शनिवार, मार्च 31, 2012

राजनीतिक सत्ता के साथ एम्बेडेड मीडिया का 'पेड न्यूज'

शासक वर्गीय पार्टियों का मीडिया मैनेजमेंट और चुनावों में स्पिन डाक्टर्स के खेल

दूसरी किस्त

लेकिन जब सत्ता के लिए मुकाबला शासक वर्ग की ही चार पार्टियों के बीच हो तो मीडिया ‘राजनीतिक हवा’ का रुख किसी एक ओर मोड़ने या उसके अनुकूल माहौल बनाने या फिर भ्रम पैदा करने या एजेंडा बदलने की कीमत वसूलने से भी पीछे नहीं रहता है. ‘पेड न्यूज’ की परिघटना इसी प्रक्रिया से निकली है.

हालांकि पिछले चुनावों में ‘पेड न्यूज’ इतना ज्यादा बेपर्दा हुआ कि खुद मीडिया की विश्वसनीयता ही दांव पर लग गई और खतरा पैदा हो गया कि पूंजीवादी लोकतंत्र में जनमत गढ़ने, सहमति निर्माण करने और लोगों को नियंत्रित करने का यह औजार कहीं भोथरा न हो जाए.

इस कारण खुले तौर पर ‘पेड न्यूज’ की खूब लानत-मलामत हुई, मीडिया संस्थानों ने ‘पेड न्यूज’ से तौबा करने की कसमें खाईं और चुनाव आयोग-प्रेस काउन्सिल जैसे सार्वजनिक नियामकों ने उसपर सख्ती बरतने के एलान किये.

ऐसा लगा कि इन विधानसभा चुनावों में ‘पेड न्यूज’ नामक धोखाधड़ी बीते दिनों की बात ही जायेगी. लेकिन जैसे चुनावों में कालाधन एक चुनावी सच्चाई है, वैसे ही ‘पेड न्यूज’ भी एक चुनावी सच्चाई है. खबरें हैं कि इन चुनावों में भी मीडिया (अखबार और न्यूज चैनल) ‘पेड न्यूज’ के जरिये दोनों हाथों से पैसा बटोरने में लगा है.

यह किसी से छुपा नहीं है कि इन चुनावों में पैसा पानी की तरह बह रहा है और अख़बारों के साथ-साथ छोटे-बड़े सभी चैनल इसमें डुबकी लगाने में पीछे नहीं हैं. हालांकि इस बार थोड़ी सावधानी और चतुराई के साथ यह सब हो रहा है लेकिन अगर आप चैनलों के कवरेज और खासकर कुछ पार्टियों-नेताओं की रैलियों/भाषणों के अत्यधिक लाइव कवरेज को बारीकी से देखें तो ‘पेड न्यूज’ का कमाल साफ दिखने लगता है.


उदाहरण के लिए, चाहे राहुल गाँधी की रैलियों/सभाओं/रोड शो की अधिकांश चैनलों पर बिना अपवाद के लाइव कवरेज हो या उत्तर प्रदेश के अमेठी-रायबरेली-सुल्तानपुर में प्रचार करने पहुंची प्रियंका गाँधी को मिला अत्यधिक कवरेज हो, उसकी पत्रकारीय व्याख्या मुश्किल है.
एक विदेशी पत्रकार ने हैरानी में ट्वीट किया कि ‘प्रियंका गाँधी क्या हैं, किस राजनीतिक या संवैधानिक पद पर हैं जिन्हें चुनाव प्रचार में इतनी कवरेज मिल रही है?’ यह सचमुच में विचारणीय है कि कांग्रेस और यू.पी.ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी की बेटी के अलावा वे क्या हैं जिन्हें इस हद तक कवरेज के लिए उपयुक्त समझा गया?


इसी तरह, इस चुनाव में अन्य दलों और उनके नेताओं की उपेक्षा करके राहुल गाँधी को जिस तरह से 24X7 कवरेज मिली है, वह कांग्रेस की जमीनी ताकत और मौजूदगी से कई गुणा ज्यादा है. इस कवरेज में न सिर्फ अनुपात का ध्यान नहीं रखा गया बल्कि उसमें वस्तुनिष्ठता, तटस्थता और तथ्यपूर्णता की भी अनदेखी की गई.

मजे की बात यह है कि सभी पार्टियों के नेताओं में प्रचार में सबसे आगे रहने के बावजूद राहुल गाँधी एकमात्र ऐसे नेता है जो मीडिया के लिए सबसे अधिक अनुपलब्ध हैं. यह ठीक है कि मुख्यमंत्री और बसपा नेता मायावती भी मीडिया से दूरी बनाकर रहती हैं लेकिन चुनावी मैदान की सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी होने के बावजूद उन्हें और उनकी पार्टी को उस तरह का सहानुभूतिपूर्ण कवरेज भी नहीं मिला है.


इस तथ्य को भी अनदेखा करना मुश्किल है कि इन चुनावों में राहुल गाँधी की बहुत बारीकी से एक ‘एंग्री यंगमैन, राजनीतिक रूप से आक्रामक, मेहनती, राजनीतिक जोखिम उठानेवाला, कांग्रेस को लड़ाई में खड़ी कर देनेवाला और राजनीतिक रूप से परिपक्व होते’ युवा की छवि गढ़ी गई है.

अगर आप राहुल गाँधी की सार्वजनिक उपस्थिति और सभाओं/रैलियों/रोड शो में उनकी बोलने की शैली, अदाएं, मैनेरिज्म और भीड़ से मिलने-जुलने के तौर-तरीकों को देखें तो उसमें स्वाभाविकता और स्वतःस्फूर्तता के बजाय एक तरह का एनीमेशन दिखेगा.

जाहिर है कि इसमें कांग्रेस के मीडिया मैनेजरों और स्पिन डाक्टरों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन इसके साथ ही, यह भी सच है कि खुद मीडिया और खासकर चैनल इस छवि निर्माण में खुलकर पार्टनर हो गए हैं.

कारण चाहे जो हो- स्वेच्छा या लालच लेकिन तात्कालिक तौर पर इसका राजनीतिक फायदा कांग्रेस को मिला है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपने इर्द-गिर्द एक “बज” यानी चर्चा पैदा करने में कामयाब हो गई है. उसने मीडिया की मदद से चुनावी एजेंडा सेट करने में बहुत हद तक कामयाबी हासिल की है जिसके कारण उसका राजनीतिक ग्राफ चढ़ा है.

मीडिया ने वास्तविक अर्थों में मैजिक मल्टीप्लायर की तरह ‘राहुल मैजिक’ को कई गुणा बढ़ाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है. निश्चय ही, इस मायने में यह कांग्रेस की चुनाव मशीनरी के साथ-साथ मीडिया मैनेजमेंट की कामयाबी है और इसमें वह बाकी सभी दलों से काफी आगे है. आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस के प्रचार अभियान की कमान फिल्म अभिनेता और एम.पी राज बब्बर के हाथों में है.


ऐसा लगता है कि कांग्रेस से सीख लेकर भाजपा, सपा और कुछ हद तक बसपा ने भी कारपोरेट अंदाज़ में विज्ञापन फ़िल्में बनाई हैं जिन्होंने सभी न्यूज चैनलों पर कुछ दिनों के लिए जांघिये-बनियान के विज्ञापनों को पीछे छोड़ दिया है. एक तरह से इन विज्ञापन फिल्मों से पार्टियों की कारपोरेट ब्रांडिंग की जा रही है.

हैरानी की बात नहीं है कि कई पार्टियों और नेताओं ने पी.आर कंपनियों की मदद भी ली है और छवि चमकाने के लिए जमकर पैसे बहाए जा रहे हैं. इससे चैनलों की चांदी है. असल में, चैनलों के लिए मंदी के बीच चुनाव एक बड़े सहारे की तरह आया है. इसलिए कोई पीछे नहीं रहना चाहता है और सभी बहती गंगा में हाथ धोने में जुटे हैं.


लेकिन इस सबके बीच चैनलों ने दर्शकों को सचेत और सूचित करने की अपनी उस प्राथमिक भूमिका को काफी हद तक अनदेखा और कमजोर कर दिया है. पूंजीवादी लोकतंत्रों में कम से कम सैद्धांतिक तौर पर उनसे अपने दर्शकों चुनावों के मुद्दों, पार्टियों के कामकाज, उनके घोषणापत्रों, उम्मीदवारों के व्यक्तित्व और प्रदर्शन को तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष तरीके से सूचित और सचेत करने की अपेक्षा की जाती है ताकि लोग अपने मताधिकार का सही तरीके से इस्तेमाल कर सकें.

लेकिन खबर है कि इस बार मीडिया में ‘पेड न्यूज’ नए रूप में चल रहा है. अखबार और चैनल इस बार उम्मीदवारों की प्रशंसा में छापने के बजाय उनकी असलियत/सच्चाई न छापने के पैसे ले रहे हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि उम्मीदवारों के बारे में सभी जानकारियां (उनकी कुल संपत्ति, शिक्षा और आपराधिक रिकार्ड) होने के बावजूद अख़बारों और चैनलों पर उनकी बारीकी से पड़ताल/छानबीन तो दूर है, उनकी तथ्यपूर्ण जानकारी भी नहीं दी जा रही है.

माननीय विधायकों/मंत्रियों की संपत्तियों में न्यूनतम दस-पन्द्रह गुने से लेकर सौ गुने तक की वृद्धि के पीछे क्या राज है? उम्मीदवारों के अतीत और वर्तमान की स्वतंत्र खोजबीन तो बहुत दूर की बात है.

क्या दर्शकों/पाठकों को यह जानने का अधिकार नहीं है? क्या यह सिर्फ चैनलों/अख़बारों और उनके पत्रकारों की उदासीनता और आलस है यह इसके पीछे कोई निश्चित पैटर्न है? यह वाचडाग मीडिया है या पालतू पेड मीडिया?

लेकिन राजनीतिक सत्ता के साथ एम्बेडेड मीडिया से और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है?

('कथादेश' में मार्च'१२ में प्रकाशित लेख की दूसरी किस्त...पहली किस्त २९ मार्च को छपी है..)

गुरुवार, मार्च 29, 2012

चुनाव और मीडिया

वोटरों को सचेत और सूचित करने के बजाय चैनल ताकतवर राजनीतिक दलों के औजार बन गए हैं

पहली किस्त

यह किसी से छुपा नहीं है कि समकालीन भारतीय राजनीति और चुनावों में मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की भूमिका दिन पर दिन बढ़ती जा रही है. इसका ताजा सबूत है उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव. इन दिनों न्यूज चैनलों खासकर हिंदी न्यूज चैनलों पर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की गर्मी छाई हुई है.

इस चुनाव की जिस तरह से व्यापक कवरेज हो रही है, उससे ऐसा लगता है कि जैसे चैनल ही चुनावों के असली अखाड़े बन गए हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि चुनाव आयोग के सख्त निर्देशों के कारण जमीन पर चुनाव प्रचार बहुत फीका हो गया है. इसलिए चुनाव प्रचार की जितनी गर्मी जमीन पर नहीं दिखाई पड़ रही है, उससे ज्यादा जोश, शोर, सनसनी और काटा-काटी चैनलों पर मची हुई है.

सच पूछिए तो इन चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बड़ी राजनीतिक लड़ाई अगर राज्य के गांवों-कस्बों और शहरों की पगडंडियों-गलियों और सड़कों पर लड़ी जा रही है तो उससे कम बड़ी राजनीतिक लड़ाई चैनलों के स्टूडियो में छिड़ी बहसों-चर्चाओं, शहर-दर-शहर ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ जैसे कार्यक्रमों और जनमत सर्वेक्षणों में नहीं लड़ी जा रही है. कोई भी पार्टी इसमें पीछे नहीं रहना चाहती है.

दरअसल, राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण और ऊँचे दांव वाली इस लड़ाई में राजनीतिक ‘हवा’, जन धारणाओं (पब्लिक परसेप्शन) और छवियों की भूमिका बहुत अहम हो गई है. सारी लड़ाई जनमत को अपने पक्ष में मोड़ने और इसके लिए अनुकूल जनमत तैयार करने की खातिर जन धारणाओं और छवियों को गढ़ने और तोड़ने-मरोड़ने की हो गई है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस लड़ाई का सबसे प्रमुख मंच मीडिया और उसमें भी न्यूज चैनल हो गए हैं. इस मायने में चैनल भी इस खेल के बहुत महत्वपूर्ण खिलाड़ी हो गए हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों का एजेंडा तय करने से लेकर माहौल बनाने में उनकी भूमिका को अनदेखा करना मुश्किल है.
इन चुनावों में मीडिया के प्रभाव का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसने एक ‘हवा’ बना दी है कि इसबार त्रिशंकु विधानसभा बन रही है और किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा. हालांकि यह सिर्फ एक राजनीतिक कयास भर है लेकिन पूरे प्रदेश में इसे एक ‘तथ्य’ की तरह मान्यता मिल गई है.


इसका असर यह हुआ है कि आप प्रदेश के किसी भी जिले या शहर में चले जाइए और पत्रकारों, शिक्षकों, वकीलों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं से चुनावों के बारे में बात कीजिये तो वह छूटते ही कहेगा कि त्रिशंकु विधानसभा बनेगी और किसी को बहुमत नहीं मिलेगा. लेकिन उससे इस आकलन का आधार पूछिए तो हकलाने लगता है.

जाहिर है कि उसकी यह धारणा मीडिया रिपोर्टों और उन चुनावी सर्वेक्षणों के आधार पर बनी है जो २००७ के विधानसभा चुनावों के समय गलत साबित हो चुके हैं. हो सकता है कि २०१२ में यह कयास सही साबित हो लेकिन उतना ही संभव है कि यह एक बार फिर गलत साबित हो.

असल में, उत्तर प्रदेश भौगोलिक रूप से इतना बड़ा, क्षेत्रीय रूप से विभिन्नताओं से भरा, सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक रूप से विभिन्नतापूर्ण, असमान और बहुलतापूर्ण और राजनीतिक रूप से इतना जटिल राज्य है कि उसके राजनीतिक मिजाज और ‘हवा’ को पकड़ना इतना आसान नहीं है. उन लोगों के लिए तो यह और भी मुश्किल है जिनके पास राज्य के एक बड़े हिस्से का प्रत्यक्ष और जमीनी अनुभव नहीं है.

लेकिन यह मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का ही कमाल है कि उन्होंने पूरे राज्य में त्रिशंकु विधानसभा की ‘हवा’ बना दी है. यही नहीं, मीडिया ने यह भी माहौल बना दिया है कि सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सपा उभरेगी. बसपा दूसरे नंबर पर खिसक गई है और कांग्रेस-भाजपा तीसरे-चौथे स्थान की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसमें कांग्रेस लगातार ऊपर चढ़ रही है.


निश्चय ही, ये सिर्फ कयास हैं क्योंकि इनके पक्ष में जो राजनीतिक कारण और आधार बताये जा रहे हैं, उसके ठीक उलट उतने ही मजबूत राजनीतिक कारण और आधार हैं. चुनावी सर्वेक्षणों के बारे में जितना कहा जाए, कम है क्योंकि उनके बीच मुख्य निष्कर्ष पर सहमति होते हुए भी सीटों के आकलन में इतना फर्क है कि वे-दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाते हैं.
चैनलों पर मौजूद विशेषज्ञों के बीच भी यही राग चल रहा है जो एक-दूसरे की तमाम बातों से असहमत होते हुए भी मूल निष्कर्ष पर सहमत हैं. इससे पूरे राज्य में एक राजनीतिक भ्रम और दुविधा की स्थिति बन गई है. इसका राजनीतिक फायदा किसे मिल रहा है, यह भी किसी से छुपा नहीं है.

लेकिन इससे मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के बढ़ते प्रभाव का भी पता चलता है. असल में, जैसे-जैसे राजनीति अधिक से अधिक मीडिया चालित (मिडिएटेड) होती जा रही है यानी आमलोगों/वोटरों का राजनीति, उसके मुद्दों, राजनीतिक प्रक्रियाओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं/प्रतिनिधियों से सीधा और प्रत्यक्ष सम्बन्ध कम होता जा रहा है और वे राजनीति के बारे में मीडिया के जरिये देख-सुन-समझ रहे हैं, वैसे-वैसे मीडिया का लोगों/वोटरों पर प्रभाव भी बढ़ता जा रहा है.

एक अर्थ में यह सत्ता की राजनीति के लोगों से कटते जाने, वोटरों से उसके सीधे संवाद के खत्म होते जाने और जोड़-तोड़, दांवपेंच और खरीद-फरोख्त पर निर्भर होते जाने का नतीजा है.


आश्चर्य नहीं कि इन चुनावों में भी वही पार्टियां मीडिया पर सबसे अधिक निर्भर हैं जिनके पास वोटरों से सीधे संवाद के लिए जमीनी संगठन और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की कमी है. वे इस कमी को मीडिया के जरिये पूरी करने की कोशिश कर रहे हैं.

इसके लिए वे मीडिया को इस तरह से ‘मैनीपुलेट’ कर रहे हैं कि मीडिया उनके लिए अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाने से लेकर उनके पक्ष में जनमत बनाने में इस्तेमाल हो रहा है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मीडिया इस खेल में कोई मासूम और निर्दोष खिलाड़ी है जिसका राजनीतिक पार्टियां अपने हितों के मुताबिक इस्तेमाल कर रही हैं.


जाहिर है कि पूंजीवादी लोकतंत्र में कोई भी चीज मुफ्त नहीं होती है. मीडिया तो बिलकुल भी मुफ्त नहीं है. मीडिया एक बिजनेस है और हर बिजनेस की तरह उसे भी मुनाफा चाहिए. यह ठीक है कि मीडिया और सत्ता राजनीति के बीच बिजनेस से ज्यादा गहरा रिश्ता है.
यह भी ठीक है कि मीडिया सत्ता संरचना का अभिन्न हिस्सा है और उसके व्यापक हित सत्ता और शासक वर्गों के साथ नाभिनालबद्ध रहे हैं. इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि सत्ता प्रतिष्ठान मीडिया का इस्तेमाल अपने हितों के अनुकूल जनमत बनाने और उसके जरिये लोगों को नियंत्रित करने के लिए करता रहा है.

(यह लेख मार्च के पहले सप्ताह में हिंदी पत्रिका "कथादेश" में छपा था. लेकिन चुनाव कवरेज का मुद्दा हमेशा प्रासंगिक रहेगा..यह पहली किस्त है...कल पढ़िए दूसरी किस्त)

बुधवार, मार्च 28, 2012

मध्यावधि चुनावों की आहट

कमजोर होती कांग्रेस के कारण यू.पी.ए में बेचैनी और क्षेत्रीय क्षत्रपों की बढ़ती महत्वाकांक्षाएं 

२०१४ के आम चुनावों से पहले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को ‘सत्ता का सेमीफाइनल’ माना जा रहा था. आश्चर्य नहीं कि इन चुनावों में कांग्रेस और भाजपा दोनों ने पूरी ताकत झोंक दी थी. खासकर उत्तर प्रदेश इस राजनीतिक जंग का मैदान बन गया था.

लेकिन मजा देखिए कि इन चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के कारण मध्यावधि चुनावों की चर्चा ने जोर पकड़ लिया है. माना जा रहा है कि इन चुनावों में कांग्रेस की कमजोर होती स्थिति के कारण न सिर्फ यू.पी.ए के घटक दलों में बेचैनी है बल्कि कांग्रेस विरोधी दलों में मौके का फायदा उठाने की जल्दी भी दिखाई देने लगी है.

हैरानी की बात नहीं है कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर राजनीतिक दलों के बीच नए तालमेल और गठबंधनों की सुगबुगाहट जोर पकड़ने लगी है. यू.पी.ए के अंदर और बाहर तृणमूल कांग्रेस (ममता बैनर्जी), जयललिता (अन्नाद्रमुक), मुलायम सिंह यादव (सपा), नवीन पटनायक (बी.जे.डी) और नीतिश कुमार (जे.डी-यू) जैसे क्षेत्रीय नेता और पार्टियां इस मौके का फायदा उठाने के लिए जल्दी चुनाव चाहती हैं.

हालांकि भारतीय जनता पार्टी खुद भी कमजोर स्थिति में है और इन चुनावों और खासकर उत्तर प्रदेश में अपनी पतली हालत के मद्देनजर वह भी तुरंत चुनाव को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है.

लेकिन इस साल के आखिर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में अपने प्रदर्शन के मुताबिक भाजपा भी चुनाव के लिए तत्पर हो सकती है. निश्चित ही, भाजपा कुछ महीने और इंतज़ार करना चाहती है लेकिन एन.डी.ए के घटक दलों जैसे अकाली दल, जे.डी.-यू और शिव सेना के दबाव में वह जल्दी चुनाव के लिए भी तैयार हो सकती है.

भाजपा इसलिए भी चुनाव के पक्ष में तैयार हो सकती है कि वह गैर कांग्रेस-गैर भाजपा तीसरे या चौथे मोर्चे के गठन को रोकना चाहेगी. साथ ही, उसे यह भी लग रहा है कि राज्य विधानसभा चुनावों के विपरीत राष्ट्रीय चुनावों में कांग्रेस विरोधी माहौल का सबसे अधिक फायदा उसे ही मिल सकता है.

हालांकि कांग्रेस और दूसरी कई पार्टियां तुरंत चुनाव टालना चाहती है और ताजा विधानसभा चुनावों के झटके से उबरने के लिए समय चाहती है लेकिन यह भी सच है कि यू.पी.ए सरकार के लिए आने वाले महीने राजनीतिक रूप से बहुत मुश्किल होनेवाले हैं.

विधानसभा चुनावों में जिस तरह कांग्रेस की हार हुई है और नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के खिलाफ लोक लुभावना राजनीति को समर्थन मिला है, उसके कारण यह तय माना जा रहा है कि यू.पी.ए सरकार के लिए अब इन विवादस्पद आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा पाना संभव नहीं होगा.

जाहिर है कि जब मध्यावधि चुनाव नजदीक दिख रहे हों तो कोई भी पार्टी यहाँ तक कि यू.पी.ए के घटक दल भी इन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली खासकर खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई जैसे फैसलों को निगलने के लिए तैयार नहीं होंगे.

यहाँ तक कि मनमोहन सिंह सरकार सब्सिडी में कटौती खासकर खाद और पेट्रोलियम की कीमतों में बढ़ोत्तरी जैसे फैसले भी करने की स्थिति में नहीं रह गई है. साफ़ है कि व्यावहारिक रूप से यू.पी.ए सरकार एक कामचलाऊ सरकार में बदल गई है जिसका राजनीतिक इकबाल काफी कमजोर हो गया है. 

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी सरकार जितने दिन सत्ता में रहेगी, उसकी उतनी ही दुर्गति होगी. खासकर उस कांग्रेस के लिए यह किसी दु:स्वप्न से कम नहीं होगा जो २००९ के आम चुनावों में पुनर्वापसी और अपनी राजनीतिक ताकत में बढ़ोत्तरी के बाद २०१४ के आम चुनावों में अकेले दम पर सत्ता में लौटने का सपना देखने लगी थी.

लेकिन उत्तर प्रदेश सहित पंजाब और गोवा में करारी हार और कुछ हद तक उत्तराखंड में झटके के बाद उसे न सिर्फ घटक दलों के खींचतान और मोलतोल के आगे झुकना पड़ेगा बल्कि सत्ता की मलाई में उन्हें कहीं बड़ी हिस्सेदारी देनी पड़ेगी.

यही नहीं, खुद कांग्रेस में आंतरिक असंतोष और गुटबंदी को हवा मिलेगी. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी के कथित जादू के न चलने से २०१४ के चुनावों में उसके सबसे बड़े ट्रंप कार्ड की कलई खुल गई है. इससे कांग्रेस में मौके का इंतज़ार कर रहे उन गुटों को सिर उठाने और हमला करने का मौका मिलेगा जो पार्टी में राहुल गाँधी और खासकर उनकी टीम के उभार से असहज और नाराज हैं.

जाहिर है कि इससे पार्टी के अंदर और बाहर उसके नेताओं और गुटों के बीच घात-प्रतिघात का खेल भी तेज हो जाएगा जो कांग्रेस आलाकमान की निर्णय क्षमता को भी प्रभावित करेगा.

यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व में प्रणब मुखर्जी, पी. चिदंबरम और दूसरे बड़े नेताओं के बीच खींचतान और विवाद बढ़े हैं, उसके कारण सरकार की न सिर्फ काफी किरकिरी हुई है बल्कि कई मामलों में सरकार नीतिगत और राजनीतिक तौर पर लकवाग्रस्त भी हो गई है.
आश्चर्य नहीं होगा अगर आनेवाले महीनों में कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ कुछ और बागी सुर भी सुनाई दें खासकर उन राज्यों में जहां कांग्रेस की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है. उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु जैसे राज्यों में कांग्रेसी नेताओं में डूबते जहाज से भागने और पाला बदलने की खबरें भी जल्दी आने लगेंगी.

ऐसे में, कांग्रेस को यह भी सोचना पड़ेगा कि वह अगला आम चुनाव राहुल गाँधी के नेतृत्व में लड़ने का जोखिम उठाए या नहीं? हालांकि उसके पास गाँधी परिवार का कोई विकल्प नहीं है लेकिन उसे अपनी रणनीति पर दोबारा विचार करना पड़ेगा कि राहुल गाँधी को अब कैसे और किस रूप में पेश किया जाए?

इससे पहले उसे इस साल के मध्य में होनेवाले राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति चुनावों में अपने प्रत्याशियों को जीताने के लिए खासा द्रविड़ प्राणायाम करना पड़ेगा. राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इन दोनों चुनावों के लिए उसे न सिर्फ यू.पी.ए के घटक दलों को संभालना पड़ेगा बल्कि विपक्ष खासकर गैर भाजपा दलों को साधना पड़ेगा.

ह इतना आसान नहीं होगा. बहुत संभव है कि गैर भाजपा दल, एन.डी.ए के साथ अंदरखाते की सहमति से कोई ऐसा उम्मीदवार पेश कर दें जिसके कारण यू.पी.ए में भी फूट पड़ जाए. इससे यू.पी.ए का राजनीतिक संकट बढ़ सकता है और मध्यावधि चुनाव को रोक पाना मुश्किल हो जाएगा.

जाहिर है कि कांग्रेस ऐसी स्थिति आने से रोकने की कोशिश करेगी. इसके लिए उसे घटक दलों के अलावा अन्य प्रमुख दलों के साथ मोलतोल में जाना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में, उसके लिए किसी कट्टर और गाँधी परिवार के प्रति निष्ठावान कांग्रेसी को राष्ट्रपति बनाने का मोह छोड़ना पड़ेगा.

क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार होगी? दूसरे, वह खुद भी लंबे समय तक मौजूदा राजनीतिक गतिरोध और कामचलाऊ सरकार की थुक्का-फजीहत से बाहर निकलना चाहेगी. यही नहीं, राजनीतिक अनिश्चितता और सरकार की लकवाग्रस्त होती स्थिति से देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और बड़े कारपोरेट समूहों में भी भारी बेचैनी है जो इन चुनावों के बाद आर्थिक सुधारों के मामले में बड़ी घोषणाओं और फैसलों का इंतज़ार कर रहे थे.

जाहिर है कि वे भी मौजूदा स्थिति को लंबे समय तक बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं होंगे. आखिर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी का सबसे अधिक दांव पर लगा हुआ है. ऐसे में, बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूहों के दबाव में या तो कांग्रेस और भाजपा के बीच कुछ समय के लिए एक आंतरिक सहमति के आधार नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से संबंधित कम विवादास्पद विधेयकों को संसद में पारित कराने और फिर अनुकूल समय पर चुनाव कराने की कामचलाऊ व्यवस्था बनेगी.

या फिर राजनीतिक गतिरोध को तोड़ने के लिए इस साल के आखिरी महीनों में चुनाव का दबाव बनेगा. वैसे बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और उनके कारपोरेट प्रतिनिधि तुरंत चुनाव नहीं चाहते हैं.

इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि आज की राजनीतिक-सामाजिक स्थिति में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की दोनों प्रमुख प्रतिनिधि पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा को अकेले या उनके नेतृत्व वाले दोनों प्रमुख गठबंधनों- यू.पी.ए और एन.डी.ए अकेले दम पर बहुमत मिलता हुआ नहीं दिख रहा है.

इसका अर्थ यह हुआ कि तत्काल चुनावों से राजनीतिक अस्थिरता और गतिरोध और अधिक बढ़ने की आशंका है. यही नहीं, तीसरे मोर्चे जैसे प्रयोगों के साथ जुड़ी अनिश्चितता और अस्थिरता के अलावा आर्थिक सुधारों के ठप्प पड़ने की आशंका के कारण बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूह ऐसी किसी स्थिति को टालने की हरसंभव कोशिश करेंगे.
लेकिन बड़ी पूंजी आम चुनावों को फिलहाल के लिए टालने की कोशिशों में किस हद तक कामयाब होगी, यह कह पाना मुश्किल है लेकिन इतना तय दिख रहा है कि वह कांग्रेस की कमजोर होती स्थिति के मद्देनजर अपने नए मोहरों को आगे बढ़ाने और जहां तक संभव हो, विकल्प के बतौर एन.डी.ए को मजबूत और आगे करने की जुगत जुट गई है.

आश्चर्य नहीं होगी कि बड़े कारपोरेट समूह अगले कुछ महीनों में भाजपा की ओर से नरेन्द्र मोदी और एन.डी.ए की ओर से नीतिश कुमार के नामों को आगे बढ़ाएं और चुनाव नतीजों के बाद नए राजनीतिक समीकरणों और सुभीते के लिहाज से इन दोनों में से किसी को अगले नेता और सरकार गठन के लिए प्रस्तावित किया जाए.

लेकिन इन राजनीतिक हलचलों और मेलजोल के बीच इस बार वामपंथी मोर्चा कहीं नहीं दिखाई दे रहा है. ऐसा लगता है कि वह राजनीतिक रूप से हाशिए पर चला गया है. तीसरे मोर्चे की राजनीति करनेवाले क्षेत्रीय क्षत्रप इस बार उसे कोई खास भाव नहीं दे रहे हैं. वह खुद भी अपनी कमजोर स्थिति के कारण इसमें खास दिलचस्पी नहीं ले रहा है.

साफ़ है कि २००९ के आम चुनावों और उसके बाद पश्चिम बंगाल और केरल विधानसभा चुनावों में हार से उबर नहीं पाया है और तुरंत चुनावों के लिए तैयार नहीं है. ऐसे में हैरानी नहीं होगी कि वाम मोर्चा अंदरखाते कांग्रेस के साथ एक समझ बनाकर परोक्ष रूप से यू.पी.ए की मदद करे.

असल में, माकपा दम साधे पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच चल रही खींचतान के नतीजे का इंतज़ार कर रही है. उसकी सारी उम्मीद इस बात पर टिकी हुई है कि किसी तरह कांग्रेस और तृणमूल का गठबंधन टूटे और उसके बाद होनेवाले चुनावों में वह उन दोनों के बीच वोटों के बंटवारे का लाभ उठा सके. लेकिन यह इतना आसान नहीं है.
इसके उलट यह संभव है कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल से अलग होने की स्थिति में कांग्रेस बिल्कुल साफ़ हो जाए और आमने-सामने के मुकाबले में तृणमूल, माकपा पर भारी पड़ जाए. ममता इसी कारण जल्दी में हैं क्योंकि जितनी देर होगी, वायदों को पूरा न कर पाने के कारण उनकी सरकार के खिलाफ राजनीतिक विरोध मजबूत होगा.

साफ़ है कि माकपा और उसके साथ वाम मोर्चा इंतज़ार और दूसरी ओर, तृणमूल के बरक्स कांग्रेस के साथ साठगांठ की रणनीति पर चल रहा है. माकपा इससे आगे नहीं सोच पा रही है और न ही किसी बड़े प्रयोग के लिए तैयार दिख रही है.

हालांकि यह मौका है जब कांग्रेस भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों, नई आर्थिक नीतियों को आँख मूंदकर लागू करने और जल-जंगल-जमीन को देशी-विदेशी कारपोरेट को हवाले करने से भड़के जन आन्दोलनों के कारण कमजोर हो रही है और दूसरी ओर, अपने सांप्रदायिक और नई आर्थिक समर्थक रवैये के साथ-साथ अपनी राज्य सरकारों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी भाजपा चढ़ नहीं पा रही है.

इससे देश में गैर कांग्रेस-गैर भाजपा एक तीसरे मोर्चे की जरूरत और जगह बनी हुई है. लेकिन यह भी सच है कि बिना किसी वैचारिक एकता, कार्यक्रम और राजनीतिक दिशा के बननेवाले ऐसे मोर्चे की सफलता इसलिए संदिग्ध है क्योंकि जनता में उसकी विश्वसनीयता और साख नहीं बन पाती है. २००९ के चुनाव में ऐसे प्रयोग का हश्र सब देख चुके हैं.

जाहिर है कि अगर इस नए तीसरे मोर्चे में भी जयललिता, ममता, मुलायम, चन्द्रबाबू और नवीन पटनायक जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप होंगे तो उसकी साख संदिग्ध ही रहेगी. इसके बजाय वामपंथी पार्टियों के लिए यह समय वाम की स्वतंत्र दावेदारी का होना चाहिए.

उनके पास यह मौका है जब वे कांग्रेस और भाजपा दोनों की कमजोर हालात के मद्देनजर आम लोगों के सवालों खासकर महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर देशव्यापी जनसंघर्षों से अपनी स्वतंत्र दावेदारी पेश करने की कोशिश करें.

पिछली २८ फरवरी को नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ देशव्यापी हड़ताल ने इसकी जमीन तैयार कर दी है. वाम मोर्चे को इसे आगे बढ़ाने और इसमें मोर्चे से बाहर की वाम, जनतांत्रिक और प्रगतिशील शक्तियों को एकजुट करने की कोशिश करनी चाहिए.
क्या वामपंथी पार्टियां इसके लिए तैयार हैं? या, वे फिर उन्हीं राजनीतिक दलों के भरोसे जोड़तोड़ से तीसरा या चौथा मोर्चा बनाकर चुनावों में उतरने की भूल करेंगी? मजबूरी में ही सही उनके सामने एक मौका है. क्या वे इस मौके को गँवा देंगी?

दूसरी ओर, यह देश भर में नई आर्थिक नीतियों और साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ गरीबों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और नौजवानों की लड़ाई लड़ रही वाम और जनतांत्रिक शक्तियों के लिए भी एकजुट होकर मुख्यधारा की राजनीति में हस्तक्षेप करने का शानदार मौका है. देश नए विकल्पों की ओर उम्मीद से देख रहा है.

('समकालीन जनमत' के मार्च'१२ अंक में प्रकाशित लेख) 

मंगलवार, मार्च 27, 2012

कड़े फैसलों की तैयारी

लेकिन यह न अच्छी राजनीति है और न अच्छा अर्थशास्त्र


वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी चिंतित हैं. वे अपनी चिंता का खुलकर इजहार भी कर रहे हैं. पिछले तीन दिनों में दो प्रमुख औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों-फिक्की और सी.आई.आई के सम्मेलनों में उन्होंने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कड़े फैसलों की जरूरत बताई है. साथ ही, उन्होंने कारपोरेट जगत को आश्वस्त किया है कि सरकार आनेवाले महीनों में कड़े फैसले करेगी.

लेकिन इसके लिए वे यू.पी.ए के घटक दलों और विपक्षी राजनीतिक दलों का सहयोग चाहते हैं. उन्होंने अपील की है कि जैसे १९९१ के आर्थिक संकट के समय विपक्ष ने देशहित में आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में सरकार का सहयोग किया था, उसी तरह की भावना फिर दिखाने की जरूरत है.

वित्त मंत्री से पहले प्रधानमंत्री भी इशारा चुके हैं कि सरकार कड़े फैसलों के लिए तैयार है. कहने की जरूरत नहीं है कि यहाँ कड़े फैसलों से आशय पेट्रोलियम उत्पादों और उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि से लेकर अन्य मदों में सब्सिडी में कटौती से है. असल में, वित्त मंत्री पर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कारपोरेट जगत से लेकर विश्व बैंक-मुद्रा कोष

और मूडी-स्टैंडर्ड एंड पुअर जैसी अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों का दबाव बढ़ता जा रहा है. ये सभी चाहते हैं कि यू.पी.ए सरकार वित्तीय घाटे को कम करने के लिए सब्सिडी में कटौती करे और आर्थिक सुधारों की गति को तेज करे.

इसके लिए बड़ी पूंजी खासकर विदेशी वित्तीय पूंजी यह चाहती है कि बजट में वित्तीय घाटे को जी.डी.पी के ५.१ प्रतिशत की सीमा में रखने को लेकर किये गए वायदे के मुताबिक वित्त मंत्री सब्सिडी खासकर पेट्रोलियम और उर्वरक सब्सिडी में कटौती के बाबत कड़े फैसले करें.

लेकिन यह कहना जितना आसान है, उसे मौजूदा राजनीतिक माहौल में करके दिखाना उतना ही मुश्किल है. इस सच्चाई से प्रणब मुखर्जी भी परिचित हैं. यही कारण है कि वे कारपोरेट जगत को भी समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि बिना राजनीतिक सहमति के कड़े फैसले लेने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि उन्हें लागू करना संभव नहीं हो पाता है और कई बार वापस भी लेना पड़ता है.

साफ़ है कि प्रणब मुखर्जी इन कड़े फैसलों के लिए राजनीतिक समर्थन जुटाने के वास्ते कारपोरेट जगत की मदद चाहते हैं. इसके जरिये वे इन कड़े फैसलों के लिए अनुकूल राजनीतिक माहौल तैयार करने की जिम्मेदारी कारपोरेट जगत और अन्य राजनीतिक दलों पर भी डालना चाहते हैं.

लेकिन सवाल यह है कि क्या कारपोरेट जगत और खासकर यू.पी.ए के घटक दलों सहित अन्य विपक्षी दल प्रणब मुखर्जी के कड़े फैसलों के साथ खड़े होंगे? इसकी उम्मीद कम दिखाई देती है. सबसे पहली बात यह है कि यू.पी.ए के अंदर इन मुद्दों पर सहमति नहीं है. खासकर तृणमूल और डी.एम.के ऐसे किसी फैसले के साथ खड़े नहीं होना चाहेंगे जिससे स्थानीय राजनीति में विपक्ष को मौका मिले.

यही नहीं, यू.पी.ए को बाहर से समर्थन दे रहे सपा, बसपा और राजद जैसे दल भी बिना सत्ता की मलाई के इन कड़े फैसलों की राजनीतिक कीमत चुकाने को तैयार नहीं होंगे. यहाँ तक कि हालिया विधानसभा चुनावों में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद खुद कांग्रेस के अंदर ऐसे कड़े फैसलों के राजनीतिक नतीजों को लेकर बेचैनी बढ़ रही है.

ऐसे में, अगर बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों खासकर डीजल और रसोई गैस और उर्वरकों की कीमतों में बढोत्तरी की तो इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि विभिन्न कारणों से कांग्रेस नेतृत्व से नाराज नेता और गुट मौके का फायदा उठाने की कोशिश करें.

कुछ महीनों पहले खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई के मुद्दे पर कांग्रेस सांसद संजय सिंह के विरोधी सुर से इसका संकेत मिल चुका है. इसी तरह विपक्ष भी सरकार से सहयोग के बजाय सरकार विरोधी माहौल का राजनीतिक फायदा उठाने के मूड में है.

इसलिए अगर यू.पी.ए सरकार कड़े फैसले करती है तो वह मौके का फायदा उठाने से नहीं चूकेगा. साफ़ है कि वित्त मंत्री के पास कड़े फैसले करने की राजनीतिक गुंजाइश बहुत कम है. ऐसे में, बेहतर होता कि वे इन विवादास्पद फैसलों के बजाय वैकल्पिक रणनीति पर विचार करते. लेकिन वे नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी से बाहर देखने को तैयार नहीं हैं.

उन्हें लगता है कि कुछेक क्षेत्रीय पार्टियों को छोडकर अधिकांश पार्टियां मध्यावधि चुनाव नहीं चाहती हैं. खासकर कांग्रेस और भाजपा चुनाव के लिए तैयार नहीं हैं. खुद बड़ी पूंजी और कारपोरेट जगत अभी चुनाव नहीं चाहते हैं.

इसकी वजह यह है कि कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा भी कमजोर स्थिति में है और तुरंत चुनाव की स्थिति में राजनीतिक स्थिरता और बढ़ सकती है क्योंकि किसी भी गठबंधन को बहुमत आता नहीं दिखाई देता है. इसलिए यू.पी.ए सरकार के रणनीतिकारों का आकलन है कि सरकार के कड़े फैसलों के विरोध के बावजूद विपक्ष और अन्य सरकार समर्थक पार्टियां (बसपा और राजद) उसे गिराने की हद तक नहीं जायेंगी.

उलटे आसार हैं कि कारपोरेट जगत विपक्ष समेत अन्य राजनीतिक दलों पर अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके उन्हें परोक्ष तरीके से सरकार की मदद करने के लिए तैयार करेगा. संसद के इस सत्र में इसके संकेत भी दिखाई दे रहे हैं.

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर विपक्ष के संशोधन प्रस्ताव कुछ पार्टियों की परोक्ष मदद से गिर गए और विपक्ष को इसका कोई खास गिला भी नहीं है. माना जा रहा है कि संसद के बजट सत्र में आर्थिक सुधारों को आगे बढाने वाले कई विधेयक भी इसी तरह ‘देशहित’ में विपक्ष और अन्य सहयोगी मित्र दलों की मदद के रचनात्मक सहयोग से पास हो जायेंगे. 

वित्त मंत्री इसी ‘देशहित’ में अपने लिए उम्मीद देख रहे हैं. उन्हें भरोसा है कि कारपोरेट जगत की मदद से वे सरकार के कड़े फैसलों के विरोध को राजनीतिक रूप से मैनेज करने में कामयाब हो जायेंगे. लेकिन क्या इन कथित कड़े फैसलों से अर्थव्यवस्था की मुश्किलें दूर हो जायेंगी?

साफ़ तौर पर कहें तो नहीं. सवाल यह भी है कि “अर्थव्यवस्था और देशहित” में लिए गए कड़े फैसलों की कीमत आम आदमी ही क्यों चुकाए? दूसरे, क्या इन कड़े फैसलों का और कोई विकल्प नहीं है?

सच पूछिए तो यह न तो अच्छी राजनीति है और न ही अच्छा अर्थशास्त्र. यह सिर्फ बड़ी देशी-विदेशी पूंजी खासकर आवारा वित्तीय पूंजी को खुश करने की कोशिश है जो अपने मुनाफे का बोझ आम लोगों पर डालना चाहती है.

असल में, अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या वित्तीय घाटा या पेट्रोलियम और खाद सब्सिडी नहीं है. इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या निवेश में आई गिरावट है. खुद सरकार ने ताज़ी आर्थिक समीक्षा में माना है कि आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट की मुख्य वजह निवेश में आई गिरावट है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इससे वित्तीय घाटे में कटौती करके नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाकर निपटा जा सकता है. इसका मतलब यह हुआ कि सरकार को वित्तीय घाटे की चिंता कुछ समय के लिए छोड़नी होगी. इस मामले में उसे यूरोप की बिगडती आर्थिक हालत से सबक लेना चाहिए जहाँ आर्थिक संकट से निपटने के लिए मितव्ययिता और सरकारी खर्चों में कटौती की नीति का उल्टा असर हो रहा है.

जाहिर है कि इस समय पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि महंगाई की आग में घी डालने की तरह होगी जिसका असर न सिर्फ आम लोगों की जेब पर पड़ेगा बल्कि यह अर्थव्यवस्था के लिए भी घातक साबित होगी. अब फैसला यू.पी.ए सरकार को करना है.

('दैनिक भास्कर' के आप-एड पृष्ठ पर २७ मार्च को प्रकाशित आलेख)

मंगलवार, मार्च 20, 2012

चैनलों पर कयासों के विशेषज्ञ

चैनलों पर विशेषज्ञों की अद्द्भुत प्रजाति और उनकी चुनावी सिद्धूवाणी

विधानसभा चुनाव खत्म हुए और इसके साथ चैनलों पर अहर्निश जारी चुनावी तमाशा भी खत्म हुआ. एक बार फिर वोटर चैनलों के एंकरों, राजनीतिक संपादकों, रिपोर्टरों और मेरे जैसे अनाड़ी राजनीतिक विशेषज्ञों से ज्यादा तेज निकले. उत्तराखंड को छोडकर बाकी सभी राज्यों में स्पष्ट जनादेश देकर वोटरों ने सभी तरह के राजनीतिक सस्पेंस और उठापटक और उसमें फलने-फूलने वाले चैनलों के लिए कयास लगाने की गुंजाइश को खत्म करा दिया.

एक बार फिर कई एक्जिट और ओपिनियन पोल वोटरों के मन को पकड़ने में नाकाम रहे तो कई वास्तविक नतीजों से काफी आगे-पीछे रहने के बावजूद रुझानों का सही अनुमान लगाने में कामयाब रहे. एक बार फिर साबित हुआ कि एक्जिट पोल और ओपिनियन पोल बड़े जोखिम हैं खासकर वोटों के प्रतिशत और सीटों के अनुमान के मामले में गणित अक्सर गड़बड़ा जा रहा है.

आश्चर्य नहीं कि सी.एन.एन-आई.बी.एन पर राजनीतिक विज्ञानी और सेफोलाजिस्ट योगेन्द्र यादव ने एक्जिट पोल में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के बारे रुझानों के बारे में काफी हद तक सही पूर्वानुमानों के बावजूद इस धंधे को अलविदा कहने का एलान कर दिया है. अफसोस इस धंधे में गंभीर और ईमानदार खिलाड़ी होने के बावजूद उन्होंने रिटायर होने का एलान कर दिया.

लेकिन योगेन्द्र यादव रहें या न रहें, न्यूज चैनल एक्जिट और ओपिनियन पोल या कहें चुनावों के संभावित नतीजों को लेकर कयास लगाये बिना नहीं रह सकते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि उसमें एक सस्पेंस, सनसनी और ड्रामा है.

असल में, चैनलों समेत समूचे न्यूज मीडिया में चुनाव का मतलब ही कयास और पूर्वानुमान हो गया है. इसी का नतीजा है कि चैनलों और अख़बारों में चुनावों को लेकर होनेवाली स्वतंत्र और बारीक फील्ड रिपोर्टिंग लगातार कम होती जा रही है जबकि चैनलों पर स्टूडियो में होनेवाली बहसों और चर्चाओं, नेताओं की रैलियों, प्रेस कांफ्रेंसों, आरोप-प्रत्यारोपों और उम्मीदवारों के बीच बहस के नाम पर होनेवाले दंगल का शोर-शराबा बढ़ता जा रहा है.

ऐसा नहीं है कि इसके अपवाद नहीं हैं. इस मामले में अखबारों खासकर अंग्रेजी अखबारों ने फील्ड से कई अच्छी रिपोर्टें और चुनाव यात्रा विवरण छापे. इनमें भी खासकर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘द हिंदू’ ने कई बेहतरीन रिपोर्टें और गंभीर विश्लेषण छापे.

इनके संवाददाताओं में स्मिता गुप्ता, विद्या सुब्रहमनियम, सीमा चिश्ती, वन्दिता मिश्र और खुद ‘एक्सप्रेस’ के संपादक शेखर गुप्ता की रिपोर्टें/विश्लेषण राजनीतिक शोर-शराबे से दूर जमीन पर बदल रही राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक सच्चाइयों की वास्तविक तस्वीर पेश कर रहे थे. उनमें गहरी अंतर्दृष्टि, राजनीति और समाज के रिश्ते और उनमें आ रहे बदलावों को समझने की कोशिश थी.


लेकिन इसके उलट ज्यादातर हिंदी अख़बारों और चैनलों ने चुनाव कवरेज का मतलब शोर-शराबा और तमाशा समझ लिया है. मजे की बात यह है कि चुनाव आयोग के निर्देशों के कारण नीचे जमीन पर चुनाव प्रचार में स्टार प्रचारकों के हेलीकाप्टरों और रैलियों के शोर-शराबे के अलावा आमतौर पर बहुत ख़ामोशी थी.

शहरों तक में न बैनर थे, न पोस्टर, न वाल राईटिंग, न होर्डिंग और न नुक्कड़ सभाएं- लगता ही नहीं था कि चुनाव हो रहे हैं. यह मानने के लिए कि चुनाव हो रहे हैं, आपको चैनल और अखबार देखने होंगे क्योंकि चुनावों के साथ जुड़ा सारा हंगामा और राजनीतिक तमाशा वहीँ पहुँच गया है.

खासकर चैनलों के लिए तो इस बार के चुनाव क्रिकेट के तमाशे की भरपाई करते दिखे क्योंकि एक तो कोई बड़ा टूर्नामेंट नहीं हो रहा था और दूसरे, आस्ट्रेलियाई दौरे पर भारतीय टीम बुरी तरह हार रही थी. इसके कारण उसमें न तो वह ड्रामा और न सस्पेंस रह गया था कि चैनल उसके पीछे भागते.
नतीजा, चैनलों ने चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों को २०-२० क्रिकेट मैच और कुछ हद तक डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ कुश्ती में बदल दिया. उसी तरह की लाइव कमेंट्री और उसपर मेरे जैसे कथित वरिष्ठ पत्रकारों और विशेषज्ञों की कभी चुटकुलानुमा और कभी कुछ तथ्य और ज्यादातर अनुमान पर आधारित २० सेकेण्ड की टिप्पणियों का ड्रामा अंत तक चलता रहा.

चूँकि न्यूज चैनल बहुत हो गए हैं और सबको विशेषज्ञ चाहिए, इसलिए इस बार अपन को भी कुछ चैनलों (न्यूज २४, ई.टी.वी और सहारा समय) पर चुनाव विशेषज्ञ बनकर जाने का मौका मिल गया. इस अनुभव के बारे में जितना कहूँ, उतना कम होगा.

अंदर की बात ये है कि ये चुनाव विशेषज्ञ भी अद्दभुत प्रजाति हैं. इनमें से ज्यादातर अख़बारों के पत्रकार और संपादक हैं. वे राजनीति के पंडित और चुनाव शास्त्र के विशेषज्ञ बताये जाते हैं. कुछ मशहूर विशेषज्ञों की तो इतनी मांग थी कि वे इस चैनल से उस चैनल शिफ्ट में भी काम करते दिखे.

कई चैनलों ने अपना जलवा दिखाने के लिए एक-दो या तीन नहीं बल्कि एक दर्जन से ज्यादा विशेषज्ञ अपने न्यूज रूम में जुटा लिए. इस चक्कर में चैनलों में विशेषज्ञ जुटाने की होड़ सी शुरू हो गई. जिसके पास जितने विशेषज्ञ, वह उतना बड़ा चैनल.

इस होड़ में हालात यह हुई कि आखिर में ‘टाइम्स नाउ’ पर अपने अर्नब गोस्वामी ने इतने विशेषज्ञ बुला लिए कि खुद बैठने को जगह नहीं मिली और खड़े-खड़े १०० घंटे तक अहर्निश चर्चा करनी पड़ी. वैसे यह मालूम नहीं कि उन विशेषज्ञों में से कोई इन चुनावों में नीचे जमीन पर झांकने भी गया या नहीं लेकिन वे बात ऐसे करते दिखे जैसे उनका हाथ सीधे जनता की नब्ज पर हो.
यह और बात है कि मुझ समेत उनमें से ज्यादातर की विशेषज्ञता कयास से आगे नहीं बढ़ पाई. अक्सर उनकी विशेषज्ञता ‘यह भी हो सकता है और उसका उल्टा भी हो सकता है’ में उलझ कर रह जा रही थी. रही-सही कसर चैनलों के वाक् चपल एंकरों ने पूरी कर दी जो किसी भी विशेषज्ञ को १५ सेकेण्ड से ज्यादा एयर टाइम देने को तैयार नहीं थे.

इसमें भी उनकी कृपा उन विशेषज्ञों पर ज्यादा बरसी जो १५ सेकेण्ड में चुटीली टिप्पणियों यानी चुनावी सिद्धू-वाणी के उस्ताद हो गए. यह मत पूछिए कि इससे बेचारे टी.वी दर्शक का राजनीतिक ज्ञान और समझदारी कितनी बढ़ी लेकिन इस तमाशे में मनोरंजन की कोई कमी नहीं थी. चैनलों को भला और क्या चाहिए?

('तहलका' के ३० मार्च के अंक में प्रकाशित स्तम्भ का विस्तृत रूप...आप यह टिपण्णी तहलका के वेबसाईट पर भी पढ़ और अपनी राय दे सकते हैं..इसके लिए यहाँ चटका लगायें: http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/1144.html )

रविवार, मार्च 18, 2012

महंगाई और निवेश को अनदेखा करता बजट

वित्तीय घाटे के व्यामोह में वित्त मंत्री मौका चूक गए

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को अपना सातवां बजट पेश करते समय भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी चुनौतियों का पूरा अंदाज़ा था. अपने बजट भाषण में उन्होंने इस चुनौतियों का उल्लेख भी किया है. हर चुनौती एक तरह से अवसर भी होती है. प्रणब मुखर्जी के लिए भी यह एक ऐतिहासिक अवसर था.

लेकिन लगता है कि उन चुनौतियों से निपटने के तरीके और उपायों को लेकर वह दुविधा में फंस गए. महंगाई का ध्यान रखें कि अर्थव्यवस्था की गिरती हुई विकास दर का? वित्तीय घाटे की चिंता करें कि अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाएं? इस दुविधा से निपटना इतना आसान नहीं है. इसके लिए अच्छा-ख़ासा साहस और जोखिम लेने की तैयारी होनी चाहिए.

लेकिन लगता है कि प्रणब मुखर्जी जोखिम लेने और नई राह चलने के लिए तैयार नहीं थे. नतीजा, वित्त मंत्री ने बजट में एक ऐसी मध्यममार्गी राह चुनने की कोशिश की है जिसमें अभी खतरा भले कम दिख रहा हो लेकिन कई बार संतुलन बैठाने की कोशिश में ‘माया मिली न राम’ वाली स्थिति पैदा हो जाती है.

कहने की जरूरत नहीं है कि उन्होंने बजट में वित्तीय घाटे को काबू में करने को सबसे ज्यादा अहमियत दी है. उनकी रणनीति यह है कि घाटे को काबू में करके मौद्रिक नीतियों के मामले में रिजर्व बैंक के लिए ब्याज दरों में कटौती की गुंजाइश बनाई जाये. इससे निजी निवेश में बढ़ोत्तरी होगी और अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी.

लेकिन इसके लिए उन्होंने महंगाई की चिंता को नजरंदाज कर दिया है. यही कारण है कि उन्होंने बजट में न सिर्फ उत्पाद और सेवा करों में दो फीसदी की वृद्धि कर दी है बल्कि सब्सिडी में कटौती के नाम पर उर्वरकों और पेट्रोलियम उत्पादों को निशाना बनाया है.

बजट में उन्होंने उर्वरक सब्सिडी में ६२२५ करोड रूपये और पेट्रोलियम सब्सिडी में २४९०१ करोड रूपये की कटौती का प्रस्ताव किया है. इसका साफ़ मतलब है कि आनेवाले सप्ताहों में पेट्रोलियम उत्पादों और उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि तय है. सवाल यह है कि क्या इन फैसलों से महंगाई की आग और नहीं भड़क उठेगी?

इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन ऐसा लगता है कि वित्त मंत्री को यह खुशफहमी हो गई है कि महंगाई अब काबू में आ गई और इसके लिए वे पिछले तीन महीनों से महंगाई की दरों में आई गिरावट का हवाला देते हैं. लेकिन यह पूरा सच नहीं है. पूरा सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर भले कम हुई है लेकिन महंगाई कम नहीं हुई है.

तथ्य यह है कि मुद्रास्फीति की दर और वास्तविक महंगाई के बीच बहुत बड़ा फासला है. यही कारण है कि सरकार और उसके आर्थिक मैनेजर भले ही मुद्रास्फीति की दर में कमी और उसके ७ फीसदी से कम होने का जश्न मना रहे हों लेकिन हकीकत यह है कि आसमान छूती महंगाई की मार से आम लोगों को अभी भी कोई खास राहत नहीं मिली है.

असल में, मुद्रास्फीति की दर में हालिया गिरावट के आधार पर महंगाई में कमी का दावा इस कारण थोथा है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर में गिरावट काफी हद तक एक ‘सांख्ककीय चमत्कार’ भर है. यह पिछले वर्षों के ऊँचे आधार प्रभाव यानी बेस इफेक्ट के कारण संभव हुआ है.

चूँकि पिछले वर्ष इन्हीं महीनों और सप्ताहों में मुद्रास्फीति की वृद्धि दर दहाई अंकों की असहनीय ऊँचाई पर थी, इसलिए इस वर्ष कीमतों में वृद्धि के बावजूद मुद्रास्फीति की वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से कम दिखाई दे रही है. लेकिन सच यह है कि महंगाई कम होने के बजाय बढ़ी है और उसकी मार इसलिए और भी तीखी है क्योंकि पिछले तीन वर्षों से कीमतें लगातार ऊपर ही जा रही हैं.

दूसरी ओर, बजट पर एक बार फिर उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की छाप है जिन्हें लेकर इनदिनों पूरी दुनिया में सवाल उठ रहे हैं. हालांकि वित्त मंत्री ने आर्थिक सुधारों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता की बजट में खूब दुहाई दी है लेकिन यह भी माना है कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में उन्हें आगे बढ़ाना मुश्किल हो रहा है.

इसके बावजूद वित्त मंत्री की आस्था इन सुधारों में बनी हुई है. ऐसा लगता है कि नव उदारवादी अर्थनीति के पैरोकारों की तरह वे भी मानते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति का बड़ा कारण आर्थिक सुधारों का ठहर जाना है.

इसके कारण देशी-विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था में भरोसा कमजोर हुआ है. वे नया निवेश नहीं कर रहे हैं. वे अपना पैसा निकालकर वापस जा रहे हैं.

इस तरह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के पक्ष में अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति को लेकर ऐसा डरावना माहौल बनाया जाता है जिससे इन सुधारों को जायज ठहराया जा सके. लोगों को यह कहकर डराया जाता है कि अगर आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ाया गया तो अर्थव्यवस्था की हालत और पतली और खस्ता होगी.

जबकि सच्चाई यह है कि अर्थव्यवस्था की पतली होती स्थिति के लिए ये नव उदारवादी सुधार ही जिम्मेदार हैं. इनके कारण ही मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट पैदा हुआ है जिसका असर भारत पर भी पड़ रहा है.

यही नहीं, अर्थव्यवस्था की कई मौजूदा समस्याओं के लिए भी यही सुधार जिम्मेदार हैं लेकिन मजा देखिए कि उनकी चर्चा नहीं हो रही है, उल्टे इन सुधारों के कथित तौर पर ठहर जाने को अर्थव्यवस्था के सारे मर्जों की वजह साबित करने की कोशिश हो रही है. इसी आधार पर इन मर्जों के इलाज के बतौर सुधारों के नए कड़वे डोज को लोगों के गले के नीचे जबरन उतारने की कोशिश हो रही है.

लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जायेगी? इसके आसार कम हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था की समस्याओं के समाधान के नाम पर वित्त मंत्री मर्ज का इलाज करने के बजाय टोटके कर रहे हैं. यही कारण है कि उन्होंने बजट भाषण में विस्तार से वित्तीय सुधार के रोडमैप और शेयर बाजार को खुश करने के लिए कई घोषणाएँ की हैं.

लेकिन इससे स्थिति सुधरने वाली नहीं है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्याएं बाजार के लिए फील गुड पैदा करने से हल नहीं होने वाली हैं. असल में, यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकार है लेकिन यह ‘नीतिगत पक्षाघात’ वह नहीं है जो नव उदारवादी बाजार विश्लेषक, गुलाबी अखबार और औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन कह रहे हैं.

सच यह है कि यू.पी.ए सरकार का ‘नीतिगत पक्षाघात’ कृषि और आधारभूत ढांचा क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में निवेश बढाने को लेकर जारी हिचकिचाहट में दिखाई देता है.

असल में, वित्तीय घाटे के आब्सेशन में सरकार अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है. माना जाता है कि जब अर्थव्यवस्था की रफ़्तार सुस्त पड़ रही हो तो सार्वजनिक निवेश बढ़ाने से निजी निवेश को भी प्रोत्साहन मिलता है. मौजूदा माहौल में इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है क्योंकि सिर्फ फील गुड से निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आएगा.

खासकर जब वैश्विक अर्थव्यवस्था में ऐसी अनिश्चितता और संकट हो. ऐसे समय में जरूरत घरेलू अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए घरेलू मांग को बढ़ाने और उसके लिए सार्वजनिक निवेश पर जोर देने की है.

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में इसे प्राथमिकता देने की बात भी कही है लेकिन व्यवहार में उसके उल्टा दिखाई देता है. जाहिर है कि सिर्फ निजी क्षेत्र पर भरोसा करने से बात नहीं बनेगी. सरकार को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना अच्छा होगा.

लेकिन इसके लिए उसे मौजूदा नीतिगत पक्षाघात और उससे अधिक नव उदारवादी अर्थनीति के प्रति मानसिक सम्मोहन से निकलना होगा.

यह बजट एक मौका था लेकिन लगता है कि बड़ी पूंजी को खुश करने के चक्कर में प्रणब मुखर्जी ने अलग राह लेने का जोखिम लेना उचित नहीं समझा. लेकिन ऐसा करते हुए उन्होंने अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम बढ़ा दिया है.

('राष्ट्रीय सहारा' के १७ मार्च के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित टिप्पणी)