गुरुवार, अगस्त 04, 2011

चैनलों में हावी होता 'कम लोग, कम वेतन और अधिक काम' का माडल

क्या चैनलों में पत्रकारों के लिए कोई भविष्य है ? 


दूसरी किस्त : चैनलों के अन्दर की दुनिया  

आज अधिकांश न्यूज चैनलों यहाँ तक कि कुछ बड़े न्यूज चैनलों ने भी “कम लोगों और कम वेतन” के माडल को अपना लिया है. इसमें चैनल कम से कम पत्रकारों को रख रहे हैं, उन पर काम का बोझ बढ़ाया जा रहा है, उन्हें कम वेतन दिया जा रहा है और सेवाशर्तें दिन पर दिन बिगड़ती जा रही हैं.

अधिकांश चैनलों में इस माडल के तहत टॉप पर कुछ चुनिन्दा पत्रकारों को ऊँची तनख्वाहें दी जा रही है जबकि निचले और मंझोले स्तर पर कम से कम वेतन दिया जा रहा है. खासकर निचले स्तर पर वेतन बहुत कम है जबकि सबसे अधिक काम उनसे ही लिया जाता है. यही नहीं, रिपोर्टिंग के लिए फील्ड वीजिट आदि पर भी खर्चों में काफी कटौती की गई है.


हालत कितनी खराब है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि कई चैनलों खासकर ई.टी.वी माडल के चैनलों और ए.एन.आई मार्का न्यूज एजेंसियों में पत्रकारों का वेतन एंट्री लेवल पर पांच हजार से लेकर ८ हजार तक है. यही नहीं, उनसे तीन साल का बांड भरवाया जाता है. उन्हें नियुक्तिपत्र नहीं दिया जाता. छुट्टियाँ नहीं मिलती हैं. छुट्टियाँ खासकर बीमारी आदि कारण लंबी छुट्टी का मतलब नौकरी से छुट्टी है.

आमतौर पर न्यूनतम १० घंटे और अधिकतम १४-१५ घंटे तक काम करवाया जाता है. समय पर वेतन मिलता नहीं है. पी.एफ आदि नहीं कटता है. मेडिकल आदि की सुविधा नहीं है. कैंटीन में ढंग का खाना नहीं मिलता. नतीजा, अधिकांश पत्रकारों को गंभीर बीमारियाँ जकड़ लेती हैं.

असल में, चैनलों में लगभग सौ फीसदी नियुक्तियां कांट्रेक्ट यानि ठेके पर होती हैं. इस तरह उनकी नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है. चैनलों के कर्मियों के लिए अख़बारों की तरह कोई वेतन आयोग नहीं है और न ही वहां नियुक्तियां श्रमजीवी पत्रकार कानून के तहत होती हैं. इस मामले में टी.वी पत्रकारों को वे सीमित कानूनी अधिकार भी हासिल नहीं हैं जो अख़बारों और न्यूज एजेंसियों के पत्रकारों को प्राप्त हैं.

हालांकि अब धीरे-धीरे अख़बारों में भी अधिकांश नियुक्तियां ठेके पर होने लगी हैं लेकिन अभी भी कई संस्थानों में श्रमजीवी पत्रकार कानून और वेतन आयोग लागू है और वहां पत्रकारों को कुछ हद तक जाब सेक्युरिटी है. लेकिन चैनलों में कोई जाब सेक्युरिटी नहीं है. आश्चर्य नहीं कि ढाई साल पहले कई छोटे-बड़े चैनलों ने एक झटके में सैकड़ों लोगों की छंटनी कर दी थी.

जाहिर है कि इस सबका असर न्यूज चैनलों के कंटेंट पर भी दिख रहा है. खासकर हिंदी चैनलों में जहाँ न सिर्फ रिपोर्टिंग का दायरा घटता जा रहा है बल्कि उसका स्केल भी कम होता जा रहा है, प्रोग्रामिंग खासकर डेस्क पर तैयार कार्यक्रमों पर जोर बढ़ता जा रहा है. नतीजा, सबके सामने है. कार्यक्रमों के नाम पर सिनेमा, क्रिकेट और भूत-पिशाच, अजब-गजब और नाग-नागिन का बोलबाला है.

इसी तरह, रिपोर्टिंग क्राईम और प्रेस कांफ्रेंस आदि तक सीमित हो गई है. अधिकांश राज्यों में न्यूज चैनलों ने अपने ब्यूरो आदि बंद कर दिए हैं. चैनल अप्रशिक्षित स्ट्रिंगरों के भरोसे चल रहे हैं जो खुद भी मामूली भुगतान के कारण भांति-भांति के धंधे करने को मजबूर हैं.

यही नहीं, सेवाशर्तों और कामकाज के माहौल के मामले में बड़े और छोटे चैनलों में कोई खास फर्क नहीं है. सच यह है कि चैनलों के अंदर जूनियर सहकर्मियों से गाली-गलौज की भाषा में बात करने और बात-बात पर उनका अपमान करने की सामंती संस्कृति बड़े हिंदी चैनलों से ही शुरू हुई और देखते-देखते हर जगह छा गई.

आज इस मामले में कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश चैनलों में न्यूजरूम में गैर जरूरी शोर-शराबा, हंगामा और चीख-चिल्लाहट आम बात हो गई है. कई संपादक आतंक के प्रतीक बन चुके हैं. उनकी ‘प्रोफेशनल ख्याति’ पीछे छूट चुकी है और न्यूजरूम में डराने-धमकाने और बदतमीजी में उनकी शोहरत हर ओर फ़ैल चुकी है.

जैसे इतना ही काफी न हो, चैनलों के भीतर अंदरूनी गुटबाजी, खींचतान और उठापटक भी खूब है. संपादकों यानि बॉस की लल्लो-चप्पो के आगे कई बार काम और काबिलियत बेमानी हो जाते हैं. खासकर हिंदी न्यूज चैनलों में स्थिति बहुत खराब है. संपादकों के ‘अपने गैंग बन चुके हैं.’ वे एक साथ एक चैनल से दूसरे चैनल में जाते हैं. इस कारण किसी टी.वी पत्रकार के लिए बॉस की स्वामीभक्ति उसका सबसे बड़ा गुण बन चुका है.

आश्चर्य नहीं कि न्यूजरूम की इस हिंसक और लिजलिजेपन की संस्कृति में कई संवेदनशील पत्रकार खुद को अनफिट महसूस करने लगे हैं. मैं खुद ऐसे कई टी.वी पत्रकारों को जानता हूँ जिन्होंने न्यूज चैनलों की स्थितियों से परेशान और हताश होकर टी.वी पत्रकारिता छोड़ दी और कुछ ने पत्रकारिता ही छोड़ दी.

महिला पत्रकारों की स्थिति और खराब है. उनसे भी पुरुषों की ही तरह बल्कि खुद को साबित करने के लिए उनसे अधिक काम करने की अपेक्षा की जाती है. उन्हें अलग से कोई सुविधा नहीं दी जाती है. यहाँ तक कि उनके लिए कानूनन जरूरी प्रावधानों का भी ध्यान नहीं रखा जाता है.

यौन उत्पीड़न की शिकायतों के बावजूद अधिकांश चैनलों में इसके लिए अलग से कोई सेल नहीं बनाया गया है. उन्हें रात्रि या भोर की पाली में कई बार पिक अप की सुविधा नहीं मिलती है. इस कारण, एक बड़े अंग्रेजी चैनल की महिला पत्रकार सौम्या विश्वनाथन की रात में अकेले घर लौटते हुए हत्या तक हो गई.

('कथादेश' के अगस्त में प्रकाशित स्तम्भ की दूसरी किस्त)

1 टिप्पणी:

मनीष कुमार सिंह ने कहा…

सर तहलका में आपका लेख पढ़ा था जिसमे आपने लिखा था जो यूवे पत्रकारिता की पढाई कर रहे हैं उनसे एही निवेदन है की वो अपनेव सहर जाकर अपने बूढ़े माँ बाप की तन मन से सेवा करे| और जो आज के हालत में पूरी तेरह फिट बैठती है