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मंगलवार, सितंबर 03, 2013

लुढ़कता रुपया संकेत हैं अर्थव्यवस्था के गहराते संकट का

आवारा विदेशी पूंजी पर अति निर्भरता की रणनीति अर्थव्यवस्था को बड़े संकट की ओर ढकेल रही है 

डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में तेज गिरावट का दौर जारी है. अकेले अगस्त के तीसरे सप्ताह में डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में ५.५ फीसदी से अधिक की गिरावट दर्ज की गई और वह लुढककर रिकार्ड ६४.६५ रूपये तक पहुँच गई. मुद्रा बाजार में घबराहट और अनिश्चितता का आलम यह है कि रूपया हर दिन गिरावट के नए रिकार्ड बना रहा है.
 
यह गिरावट पिछले ढाई-तीन महीनों से जारी है. इस कारण २२ मई के बाद से डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में रिकार्ड १६.५ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.
हालाँकि इस बीच ब्राजील, इंडोनेशिया, तुर्की, थाईलैंड, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका जैसे अधिकांश विकासशील देशों की मुद्राओं में भी भारी से लेकर मध्यम स्तर की गिरावट दर्ज की गई है लेकिन विश्लेषकों के मुताबिक इन सबमें ब्राजील के रियाल के बाद भारतीय रूपये का प्रदर्शन सबसे कमजोर रहा है.
उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि इस माहौल में रुपया किस हद और कहाँ तक गिरेगा, इसे लेकर अनिश्चितता और घबराहट का माहौल बना हुआ है. ड्यूश बैंक का कहना है कि रुपया अगले कुछ महीनों में डालर के मुकाबले गिरकर ७० रूपये तक पहुँच सकता है.

लेकिन दूसरी ओर बार्कलेज बैंक का दावा है कि चालू वित्तीय वर्ष के आखिर तक डालर के मुकाबले रूपया मजबूत होकर ६०-६१ रूपये के करीब रहेगा. डालर के मुकाबले रूपये की कीमत के ६५ रूपये से भी नीचे आ जाने के बाद खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का दावा है कि रूपये की कम कीमत लगाई जा रही है.

चिदंबरम ने रूपये को संभालने के लिए बाजार और विदेशी निवेशकों को भरोसा भी दिलाया है कि वे न सिर्फ चालू खाते और राजकोषीय घाटे को निर्धारित सीमा से बाहर नहीं जाने देंगे बल्कि विदेशी निवेश को लुभाने के लिए और कदम उठाएंगे.

लेकिन मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक अनिश्चितता और निराशा के माहौल में इससे रूपये की सेहत कितनी सुधरेगी, यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. हाल के महीनों में वित्त मंत्री से लेकर रिजर्व बैंक के गवर्नर तक रूपये को चढ़ाने के लिए ऐसे दावे और वायदे कई बार कर चुके हैं लेकिन उनके दावों-वायदों का प्रभाव दो-तीन दिनों से ज्यादा नहीं रहता है.
इसकी वजह यह है कि रूपये का गिरना असली संकट नहीं है बल्कि यह सिर्फ संकट का लक्षण भर
है. असल में, यह अर्थव्यवस्था का संकट है जो रूपये की कमजोरी से लेकर शेयर बाजार में गिरावट तक में दिख रहा है. लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि रूपये की तेज गिरावट खुद भी एक संकट का रूप लेती जा रही है और पहले से डावांडोल भारतीय अर्थव्यवस्था को एक बड़े संकट की ओर ढकेल रही है.
आखिर डालर के मुकाबले रूपये की तेज गिरावट की वजह क्या है? ज्यादातर विश्लेषकों का कहना है कि रूपये की कमजोरी की कई वजहें हैं लेकिन सभी एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. रूपये में गिरावट की मुख्य वजह लगातार बढ़ते चालू खाते के घाटे और विदेशी निवेशकों के पलायन को माना जा रहा है. चालू खाते का घाटा व्यापार शेष (माल और सेवाओं के आयात को घटाकर निर्यात), निवल घटक आय (जैसे लाभांश और ब्याज) और निवल अंतरण भुगतान (जैसे विदेशी सहायता) का कुलयोग है जो मोटे तौर पर यह दिखाता है कि देश अपनी आय से कितना ज्यादा उपभोग कर रहा है.

यह चादर से बाहर पैर फ़ैलाने की तरह है. पिछले साल चालू खाते का घाटा ८८ अरब डालर तक पहुँच गया था जोकि जी.डी.पी का ४.८ फीसदी था. सरकार का दावा है कि चालू वित्तीय वर्ष में चालू खाते का घाटा बजट में अनुमानित ७० अरब डालर से कम रहेगा लेकिन कमजोर निर्यात के मद्देनजर बाजार और विदेशी निवेशकों को इस दावे पर भरोसा नहीं है.   

तथ्य यह है कि ऊँचे चालू खाते के घाटे के मामले में भारत इस समय दुनिया के चुनिंदा देशों में है और उससे अधिक चालू खाते का घाटा सिर्फ अमेरिका का है. आमतौर पर जी.डी.पी के २ फीसदी से कम चालू खाते के घाटे को सुरक्षित माना जाता है लेकिन भारत का चालू खाते का घाटा पिछले कई वर्षों से लगातार इस सुरक्षित सीमा से ऊपर रहा है.
चालू खाते के बढ़ने के पीछे सबसे बड़ी वजह कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें और बढ़ता घरेलू खपत, सोने और महंगे विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं का बढ़ता आयात है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए देश का अमीर और उच्च मध्यम वर्ग जिम्मेदार है जो चादर से बाहर पैर फैलाकर उपभोग कर रहा है. चाहे वह बड़ी कारों-एस.यू.वी में फूँकने वाला डीजल हो या सुरक्षित निवेश के लिए सोने का आयात या फिर महंगे विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं की ललक हो- देश के अमीर और उच्च मध्य वर्ग की भूख बढ़ती ही जा रही है.
लेकिन इस कारण बढ़ रहे चालू खाते के घाटे की भरपाई के लिए विदेशी मुद्रा यानी डालर चाहिए. इसके लिए विदेशी कर्ज या विदेशी निवेश या दोनों चाहिए और वह विदेशी निवेशकों को लुभाकर और उन्हें अधिक से अधिक छूट देकर ही संभव है.

कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले दो दशकों में जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाया गया है, उनके केन्द्र में किसी भी कीमत पर अधिक से अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने की रणनीति रही है.

इसके लिए विदेशी निवेशकों को उनकी शर्तें मानकर मुंहमांगी छूट-रियायतें दी गईं हैं. लेकिन इसके बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में स्थाई प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) की तुलना में अस्थाई विदेशी निवेश खासकर संस्थागत विदेशी निवेशकों (एफ.आई.आई) के जरिये शेयर और वित्तीय बाजार में आया है.

लेकिन यह आवारा पूंजी है जब उसे मुंहमांगा मुनाफा मिल रहा होता है, वह तेजी से और बड़ी मात्रा में आती है लेकिन जैसे ही मुनाफा कम होता है या किसी और देश की अर्थव्यवस्था में ज्यादा मुनाफे की सूरत दिखाई देती है, उसे देश छोड़कर निकलने में देर नहीं लगती है.
इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ भी यही हो रहा है. अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर लड़खड़ा रही है. औद्योगिक उत्पादन निराशाजनक है. निर्यात में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है. इस कारण कंपनियों के मुनाफे पर दबाव बढ़ रहा है.
दूसरी ओर, आयात में कोई खास कमी नहीं होने के कारण चालू खाते का घाटा बढ़ रहा है. जाहिर है कि इससे विदेशी निवेशकों में बहुत बेचैनी है और वे सुरक्षित विकल्प खोज में देश से निकल रहे हैं. 
इस बीच, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेतों के बीच वहां के केन्द्रीय बैंक ने अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए लाये गए ‘उत्प्रेरक पैकेज’ (स्टिमुलस पैकेज) और उसके तहत ‘इजी मनी’ की नीति को वापस लेने का एलान किया है जिसके कारण विदेशी निवेशक वापस अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ओर रूख कर रहे हैं. इससे डालर की मांग बढ़ गई है और रूपये की कीमत में तेज गिरावट दर्ज की जा रही है.

इसका फायदा सट्टेबाज भी उठा रहे हैं. रूपये की कीमत में तेज उतार-चढाव में देशी-विदेशी सट्टेबाजों
की भी बड़ी भूमिका है. लेकिन ऐसा नहीं है कि यह स्थिति आज पैदा हुई है. पिछले वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था की विदेशी पूंजी खासकर आवारा विदेशी पूंजी पर निर्भरता बढ़ती ही जा रही थी.

यह स्थिति आज भारतीय अर्थव्यवस्था की एक प्रमुख संरचनागत समस्या है जो सीधे तौर पर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का नतीजा है. इसने आय के असमान बंटवारे और गैर जरूरी उपभोग को बढ़ावा दिया है जिसका नतीजा चालू खाते के घाटे के रूप में सामने है.

लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था की तीव्र गति और अमेरिकी ‘इजी मनी’ के कारण डालर के तीव्र प्रवाह के बीच बढ़ते चालू खाते के घाटे की समस्या को यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं ने लगातार नजरंदाज़ किया.
उल्टे उनके अति आत्मविश्वास का हाल यह था कि वे पूंजीगत खाते की परिवर्तनीयता (रूपये की पूर्ण परिवर्तनीयता) यानी पूंजी के प्रवाह पर से सारे नियंत्रण हटा लेने की बातें करने लगे थे. यही नहीं, पिछले कुछ वर्षों में रिजर्व बैंक और सरकार ने पूंजी के प्रवाह को उदार बनानेवाले फैसले भी किये. लेकिन वे भूल गए कि १९९७-९८ में दक्षिण-पूर्वी एशियाई टाइगरों के साथ क्या हुआ था?
यही नहीं, मौजूदा संकट के संकेत पिछले दो साल से दिखने लगे थे. चालू खाते के बढ़ते घाटे, वैश्विक आर्थिक संकट और धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था के कारण रूपये पर दबाव बढ़ता जा रहा था. हैरानी की बात नहीं है कि डालर के मुकाबले रूपये की कीमत अगस्त’२०११ में लगभग ४५ रूपये थी, वह गिरकर अगस्त’१२ में ५५ रूपये तक पहुँच गई और अब अगस्त’१३ में और गिरकर ६५ रूपये पर पहुँच गई है.

इस कारण यू.पी.ए सरकार पर अधिक से अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने और इसके लिए विदेशी पूंजी को और रियायतें देने का दवाब बढ़ता ही जा रहा था. इसी दबाव में पिछले साल वित्त मंत्री का पद दोबारा संभालने वाले पी. चिदंबरम ने खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी एफ.डी.आई से लेकर बैंक-बीमा और पेंशन क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और आवारा पूंजी यानी एफ.आई.आई को कई रियायतों का एलान किया.

यही नहीं, उन्होंने इस साल बजट पेश करते हर साफ़ तौर पर एलान किया कि तात्कालिक तौर पर चालू खाते के बढ़ते घाटे की भरपाई के लिए विदेशी पूंजी को आमंत्रित करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है.
कहने की जरूरत नहीं है कि वित्त मंत्री ने पिछले एक साल से विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं उठा रखा है. विदेशी पूंजी को रियायतें देने के अलावा वे दुनिया भर में घूम-घूमकर निवेशकों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं.
हालाँकि इस कोशिश में वे भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी पर और निर्भर बना रहे हैं. लेकिन मौजूदा उपभोग की भरपाई के लिए विदेशी पूंजी पर बढ़ती यह निर्भरता अर्थव्यवस्था को एक बड़े और गहरे संकट की ओर ढकेल रही है.
उदाहरण के लिए, भारत पर विदेशी कर्ज पिछले दो सालों में २७ फीसदी बढ़ गया है. भारत पर जो विदेशी कर्ज मार्च’११ में ३०६ अरब डालर (जी.डी.पी का १७.५ प्रतिशत) था, वह इस साल मार्च में बढ़कर ३९० अरब डालर (जी.डी.पी का २१.२ प्रतिशत) हो गया है.

यही नहीं, सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इसमें अल्पावधि के विदेशी कर्ज का अनुपात भी तेजी से बढ़ा है. रिपोर्टों के मुताबिक, कुल विदेशी कर्ज में अल्पावधि का कर्ज कुल विदेशी मुद्रा भण्डार के अनुपात में मार्च’११ के ४२ फीसदी से बढ़कर मार्च’१३ में ५९ फीसदी तक पहुँच गया है.

यह कर्ज ऐसे ही नहीं बढ़ा है, जब अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही थी तो अति आत्मविश्वास में सरकार ने देशी कारपोरेट समूहों को अल्पावधि के विदेशी कर्ज लेने की छूट दी.
 
हालाँकि आर्थिक-वित्तीय संकट में फंसे कई देशों की तुलना में भारत की स्थिति बेहतर है लेकिन जिस तरह से विदेशी पूंजी खासकर अल्पावधि का कर्ज बढ़ता जा रहा है, वह संकटग्रस्त देशों की दिशा में बढ़ने का संकेत है.

इससे न तो रूपये का संकट खत्म होनेवाला है और न ही अर्थव्यवस्था का संकट टलनेवाला है. विदेशी पूंजी को रियायतें और छूट देकर संकट टालने की रणनीति तात्कालिक तौर पर संकट से भले निजात दिला दे लेकिन वह अगले संकट की नींव तैयार करके जाती है.

आखिर अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्याओं को दूर किये बिना विदेशी पूंजी के कोरामिन से अर्थव्यवस्था को कब तक दौडाया जा सकता है?

(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के 5 सितम्बर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

बुधवार, जून 20, 2012

अर्थव्यवस्था का गहराता संकट और रिजर्व बैंक की प्राथमिकताएं

रिजर्व बैंक ने गेंद सरकार के पाले में डाल दी है

लगता है कि आमतौर पर लीक पर चलनेवाले रिजर्व बैंक को भी चौंकाने की आदत पड़ गई है. सोमवार को मध्य तिमाही ब्याज दरों की समीक्षा के बाद रिजर्व बैंक ने उम्मीदों के विपरीत न तो रेपो दर यानी ब्याज दर में कोई कटौती की और न ही नगद-जमा अनुपात (सी.आर.आर) में कोई फेरबदल किया.
अधिकांश अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों को उम्मीद थी कि रिजर्व बैंक गिरती आर्थिक वृद्धि दर को सहारा देने के लिए ब्याज दरों के अलावा सी.आर.आर में कटौती जरूर करेगा ताकि निजी क्षेत्र को निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जा सके. सरकार के आर्थिक मैनेजरों की भी ओर से ऐसे संकेत मिल रहे थे और यहाँ तक कि खुद वित्त मंत्री ने भी ब्याज दरों में कटौती की उम्मीद जाहिर की थी.
इस उम्मीद को इस तथ्य से भी बल मिल रहा था कि बीते १८ अप्रैल को सालाना मौद्रिक और कर्ज नीति की घोषणा करते हुए गवर्नर डी. सुब्बाराव ने रेपो दर में उम्मीद के विपरीत सीधे आधी फीसदी की कटौती का एलान करके सबको चौंका दिया था. उस समय ब्याज दरों में कटौती और वह भी सीधे आधी फीसदी की कटौती की उम्मीद किसी को नहीं थी.

तब यह माना गया था कि रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति से लड़ने के लिए ब्याज दरों में लगातार बढ़ोत्तरी की अपनी आक्रामक एकसूत्री नीति को विराम देते हुए आर्थिक विकास दर में आ रही गिरावट को रोकने की पहल की है.

निश्चय ही, वह रिजर्व बैंक की बड़ी और साहसिक पहल थी जिसमें एक जोखिम भी निहित था. वजह यह कि उस समय भी मुद्रास्फीति की दर ऊँची बनी हुई थी लेकिन सुब्बाराव के फैसले से यह उम्मीद बढ़ गई थी कि रिजर्व बैंक अब मुद्रास्फीति के बजाय आर्थिक वृद्धि में आ रही गिरावट को थामने पर जोर देगा.
लेकिन रिजर्व बैंक ने सबकी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए एक बार फिर मुद्रास्फीति नियंत्रण पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया है. गनीमत यह है कि उसने ब्याज दरों में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की और रेपो दर को ज्यों का त्यों रखते हुए यह संकेत देने की कोशिश की है कि मुद्रास्फीति नियंत्रण पहली प्राथमिकता होते हुए भी वह अर्थव्यवस्था की जरूरतों खासकर ब्याज दरों में कमी की मांग के प्रति निष्ठुर नहीं है.
इस मायने में डी. सुब्बाराव ने अपनी प्राथमिकता स्पष्ट कर दी है. उन्होंने स्पष्ट किया है कि अप्रैल में ब्याज दरों में आधी फीसदी की कटौती एक तरह से भविष्योन्मुखी कटौती थी. लेकिन मौजूदा मुद्रास्फीति-विकास दर के बीच के गतिविज्ञान के देखते हुए साफ़ है कि अभी की स्थिति में ब्याज दरों में कटौती से आर्थिक वृद्धि को सहारा मिलने के बजाय मुद्रास्फीति की स्थिति और बिगड़ सकती है. रिजर्व बैंक ने अपने ताज़ा फैसले के पक्ष में तर्क देते हुए कहा है कि आर्थिक वृद्धि दर में आई गिरावट के लिए अनेकों कारण जिम्मेदार हैं जिनमें ब्याज दरों में वृद्धि की बहुत छोटी भूमिका है.

असल में, रिजर्व बैंक को उम्मीद थी कि मार्च के बाद से मुद्रास्फीति की दर में नरमी आने लगेगी. लेकिन मुद्रास्फीति के ताज़ा आंकड़ों ने रिजर्व बैंक की नींद उड़ा दी है. थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर अप्रैल माह के ७.२३ फीसदी से बढ़कर मई माह में ७.५५ फीसदी पहुँच गई है.
इसी तरह उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर दहाई छू रही है और अप्रैल और मई महीने में १०.३६ फीसदी की ऊँचाई पर बनी हुई थी जबकि खाद्य मुद्रास्फीति दर में वृद्धि दर्ज की गई है. यही नहीं, मार्च महीने की ६.८९ फीसदी की मुद्रास्फीति दर संशोधन के बाद ७.६९ फीसदी तक पहुँच गई है.
कहने की जरूरत नहीं है कि मुद्रास्फीति के इन आंकड़ों ने रिजर्व बैंक की चिंता बढ़ा दी है. इसकी वजह यह है कि ७.५५ प्रतिशत की मुद्रास्फीति दर न सिर्फ ५ से ६ फीसदी के लक्ष्य से कहीं ज्यादा और पिछले साल के दोहरे अंकों की ऊँची मुद्रास्फीति दर के ऊँचे बेस के बावजूद है बल्कि यह दर सभी ब्रिक और विकसित औद्योगिक देशों की तुलना में ज्यादा है.

निश्चय ही, इस ऊँची मुद्रास्फीति दर ने रिजर्व बैंक के हाथ बाँध दिए हैं. रिजर्व बैंक की चिंता की एक वजह यह भी है कि आर्थिक वृद्धि की गिरती दर के बीच मुद्रास्फीति की मौजूदा ऊँची दर के कारण अर्थव्यवस्था के मुद्रास्फीतिजनित मंदी (स्टैगफ्लेशन) में फंसने का गंभीर खतरा पैदा हो गया है.

तथ्य यह है कि अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडी ने तो भारतीय अर्थव्यवस्था के स्टैगफ्लेशन में फंसने का एलान कर दिया है. स्टैगफ्लेशन वह स्थिति होती है जिसमें किसी अर्थव्यवस्था की आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट आ रही होती है लेकिन दूसरी ओर, मुद्रास्फीति की दर ऊँची बनी रहती है. किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए स्टैगफ्लेशन बहुत घातक माना जाता है क्योंकि एक बार उसमें फंसने के बाद उससे निकलना न सिर्फ बहुत मुश्किल हो जाता है बल्कि आमलोगों के लिए यह स्थिति आर्थिक रूप से बहुत पीड़ादायक होती है.

वजह यह कि कारपोरेट क्षेत्र एक ओर नए निवेश करने से कतराने लगता है और इस कारण नई नौकरियों का सृजन ठप्प हो जाता है और दूसरी ओर, निजी क्षेत्र अपने मुनाफे को बनाये रखने के लिए छंटनी से लेकर तनख्वाह कटौती पर उतर आता है.

हैरानी की बात नहीं है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों खासकर उद्योग जगत से छंटनी और तालाबंदी की रिपोर्टें लगातार आ रही हैं. ताज़ा रिपोर्टों के मुताबिक, आर्थिक वृद्धि में आई गिरावट और वैश्विक आर्थिक संकट के कारण श्रम सघन क्षेत्रों जैसे टेक्सटाइल उद्योग में पिछले दो सालों में ४५ लाख से अधिक लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है. इससे पता चलता है कि अर्थव्यवस्था का संकट कितनी तेजी से गहरा रहा है.
हालिया आंकड़ों से इसकी पुष्टि होती है. रिपोर्टों के मुताबिक, अप्रैल महीने में औद्योगिक उत्पादन की दर में सिर्फ ०.१ फीसदी की वृद्धि हुई है. इससे पहले मार्च महीने में औद्योगिक उत्पादन दर गिरकर नकारात्मक – ३.५ फीसदी रह गई थी. यही नहीं, आर्थिक वृद्धि की दर पिछले वित्तीय वर्ष की आखिरी तिमाही (जनवरी-मार्च) में गिरकर मात्र ५.३ फीसदी और पूरे साल में ६.५ प्रतिशत रह गई.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि अर्थव्यवस्था में आ रही इस गिरावट की एक बड़ी वजह नए निवेश में आ रही गिरावट है. इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि अप्रैल में पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में सबसे अधिक (–) १६.३ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है जिससे पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में नया निवेश ठहर सा गया है.

निवेश में आई यह गिरावट इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि वैश्विक आर्थिक संकट खासकर यूरोपीय देशों और अमेरिका के गहराते आर्थिक संकट के कारण एक ओर निर्यात में गिरावट आई है और दूसरी ओर, विदेशी पूंजी खासकर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रवाह कमजोर हुआ है जबकि विदेशी संस्थागत निवेशक (एफ.आई.आई) देश से पैसा निकालकर ले जा रहे हैं. इसके कारण रूपये पर भारी दबाव है.

साफ़ है कि इस समय अर्थव्यवस्था की इस लड़खड़ाती स्थिति को संभालना सबसे बड़ी चुनौती है. मजे की बात यह है कि रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय से लेकर उद्योग जगत और आर्थिक विश्लेषक सभी इसके लिए अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने की जरूरत को मानते हैं. सवाल यह है कि निवेश कैसे बढ़ाया जाए?
रिजर्व बैंक को छोडकर लगभग सभी एकमत हैं कि निवेश में वृद्धि के लिए ब्याज दरों में कटौती जरूरी है. लेकिन रिजर्व बैंक इससे एक सीमा तक ही सहमत है और मानता है कि इसमें ब्याज दर की सीमित भूमिका है और निवेश में बढ़ोत्तरी के लिए सरकार को और उपाय करने चाहिए.
रिजर्व बैंक के मुताबिक, जब तक सरकार मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए वित्तीय घाटे में कटौती और आपूर्ति पक्ष की बाधाएं दूर करने की ठोस कोशिश नहीं करेगी, उसके लिए मुद्रास्फीति की मौजूदा ऊँची दर के बीच ब्याज दरों में और कटौती संभव नहीं है. यह और बात है कि सिर्फ दो दिन पहले ही वित्त मंत्री ने राजकोषीय मोर्चे पर पहल लेने का दावा करते हुए उम्मीद जाहिर की थी कि रिजर्व बैंक भी ब्याज दरों में कटौती के जरिये इसे आगे बढ़ाएगा.

लेकिन रिजर्व बैंक के ताज़ा फैसले से साफ़ है कि वह सरकार के दावे से इत्तफाक नहीं रखता है. इसलिए डी. सुब्बाराव ब्याज दरों में कटौती करके और जोखिम लेने के लिए तैयार नहीं हैं. उनके लिए मुद्रास्फीति को काबू में करना पहली प्राथमिकता है. 

इस तरह गेंद एक बार फिर वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और सरकार के पाले में है. फैसला अब सरकार को करना है कि निवेश बढ़ाने के लिए क्या किया जाए? इतना तय है कि गहराते आर्थिक संकट से निपटने के लिए सरकार के पास समय बहुत कम है. उसे तुरंत फैसला करना होगा.

('दैनिक भाष्कर', नई दिल्ली के आप-एड पृष्ठ पर 19 जून को प्रकाशित मुख्य लेख)