आनंद प्रधान
ऐसा बहुत वर्षों बाद हुआ कि गन्ने की कीमतों में वृद्धि और इस बाबत केंद्र सरकार के एक विवादास्पद अध्यादेश को वापस लेने की मांग को लेकर हजारों की संख्या में गन्ना किसान दिल्ली पहुंचे. जंतर-मंतर पर धरना और रैली हुई, जिसमें किसान नेताओं के साथ लगभग पूरा विपक्ष मौजूद था. लेकिन दिल्ली के राष्ट्रीय मीडिया खासकर दो सबसे बड़े अंग्रेजी अखबारों के लिए खबर यह नहीं थी बल्कि अगले दिन के अखबार में पहले पेज पर खबर यह छपी कि कैसे किसानो ने पूरी दिल्ली को बंधक बना लिया. यह भी कि कैसे किसानो ने दिल्ली में उत्पात, लूटपाट,तोड़फोड़ और लोगों के साथ बदसलूकी की. दिल्ली को जाम कर दिया जिससे दिल्लीवालों को बहुत तकलीफ हुई. यही नहीं, किसानो की शराब पीते, तोड़फोड़ करते और जंतर-मंतर जैसे ऐतिहासिक स्थल को गन्दा करते तस्वीरें भी छपीं.
लेकिन ये किसान दिल्ली क्यों आये थे और उनकी मांगे क्या थी और स्थिति यहां तक क्यों पहुंची - यानि असली खबर को कोई खास तव्वजो नहीं दी गई. किसानो के साथ सहानुभूति की तो बात ही दूर है, दिल्ली के अंग्रेजी मीडिया ने उन्हें अराजक और खलनायक की तरह पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कहने की जरूरत नहीं है कि किसानो की इस रैली को कवर करते हुए दिल्ली के मीडिया ने पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों- वस्तुनिष्ठता, संतुलन, निष्पक्षता और तथ्यपरकता को ताक पर रख दिया. इस कवरेज पर बारीकी से ध्यान दीजिये तो साफ हो जायेगा कि दिल्ली के तथाकथित "राष्ट्रीय मीडिया" को असल में, गन्ना किसानो ही नहीं, बल्कि खेती-किसानी में कोई दिलचस्पी नहीं है. आश्चर्य नहीं कि गन्ने को लेकर यह विवाद पिछले 25 दिनों से जारी था और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान सडकों पर थे लेकिन दिल्ली के राष्ट्रीय मीडिया को कोई खास खबर नहीं थी. खबर हो भी तो कम-से-कम उन्होंने अपने पाठकों और दर्शकों को इस बाबत बताना जरूरी नहीं समझा. हिंदी के कुछ अखबारों को छोड़कर अधिकांश अंगरेजी अखबारों और चैनलों में इसे नोटिस करने लायक भी नहीं समझा गया.
हालांकि यह मुद्दा और गन्ना किसानो का आन्दोलन हर लिहाज से एक बड़ी खबर थी. दिल्ली के मध्यमवर्गीय पाठकों और दर्शको के साथ भी इस खबर का सीधा रिश्ता जुड़ता है. चीनी की लगातार बढ़ती कीमतों के बीच गन्ना किसानो के आन्दोलन का सीधा असर आम पाठकों-दर्शकों पर पड़ रहा है. ऐसे में, मीडिया से यह स्वाभाविक अपेक्षा थी कि वह इस मुद्दे पर अपने पाठकों-दर्शकों को जागरूक बनाये लेकिन इसके बजाय मीडिया ने इस आन्दोलन के खिलाफ एक मुहिम सी छेड़ दी है. जाहिर है कि यह पहला मामला नहीं है. इसके पहले भी दिल्ली में देश के अलग-अलग इलाकों से आनेवाले गरीबों, किसानो, मजदूरों, आदिवासियों और विस्थापितों की रैली/प्रदर्शनों को लेकर भी राष्ट्रीय मीडिया का यही रूख रहा है. इस मीडिया के लिए देश की सीमाएं दिल्ली तक सीमित हैं. उसकी चिंताओं की सूची में कृषि और किसानो की हालत सबसे निचले पायदान पर है. हैरत की बात नहीं है कि दिल्ली के अधिकांश राष्ट्रीय अखबारों और चैनलों में कृषि और खेती-किसानी कवर करने के लिए अलग से कोई संवाददाता नहीं है.क्या यह दिल्ली के अभिजात्य शहरी कार्पोरेट मीडिया का स्वाभाविक वर्गीय पूर्वाग्रह नहीं है जो गन्ना किसानो के कवरेज में खुलकर दिख रहा है?
2 टिप्पणियां:
बिल्कुल ठीक सर!खुद को नेशनल कहने वाले और सर्कुलेशन का ढोल पीटने वाले दो अंग्रेजी अखबारों ने ही नहीं बल्कि हिंदी के अखबारों ने भी कुछ इसी तरह का काम किया है। नई दुनिया ने तो अपने दूसरे पन्ने पर किसानों को उत्पाती तक घोषित कर दिया है। चौंकाने वाली बात तो यह है कि इस अखबार ने अपनी लीड स्टोरी 'किसानों की हुंकार से नरम पड़ी सरकार' शीर्षक से छापी भी, लेकिन ख़बर का तत्व ही ख़बर से गायब था। वहां भी किसानों की हालत को बताना ज़रूरी नहीं समझा गया। जाने कैसा रिपोर्टिंग की लत लग गई है इन समूहों को...
राष्ट्रिय मीडिया के इसी नजरिए के चलते विदर्भ-बुंदेलखंड एक लाख किसानो की मौत के बाद भी खबर नहीं बन सके थे.
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