सोमवार, नवंबर 30, 2009

लिब्राहन आयोग और मीडिया

आनंद प्रधान

ऐसा लगता है कि लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर जारी चर्चा में एक जरूरी प्रसंग को जानबूझकर अनदेखा किया जा रहा है। आयोग ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद और 6 दिसंबर को मस्जिद ध्वंस के दौरान मीडिया की भूमिका के बारे में भी कुछ ऐसी टिप्पणियां की हैं जिनपर बात जरूरी है. आयोग की रिपोर्ट में पृष्ठ ८९० से ९१४ तक यानि कुल २४ पृष्ठों में मीडिया की भूमिका और मीडिया के प्रति संघ-वी.एच.पी-बी.जे.पी नेताओं के आक्रामक रवैये की पड़ताल करते कुछ दिलचस्प और व्यापक नतीजों वाली सिफारिशें भी की गई हैं. आयोग का निष्कर्ष है कि ६ दिसंबर को मस्जिद ध्वंस के दौरान देशी-विदेशी मीडियाकर्मियों पर हुआ जानलेवा हमला न सिर्फ पूर्वनियोजित था बल्कि इसे संघ-वी.एच.पी-बी.जे.पी के आला नेताओं के अलावा तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और स्थानीय प्रशासन की शह हासिल थी. आयोग के मुताबिक यह हमला इसलिए किया गया था क्योंकि मस्जिद ध्वंस के जिम्मेदार उसके स्वतंत्र सबूत नष्ट करना चाहते थे. वे नहीं चाहते थे कि मीडिया इसका प्रत्यक्षदर्शी रहे. यही नहीं, यह हमला उन पत्रकारों को सबक सिखाने के लिए भी किया गया था जो संघ-वी.एच.पी-बी.जे.पी के विचारों में विश्वास नहीं करते थे और सेकुलर माने जाते थे. सबसे अधिक अफ़सोस की बात यह है कि बाद में आयोग के सामने गवाहियों के दौरान संघ और बी.जे.पी के कई नेताओं ने मीडिया पर कारसेवकों के जानलेवा हमलों को इस या उस बहाने उचित ठहराने की कोशिश की है.

यह है संघ-बी.जे.पी का असली चरित्र और चेहरा जो बातें तो स्वतंत्र प्रेस और अभिव्यक्ति की आज़ादी की करता है लेकिन व्यवहार में अपने विचारों से सहमति न रखनेवालों को सबक सिखाने में किसी भी तानाशाह से कम नहीं है. यहां तक कि आडवानी जैसे नेता ने आयोग के सामने अपनी गवाही में मीडिया की शिकायत करते हुए कहा कि वह रामजन्मभूमि आन्दोलन को राष्ट्रीय शर्म, पागलपन और बर्बर बता रहा था और उनकी रामरथ यात्रा के प्रति अनर्गल आरोप लगा रहा था. हालांकि उन्होंने खुलकर पत्रकारों पर कारसेवकों के हमले को सही नहीं ठहराया लेकिन उनकी मंशा साफ जाहिर है. कहने कि जरूरत नहीं है कि सांप्रदायिक फासीवाद का यह चरित्र नया नहीं है और 6 दिसम्बर को अयोध्या और फैजाबाद में पत्रकारों को इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी हुआ. जाहिर है कि वह कोई अपवाद नहीं था और न ही भावनाओं का विस्फोट था. वह सिलसिला आज भी जारी है. सबसे ताजा मिसाल है महाराष्ट्र जहां शिव सेना के भगवाधारी गुंडे अखबारों-चैनलों और उनके संपादकों-पत्रकारों को सबक सिखाने में जुटे हुए हैं.
लेकिन लिब्राहन आयोग ने मीडिया के एक हिस्से खासकर भाषाई और स्थानीय प्रेस की भूमिका की भी इस बात के लिए कड़ी आलोचना की है कि उसने एकपक्षीय, सच्ची-झूठी रिपोर्टों और यहां तक कि अफवाहों को खबर की तरह छापकर लोगों की भावनाओं को भड़काने और दो समुदायों में नफ़रत फ़ैलाने का काम किया। हालांकि यह कोई नया तथ्य नहीं है और उस समय एन.आर चंद्रन,रघुवीर सहाय और के विक्रम राव आदि के नेतृत्व वाली प्रेस काउन्सिल की जांच समिति ने भी हिंदी के अधिकांश अखबारों को रामजन्मभूमि आन्दोलन के पक्ष में एकतरफा, आधारहीन और भावनाएं भड़कानेवाली रिपोर्टिंग के लिए दोषी ठहराया था. इसके अलावा भी कई अन्य स्वतंत्र नागरिक संगठनो की जांच रिपोर्टों में भी रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर हिंदी अख़बारों की कवरेज को पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों जैसे वस्तुनिष्ठता, तथ्यपरकता, निष्पक्षता, संतुलन आदि के खिलाफ बताया गया था. उस कवरेज में तर्क, तथ्य और विवेक की जगह कुतर्क, भावनाओं और अफवाहों ने ले ली थी. इसमें कोई दोराय नहीं है कि उस दौर में भाषाई खासकर कई बड़े हिंदी अख़बारों की भूमिका शर्मनाक थी और वह भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का एक काला अध्याय है.

ऐसे में, यह स्वाभाविक सवाल उठता है कि वह सब कुछ फिर न दोहराया जाए, इसके लिए क्या किया जाना चाहिए? इस बारे में लिब्राहन आयोग ने कुछ बहुत दूरगामी सिफारिशें की हैं। उसका कहना है कि प्रेस काउन्सिल को दण्डित करने का कोई अधिकार न होने के कारण पीत पत्रकारिता के लिए दोषी पत्रकारों या अखबारों पर कोई लगाम नहीं रह गया है. इसलिए जरूरी है कि मेडिकल काउन्सिल आफ इंडिया या बार काउन्सिल आफ इंडिया की तरह एक संस्था का गठन किया जाए जिसमें एक स्थाई न्यायाधिकरण हो जो पत्रकारों या मीडिया संस्थानों के खिलाफ शिकायतों की सुनवाई कर सके. यही नहीं, आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि अन्य कई पेशों की तरह पत्रकारों को भी काम शुरू करने से पहले लाइसेंस लेना अनिवर्य कर दिया जाए जिसे गलती करने पर निलंबित या निरस्त भी किया जा सकता है. मजे की बात यह है कि सरकार ने भी ए.टी.आर में न सिर्फ आयोग की टिप्पणियों से सहमति जाहिर की है बल्कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और कानून मंत्रालय को ऐसी समिति की जरूरत और संभावना का पाता लगाने के लिए कहा है.

कहने कि जरूरत नहीं है कि आयोग की ये सिफारिशें मीडिया संगठनो की सांस्थानिक-चारित्रिक समस्याओं की तकनीकी, कानूनी और नौकरशाहाना समाधान तलाशने की कोशिश हैं. इनकी न सिर्फ सीमाएं स्पष्ट हैं बल्कि भविष्य में इनके दुरुपयोग की आशंकाओं को नाकारा नहीं जा सकता है. हालांकि कई देशों में पत्रकारों के लिए लाइसेंस या पत्रकारिता की डिग्री जैसी व्यवस्थाएं मौजूद हैं लेकिन इससे उनकी पत्रकारिता की गुणवत्ता में कोई खास सुधार आया हो, ऐसे प्रमाण नहीं दिखते हैं. यही नहीं, अभी पिछले दिनों ब्राज़ील के सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकार बनने के लिए डिग्री की अनिवार्यता को रद्द कर दिया है. ऐसे में, बेहतर यही होगा कि पत्रकार समुदाय और समाचार संगठन बेबाकी और निर्ममता से आत्मविश्लेषण और आलोचना करें और ईमानदारी से अपनी गलतियों को पहचाने. सुधार और परिष्कार का यही रास्ता भविष्य में ऐसी गलतियों को रोक सकता है, कोई डिग्री या लाइसेंस या न्यायाधिकरण इसकी गारंटी नहीं कर सकता है.

बुधवार, नवंबर 25, 2009

मंदी जा रही है लेकिन रोजगार कहाँ है?

आनंद प्रधान

वैश्विक मंदी के प्रभाव में सुस्त हो गई भारतीय अर्थव्यवस्था के एक बार फिर पटरी पर लौटने की चर्चाएं तेज हो गई हैं. यू.पी.ए सरकार के अफसर और मंत्री और दूसरी ओर, बाज़ार के जानकार जोरशोर से दावे कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में तेजी से सुधार हो रहा है. बतौर सबूत शेयर बाज़ार से लेकर औद्योगिक विकास के आंकड़े पेश किये जा रहे हैं. गुलाबी अखबारों में कंपनियों के मुनाफे के आंकड़े भी बहुत आकर्षक हैं. यही नहीं, दुनिया के अरबपतियों की सूची में भी भारतीयों की उपस्थिति लगभग ज्यों की त्यों बनी हुई है.

लेकिन क्या अर्थव्यवस्था में जारी इस सुधार का कोई फायदा आम आदमी तक भी पहुंच रहा है? यह सवाल इस लिए भी जरूरी है कि मंदी से निपटने के लिए कार्पोरेट जगत और कंपनियों को सरकार ने कई प्रोत्साहन पैकेज (स्टीमुलस पैकेज) भी दिए थे. इन पैकेजों में टैक्सों में छूट से लेकर अन्य कई प्रोत्साहन भी शामिल थे. सरकारी खजाने से दिए गए इन हजारों करोड़ों रूपये के पैकेजों का मुख्य उद्देश्य और तर्क यह था कि कम्पनियां लोगों को इसका फायदा देंगीं. इससे उत्पादों और सेवाओं की कीमतें कम होंगी. उम्मीद थी कि कम्पनियां खासकर संगठित क्षेत्र में अपने कार्मिकों/वर्करों के रोजगार की सुरक्षा करेंगी और छंटनी-ले आफ-नई भर्तियों पर रोक आदि से बचेंगी.

लेकिन व्यवहार में ठीक इसका उल्टा हो रहा है. पिछले एक साल में जब से वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी की शुरुआत हुई है, यह कंपनियों के लिए छंटनी और ले आफ आदि का एक बहाना बन गया है. आश्चर्य की बात यह है कि पिछले एक साल में अकेले संगठित क्षेत्र से लाखों कार्मिकों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है. खुद सरकार आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल सितम्बर से इस साल मार्च के बीच संगठित क्षेत्र में करीब 15-20 लाख कार्मिकों को मंदी के नाम पर अपनी रोजी-रोटी गंवानी पड़ी. उस समय कहा गया कि कंपनियों के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है. हालांकि मंदी के बावजूद उन कंपनियों के मुनाफे पर कोई खास असर नहीं पड़ा. सबसे अफ़सोस की बात यह है कि खुद वित्त मंत्री ने छंटनी को लेकर कोई कड़ा रूख दिखने के बजाय कार्पोरेट क्षेत्र को इस मामले में सहानुभूति से विचार करने को कहा था.

लेकिन अब जब फिर से अर्थव्यवस्था में बूम के दावे किये जा रहे हैं, रोजगार के मामले में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है. कुछ क्षेत्रों को छोड़कर जहां मामूली भर्तियाँ होनी शुरू हुई हैं, अधिकांश क्षेत्रों में अभी भी स्थिति ज्यों कि त्यों बनी हुई है. तथ्य यह है कि अर्थव्यवस्था में सुधार के बावजूद यह एक "रोजगारविहीन विकास" (जाबलेस ग्रोथ) है जिसमे कंपनियों का मुनाफा तो तेजी से बढ़ रहा है लेकिन रोजगार में कोई खास वृद्धि नहीं हो रही है. खुद केंद्र सरकार के श्रम और रोजगार मंत्रालय के मुताबिक चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही(अप्रैल से जून'09) में संगठित क्षेत्र में 1 .71 लाख कार्मिकों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है. इसमे सबसे ज्यादा नौकरियां कपड़ा क्षेत्र में गई हैं जहां 1.54 लाख कार्मिकों की नौकरी गई है. इसी तरह, आई.टी क्षेत्र में भी करीब 34000 लोगों की नौकरी चली गई है.

अभी दूसरी तिमाही के आंकड़े नहीं आये हैं लेकिन संकेत अच्छे नहीं हैं. कर्मचारी भविष्यनिधि संगठन(ई.पी.एफ.ओ) के मुताबिक इस साल अप्रैल से जून के बीच सिर्फ तीन महीने में भविष्यनिधि से पैसा निकालनेवाले कार्मिकों की संख्या 35.51 लाख तक पहुंच गई है जो इस बात का संकेत है कि छंटनी और ले आफ अभी न सिर्फ जारी है बल्कि बड़े पैमाने पर नौकरियां जा रही हैं. यह आंकड़े इसलिए भी हैरान करनेवाले हैं क्योंकि 2006-07 में पूरे साल में इतने लोगों ने ई.पी.ऍफ़. से पैसा निकला था जबकि इस साल की पहली तिमाही में ही 35 लाख से अधिक कार्मिकों का पैसा निकालना यह बताता है कि रोजगार के मामले में स्थिति कितनी नाजुक है. याद रहे कि पिछले साल 2008 -09 में कुल 98 लाख से अधिक कार्मिकों ने भविष्यनिधि से पैसा इकला था जो कि एक रिकार्ड है.

साफ है कि अर्थव्यवस्था में सुधार आदि की बातें उन कार्मिकों के लिए बेकार और दिल को बहलानेवाली हैं जो अभी भी छंटनी- ले आफ का सामना कर रहे हैं. लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इसकी कोई चर्चा नहीं हो रही है. अर्थव्यवस्था में सुधार का मतलब सिर्फ कंपनियों को अधिक से अधिक मुनाफा हो गया है और इसका कोई फायदा कार्मिकों को नहीं मिल रहा है. ये कम्पनियां सरकार पर लगातार दबाव बनाये हुए हैं कि प्रोत्साहन पैकेज अभी जारी रखे जाएँ लेकिन वे कार्मिकों के रोजगार की गारंटी करने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसे में, यह जरूरी हो गया है कि यू.पी.ए सरकार इस मामले में सभी कंपनियों को यह साफ निर्देश दे कि अगर उन्होंने अपने यहां छंटनी-ले आफ किया तो उन्हें प्रोत्साहन पैकेज का लाभ नहीं मिलेगा.

यह सख्ती इसलिए भी जरूरी है कि बहुत सी कंपनियों ने मंदी को एक बहाने की तरह इस्तेमाल करना और उसे मनमाने तरीके से छंटनी और ले ऑफ़ का लाईसेंस बना दिया है. ऐसा मानने की वजह यह है कि कई क्षेत्रों में स्थाई कार्मिकों को निकलकर अस्थाई अनुबंध पर कर्मचारियों की भर्ती भी की जा रही है. उदाहरण के लिए, इस साल की पहली तिमाही में अनुबंध पर करीब 40 हज़ार कार्मिकों की भर्ती हुई है जबकि उसी अवधि में 1.71 लाख स्थाई नौकरियां चली गई हैं. साफ है कि कार्पोरेट क्षेत्र मंदी को बहाना बनाकर अपने स्थाई कार्मिकों से पीछा छुड़ा रहा है. असल में, कार्पोरेट क्षेत्र लम्बे समय से श्रम कानूनों में बदलाव की मांग करता रहा है जो कि राजनीतिक कारणों से संभव नहीं हो पाया लेकिन अब मंदी के बहाने कम्पनियां वही कर रही हैं जो वे श्रम कानूनों में सुधार के जरिये करना चाहती थीं.

मंगलवार, नवंबर 24, 2009

मीडिया के एजेंडे से बाहर खेती किसानी

आनंद प्रधान
ऐसा बहुत वर्षों बाद हुआ कि गन्ने की कीमतों में वृद्धि और इस बाबत केंद्र सरकार के एक विवादास्पद अध्यादेश को वापस लेने की मांग को लेकर हजारों की संख्या में गन्ना किसान दिल्ली पहुंचे. जंतर-मंतर पर धरना और रैली हुई, जिसमें किसान नेताओं के साथ लगभग पूरा विपक्ष मौजूद था. लेकिन दिल्ली के राष्ट्रीय मीडिया खासकर दो सबसे बड़े अंग्रेजी अखबारों के लिए खबर यह नहीं थी बल्कि अगले दिन के अखबार में पहले पेज पर खबर यह छपी कि कैसे किसानो ने पूरी दिल्ली को बंधक बना लिया. यह भी कि कैसे किसानो ने दिल्ली में उत्पात, लूटपाट,तोड़फोड़ और लोगों के साथ बदसलूकी की. दिल्ली को जाम कर दिया जिससे दिल्लीवालों को बहुत तकलीफ हुई. यही नहीं, किसानो की शराब पीते, तोड़फोड़ करते और जंतर-मंतर जैसे ऐतिहासिक स्थल को गन्दा करते तस्वीरें भी छपीं.

लेकिन ये किसान दिल्ली क्यों आये थे और उनकी मांगे क्या थी और स्थिति यहां तक क्यों पहुंची - यानि असली खबर को कोई खास तव्वजो नहीं दी गई. किसानो के साथ सहानुभूति की तो बात ही दूर है, दिल्ली के अंग्रेजी मीडिया ने उन्हें अराजक और खलनायक की तरह पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कहने की जरूरत नहीं है कि किसानो की इस रैली को कवर करते हुए दिल्ली के मीडिया ने पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों- वस्तुनिष्ठता, संतुलन, निष्पक्षता और तथ्यपरकता को ताक पर रख दिया. इस कवरेज पर बारीकी से ध्यान दीजिये तो साफ हो जायेगा कि दिल्ली के तथाकथित "राष्ट्रीय मीडिया" को असल में, गन्ना किसानो ही नहीं, बल्कि खेती-किसानी में कोई दिलचस्पी नहीं है. आश्चर्य नहीं कि गन्ने को लेकर यह विवाद पिछले 25 दिनों से जारी था और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान सडकों पर थे लेकिन दिल्ली के राष्ट्रीय मीडिया को कोई खास खबर नहीं थी. खबर हो भी तो कम-से-कम उन्होंने अपने पाठकों और दर्शकों को इस बाबत बताना जरूरी नहीं समझा. हिंदी के कुछ अखबारों को छोड़कर अधिकांश अंगरेजी अखबारों और चैनलों में इसे नोटिस करने लायक भी नहीं समझा गया.

हालांकि यह मुद्दा और गन्ना किसानो का आन्दोलन हर लिहाज से एक बड़ी खबर थी. दिल्ली के मध्यमवर्गीय पाठकों और दर्शको के साथ भी इस खबर का सीधा रिश्ता जुड़ता है. चीनी की लगातार बढ़ती कीमतों के बीच गन्ना किसानो के आन्दोलन का सीधा असर आम पाठकों-दर्शकों पर पड़ रहा है. ऐसे में, मीडिया से यह स्वाभाविक अपेक्षा थी कि वह इस मुद्दे पर अपने पाठकों-दर्शकों को जागरूक बनाये लेकिन इसके बजाय मीडिया ने इस आन्दोलन के खिलाफ एक मुहिम सी छेड़ दी है. जाहिर है कि यह पहला मामला नहीं है. इसके पहले भी दिल्ली में देश के अलग-अलग इलाकों से आनेवाले गरीबों, किसानो, मजदूरों, आदिवासियों और विस्थापितों की रैली/प्रदर्शनों को लेकर भी राष्ट्रीय मीडिया का यही रूख रहा है. इस मीडिया के लिए देश की सीमाएं दिल्ली तक सीमित हैं. उसकी चिंताओं की सूची में कृषि और किसानो की हालत सबसे निचले पायदान पर है. हैरत की बात नहीं है कि दिल्ली के अधिकांश राष्ट्रीय अखबारों और चैनलों में कृषि और खेती-किसानी कवर करने के लिए अलग से कोई संवाददाता नहीं है.क्या यह दिल्ली के अभिजात्य शहरी कार्पोरेट मीडिया का स्वाभाविक वर्गीय पूर्वाग्रह नहीं है जो गन्ना किसानो के कवरेज में खुलकर दिख रहा है?

शुक्रवार, नवंबर 20, 2009

किसे डर लग रहा है सूचना के अधिकार कानून से?

आनंद प्रधान
ऐसा लगता है कि जाने-माने बुद्धिजीवियों और सूचना के अधिकार के आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं की अपील को नज़रंदाज़ करते हुए यू पी ए सरकार ने सूचना के अधिकार कानून'2005 में संशोधन का मन बना लिया है. सरकार इस संशोधन के जरिये सूचना के अधिकार कानून से "फाइल नोटिंग" दिखाने का हक वापस लेने के अलावा जन सूचना अधिकारियों को "फालतू और तंग करनेवाले" सवालों को खारिज करने का अधिकार देना चाहती है. हालांकि इस फैसले का विरोध कर रहे बुद्धिजीवियों और नागरिक संगठनो के एक प्रतिनिधिमंडल से केंद्र सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के सचिव ने वायदा किया है कि इस मुद्दे पर अंतिम फैसला करने से पहले सरकार सबसे बात करेगी और सबकी आपत्तियों को सुनेगी लेकिन सरकार के रवैये से नहीं लगता है कि वह वास्तव में किसी को खासकर विरोधी स्वरों को सुनने के मूड में है. उसने मन बना लिया है और अब केवल दिखावे की मजबूरी में संशोधन की प्रक्रिया को पारदर्शी दिखाने का कोरम पूरा करना चाहती है.
ऐसा मानने के पीछे ठोस वजहें हैं. असल में, जब से सूचना के अधिकार का कानून बना है, सत्तानशीं नेता और नौकरशाही उसके साथ सहज नहीं रहे हैं. इस कानून के बनने से पहले तक गोपनीयता के माहौल में काम करने के आदी अफसरों और नेताओं को शुरू से यह बहुत "परेशान और तंग" करनेवाला कानून लगता रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसके पीछे वही औपनिवेशिक गोपनीयता की संस्कृति और मानसिकता जिम्मेदार रही है जो आज़ादी के 62 सालों बाद भी तनिक भी नहीं बदली है. यह मानसिकता सूचना का अधिकार कानून बनने के बावजूद यह स्वीकार नहीं कर पा रही है कि अब एक आम आदमी भी उनसे न सिर्फ उनके कामकाज का ब्यौरा और हिसाब मांग सकता है बल्कि परदे के पीछे और चुपचाप फैसला करने का जमाना गया. उनसे उस फैसले तक पहुँचने की पूरी प्रक्रिया यानि फाइल नोटिंग दिखाने के लिए कहा जा सकता है जिसके जरिये एक-एक अधिकारी की जिम्मेदारी तय की जा सकती है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि नेता-नौकरशाही सूचना के अधिकार कानून और खासकर इस प्रावधान को अपने विशेषाधिकारों और अभी तक हासिल असीमित शक्तियों में कटौती के रूप में देखते रहे हैं. यही कारण है कि जन दबावों के बाद और खुद को प्रगतिशील दिखाने के लिए यू पी ए सरकार ने यह कानून तो बना दिया लेकिन कानून को ईमानदारी और उसकी सच्ची भावना के साथ लागू करने के बजाय उसकी राह में रोड़े अटकाने में लगी रही है. यहां तक कि कानून के लागू होने के दो सालों के अन्दर ही सरकार ने उसके दायरे से फाइल नोटिंग दिखाने के अधिकार को वापस लेने के लिए कानून में संशोधन करने की कोशिश की थी लेकिन जन संगठनो और बुद्धिजीवियों के भारी विरोध के बाद उसे अपने कदम वापस खीचने पड़े थे. इस मायने में, इस कानून में संशोधन के नए प्रयास को पिछले प्रयासों की निरंतरता में ही देखना चाहिए.
सवाल यह है कि केंद्र सरकार को सूचना के अधिकार कानून से क्या शिकायतें हैं? जिस कानून को लागू हुए अभी सिर्फ चार साल हुए हैं, उससे सरकार को ऐसी क्या दिक्कत हो रही है कि वह इस कानून के रचनाकारों और समर्थकों के विरोधों को अनदेखा करते हुए उसमे संशोधन के लिए उतारू है? दरअसल, नौकरशाही को घोषित तौर पर इस कानून से दो शिकायतें हैं. पहला, इस कानून का "दुरुपयोग" किया जा रहा है. कुछ निहित स्वार्थी तत्त्व इस कानून का सहारा लेकर फालतू, परेशान और तंग करनेवाले सवाल पूछ रहे हैं जिससे अधिकारियों को काम करने में बहुत दिक्कत हो रही है, उनका काफी समय ऐसे फालतू और बेकार सवालों का जवाब बनने में चला जा रहा है. यही नहीं, इसे विभागीय राजनीति में किसी अधिकारी के साथ हिसाब-किताब चुकता करने या बदला लेने के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है.
दूसरी शिकायत यह है कि फाइल नोटिंग दिखाने का अधिकार देने से अधिकारियों को ईमानदारी से और बिना किसी भय के निर्णय लेने में मुश्किल हो रही है क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके द्वारा फाइल पर की गई नोटिंग सार्वजनिक होने पर उन्हें निहित स्वार्थी तत्वों और बेईमानों का कोपभाजन बनना पड़ सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि ये दोनों शिकायतें बहुत कमजोर, तथ्यहीन, एक तरह की बहानेबाजी और गोपनीयता की संस्कृति को बनाये रखने की मांग हैं. जैसेकि खुद सूचना के अधिकार के लिए लड़नेवाली अरुणा रॉय और दूसरे बुद्धिजीवियों-कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी में भी स्पष्ट किया है कि इस बात के कोई ठोस सबूत नहीं हैं कि इस कानून का इस्तेमाल जानबूझकर "फालतू और तंग" करनेवाले सवाल पूछने के लिए किया जा रहा है और न ही इस बात के कोई प्रमाण हैं कि फाइल नोटिंग दिखाने के अधिकार के कारण ईमानदार और निर्भीक अफसरों को काम करने में दिक्कत हो रही है.
उल्टे सच्चाई यह है कि इस अधिकार के कारण ईमानदार और निर्भीक अफसरों को बिना किसी अवांछित दबाव और भय के फैसला करने में सहूलियत हो रही है. वे उन नेताओं-मंत्रियों-अफसरों को इस कानून और खासकर इस प्रावधान का हवाला देकर उनकी इच्छा के अनुसार नोटिंग करने के दबाव से इंकार कर पा रहे हैं. यह प्रावधान ईमानदार और निर्भीक अफसरों के लिए बडी सुरक्षा साबित हो रहा है जबकि इसके कारण बेईमान और मनमानी करनेवाले अफसरों-नेताओं को मनमाने फैसले करने में जरूर परेशानी हो रही है क्योंकि अब कोई भी फाइल नोटिंग सार्वजनिक करके मनमाने-अवैधानिक-अनुचित फैसलों की जवाबदेही तय करवा सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस प्रावधान से नौकरशाही को जिम्मेदार और जवाबदेह बनने के साथ निर्णय लेने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा सकता है.
रही बात "फालतू और तंग" करनेवाले सवालों को खारिज का अधिकार देने की तो इतना कहना ही काफी है कि अगर इस संशोधन को स्वीकार कर लिया गया तो इस कानून की मूल आत्मा की हत्या हो जायेगी क्योंकि इस प्रावधान का सहारा लेकर कोई भी जन सूचना अधिकारी किसी भी सवाल को "फालतू और तंग" करनेवाले बताकर खारिज कर सकता है. आखिर यह कौन, कैसे और किस आधार पर तय करेगा कि कौन सा सवाल "फालतू और तंग" करनेवाला है? जाहिर है कि इस कानून के तहत पूछे जानेवाले सवालों से अपने भ्रष्टाचार, मनमानेपन, निक्कमेपन और गडबडियों की पोल खुलने के डर से घबराई नौकरशाही ऐसे हर सवाल को "फालतू और तंग" करनेवाला बताकर खारिज करने से नहीं चूकेगी, जिससे उसकी पोल खुलती हो. इसके बाद सूचना के अधिकार कानून में क्या बचेगा? क्या यू पी ए सरकार प्रस्तावित संशोधनों के जरिये इस कानून को ख़त्म करना और एक शोपीस भर बनाना चाहती है?

गुरुवार, नवंबर 19, 2009

वाम मोर्चा की राह कठिन

आनंद प्रधान

हाल में संपन्न हुए उपचुनावों के नतीजों से एक बार फिर यह साफ हो गया है कि माकपा के नेतृत्व वाले सरकारी वामपंथ की राजनीतिक ढलान न सिर्फ जारी है बल्कि उसकी रफ्तार और तेज होती जा रही है। इस कारण अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों ने यह भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी है कि जिस तरह से केरल और खासकर पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों विशेषकर माकपा के जनाधार में छीजन और बिखराव की प्रक्रिया तेज होती जा रही है, उसे देखते हुए माकपा के लिए अपने इन राजनीतिक किलों को बचा पाना मुश्किल होगा. हालांकि केरल और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव 2011 में होने हैं और राजनीति में डेढ़ साल का वक्त काफी लम्बा होता है लेकिन केरल और पश्चिम बंगाल में एक के बाद दूसरी चुनावी हारों और गंभीर राजनीतिक, सांगठनिक और वैचारिक समस्याओं और विचलनों के कारण वाम मोर्चा और खासकर उसकी नेता माकपा एक ऐसी वैचारिक और राजनीतिक लकवे की स्थिति में पहुँच गई है कि वह मुकाबले से बाहर होती दिख रही है.

माकपा की मौजूदा लकवाग्रस्त स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वह जो कुछ भी कर रही है, उसका दांव उल्टा पड़ रहा है. उदाहरण के लिए माकपा ने इन उपचुनावों के दौरान बाजी हाथ से निकलते देख अपने रिटायर और वयोवृद्ध नेता ज्योति बसु को को आगे करके कांग्रेसी वोटरों के नाम एक अपील जारी करवाई कि राज्य में शांति, विकास और सुरक्षा के लिए वे वाम मोर्चे को वोट करें. लेकिन माकपा का यह 'ट्रंप कार्ड' भी नहीं चला, ज्योति बसु की फजीहत हुई सो अलग. कहने की जरुरत नहीं है कि यह अपील माकपा के बढ़ते राजनीतिक दिवालियेपन का ही एक और नमूना थी. साथ ही, इससे यह भी पता चलता है कि राज्य में वाम मोर्चा खासकर माकपा सत्ता हाथ से निकालता देख किस हद तक बदहवास हो गई है कि ज्योति बसु को भी कांग्रेसी वोटरों से वोट की भीख मांगने के लिए मैदान में उतार दिया।

दरअसल, माकपा की राजनीति की सबसे बड़ी समस्या भी यही है। केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल की सत्ता ही उसके गले का फांस बन गई है. ऐसा लगता है कि वह इन तीनो राज्यों की सत्ता खासकर पश्चिम बंगाल की सरकार के बिना नहीं रह सकती है. इसकी वजह यह है कि केरल में हर पांच साल में सरकार बदलती रहती है और त्रिपुरा राजनीतिक रूप से महत्वहीन है लेकिन पश्चिम बंगाल की बात ही अलग है जहाँ पिछले 32 वर्षों से वाम मोर्चा सत्ता में बना हुआ है. माकपा में पश्चिम बंगाल की सत्ता को लेकर इस कदर मोह है कि उसकी पूरी राजनीति इस बात से तय होती रही है कि राज्य में इस सत्ता को किस तरह से सुरक्षित रखा जाए. इसके लिए वह हर तरह के समझौते के लिए यहां तक कि अपने राजनीतिक-वैचारिक मुद्दों को भी कुर्बान करती रही है.

सत्ता के प्रति इस व्यामोह और समझौते की राजनीति का ही नतीजा है कि माकपा जिन आर्थिक नीतियों खासकर उदारीकरण-भूमंडलीकरण-निजीकरण का राष्ट्रीय स्तर पर विरोध करती रही है, उन्हीं नीतियों को पश्चिम बंगाल समेत अन्य वाम मोर्चा शासित राज्यों में जोरशोर से लागू करने में उसे कोई शर्म नहीं महसूस होती है। इसका परिणाम सबके सामने है. सिंगुर से लेकर नंदीग्राम तक और अब लालगढ़ में माकपा की राजनीति का यही दोहरापन खुलकर सामने आया है. माकपा का यह वैचारिक-राजनीतिक स्खलन बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुँच गया कि पार्टी कांग्रेस को बुर्जुआ-सामंती पार्टी मानते हुए भी केंद्र में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर कांग्रेस को यू पी ए गठबंधन की सरकार साढ़े चार साल तक चलाने में न सिर्फ मदद करती रही बल्कि गठबंधन सरकार की संकटमोचक की भूमिका निभाती रही.

असल में, माकपा की राजनीति की सबसे बड़ी सीमा यही सत्ता की राजनीति बन गई है। सत्ता के साथ अनिवार्य रूप से जो बुराइयां आती हैं, वह माकपा में भी सहज ही देखी जा सकती हैं. यही कारण है कि पश्चिम बंगाल में 32 सालों तक सत्ता में रहने के बाद माकपा का जो राजनीतिक-वैचारिक रूपांतरण हुआ है, उसमे वह वास्तव में एक कम्युनिस्ट पार्टी तो दूर, एक सच्ची वामपंथी पार्टी भी नहीं रह गई है. आश्चर्य नहीं कि माकपा चाहे पश्चिम बंगाल हो या केरल- हर जगह किसी भी बुर्जुआ पार्टी की तरह ही तमाम राजनीतिक स्खलनों जैसे भ्रष्टाचार, सार्वजनिक धन की लूट, भाई-भतीजावाद, गुंडागर्दी, ठेकेदारी आदि में आकंठ डूबी हुई दिखाई पड़ती है. इससे बचने का एक ही तरीका हो सकता था और वह यह कि पार्टी अपनी राज्य सरकारों की परवाह किये बगैर जनता खासकर हाशिये पर पड़े गरीबों-मजदूरों-दलितों-आदिवासियों के हक-हुकूक की लडाई को आगे बढाती.

इससे माकपा और वाम मोर्चा खुद को संसदीय राजनीति की सीमाओं में बांधने और उसके स्खलनों में फिसलने से बचा सकते थे। जनांदोलनों से न सिर्फ राज्य सरकारों को पूरी तरह से नौकरशाही के हाथ में जाने से रोका जा सकता था बल्कि उसे वास्तव में जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जा सकता था. यही नहीं, जनान्दोलनों के जरिये उन अवसरवादी-भ्रष्ट और ठेकेदार-गुंडा तत्वों को भी पार्टी से दूर रखा जा सकता था, जो आज पार्टी की पहचान बन गए हैं. माकपा इस सच्चाई से मुंह कैसे चुरा सकती है कि पार्टी आज पश्चिम बंगाल में सत्ता इसलिए गंवाने जा रही है कि क्योंकि उसका अपने मूल जनाधार ग्रामीण गरीबों-खेतिहर मजदूरों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों से सम्बन्ध टूट चुका है. क्योंकि राज्य में विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ है, यहां तक कि नरेगा जैसी योजनाओं को लागू करने के मामले में लापरवाही और सुस्ती दिखाई गई. पी डी एस राशन भी के लिए भी राज्य में दंगे हुए.

लेकिन माकपा पर सत्ता का मोह और उसका नशा इस कदर चढ़ा हुआ है कि वह लोकसभा चुनावों और उसके बाद अब नगरपालिकाओं और विधानसभा उपचुनावों की हार से कोई सबक सिखाने के लिए तैयार नहीं है. हालांकि वह पार्टी में "शुद्धिकरण अभियान" चलाने की बात कर रही है लेकिन मुश्किल यह है कि सत्ता से चिपके रहने की ऐसी लत लग गई है कि न सिर्फ इस अभियान की सफलता पर संदेह है बल्कि पार्टी जल्दबाजी में एक बार फिर उन्हीं बुर्जुआ पार्टियों के साथ जोड़तोड़ करके राजनीति में खड़े होने का ख्वाब देख रही है. यहां तक कि वह पश्चिम बंगाल में तृणमूल-कांग्रेस के गठबंधन में दरार डालने और कांग्रेस से गलबहियां करने की हास्यास्पद कोशिश कर रही है. दूसरी ओर, राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के नाम पर एक बार फिर वह सपा,बसपा,टीडीपी और अन्ना द्रमुक के पीछे लटकने की तैयारी कर रही है. जाहिर है कि इन आजमाए हुए फ्लॉप टोटकों से माकपा की मुश्किलें खत्म होनेवाली नहीं हैं.

मंगलवार, नवंबर 17, 2009

क्यों टूट रहा है मुलायम सिंह का जादू ?

आनंद प्रधान
कहते हैं कि किसी भी चीज की अति ठीक नहीं होती है. संस्कृत की भी एक कहावत है- अति सर्वत्र वर्जयेत. लेकिन लगता है कि समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव को यह पता नहीं है, अन्यथा वह फिरोजाबाद में अपनी बहु और पार्टी सांसद अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल को उपचुनाव में उम्मीदवार बनाने से पहले दस बार जरुर सोचते. माना कि परिवारवाद आज की भारतीय राजनीति की एक सर्वव्यापी सच्चाई बन चुका है और कोई भी पार्टी इससे अछूती नहीं बची है लेकिन परिवारवाद की भी एक हद है, यह मुलायम सिंह भूल गए. ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश खासकर फिरोजाबाद के मतदाताओं ने इस बार तय कर लिया था कि मुलायम सिंह यादव को यह हद बता दिया जाना चाहिए.
नतीजा सबके सामने है. समाजवादी पार्टी और उससे अधिक उसके नेता मुलायम सिंह अपने ही गढ़ में मत खा गए. फिरोजाबाद के मतदाताओं ने राजनीतिक रूप से लगभग असंभव को संभव कर दिखाते हुए मुलायम सिंह की बहु को नकार कर कांग्रेस के राज बब्बर को 85 हजार से अधिक वोटों से जीता दिया. यह कांग्रेस और राज बब्बर की जीत से अधिक मुलायम सिंह की हार है. यह मुलायम सिंह से ज्यादा मुलायम सिंह की परिवारवादी राजनीति की हार है. उन्होंने जिस तरह से समाजवाद के नाम पर पूरी बेशर्मी से पार्टी को अपने परिवार की प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना दिया है, उसे फिरोजाबाद के मतदाताओं ने अब और बर्दाश्त करने से इंकार कर दिया. सचमुच, यह कितना सुंदर और जनतान्त्रिक न्याय है कि परिवारवाद की इस बेशर्म राजनीति को और किसी ने नहीं बल्कि मुलायम सिंह की राजनीति के गढ़ या कहिये घर के मतदाताओं ने ही नकार दिया.
यह ठीक है कि इस हार को पूरे उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों के नतीजों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है जहां समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन बहुत ख़राब और निराशाजनक रहा है. इस मायने में, फिरोजाबाद की हार पूरे उत्तर प्रदेश के राजनीतिक ट्रेंड के अनुरूप ही है. यह भी ठीक है कि फिरोजाबाद में डिम्पल यादव की हार के और भी कई कारण हैं. लेकिन कम से कम डिम्पल की हार का कारण वह नहीं है जो कांग्रेस पार्टी और यहां तक कि समाजवादी पार्टी भी बताने की कोशिश कर रही है. निश्चय ही, डिम्पल केवल इस लिए नहीं हारीं कि राज बब्बर के पक्ष में कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी ने प्रचार किया. कांग्रेस अगर यह दावा कर रही है तो यह बहुत स्वाभाविक है. कांग्रेस में चापलूसी की 'उच्च परंपरा' के अनुसार पार्टी की जीत का सेहरा हमेशा से नेता के सिर बंधता रहा है और नेता अगर नेहरू-गाँधी परिवार का और भविष्य का प्रधानमंत्री हो तो भला कांग्रेस में उसके अलावा किसी और को श्रेय देने का कुफ्र कौन कर सकता है?
लेकिन हैरानी की बात यह है कि समाजवादी पार्टी भी अपनी हार का श्रेय राहुल गाँधी को दे रही है. पार्टी महासचिव अमर सिंह और खुद अखिलेश यादव फिरोजाबाद में राहुल गाँधी के प्रचार करने पर नाराजगी जता चुके हैं. अखिलेश ने तो इसे बिलकुल व्यक्तिगत लडाई की तरह लेते हुए ऐलान किया है कि अब उत्तर प्रदेश में वह खुद युवराज का मुकाबला करेंगे. उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि फिरोजाबाद में राहुल गाँधी यह जानते हुए भी कि यहां से मुलायम सिंह की बहु उम्मीदवार है, चुनाव प्रचार के लिए क्यों आये? जबकि समाजवादी पार्टी ने नेहरु-गाँधी परिवार के प्रति अपना सम्मान जताते हुए सोनिया और राहुल गाँधी के खिलाफ रायबरेली और अमेठी में कोई उम्मीदवार खडा नहीं किया था. साफ है कि समाजवादी पार्टी इस शिकायत के जरिये यह कहने की कोशिश कर रही है कि एक-दूसरे के पारिवारिक मामलों में दखल नहीं देना चाहिए यानि जहां एक के परिवार के लोग चुनाव मैदान में हों, वहां दूसरे के परिवार को दूर रहना चाहिए.
जाहिर है कि ऐसा कहकर सपा अपने हार के वास्तविक कारण- नग्न परिवारवाद पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही है. कहने की जरुरत नहीं है कि यह एक ऐसा तर्क है जिसके लिए लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए. यही नहीं, यह तर्क देकर समाजवादी पार्टी परिवारवाद की राजनीति का भी बचाव करने की कोशिश कर रही है. यही कारण है कि वह उस कड़वी सच्चाई से आंख चुराने की कोशिश कर रही है जो सीधे उनके घर फिरोजाबाद से आई है. फिरोजाबाद का सन्देश साफ है कि समाजवाद के नाम पर परिवारवाद की अति की राजनीति अब और नहीं चलेगी. मुलायम सिंह के लिए यह सोचने का समय आ गया है कि आखिर वह परिवारवाद को कहाँ तक ले जाना चाहते हैं? जिस तरह से पूरी पार्टी खुद उनके परिवार तक सिमटती जा रही है और बाकी जो बचा-खुचा है, वहां अमर सिंह का फ़िल्मी परिवार काबिज है, उसके बाद वहां बाकी नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए और क्या बचता है?
दरअसल, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के टूटते राजनीतिक जादू की सबसे बड़ी वजह भी यही है. उन्होंने न सिर्फ पार्टी को पूरी तरह से अपने परिवार की संपत्ति बना दिया है बल्कि उसे जिस तरह से एक पारिवारिक निजी मालिकानेवाली पार्टी की तरह से चला रहे हैं, उसमें आज नहीं तो कल समाजवादी पार्टी का यही हश्र होना है. एक पार्टी जिसके अन्दर कोई लोकतंत्र नहीं है और प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी की तरह चलाई जा रही है, उसमे अमर सिंह जैसे मैनेजर और उनका राजनीतिक-आर्थिक कारोबार तो फलफूल सकता है लेकिन वह उत्तर प्रदेश जैसे जटिलता और विविधतापूर्ण राज्य की राजनीति और समाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है. इस कारण सपा में साफ तौर पर एक "लोकतान्त्रिक घाटा" दिखाई पड़ रहा है.
इस "लोकतान्त्रिक घाटे" का ही नतीजा है कि पार्टी राज्य में न सिर्फ अपना सामाजिक जनाधार खोती जा रही है बल्कि उसे जमीनी सच्चाइयों का भी अंदाजा नहीं रह गया है. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या कारण है कि लोगों की नब्ज पर हाथ रखने का दावा करनेवाले मुलायम सिंह को भाजपा के पूर्व नेता और बाबरी मस्जिद गिराने के प्रमुख दोषी माने जानेवाले कल्याण सिंह से हाथ मिलाने के नतीजों का अंदाजा नहीं हो पाया? आखिर यह मुलायम की कैसी समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष विचारधारा है कि उसमें बाबरी मस्जिद विध्वंस के दोषी कल्याण के लिए भी जगह बन गई? दोहराने की जरुरत नहीं है कि पिछले लोकसभा चुनावों और अब उपचुनावों में सपा की अपमानजनक हार के पीछे एक बड़ी वजह अल्पसंख्यक मतदाताओं का सपा को छोड़ जाना है. इसके बाद अब यह राजनीतिक अवसरवाद की इन्तहा है कि बिना अपने किये की माफ़ी मांगे कल्याण सिंह से किनारा भी कर लिया.
यह सब निजी रिश्तों के नाम पर जायज ठहराया गया. लेकिन सवाल मुलायम सिंह और कल्याण सिंह के निजी रिश्तों का नहीं है. मुद्दा है एक ऐसे नेता और उसके राजनीतिक-वैचारिक अतीत के साथ राजनीतिक दोस्ती का जो सपा की धर्मनिरपेक्ष राजनीति के साथ पूरी तरह से असंगत है. ऐसा नहीं है कि मुलायम सिंह को यह पता नहीं है लेकिन कल्याण सिंह या फिर अमर सिंह या अनिल अम्बानी और अमिताभ बच्चन के साथ निजी और राजनीतिक दोस्ती के फर्क को वही नेता भूल सकता है जिसके लिए अपनी राजनीति और वैचारिकी से पहले और ज्यादा महत्वपूर्ण व्यक्तिगत रिश्ते हों. इन व्यक्तिगत रिश्तों को निभाने की ऐसी जिद वही राजनेता कर सकता है जो अपनी राजनीति को परिवार के दायरे से बाहर नहीं देख पाता हो.
जाहिर है कि परिवार तक सिमटी हुई राजनीति कभी भी समावेशी नहीं हो सकती है और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अब बिना समावेशी राजनीति के खड़े रह पाना मुश्किल है. 2007 के विधानसभा चुनावों के पहले से ही यह स्पष्ट होने लगा था और चुनावों के बाद उसकी पुष्टि भी हो गई कि उत्तर प्रदेश में संकीर्ण जातीय और धार्मिक गोलबंदी की राजनीति का तेल खत्म होने लगा है और जो भी पार्टी सामाजिक जनाधार को फैलाने और विस्तृत करने की ईमानदार कोशिश नहीं करेगी, वह बहुत दूर तक नहीं चल पायेगी. बसपा ने कई सीमाओं के साथ 2007 में अपनी "सामाजिक इंजीनियरिंग" से कुछ हद तक यह करिश्मा कर दिखाया लेकिन मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को साथ लेकर जिस व्यापक पिछड़ा गोलबंदी की कोशिश की, उसने अल्पसंख्यक मतदाताओं को नाराज और पार्टी से दूर कर दिया.
कहने की जरुरत नहीं है कि सपा और मुलायम को पहले लोकसभा और अब उपचुनावों के दौरान सबसे ज्यादा नुकसान मुस्लिम वोटरों के पार्टी से छिटकने के कारण हुआ है. सभी जानते हैं कि मुस्लिम और पिछडी जातियों में मुख्य रूप से यादव सपा के मूल आधार रहे हैं. लेकिन मुस्लिम वोटरों के खिसकने के साथ पार्टी के जनाधार में बिखराव और छीजन की एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हो गई है कि उसके मूल आधार पिछडी किसान जातियों खासकर यादवों के एक हिस्से ने भी किनारा करना शुरू कर दिया है. इसका संकेत उपचुनावों के नतीजों में साफ देखा जा सकता है. सपा न सिर्फ फिरोजाबाद की "घरेलू" मानी जानेवाली लोकसभा सीट हार गई बल्कि मुलायम के गढ़ में पड़नेवाली भरथना और इटावा की विधानसभा सीटें भी हार गईं. यही नहीं, पार्टी 2007 के विधानसभा चुनावों में जीती अपनी पांचों सीटें- इसौली,हैंसर बाज़ार,पुवायां, भरथना और इटावा हार गईं.
सबसे शर्मनाक बात तो यह हुई कि पार्टी 11 विधानसभा सीटों में से एक भी नहीं जीत पाई और कई सीटों पर तीसरे-चौथे स्थान पर पहुंच गई. मुलायम सिंह के लिए यह खतरे की घंटी है. इसकी वजह यह है कि अगर सपा उत्तर प्रदेश में बसपा से सीधे मुकाबले से बाहर हुई तो उसके लिए अपने खिसकते जनाधार को संभाल पाना और मुश्किल हो जायेगा. कांग्रेस इसी मौके का इंतजार कर रही है. उसकी पूरी कोशिश यह है कि वह 2012 के विधानसभा चुनावों से पहले बसपा से सीधे मुकाबले में आ जाए. कहने की जरुरत नहीं है कि जो पार्टी बसपा से सीधे मुकाबले में होगी, उसे बसपा सरकार के खिलाफ बने विक्षोभ और नाराजगी का सीधा फायदा मिलेगा. हालांकि अभी कोई भी निष्कर्ष निकालना थोडी जल्दबाजी होगी लेकिन उपचुनावों के नतीजों से यह साफ है कि सपा की राजनीतिक जमीन खिसक रही है और वह बसपा से सीधे मुकाबले में बाहर हो रही है.
लेकिन इसके लिए और कोई नहीं बल्कि खुद मुलायम सिंह जिम्मेदार हैं जिन्होंने समाजवाद के नाम पर पिछले एक-डेढ़ दशक में जिस तरह की राजनीति को आगे बढाया है, वह अब बंद गली के आखिरी मुहाने पर पहुंच गई है. यहां से आगे का रास्ता बंद है और नए रास्ते खोलने के लिए उन्हें न सिर्फ परिवारवाद (और अमरवाद मार्का समाजवाद) से पीछा छुडाना पड़ेगा बल्कि समाजवादी राजनीति की जड़ों की ओर लौटना होगा. उन्हें उत्तर प्रदेश में अपने जनाधार को और समावेशी बनाने के लिए आम आदमी के मुद्दों पर जनसंघर्षों और ग्रामीण गरीबों, किसानो,बुनकरों,दलितों और अल्पसंख्यकों के हक़-हुकूक की लडाई में उतरना होगा.
जाहिर है कि विपक्ष की राजनीति पांच सितारा होटलों और सैरगाहों से नहीं चल सकती है. लेकिन जिस पार्टी के नेता अपने भाई-भतीजे-बेटे-बहू और अमर सिंह, संजय दत्त, जया बच्चन जैसे हों, उससे इसकी उम्मीद करना भी बेकार है. कहने की जरुरत नहीं है कि सपा की मौजूदा पारिवारिक-कारपोरेट राजनीति में अवसरवादी-दलाल-भ्रष्ट-ठेकेदार-गुंडा-माफिया तत्व ही फलफूल सकते हैं. लेकिन इस राजनीति की सीमाएं उजागर हो चुकी हैं. अब यह मुलायम को तय करना है कि वह किस रास्ते जायेंगे.

शुक्रवार, नवंबर 13, 2009

माओवाद को कितना जानता है समाचार मीडिया?

आनंद प्रधान
जब से यू पी ए सरकार ने माओवाद/नक्सलवाद के खिलाफ बड़ी सैन्य कार्रवाई का ऐलान किया है, अंग्रेजी समाचार चैनलों पर रोज़ शाम को होनेवाली चर्चाओं में भी नक्सलवाद/माओवाद एक प्रिय विषय बन गया है। इसमे कोई बुराई नहीं है लेकिन सरकार की घोषणा के बाद चैनलों की इस अतिसक्रियता से यह तो पता चलता ही है कि उनका अजेंडा कौन तय कर रहा है. यही नहीं, लगभग हर दूसरे-तीसरे दिन होनेवाली इन चर्चाओं में कुछ खास बातें गौर करनेवाली हैं. पहली बात तो ये कि बिना किसी अपवाद के सभी चैनलों पर एंकर सहित उन पत्रकारों/नेताओं/पुलिस अफसरों की भरमार होती है जो नक्सलवाद/माओवाद को न सिर्फ देश के लिए बड़ा खतरा मानते हैं बल्कि उससे निपटने के लिए सैन्य कार्रवाई को ही एकमात्र विकल्प मानते और उसका समर्थन करते हैं.

हालांकि ऐसी सभी चर्चाएं आमतौर पर एकतरफा होती हैं लेकिन उनपर यह आरोप न लग जाए, इसलिए एकाध मानवाधिकारवादी या बुद्धिजीवी को भी कोरम पूरा करने के वास्ते बुला लिया जाता है। फिर उसपर सवालों की बौछार शुरू कर दी जाती है लेकिन उसे जवाब देने का मौका नहीं दिया जाता है. चूंकि सवाल पूछने का हक एंकर के पास होता है, इसलिए चर्चा का एजेंडा भी वही तय करता है. वह कुछ सवालों को ही घुमा-फिराकर बार-बार पूछता है जैसे मानवाधिकारवादी माओवादी हिंसा की निंदा क्यों नहीं करते या क्या पुलिस का मानवाधिकार नहीं है या माओवादी न संविधान मानते हैं न सरकार और न ही हथियार डालने के लिए तैयार हैं तो उनसे बातचीत कैसे हो सकती है या क्या माओवादियों के लिए बातचीत अपनी ताक़त बढाने का सिर्फ एक बहाना नहीं है?

यही नहीं, उन बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के "खलनायकीकरण" की हरसंभव कोशिश होती है जो माओवादियों के खिलाफ सैन्य अभियान का न सिर्फ विरोध करते हैं बल्कि सरकार के इरादों पर सवाल भी उठाने की कोशिश करते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि खुद को स्वतंत्र बतानेवाले मीडिया ने एक बार भी प्रधानमंत्री या गृहमंत्री के इन बयानों पर सवाल नहीं उठाया कि कैसे माओवाद "आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है?" क्या यह सच नहीं है कि टी वी चैनलों की न तो यह जानने में कोई दिलचस्पी है कि देश के इतने बड़े हिस्से में गरीब-आदिवासी और दलितों ने हथियार क्यों उठा लिया है और न ही दर्शकों को ये बताने की मंशा है कि सरकार झारखण्ड और छत्तीसगढ़ को माओवादियों से मुक्त कराने के लिए इतनी बेचैन क्यों है?

समाचार मीडिया की अगर इन सवालों और मुद्दों में इतनी ही दिलचस्पी होती तो क्या वे झारखण्ड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में अपने पूर्णकालिक संवाददाता नहीं नियुक्त करते? विडम्बना यह है कि अगर कीमती खनिज न होते तो देश के इन सुदूर वन-प्रांतरों में सरकारों की कोई दिलचस्पी नहीं होती. इसी तरह कारपोरेट मीडिया की रांची या रायपुर में कोई रूचि नहीं है और न ही इन इलाकों की खबरें मीडिया में जगह बना पाती हैं. सच पूछिये तो पूरे पूर्वी भारत को मीडिया में कितनी जगह मिलती है? क्या ये सच नहीं है कि मुंह नोचने को तैयार एंकरों में से अधिकांश ने कभी भी इन इलाकों में घूमने की जहमत नहीं उठाई है? उनके "वी द पीपुल" या (फेस द) "नेशन" की सीमाएं दिल्ली और मुंबई जैसे टी आर पी महानगरों तक सीमित हैं और उनके "फ्रैंकली स्पीकिंग" की हद "बुश-चिदंबरम स्पीक" से तय होती है.

मंगलवार, नवंबर 10, 2009

सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग में पिछड़ने के मायने


आनंद प्रधान

पिछले सप्ताह जब से ’द टाइम्स-क्यूएस’ की दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग जारी हुई है, देश में अपने विश्वविद्यालयों की दशा को लेकर हंगामा मचा हुआ है। वजह यह कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पहले 10 या 50 या 100 या फिर 150 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का कोई विश्वविद्यालय जगह नही बना पाया है। यही नहीं, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में 163वें स्थान पर आईआईटी,मुंबई और 181वें स्थान पर आईआईटी, दिल्ली को जगह मिल सकी है जबकि लोकप्रिय और वास्तविक अर्थो में आईआईटी को विश्वविद्यालय नही माना जाता है।

यह सचमुच चिंता और अफसोस की बात है कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में दो आईआईटी को छोड़कर देश का कोई विश्वविद्यालय जगह बना पाने में कामयाब नही हुआ है। इससे देश में उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नही है। ऐसा नही है कि यह सच्चाई सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग जारी होने के बाद पहली बार सामने आई है। यह एक तथ्य है कि पिछले कई वर्षों से जारी हो रही इस वैश्विक रैकिंग में भारत के विश्वविद्यालय अपनी जगह बना पाने में लगातार नाकामयाब रहे हैं।

सवाल है कि इस वैश्विक रैकिंग को कितना महत्त्व दिया जाए? यह भी एक तथ्य है कि ’द टाइम्स-क्यूएस’ की विश्वविद्यालयों की सालाना वैश्विक रैकिंग रिपोर्ट और ऐसी अन्य कई रिपोर्टों की प्रविधि और चयन प्रक्रिया पर सवाल उठते रहे हैं। इस रैकिंग में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों के प्रति झुकाव और आत्मगत मूल्यांकन की छाप को साफ देखा जा सकता है। लेकिन इस सबके बावजूद दुनिया भर के ‘शैक्षणिक समुदाय में ’ द टाइम्स-क्यूएस ’ की वैश्विक विश्वविद्यालय रैकिंग की मान्यता और स्वीकार्यता बढ़ती ही जा रही है। उसकी अपनी ही एक करेंसी हो गयी है।

दरअसल, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले दो दशकों में उच्च शिक्षा का एक जो वैश्विक बाजार बना है, उसके लिए विश्वविद्यालयों की इस तरह की रैकिंग एक अनिवार्य ‘शर्त है। यह रैकिंग वैश्विक शिक्षा बाजार के उन उपभोक्ताओं के लिए है जो बेहतर अवसरों के लिए विश्वविद्यालय चुनते हुए इस तरह की रैकिंग को ध्यान में रखते हैं। निश्चय ही, इस तरह की रैकिंग से सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों को न सिर्फ संसाधन जुटाने में आसानी हो जाती है बल्कि वे दुनिया भर से बेहतर छात्रों और अध्यापकों को भी आक्रर्षित करने में कामयाब होते हैं।

इस अर्थ में, सर्वश्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों की सूची में आईआईटी को छोड़कर एक भी भारतीय विश्वविद्यालय के न होने से साफ है कि भारत उच्च शिक्षा के वैश्विक बाजार में अभी भी आपूर्तिकर्ता नहीं बल्कि उपभोक्ता ही बना हुआ है। आश्चर्य नही कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद अभी भी देश से हर साल लाखों छात्र उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालयों का रूख कर रहे हैं। यही नहीं, ’ब्रेन ड्रेन’ रोकने और ’ब्रेन गेन’ के दावों के बीच अभी भी सैकड़ों प्रतिभाशाली शिक्षक और ‘शोधकर्ता विदेशों का रूख कर रहे हैं।

इस मायने में, वैश्विक विश्वविद्यालयों की यह रैकिंग उच्च शिक्षा के कर्ता-धर्ताओं को न सिर्फ वास्तविकता का सामना करने का एक मौका देती है बल्कि एक तरह से चेतावनी की घंटी है। वह इसलिए कि दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं के तहत सेवा क्षेत्र को व्यापार के लिए खोलने की जो बातचीत चल रही है, उसमें भारत अपने उच्च शिक्षा क्षेत्र को खोलने के लिए तत्पर दिख रहा है। इस तत्परता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में बुलाने के लिए कुछ ज्यादा ही उत्साहित दिख रहे हैं।

लेकिन सवाल यह है कि जब भारत और उसके विश्वविद्यालय वैश्विक शिक्षा बाजार में कहीं नहीं हैं तो उच्च शिक्षा का घरेलू बाजार विदेशी शिक्षा सेवा प्रदाताओं या विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए खोलने के परिणामों के बारे में क्या यूपीए सरकार ने विचार कर लिया है? क्या ऐसे समय में, जब भारतीय विश्वविद्यालय विकास और गुणवत्ता के मामले में विकसित और पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों से काफी पीछे हैं, उस समय विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश के दरवाजे खोलने का अर्थ उन्हें एक असमान प्रतियोगिता में ढकेलना नही होगा? क्या इससे देशी विश्वविद्यालयों के विकास पर असर नहीं पड़ेगा?

निश्चय ही, इन सवालों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। लेकिन ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार उच्च शिक्षा में बुनियादी सुधार और बेहतरी के लिए देशी विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता बढ़ाने के वास्ते उन्हें जरूरी संसाधन और संरक्षण मुहैया कराने के बजाय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का जिम्मा विदेशी विश्वविद्यालयों को सौंपकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है। हालांकि कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा में सुधार के बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं लेकिन सच्चाई यही है कि वे उच्च शिक्षा क्षेत्र में बुनियादी सुधार के बजाय जहां-तहां पैबंद लगाने की कोशिश कर रहे हैं।

हकीकत यह है कि यूपीए सरकार को उच्च शिक्षा में पैबंद लगाने और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप और निजी क्षेत्र को बढ़ाने जैसे पिटे-पिटाए फार्मूलों को फिर से आजमाने के बजाय उन बुनियादी सवालों और समस्याओं से निपटने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए जिनके कारण उच्च शिक्षा एक शैक्षणिक जड़ता से जूझ रही है। आज वास्तव में जरूरत यह है कि इस शैक्षणिक जड़ता को तोड़ने के लिए उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक पुनर्जागरण के लिए उपयुक्त माहौल बनाया जाए। इसके लिए विश्वविद्यालयों के व्यापक जनतांत्रिक पुनर्गठन के साथ-साथ उन्हें वास्तविक स्वायत्तता और शैक्षणिक स्वतंत्रता उपलब्ध कराना जरूरी है। इसके बिना विश्वविद्यालयों का कायाकल्प मुश्किल है।

असल में, आज देश में उच्च शिक्षा के सामने तीन बुनियादी चुनौतियां हैं-उच्च शिक्षा के विस्तार की , उसमें देश के सभी वर्गों के समावेश और उसकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने की। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि सरकार उच्च शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन और वित्तीय मदद मुहैया कराए। लेकिन अफसोस की बात यह है कि आर्थिक सुधारों की शुरूआत के बाद 90 के दशक में उच्च शिक्षा के बजट में लगातार कटौती हुई जिसका नतीजा यह हुआ कि अधिकांश विश्वविद्यालयों में न सिर्फ पठन-पाठन पर असर पड़ा बल्कि वे छोटी-छोटी शैक्षणिक जरूरतों और संसाधनों से भी महरूम हो गये।

एक अंतर्राष्ट्रीय ‘शोध रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के विकसित देशों की तो बात ही छोड़ दीजिए, ब्रिक (ब्राजील,रूस,भारत और चीन) देशों में उच्च शिक्षा में प्रति छात्र सबसे कम व्यय भारत में होता है। आश्चर्य नही कि वैश्विक विश्वविद्यालयों की रैकिंग में पहले 200 विश्वविद्यालयों की सूची में चीन के कई विश्वविद्यालयों के नाम हैं लेकिन भारत के विश्वविद्यालय उस सूची में जगह नही बना पाए। उपर से तुर्रा यह कि यूपीए सरकार अब विश्वविद्यालयों को अपने बजट का कम से कम 20 प्रतिशत खुद जु गाड़ने के लिए कह रही है।

यही नही, इस समय उच्च शिक्षा पर बजट बढ़ाने और 11 वीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा को सबसे अधिक महत्त्व देने के यूपीए सरकार के तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद सच यह है कि सरकार उच्च शिक्षा पर जीडीपी का मात्र 0।39 प्रतिशत से भी कम खर्च कर रही है। इसकी तुलना में, चीन उच्च शिक्षा पर इसके तीन गुने से भी अधिक खर्च कर रहा है।

असल में, वैश्विक रैकिंग में जगह न बना पाने से अधिक चिंता की बात यह है कि आजादी के 60 सालों बाद भी उच्च शिक्षा के विस्तार की हालत यह है कि देश में विश्वविद्यालय जाने की उम्र के सिर्फ दस फीसदी छात्र ही कालेज या विश्वविद्यालय तक पहुंच पाते हैं जबकि विकसित पश्चिमी देशों में 35 से 50 फीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पहुंचते हैं। आश्चर्य नही कि मानव विकास सूचकांक में भी भारत 183 देशों की सूची में 134वें स्थान पर है। आखिर मानव विकास में फीसड्डी होकर कोई देश सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैकिंग में जगह कैसे बना सकता है?

सोमवार, नवंबर 09, 2009

सिर्फ छवि नहीं, विश्वविद्यालयों को चमकाने का उपाय कीजिये

आनंद प्रधान

क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि एक ओर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा में सुधार और बेहतरी की घोषणाएं और दावे कर रहे हैं, उसी समय देश के दो सबसे प्रतिष्ठित और पुराने केंद्रीय विश्वविद्यालयों- अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (ए एम यू ) और शान्तिनिकेतन में छात्र-कर्मचारी असंतोष और आन्दोलन के कारण पढाई ठप्प है। ए एम यू को तो अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया गया है और छात्रों से हास्टल खाली करा लिए गए हैं. ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ इन दो विश्वविद्यालयों तक सीमित कहानी है बल्कि अधिकांश विश्वविद्यालयों की यही स्थिति है. वहां पढाई के अलावा और सभी कुछ हो रहा है. यहां तक कि कई विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं और कई के खिलाफ जांच जारी है.

दूसरी ओर, कुछ चुनिन्दा विश्वविद्यालयों को छोड़कर अधिकांश विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षा के नाम पर छात्रों के साथ मजाक हो रहा है। इन विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक हालत का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि यू जी सी-नैक की एक रिपोर्ट के मुताबिक 140 विश्वविद्यालयों और साढ़े तीन हजार कालेजों में से सिर्फ 31 फीसदी विश्वविद्यालय और 9 प्रतिशत कालेज ही ए ग्रेड के हैं जबकि बाकी का भगवान मालिक है. यही नहीं, योजना आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के आधे से अधिक विश्वविद्यालयों और 90 फीसदी से अधिक कालेजों से डिग्री लेकर निकालनेवाले छात्र किसी "नौकरी के लायक नहीं' हैं क्योंकि उन्हें उनके विश्वविद्यालयों और कालेजों में जो कथित "शिक्षा" मिली है, उसमे ज्ञान और कौशल नहीं सिर्फ डिग्री मिली है. आप माने या न माने लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि अधिकांश विश्वविद्यालय और कालेज सिर्फ डिग्री बांटने की दुकानें बन गए हैं.

यह सही है कि इसके लिए कपिल सिब्बल सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं हैं। उन्हें अभी मानव संसाधन मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाले कुछ ही महीने गुजरे हैं और ऐसा भी नहीं है कि उनसे पहले के शिक्षामंत्रियों के कार्यकाल में विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक स्थिति इससे कोई बेहतर थी. निश्चय ही, उन्हें उच्च शिक्षा की लगातार बिगड़ती स्थिति में सुधार के लिए पर्याप्त समय और मौका मिलना चाहिए लेकिन यह स्वीकार करते हुए भी इसपर गौर करना जरुरी है कि उन्हें स्थिति की गंभीरता और अपने सामने खड़ी चुनौती का अंदाजा है या नहीं? यही नहीं, यह देखना भी जरुरी है कि वे उच्च शिक्षा क्षेत्र की वास्तविक समस्याओं से किस हद तक वाकिफ हैं और उनके सुधारों की दिशा क्या है?

असल में, जब से कपिल सिब्बल मानव संसाधन विकास मंत्री बने हैं, प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए अपने बयानों और फैसलों के कारण आये दिन सुर्खियों में बने रहते हैं. अपनी इस सक्रियता के कारण उन्हें प्रधानमंत्री से भी शाबासी मिल चुकी है और मीडिया तो उन्हें यू पी ए सरकार के सबसे तेजतर्रार और कामकाजी मंत्रियों में शुमार करता ही है. कहने की जरुरत नहीं है कि कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता के बतौर काम कर चुके श्री सिब्बल को मीडिया में बने रहने की कला अच्छी तरह से आती है. अलबत्ता ये बात और है कि इस बीच कई बार वे अपने बयानों के कारण मुश्किलों में पड़ चुके हैं और उन्हें अपनी कही हुई बातें वापस लेनी पड़ी हैं. इसके बावजूद उनपर कोई खास असर नहीं पड़ा है क्योंकि वे जानते हैं कि काम करने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम करनेवाले मंत्री की छवि बनाना है।

दरअसल, उनके साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है। सच यह है कि उनके बयानों और फैसलों में शोर-शराबा ज्यादा है और वास्तविक अंतर्वस्तु कम. उनका सुर्खियों से जितना प्यार दिखता है, वास्तविक चुनौतियों से निपटने की उनकी तैयारी उतनी ही कमजोर दिखती है. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या कारण है कि यू पी ए सरकार ने धूमधाम से जिन 16 केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना का ऐलान किया, महीनो गुजर जाने के बावजूद उनमें से 11 विश्वविद्यालयों की जमीन तक का पता नहीं है और कई के बारे में तो यह भी पता नहीं है कि वे किस शहर में खुलेंगे. इसी तरह यशपाल समिति की सिफारिशों को आये हुए भी दो महीनो से अधिक गुजर गए लेकिन उनका मंत्रालय चुप्पी मारकर बैठा है.

यहां तक कि उसकी एक सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश पर अमल करने में मंत्रालय की घिग्गी बंधी हुई है कि पिछले कुछ वर्षों में "उदारता"के साथ बांटी गई "सब-स्टैण्डर्ड डीम्ड यूनिवर्सिटी" को तत्काल रद्द किया जाए। हालांकि मंत्रालय द्वारा गठित एक उच्चस्तरीय समिति ने इन शिक्षा की इन निजी दुकानों की जांच-पड़ताल के बाद अपनी रिपोर्ट सिब्बल को सौंप दी है. लेकिन उसपर कारवाई करने और शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण की प्रक्रिया पर रोक लगाने के बजाय शिक्षा मंत्री इसे और जोरशोर से आगे बढाने में जुटे हुए हैं. असल में, कपिल सिब्बल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे उच्च शिक्षा की सभी समस्याओं का एकमात्र समाधान निजीकरण और बाजारीकरण को मानते हैं.

यही कारण है कि वे मौजूदा विश्वविद्यालयों को और बेहतर बनाने और उनमे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के बजाय बड़े कारपोरेट समूहों के लिए उच्च शिक्षा का क्षेत्र खोलने और विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में आमंत्रित करने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं। कहने कि जरुरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी लगातार तेजी से फ़ैल रहे भारतीय उच्च शिक्षा बाज़ार में घुसाने के लिए बेचैन हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक बारात में शिक्षा का बाज़ार लगभग 20 अरब डालर यानि करीब 10 खरब रुपये से अधिक का है.

लेकिन शिक्षा क्षेत्र को देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए खोलने से पहले शिक्षा मंत्री को उन करीब पौने चार सौ सरकारी विश्वविद्यालयों और दस हजार कालेजों की खस्ताहाल शैक्षणिक स्थिति को सुधारने के लिए गंभीर पहल करनी पड़ेगी जो पिछले दो दशकों की सरकारी उपेक्षा के कारण इस स्थिति में पहुँच गए हैं। आलम यह है कि इन विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षकों-कर्मचारियों के सैकडों पद खाली पड़े हैं, जरुरी शैक्षणिक सुविधाओं जैसे प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों आदि का हाल बदहाल है, क्लास रूम्स और हास्टलों आदि की स्थिति जर्जर हो चुकी है लेकिन उनकी सुध लेनेवाला कोई नहीं है. ऊपर से भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के कारण स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. इन सभी वजहों से परिसरों में निराशा और हताशा का ऐसा माहौल बन गया है कि उसमे पढाई-लिखाई और वह भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की जैसीकि प्रधानमंत्री चाहते हैं, संभव नहीं है.

ऐसे में जरुरत यह है कि कपिल सिब्बल अपनी छवि चमकाने के बजाय मौजूदा विश्वविद्यालयों और कालेजों की स्थिति सुधारने के लिए परिसरों को न सिर्फ पर्याप्त धन और संसाधन मुहैया कराएं बल्कि उनके संचालन को बेहतर बनाने के लिए कुलपतियों को जवाबदेह, प्रशासन को पारदर्शी और निर्णय लेने की प्रक्रिया को लोकतान्त्रिक बनाएं. क्या यह दोहराने की जरुरत है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में कुछ वर्षों या दशकों पहले तक अपने विशेष शैक्षणिक योगदान के लिए जाने-जानेवाले ए एम यू, बी एच यू, शान्तिनिकेतन, कलकत्ता,लखनऊ, इलाहाबाद, पटना, राजस्थान, सागर और कुमाऊँ जैसे विश्वविद्यालयों की मौजूदा बदहाल स्थिति के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की आपराधिक उपेक्षा और लापरवाही जिम्मेदार रही है. जाहिर है कि इसे ठीक करने के लिए कोई बाहर से नहीं आएगा और न ही इसका इलाज उच्च शिक्षा को निजी क्षेत्र या विदेशी विश्वविद्यालयों को सौंप देना है. कपिल सिब्बल को सबसे पहले इसपर ही ध्यान देना होगा.

बुधवार, नवंबर 04, 2009

अपने दामन में झांकें कोड़ा पर कोड़ा चलाने वाले


आनंद प्रधान

झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को देश का पहला ऐसा पूर्व मुख्यमंत्री होने का 'गौरव' हासिल हो गया है जिसके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय और सी बी आइ ने न सिर्फ आय से अधिक संपत्ति जुटाने बल्कि हवाला के जरिये उसे देश से बाहर भेजने के आरोप में मामला दर्ज किया है। पिछले दो दिनों में देशभर के आठ शहरों में कोड़ा और उनके करीबी सहयोगियों के 70 से अधिक ठिकानो पर आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के छापों में कोई 2000 करोड़ रुपये से अधिक की नामी-बेनामी संपत्ति का पता चला है. इसमे लाइबेरिया से लेकर दुबई, मलेशिया, लाओस, थाईलैंड और सिंगापुर जैसे देशों में संपत्ति खरीदने से लेकर कोयला और स्टील कंपनियों में निवेश तक की सूचना है. हालांकि अभी पूरे तथ्यों और जानकारियों का सामने आना बाकी है लेकिन इतना साफ हो चुका है कि यह अभी भ्रष्टाचार के हिमशैल(आइसबर्ग) का उपरी सिरा भर है और सतह के नीचे न जाने कितना कुछ छुपा हुआ है.

कहने की जरुरत नहीं है कि देश के सबसे गरीब और पिछड़े राज्य में कोड़ा और उनके राजनीतिक साथियों और करीबी सहयोगियों ने सिर्फ कुछ वर्षों में भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान बना दिए हैं। यह सचमुच कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिस राज्य का गठन देश के इस सबसे पिछड़े इलाके को विकास की मुख्यधारा में लाने और उसका हक दिलाने के लिए किया गया था, वह राज्य भ्रष्टाचार के मामले में कीर्तिमान बना रहा है. उससे कम बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि जिस राज्य के गठन की लडाई का सबसे अहम मुद्दा यह था कि इस आदिवासी बहुल राज्य का शासन यहीं के लोगों के हाथ में होना चाहिए क्योंकि इस जमीन से पैदा लोग बाहरी लोगों की तरह लूटने-खसोटने के बजाय यहां का दर्द समझेंगे और राज्य के विकास के लिए काम करेंगे, वो लूटने-खसोटने में बाहरी लोगों से भी आगे निकलते हुए दिखाई दे रहे हैं. इस मायने में, कोड़ा और उनके मंत्रिमंडल के कई आदिवासी साथियों ने सबसे अधिक धोखा अपने राज्य और उसके गठन के लिए कुर्बानी देनेवाले लाखों नागरिकों के साथ किया है.

निश्चय ही, कोड़ा और उनके साथियों को इसके लिए माफ़ नहीं किया जा सकता है। वे माफ़ी के काबिल इसलिए भी नहीं हैं कि उन्होंने एक अत्यंत निर्धन राज्य के संसाधनों की न सिर्फ बेशर्मी खुली लूट की है बल्कि उस राज्य के गरीबों के साथ छल किया है जो इस तरह की लूट को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं. लेकिन कोड़ा कोई अपवाद नहीं हैं. यहाँ तो पूरे कुएं में ही भंग पड़ी है. क्या कोड़ा के भ्रष्टाचार में खुले-छिपे शामिल उन महान 'राजनीतिक दलों' और उनके 'पवित्र नेताओं' की कोई भूमिका नहीं है जो कल तक साथ-साथ सत्ता की मलाई चाट रहे थे लेकिन अब पाकसाफ होने का दावा कर रहे हैं ? क्या यह सच नहीं है कि कोड़ा और उनके निर्दलीय साथियों को सत्ता और सम्मान देने के मामले में कांग्रेस या भाजपा में कोई पीछे नहीं था? याद रहे कि कोड़ा संघ परिवार की ट्रेनिंग और भाजपा की छत्रछाया में राजनीति में आये. तथ्य यह भी है कि कोड़ा का खनन मंत्रालय से रिश्ता भाजपा की मरांडी और मुंडा सरकारों के दौरान बना और कांग्रेस और राजद के सहयोग से वे निर्दलीय होते हुए भी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँच गए. आखिर इससे बड़ा राजनीतिक मजाक और क्या हो सकता है कि यू पी ए खासकर कांग्रेस ने झारखण्ड जैसे राज्य का मुख्यमंत्री एक निर्दलीय को बनवा दिया.

असल में, जब से झारखण्ड बना है, कांग्रेस और भाजपा जैसी दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने न सिर्फ उसके साथ राजनीतिक खिलवाड़ किया है बल्कि वहां के स्थानीय आदिवासी नेतृत्व और राजनीतिक दलों को भ्रष्ट बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है. यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि कोड़ा या सोरेन जैसे आदिवासी नेताओं की कोई गलती नहीं है और उन्हें कांग्रेस या भाजपा के नेताओं ने बहला-फुसलाकर भ्रष्ट बना दिया लेकिन इस सच्चाई को अनदेखा कैसे किया जा सकता है कि झारखंड की पिछले तीन दशकों की राजनीति में सोरेन जैसे लड़ाकू नेताओं और झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे दलों को कांग्रेस ने कैसे भ्रष्ट बनाया? क्या नरसिम्हा राव की सरकार को बचाने में झामुमो के सांसदों को दी गई रिश्वत के लिए केवल रिश्वत लेनेवाले ही जिम्मेदार हैं या देनेवालों की भी कोई जिम्मेदारी बनती है? यहीं नहीं, यह कहना भी गलत नहीं होगा कि बहुत योजनाबद्ध तरीके से यहां के स्थानीय आदिवासी नेतृत्व को भ्रष्ट बनाया गया है ताकि झारखंड जैसे संसाधन संपन्न राज्य के साधनों की लूट में कोई अड़चन नहीं आये.

इसका नतीजा कोड़ा और सोरेन जैसे नेताओं के रूप में हमारे सामने है। लेकिन आश्चर्य नहीं कि झारखण्ड जैसे निर्धन राज्य में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं नहीं बन पा रहा है. वजह साफ है. असल में, लोगों को पता है कि कोड़ा किसकी शह और आर्शीवाद से लूट का साम्राज्य खडा करने में जुटे हुए थे. यही नहीं, लोगों को यह भी पता है कि कोड़ा अब एक सिर्फ नाम भर नहीं हैं बल्कि एक प्रवृत्ति के उदाहरण बन चुके हैं. न जाने कितने कोड़ा इस या उस पार्टी में अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं या बिना किसी रोक-टोक या भय के लूट-खसोट का कारोबार जारी रखे हुए हैं. आप माने या न मानें, लेकिन इस तथ्य को अनदेखा करना मुश्किल है कि स्थानीय आदिवासी नेतृत्व के भ्रष्ट होने के कारण ही माओवाद को वह राजनीतिक जमीन मिली है जिसपर कल तक सोरेन और कोड़ा जैसे नेता खड़े थे.

साफ है कि झारखण्ड में कितना खतरनाक खेल खेला जा रहा है. यह सिर्फ एक और भ्रष्टाचार का मामला भर नहीं है बल्कि इसमें पूरी जनतांत्रिक प्रक्रिया दांव पर लगी हुई है. यहां यह भी कहना जरुरी है कि एक कोड़ा या सुखराम को पकड़ने से कुछ नहीं बदलनेवाला क्योंकि वह भ्रष्ट व्यवस्था ज्यों-की-त्यों बनी हुई है. आश्चर्य नहीं कि इस देश में भ्रष्टाचार खासकर उच्च पदों का भ्रष्टाचार अब कोई बड़ा राजनीतिक मुद्दा नहीं रह गया है, कम से कम राजनीतिक दलों के लिए तो यह कोई मुद्दा नहीं रह गया है. जब भ्रष्टाचार शासन व्यवस्था का इस तरह से हिस्सा बन जाए कि प्रशासन का कोई पुर्जा और पूरी मशीन बिना रिश्वत के 'ग्रीज' के चलने में अक्षम हो गई हो तो वह कोड़ा जैसों को ही पैदा कर सकती है. आखिर इसकी जिम्मेदारी किसकी है? क्या किसी के पास कोई जवाब है कि पिछले तीन दशकों से अधिक समय से वायदे के बावजूद आजतक लोकपाल कानून क्यों नहीं बना? क्या कारण है कि अभी चार साल भी नहीं हुए और नौकरशाही-नेताशाही आर टी आइ कानून को बदलने पर तुल गई है? कोड़ा पर कोड़ा चलानेवाले क्या अपने दामन में झांकेंगे?