आनंद प्रधान
जब से यू पी ए सरकार ने माओवाद/नक्सलवाद के खिलाफ बड़ी सैन्य कार्रवाई का ऐलान किया है, अंग्रेजी समाचार चैनलों पर रोज़ शाम को होनेवाली चर्चाओं में भी नक्सलवाद/माओवाद एक प्रिय विषय बन गया है। इसमे कोई बुराई नहीं है लेकिन सरकार की घोषणा के बाद चैनलों की इस अतिसक्रियता से यह तो पता चलता ही है कि उनका अजेंडा कौन तय कर रहा है. यही नहीं, लगभग हर दूसरे-तीसरे दिन होनेवाली इन चर्चाओं में कुछ खास बातें गौर करनेवाली हैं. पहली बात तो ये कि बिना किसी अपवाद के सभी चैनलों पर एंकर सहित उन पत्रकारों/नेताओं/पुलिस अफसरों की भरमार होती है जो नक्सलवाद/माओवाद को न सिर्फ देश के लिए बड़ा खतरा मानते हैं बल्कि उससे निपटने के लिए सैन्य कार्रवाई को ही एकमात्र विकल्प मानते और उसका समर्थन करते हैं.
हालांकि ऐसी सभी चर्चाएं आमतौर पर एकतरफा होती हैं लेकिन उनपर यह आरोप न लग जाए, इसलिए एकाध मानवाधिकारवादी या बुद्धिजीवी को भी कोरम पूरा करने के वास्ते बुला लिया जाता है। फिर उसपर सवालों की बौछार शुरू कर दी जाती है लेकिन उसे जवाब देने का मौका नहीं दिया जाता है. चूंकि सवाल पूछने का हक एंकर के पास होता है, इसलिए चर्चा का एजेंडा भी वही तय करता है. वह कुछ सवालों को ही घुमा-फिराकर बार-बार पूछता है जैसे मानवाधिकारवादी माओवादी हिंसा की निंदा क्यों नहीं करते या क्या पुलिस का मानवाधिकार नहीं है या माओवादी न संविधान मानते हैं न सरकार और न ही हथियार डालने के लिए तैयार हैं तो उनसे बातचीत कैसे हो सकती है या क्या माओवादियों के लिए बातचीत अपनी ताक़त बढाने का सिर्फ एक बहाना नहीं है?
यही नहीं, उन बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के "खलनायकीकरण" की हरसंभव कोशिश होती है जो माओवादियों के खिलाफ सैन्य अभियान का न सिर्फ विरोध करते हैं बल्कि सरकार के इरादों पर सवाल भी उठाने की कोशिश करते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि खुद को स्वतंत्र बतानेवाले मीडिया ने एक बार भी प्रधानमंत्री या गृहमंत्री के इन बयानों पर सवाल नहीं उठाया कि कैसे माओवाद "आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है?" क्या यह सच नहीं है कि टी वी चैनलों की न तो यह जानने में कोई दिलचस्पी है कि देश के इतने बड़े हिस्से में गरीब-आदिवासी और दलितों ने हथियार क्यों उठा लिया है और न ही दर्शकों को ये बताने की मंशा है कि सरकार झारखण्ड और छत्तीसगढ़ को माओवादियों से मुक्त कराने के लिए इतनी बेचैन क्यों है?
समाचार मीडिया की अगर इन सवालों और मुद्दों में इतनी ही दिलचस्पी होती तो क्या वे झारखण्ड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में अपने पूर्णकालिक संवाददाता नहीं नियुक्त करते? विडम्बना यह है कि अगर कीमती खनिज न होते तो देश के इन सुदूर वन-प्रांतरों में सरकारों की कोई दिलचस्पी नहीं होती. इसी तरह कारपोरेट मीडिया की रांची या रायपुर में कोई रूचि नहीं है और न ही इन इलाकों की खबरें मीडिया में जगह बना पाती हैं. सच पूछिये तो पूरे पूर्वी भारत को मीडिया में कितनी जगह मिलती है? क्या ये सच नहीं है कि मुंह नोचने को तैयार एंकरों में से अधिकांश ने कभी भी इन इलाकों में घूमने की जहमत नहीं उठाई है? उनके "वी द पीपुल" या (फेस द) "नेशन" की सीमाएं दिल्ली और मुंबई जैसे टी आर पी महानगरों तक सीमित हैं और उनके "फ्रैंकली स्पीकिंग" की हद "बुश-चिदंबरम स्पीक" से तय होती है.
2 टिप्पणियां:
जो माओवादियों को भुगत रहे हैं वे ही जानते हैं कि यह क्या बला है और यह किस दर्जे का आतंकवाद है। माओवादियों का महिमामंडन बंद होना चाहिये। इतना तो ठेकेदारों और सरकारों नें आदिवासियों को नहीं चूसा जितने उनके पैरोकार बनने के नाम पर नक्सलियों नें। साथ ही पूरी दुनिया में क्रांति होने का भ्रम फैलाने का काम किया तथाकथित बुद्धिजीवियों नें जिन्हे "मार्क्सवाद" के फैशन नें काट खाया था।
शुक्र है अब मीडिया में सच को भी जगह मिलने लगी है।
डेमोक्रेसी के चार पांच सरकारी जुमला पढ़ कर मीडिया वाले बस जुगाली करते रहते हैं...नक्सली प्रभावित तमाम इलाका टीआरपी रेंज के बाहर है...मतलब टीआरपी के लिहाज से पिछड़ा हुआ है, तो फिर पूर्णकालिक संवाददाता क्यों रखेंगे...और स्टूडियों में बैठकर मुंह चलाना आसान है...बस चलाये जा रहे हैं.
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