुद्दे पर मुंह चुरा रही मनमोहन सिंह सरकार की साख और विश्वसनीयता दिन-पर-दिन और जैसे-जैसे नीचे गिर रही है, उसका सबसे ज्यादा राजनीतिक फायदा भाजपा और संघ परिवार को हो रहा है.

सच पूछिए तो कांग्रेस भी यही चाहती है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खड़ी हो रही देशव्यापी लड़ाई उसके और संघ परिवार के बीच की राजनीतिक कुश्ती में बदल जाये. इसमें उसे कम से कम अल्पसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण और उससे होनेवाला राजनीतिक फायदा दिखाई पड़ रहा है. यह राजनीतिक रूप से भाजपा और संघ परिवार को भी मुफीद बैठता है. उन्हें इसमें अपने राजनीतिक पुनरुद्धार का सुनहरा मौका दिखाई दे रहा है.

जाहिर है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों लोकतान्त्रिक ताकतों की अगुवाई में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल और हाइजैक करने की कोशिश कर रहे हैं. इसमें कोई दोराय नहीं है कि बाबा रामदेव भी इस कांग्रेसी-भाजपाई नूराकुश्ती के एक मोहरे भर बनकर रह गए. लेकिन अब जरूरत इस खेल को समझने और उसका पर्दाफाश करने की है.

सच यह है कि संघ परिवार की सबसे बड़ी मददगार खुद कांग्रेस है. विश्वास नहीं हो तो आनेवाले दिनों में सांप्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक से लेकर सच्चर समिति की सिफारिशों को लागू करने के मुद्दे पर कांग्रेस की नीति और रवैये पर नजर रखियेगा. सच सामने आ जायेगा कि कांग्रेस सांप्रदायिकता से कितनी मजबूती से लड़ती है.

 
(जल्दी ही, भ्रष्टाचार विरोधी सिविल सोसायटी के आन्दोलन की कमजोरियों और अंतर्विरोधों पर भी बात करेंगे...आप इस बहस पर अपनी राय से जरूर दीजिये)

रविवार, जून 05, 2011

दमन पर उतर आई है यू.पी.ए सरकार

कांग्रेस और भाजपा दोनों रामदेव का इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही हैं



जैसीकि आशंका थी, वही हुआ. भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर चारों ओर से घिरी यू.पी.ए सरकार और खासकर कांग्रेस अब दमन पर उतर आई है. सिविल सोसायटी के साथ भ्रष्टाचार से लड़ने का नाटक कर रही सरकार अपने असली रूप में आ गई है. इसके साथ ही, यू.पी.ए सरकार और सिविल सोसायटी के राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी हिस्से के साथ शुरू हुआ संक्षिप्त हनीमून कल रात जबरदस्त कड़वाहट के बीच समाप्त हो गया.


कहने की जरूरत नहीं है कि विदेशों में जमा कालाधन को वापस देश में लाने के मुद्दे पर शनिवार से अनशन (या तप) पर बैठे बाबा रामदेव के सत्याग्रह को जिस तरह से आधी रात की पुलिसिया कार्रवाई के जरिये तहस-नहस किया गया, उससे साफ़ है कि मनमोहन सिंह सरकार ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सिविल सोसायटी के साथ दिखावे के लिए ही सही सहयोग और समावेश की राजनीति के बजाय टकराव और दमन का इरादा बना लिया है. इस तरह यू.पी.ए सरकार ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया है.

आश्चर्य नहीं होगा, अगर आनेवाले दिनों में लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए गठित समिति का भी यही हश्र हो. इसके संकेत मिलने भी लगे हैं. लोकपाल समिति की पिछली बैठक में सरकारी प्रतिनिधियों ने जिस तरह से प्रधानमंत्री और शीर्ष न्यायपालिका से लेकर सांसदों और अफसरों को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने की वकालत और इस मुद्दे पर अड़ियल रूख अपनाना शुरू कर दिया है, उसके बाद सरकार के इरादों को लेकर संदेह बढ़ने लगा है. सरकार के रवैये से साफ है कि वह एक प्रभावी और सख्त लोकपाल के पक्ष में नहीं है और इस पूरी प्रक्रिया को पटरी से उतारने के लिए हर तिकड़म करेगी.

वैसे इसकी शुरुआत पहले से ही हो चुकी है. जिस तरह से लोकपाल समिति के गठन के बाद इसके सिविल सोसायटी सदस्यों खासकर शांति भूषण और प्रशांत भूषण के खिलाफ सरकार की शह पर दुष्प्रचार शुरू हुआ, उससे साफ हो गया था कि आगे क्या होनेवाला है? हैरानी की बात नहीं है कि कल रात रामलीला मैदान में यू.पी.ए सरकार खुले दमन पर उतर आई. यही नहीं, सरकार ने जिस तरह से ऐसे सभी आन्दोलनों को सख्ती की चेतावनी दी है, उससे भी साफ है कि रामलीला मैदान में जो कुछ भी हुआ, वह सिर्फ ट्रेलर है. आनेवाले दिनों में सरकार भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को तोड़ने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति का खुलकर इस्तेमाल करेगी.

यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि मैं खुद बाबा रामदेव और उनके विचारों और तौर-तरीकों का समर्थक नहीं हूँ. इस बात को स्वीकार करते हुए भी कि भ्रष्टाचार और कालेधन खासकर विदेशों में जमा कालेधन को देश में वापस लाने के लिए एक बड़े जनांदोलन की जरूरत है, मैं बाबा रामदेव के अभियान के साथ कई कारणों से असहज महसूस करता हूँ. उनके अभियान में जिस तरह से सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों और उनके नेताओं से लेकर कुख्यात खाप पंचायत तक के लोग शामिल हैं और उसका नेतृत्व कर रहे हैं, उसके साथ किसी भी जनतांत्रिक व्यक्ति के लिए खड़ा होना मुश्किल होगा. यही नहीं, खुद बाबा रामदेव के विचारों में अलोकतांत्रिक और सांप्रदायिक फासीवादी रुझान साफ देखे जा सकते हैं.

लेकिन कोई भी जनतांत्रिक व्यक्ति एक शांतिपूर्ण सत्याग्रह पर बर्बर पुलिसिया कार्रवाई का समर्थन नहीं कर सकता है. खासकर जिस तरह से सरकार ने आधी रात को आंसू गैस, लाठीचार्ज और वृद्धों-महिलाओं के साथ बदसलूकी की है, उसकी जितनी निंदा की जाये, वह कम है. यह समझ से बिलकुल बाहर है कि जो सरकार कल तक रामदेव के स्वागत में बिछी जा रही थी, उनसे डील कर रही थी और यहाँ तक कि रात में ११.३० बजे मांगे मानने की चिट्ठी भेजने के बाद अचानक ऐसा क्या हो गया कि रात १.३० बजे पुलिसिया कार्रवाई करनी पड़ी? निश्चय ही, सरकार को इस यू टर्न के कारण स्पष्ट करने होंगे.

इसमें भी कोई शक नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस) और उसके अनुषांगिक संगठनों जैसे विहिप, बजरंग दल आदि की बाबा रामदेव के इस आंदोलन में गहरी दिलचस्पी है. यह किसी से छुपा नहीं है कि संघ परिवार बाबा रामदेव को कांग्रेस के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता है. लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही बड़ा सच है कि खुद बाबा रामदेव की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं आसमान छू रही हैं. यही कारण है कि खुद भाजपा इस आंदोलन को लेकर संशय में थी और उसे लग रहा था कि कहीं कांग्रेस रामदेव को इस्तेमाल न कर ले जाये. उसे यह भी डर सता रहा था कि कांग्रेस बाबा रामदेव को चढ़ाकर उसके समानांतर एक राजनीतिक ताकत खड़ा करने की कोशिश कर रही है.

इस प्रकरण पर भाजपा नेताओं की प्रतिक्रिया में भी वह खिन्नता छुपाये नहीं छुप सकी कि विदेशों में जमा कालेधन का मुद्दा सबसे पहले भाजपा ने उठाया था. भाजपा का यह डर तब और बढ़ गया, जब कांग्रेस ने बाबा को हाथों-हाथ लेना शुरू किया. हालाँकि तुलनाएं हमेशा बिलकुल सही नहीं होती हैं लेकिन बाबा रामदेव को कांग्रेस और यू.पी.ए सरकार जिस तरह से आसमान पर चढा रही थी, वह काफी हद तक ८० के दशक में अकालियों को राजनीतिक रूप से मात देने के लिए इंदिरा गाँधी ने पंजाब में भिंडरावाले को खड़ा करने की रणनीति से मिलता-जुलता था.

कहने का मतलब यह है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों राजनीतिक रूप से बाबा रामदेव को इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं. जब कांग्रेस को लगा कि बाबा रामदेव हाथ में नहीं आ रहे हैं तो उसने रणनीति बदलते हुए एक ओर पुलिसिया दमन और दूसरी ओर, राजनीतिक रूप से बाबा को आर.एस.एस एजेंट घोषित करने का अभियान छेड दिया है. कांग्रेस और सरकार ने अब भाजपा को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को हाइजैक करने का मौका दे दिया है. इस तरह एक बार फिर भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर कांग्रेस और भाजपा के बीच नूराकुश्ती शुरू हो गई है. दोनों इसका राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश में जुट गए हैं.

लेकिन इसका मौका खुद बाबा रामदेव और उनके समर्थकों ने दिया है. उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं, सांप्रदायिक विचारों और मनमाने तौर-तरीकों ने भ्रष्टाचार और कालेधन के गंभीर मुद्दे को जिस तरह से हल्का और मजाक का विषय बना दिया है, वह देश में इस मुद्दे पर खड़ा हो रहे एक बड़े आंदोलन के लिए बड़ा झटका है.