शुक्रवार, अगस्त 19, 2011

बुलेट खबरों की बमबारी

 खबरों को गूंगा-बहरा, बेमानी, सतही और हल्का-फुल्का बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा है बुलेट न्यूज




न्यूज चैनलों पर सचमुच, ‘खबरें’ लौट आई हैं. और क्या स्पीड के साथ लौटी है? सिर चकराने लगता है. कहीं स्पीड न्यूज है, कहीं फटाफट खबरें हैं, कहीं सुपरफास्ट खबरें हैं, कहीं २०-२० खबरें हैं और कहीं २ मिनट में १५ खबरें हैं.

गोया खबरें न हों, बुलेट ट्रेन हों. एक चैनल पर सचमुच, बुलेट खबरें हैं जिसका दावा है कि उसके बुलेटिन में खबरें बुलेट से भी तेज रफ़्तार से दी जाती हैं. फटाफट और धड़ाधड खबरों का एक पूरा चैनल ‘तेज’ पहले से है.

हालांकि यह कोई नया ट्रेंड नहीं है और हिंदी के न्यूज चैनलों पर पिछले दो-ढाई सालों से स्पीड न्यूज के कई बुलेटिन चल रहे हैं लेकिन इधर इस प्रवृत्ति का बोलबाला कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है. एक महामारी की तरह यह ट्रेंड न्यूज चैनलों खासकर हिंदी के न्यूज चैनलों पर छा सा गया है.

चैनलों में अब कण से कम समय में अधिक से अधिक खबरें देने की होड़ सी शुरू हो गई है. कोई पीछे नहीं रहना चाहता है. हालत यह हो गई है कि हिंदी के सबसे शालीन माने जाने वाले चैनल एन.डी.टी.वी-इंडिया पर सुबह से लेकर शाम तक हमेशा २०-२० खबरें चलती रहती हैं.

ऐसा लगता है, जैसे दर्शकों को खबरें बताईं या सुनाई नहीं जा रही हैं बल्कि उनपर ख़बरों की बमबारी की जा रही है. माफ कीजिएगा, मजाक नहीं कर रहा हूँ. सचमुच, चैनल स्पीड न्यूज के नाम पर खबरों की बमबारी कर रहे हैं.

विश्वास न हो तो स्पीड न्यूज के साथ चलनेवाले तेज पार्श्व संगीत (बैकग्राउंड म्यूजिक) को सुनिए, ऐसा लगता है जैसे मशीनगन से धडाधड गोली दागी जा रही हो या तोप से गोले दागे जा रहे हों. बिलकुल उसी अंदाज़ में एक के बाद एक खबरें भी दागी जाती हैं.

ऐसा लगता है कि चैनल दर्शकों को बिलकुल संभलने का मौका नहीं देना चाहते हैं. दर्शक जब तक एक खबर को देखता और समझने की कोशिश करता है, उसके सामने दूसरी, फिर तीसरी और फिर खबरों की बाढ़ सी आ जाती है.

कहना मुश्किल है कि खबरों की इस भीड़ के बीच दर्शक कितनी ख़बरों को याद रख पाते हैं, कितने दर्शक खबरों की इस बमबारी के बीच उनके अर्थ और मायने समझ पाते हैं और कितने उन खबरों के राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक महत्व से परिचित हो पाते हैं?

सच पूछिए तो खबरों की इस भीड़ में हर खबर की अपनी पहचान, अपना व्यक्तित्व, महत्व और अर्थ गुम सा हो जाता है. खबरें बेमानी सी लगती हैं. नतीजा, संसद में २ जी और कामनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार पर होनेवाली चर्चा और हंगामे की खबर या अमेरिकी अर्थव्यवस्था की डावांडोल स्थिति या ऐसी कोई और महत्वपूर्ण खबर और कई छोटी-मोटी खबरों में कोई फर्क नहीं रह जाता है.

ऐसा लगता है कि चैनलों पर खबरें ‘टके सेर भाजी, टके सेर खाजा’ यानी हर माल सवा रूपये के भाव बेचा जा रहा है. दर्शकों के लिए खबरों का महत्व पहचानना मुश्किल होने लगता है.

सच पूछिए तो इससे किसी को शिकायत नहीं हो सकती है कि चैनल अधिक से अधिक खबरें दिखाएँ. पूरे देश और उसके विभिन्न इलाकों की खबरों को बुलेटिन में जगह मिले. राजनीति ही नहीं बल्कि विदेश, बिजनेस, शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल, मनोरंजन और मानवीय रूचि की खबरें भी दिखाई जाएँ.

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी खबरों को एक ही बुलेटिन में घुसेड़ दिया जाए. खबरों को बिना उनकी पृष्ठभूमि और सन्दर्भ के और उनके महत्व और प्रभाव को अनदेखा करते हुए ऐसे प्रस्तुत किया जाए कि उनका कोई मायने-मतलब न रह जाए.

यह और कुछ नहीं बल्कि खबरों की आत्मा को मरने जैसा है. यही खबरों का ‘डंबिंग डाउन’ है जिसका मतलब होता है कि खबरों को गूंगा-बहरा, बेमानी, सतही और हल्का-फुल्का बनाना. ऐसी खबरों की भीड़ में सिर्फ सूचनाएं और सूचनाएं होती हैं. यह कहने का यह मतलब कतई नहीं है कि दर्शकों को सूचनाएं नहीं चाहिए या सूचनाओं का कोई महत्व नहीं है.

लेकिन खबर सिर्फ सूचना भर नहीं है. वह सूचनाओं को इकठ्ठा करने, उनकी छानबीन और उन्हें उनके महत्व के मुताबिक तरतीब देना है. सूचनाओं को एक सन्दर्भ और पृष्ठभूमि के साथ रखना और उन्हें मायने-मतलब देने के बाद ही खबर पूरी होती है.

लेकिन फटाफट खबरों में न तो यह संभव है और न होता है. यही नहीं, इन खबरों को जिस तरह से पेश किया जाता है, उससे लगता है कि जैसे किसी मशीन से खबरें उड़ेली जा रही हैं. साफ तौर पर यह आम दर्शकों को एक निष्क्रिय रिसीवर और बेवकूफ समझने जैसा है.

गोया वह सिर्फ सूचनाओं का भूखा है. लेकिन सच यह है कि खबरों की यह बमबारी दर्शकों के लिए सूचना अपच का कारण भी बन रही है. आखिर इतनी सारी सूचनाएं उसके किस काम की हैं?

यही नहीं, चैनलों पर स्पीड या बुलेट न्यूज के कारण न सिर्फ एंकर और रिपोर्टर अप्रासंगिक होते जा रहे हैं बल्कि खबरों का यह मशीनीकरण न्यूजरूम के सभी गेटकीपरों यानी संपादकों को बेमानी बना रहा है. आखिर संपादकों की भूमिका क्या है?

क्या खबरों को मायने-मतलब और उनके समाचार मूल्य के मुताबिक महत्व और प्राथमिकता देने की जिम्मेदारी गेटकीपरों की नहीं है? लेकिन चिंता की बात सिर्फ यही नहीं है. चैनलों पर फटाफट खबरें सिर्फ कुछ चुनिन्दा बुलेटिनों तक सीमित रहतीं तो भी उन्हें बर्दाश्त किया जा सकता था. उनकी जरूरत समझी जा सकती थी.

लेकिन चिंता की बात यह है कि स्पीड न्यूज या बुलेट खबरें धीरे-धीरे चैनलों की मुख्यधारा बनते जा रहे हैं. अगर एन.डी.टी.वी-इंडिया जैसा चैनल सुबह ६ बजे से शाम ४ बजे तक सिर्फ २०-२० खबरें दिखा रहा है तो अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि अन्य बुलेटिनों में भी महत्वपूर्ण खबरों के पैकेजों को छोटा से छोटा करने का दबाव कितना अधिक होगा?

('कथादेश' के ३१ अगस्त के अंक में प्रकाशित स्तम्भ : http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/945.html )

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