आज़ादी के ६४ वर्ष : वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं...
“ अखबार का हाकर सड़क पर चिल्ला रहा था
कि सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है
अब कड़े परिश्रम, अनुशासन और दूरदर्शिता के अलावा
और कोई रास्ता नहीं बचा है
एक रास्ता और है कि
सरकार इस जनता को भंग कर दे
और अपने लिए नई जनता चुन ले ”- बर्तोल्त ब्रेख्त, मशहूर जर्मन कवि
आज़ादी मिले ६४ साल हो गए. हालांकि इस बीच, गंगा-गोदावरी में बहुत पानी बह गया है लेकिन एक बार फिर लाल किले पर प्रधानमंत्री झंडा फहराते और देश की तरक्की के दावे करते नजर आएंगे. तोपों की सलामी दी जायेगी. स्कूलों से जबरन ढोकर लाये गए बच्चे जय हिंद का नारा लगाएंगे. राष्ट्रगान होगा. लेकिन इस भीड़ में बहुत कम लोग ऐसे होंगे जो आज़ादी के जोशीले जज्बे के साथ १५ अगस्त मनाने पहुंचे होंगे.
पूरे समारोह में उल्लास और उत्साह के साथ अपनेपन की कमी साफ दिखती है. ऐसा लगता है जैसे एक कोरम पूरा किया जा रहा हो. सब कुछ एक रुटीन की तरह लगता है. धीरे-धीरे लोग थके हुए कदमों के साथ वापस घरों को लौट जाते हैं. दूसरी ओर, पूरे देश में छुट्टी का माहौल होगा. इंडिया गेट से लेकर गेटवे आफ इंडिया तक तफरीह करने वालों की भीड़ होगी. लेकिन इन सबके बीच भी वह जज्बा नहीं होगा जो आज़ादी को आज़ादी बनाता है.
ऐसा लगता है कि आज़ादी के इन ६४ सालों में खासकर पिछले कुछ दशकों में अधिकांश देशवासियों के लिए आज़ादी बेमानी सी हो गई है. इसमें कोई शक नहीं है कि इन ६४ सालों में देश ने तरक्की की है. समृद्धि बढ़ी है. लेकिन इसके साथ ही कड़वा सच यह भी है कि गैर बराबरी और विषमता बढ़ी है. देश के माथे पर गरीबी, भूखमरी, बीमारी, बेकारी और अशिक्षा के दाग और गहरे हुए हैं. हालत यह हो गई है कि एक देश के अंदर दो देश हो गए हैं: इंडिया और भारत.
विडम्बना यह है कि एक ओर जहाँ इंडिया विकास और समृद्धि की दौड़ में तेजी से फर्राटे भर रहा है, इंडियन शाइनिंग की चमक-दमक है लेकिन दूसरी ओर, भारत लगातार पिछड़ता जा रहा है, वहां के लोगों की पीड़ा और बेचैनी बढ़ती जा रही है.
एक ओर देश में डालर अरबपतियों की संख्या दिन दुनी, रात चौगुनी बढ़ रही है और दूसरी ओर, देश की आबादी में ७९ फीसदी लोग २० रूपये प्रति दिन से भी कम की आय पर गुजर करने के लिए मजबूर हैं. किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, सरकारी गोदामों में रिकार्ड अनाज पड़े-पड़े सड़ रहा है और करोड़ों लोग भूखे पेट सो रहे हैं.
क्या आज़ादी के यही मायने हैं? क्या आज़ादी की लड़ाई के दौरान ऐसे ही भारत के सपने देखे गए थे? फैज़ की ये पंक्तियाँ याद आती हैं:
वो इन्तज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं ”
लेकिन जैसे इतना ही काफी नहीं था. कोढ़ में खाज की तरह भ्रष्टाचार देश को घुन की तरह खोखला करता जा रहा है. अब घोटाले हजारों-लाखों या करोड़ों में नहीं बल्कि लाखों करोड़ में हो रहे हैं. हालत यह हो गई है कि राष्ट्रीय प्रतिष्ठा दांव पर लगे होने के बावजूद एक ‘ईमानदार प्रधानमंत्री’ राष्ट्रमंडल खेलों को भी भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं रख पाए.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि भ्रष्टाचार राष्ट्रीय संस्कृति बनता जा रहा है. आज़ादी से पहले सेवा का माध्यम बनी राजनीति अब व्यक्तिगत हितों को पूरा करने का साधन बनती जा रही है. संसद और विधानसभाओं में दागी और गंभीर अपराधों के आरोपी माननीय सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही है. एक समय था जब देश के हर क्षेत्र से बेहतरीन प्रतिभाएं राजनीति में आईं और आज हाल यह है कि राजनीति ‘अपराधियों, घोटालेबाजों और निहित स्वार्थी तत्वों की आखिरी शरणस्थली बन गई है.’
इन मर्जों से आज शायद ही कोई राजनीतिक पार्टी और राजनेता बचा रह पाया है. यही कारण है कि प्रधानमंत्री भले ही ‘भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टालरेंस’ के दावे करते रहें लेकिन सच्चाई यह है कि आज आम आदमी के बीच राजनीतिक दलों और राजनेताओं की साख पाताल में पहुँच गई है.
यह लोगों का अविश्वास और जमा हुआ गुस्सा ही था जो अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के दौरान फूट कर सड़कों पर आ गया. ऐसा लगता है कि लोगों का धैर्य अब जवाब देने लगा है. वे अब और बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं.
निश्चय ही, आज पूरी दुनिया खासकर अरब जगत में जिस तरह बदलाव और क्रांति की लहर चल रही है और दशकों पुरानी तानाशाहियाँ ताश के पत्तों की तरह ढह रही हैं, उसने भारत जैसे देशों में भी लोगों को सड़कों पर उतरने और बदलाव की आवाज़ बुलंद करने के लिए प्रेरित किया है.
यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है कि लोग देश के मसलों खासकर भ्रष्टाचार और कारपोरेट लूट के खिलाफ और अपने हक-हुकूक को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं. एक स्वस्थ-सक्रिय और गतिशील लोकतंत्र के लिए जनता की सक्रिय भागीदारी अनिवार्य शर्त है.
लेकिन राजनेताओं के लिए इसमें स्पष्ट सन्देश छुपा है, बशर्ते वे इसे सुनना और पढ़ना चाहें. अफसोस की बात यह है कि भारत का मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व सत्ता के नशे में इस कदर चूर है कि वह दीवार पर लिखी इबारत को भी पढ़ने के लिए तैयार नहीं है.
वह अभी भी रट लगाये हुए है कि अन्ना हजारे और उन जैसे सिविल सोसायटी के नेता और कार्यकर्ता ‘जनता के चुने प्रतिनिधि नहीं हैं और उन्हें चुने हुए प्रतिनिधियों को निर्देशित करने का हक नहीं है.’ वे कह रहे हैं कि ‘संसद सर्वोच्च है और कानून बनाने का हक केवल उसे ही है.’
इसमें कोई दो राय नहीं है कि संसद सर्वोच्च है और कानून बनाने का हक उसे है लेकिन वह देश के एक अरब बीस करोड़ लोगों की इच्छाओं से बड़ी नहीं है. लोकतंत्र में जनता से ऊपर कोई नहीं है. सवाल यह है कि पिछले ४० साल में संसद लोकपाल कानून क्यों नहीं बना पाई? उसे ऐसा करने से किसने रोका था?
क्या यह सच नहीं है कि देश और संसद में पिछले चालीस साल से भी अधिक समय से शीर्ष पदों पर भ्रष्टाचार की चुनौती से निपटने के लिए लोकपाल गठित करने को लेकर चर्चा चल रही है? कहने की जरूरत नहीं है कि राजनीतिक नेतृत्व की विफलता ने ही लोगों को मजबूर कर दिया कि वे अन्ना हजारे की अगुवाई में इसके लिए मांग और आंदोलन करें.
याद रखिये, लोकतंत्र में जनता और उसकी इच्छाओं और आकांक्षाओं से ऊपर कुछ नहीं होता है. संसद लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है. लेकिन क्या हमारी संसद जनता की भावनाओं को समझ पा रही है? हिंदी के चर्चित कवि धूमिल की पंक्तियाँ हैं:
“ अपने यहाँ संसद
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो वहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है ?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है ?”
यह वे सवाल हैं जो आज राजनीतिक वर्ग खासकर सत्ताधारी वर्ग को अपने आप से पूछने चाहिए. लेकिन क्या वे इस आत्मावलोकन के लिए तैयार हैं? सच यह है कि वे तो संविधान, संसद और खुद के निर्वाचित होने की आड़ लेकर मनमानी पर उतारू हैं.
लेकिन क्या जनतंत्र में यह मनमानी चलने दी जा सकती है? जनता राजनीतिक तंत्र को इसका जवाब देगी. जनतंत्र का इतिहास गवाह है कि कुछ बड़े अहम फैसले संसद में नहीं बल्कि सड़कों पर होते हैं.
1 टिप्पणी:
आनंद जी विचारोत्तजक आलेख... सचमुच इन ६४ सालों में हम बहुत कुछ नहीं कर पाए... आपकी बात कविता के रूप में मेरे ब्लॉग पर है... देखिएगा.... www.aruncroy.blogspot.com
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