मंगलवार, मार्च 27, 2012

कड़े फैसलों की तैयारी

लेकिन यह न अच्छी राजनीति है और न अच्छा अर्थशास्त्र


वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी चिंतित हैं. वे अपनी चिंता का खुलकर इजहार भी कर रहे हैं. पिछले तीन दिनों में दो प्रमुख औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों-फिक्की और सी.आई.आई के सम्मेलनों में उन्होंने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कड़े फैसलों की जरूरत बताई है. साथ ही, उन्होंने कारपोरेट जगत को आश्वस्त किया है कि सरकार आनेवाले महीनों में कड़े फैसले करेगी.

लेकिन इसके लिए वे यू.पी.ए के घटक दलों और विपक्षी राजनीतिक दलों का सहयोग चाहते हैं. उन्होंने अपील की है कि जैसे १९९१ के आर्थिक संकट के समय विपक्ष ने देशहित में आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में सरकार का सहयोग किया था, उसी तरह की भावना फिर दिखाने की जरूरत है.

वित्त मंत्री से पहले प्रधानमंत्री भी इशारा चुके हैं कि सरकार कड़े फैसलों के लिए तैयार है. कहने की जरूरत नहीं है कि यहाँ कड़े फैसलों से आशय पेट्रोलियम उत्पादों और उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि से लेकर अन्य मदों में सब्सिडी में कटौती से है. असल में, वित्त मंत्री पर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कारपोरेट जगत से लेकर विश्व बैंक-मुद्रा कोष

और मूडी-स्टैंडर्ड एंड पुअर जैसी अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों का दबाव बढ़ता जा रहा है. ये सभी चाहते हैं कि यू.पी.ए सरकार वित्तीय घाटे को कम करने के लिए सब्सिडी में कटौती करे और आर्थिक सुधारों की गति को तेज करे.

इसके लिए बड़ी पूंजी खासकर विदेशी वित्तीय पूंजी यह चाहती है कि बजट में वित्तीय घाटे को जी.डी.पी के ५.१ प्रतिशत की सीमा में रखने को लेकर किये गए वायदे के मुताबिक वित्त मंत्री सब्सिडी खासकर पेट्रोलियम और उर्वरक सब्सिडी में कटौती के बाबत कड़े फैसले करें.

लेकिन यह कहना जितना आसान है, उसे मौजूदा राजनीतिक माहौल में करके दिखाना उतना ही मुश्किल है. इस सच्चाई से प्रणब मुखर्जी भी परिचित हैं. यही कारण है कि वे कारपोरेट जगत को भी समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि बिना राजनीतिक सहमति के कड़े फैसले लेने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि उन्हें लागू करना संभव नहीं हो पाता है और कई बार वापस भी लेना पड़ता है.

साफ़ है कि प्रणब मुखर्जी इन कड़े फैसलों के लिए राजनीतिक समर्थन जुटाने के वास्ते कारपोरेट जगत की मदद चाहते हैं. इसके जरिये वे इन कड़े फैसलों के लिए अनुकूल राजनीतिक माहौल तैयार करने की जिम्मेदारी कारपोरेट जगत और अन्य राजनीतिक दलों पर भी डालना चाहते हैं.

लेकिन सवाल यह है कि क्या कारपोरेट जगत और खासकर यू.पी.ए के घटक दलों सहित अन्य विपक्षी दल प्रणब मुखर्जी के कड़े फैसलों के साथ खड़े होंगे? इसकी उम्मीद कम दिखाई देती है. सबसे पहली बात यह है कि यू.पी.ए के अंदर इन मुद्दों पर सहमति नहीं है. खासकर तृणमूल और डी.एम.के ऐसे किसी फैसले के साथ खड़े नहीं होना चाहेंगे जिससे स्थानीय राजनीति में विपक्ष को मौका मिले.

यही नहीं, यू.पी.ए को बाहर से समर्थन दे रहे सपा, बसपा और राजद जैसे दल भी बिना सत्ता की मलाई के इन कड़े फैसलों की राजनीतिक कीमत चुकाने को तैयार नहीं होंगे. यहाँ तक कि हालिया विधानसभा चुनावों में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद खुद कांग्रेस के अंदर ऐसे कड़े फैसलों के राजनीतिक नतीजों को लेकर बेचैनी बढ़ रही है.

ऐसे में, अगर बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों खासकर डीजल और रसोई गैस और उर्वरकों की कीमतों में बढोत्तरी की तो इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि विभिन्न कारणों से कांग्रेस नेतृत्व से नाराज नेता और गुट मौके का फायदा उठाने की कोशिश करें.

कुछ महीनों पहले खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई के मुद्दे पर कांग्रेस सांसद संजय सिंह के विरोधी सुर से इसका संकेत मिल चुका है. इसी तरह विपक्ष भी सरकार से सहयोग के बजाय सरकार विरोधी माहौल का राजनीतिक फायदा उठाने के मूड में है.

इसलिए अगर यू.पी.ए सरकार कड़े फैसले करती है तो वह मौके का फायदा उठाने से नहीं चूकेगा. साफ़ है कि वित्त मंत्री के पास कड़े फैसले करने की राजनीतिक गुंजाइश बहुत कम है. ऐसे में, बेहतर होता कि वे इन विवादास्पद फैसलों के बजाय वैकल्पिक रणनीति पर विचार करते. लेकिन वे नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी से बाहर देखने को तैयार नहीं हैं.

उन्हें लगता है कि कुछेक क्षेत्रीय पार्टियों को छोडकर अधिकांश पार्टियां मध्यावधि चुनाव नहीं चाहती हैं. खासकर कांग्रेस और भाजपा चुनाव के लिए तैयार नहीं हैं. खुद बड़ी पूंजी और कारपोरेट जगत अभी चुनाव नहीं चाहते हैं.

इसकी वजह यह है कि कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा भी कमजोर स्थिति में है और तुरंत चुनाव की स्थिति में राजनीतिक स्थिरता और बढ़ सकती है क्योंकि किसी भी गठबंधन को बहुमत आता नहीं दिखाई देता है. इसलिए यू.पी.ए सरकार के रणनीतिकारों का आकलन है कि सरकार के कड़े फैसलों के विरोध के बावजूद विपक्ष और अन्य सरकार समर्थक पार्टियां (बसपा और राजद) उसे गिराने की हद तक नहीं जायेंगी.

उलटे आसार हैं कि कारपोरेट जगत विपक्ष समेत अन्य राजनीतिक दलों पर अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके उन्हें परोक्ष तरीके से सरकार की मदद करने के लिए तैयार करेगा. संसद के इस सत्र में इसके संकेत भी दिखाई दे रहे हैं.

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर विपक्ष के संशोधन प्रस्ताव कुछ पार्टियों की परोक्ष मदद से गिर गए और विपक्ष को इसका कोई खास गिला भी नहीं है. माना जा रहा है कि संसद के बजट सत्र में आर्थिक सुधारों को आगे बढाने वाले कई विधेयक भी इसी तरह ‘देशहित’ में विपक्ष और अन्य सहयोगी मित्र दलों की मदद के रचनात्मक सहयोग से पास हो जायेंगे. 

वित्त मंत्री इसी ‘देशहित’ में अपने लिए उम्मीद देख रहे हैं. उन्हें भरोसा है कि कारपोरेट जगत की मदद से वे सरकार के कड़े फैसलों के विरोध को राजनीतिक रूप से मैनेज करने में कामयाब हो जायेंगे. लेकिन क्या इन कथित कड़े फैसलों से अर्थव्यवस्था की मुश्किलें दूर हो जायेंगी?

साफ़ तौर पर कहें तो नहीं. सवाल यह भी है कि “अर्थव्यवस्था और देशहित” में लिए गए कड़े फैसलों की कीमत आम आदमी ही क्यों चुकाए? दूसरे, क्या इन कड़े फैसलों का और कोई विकल्प नहीं है?

सच पूछिए तो यह न तो अच्छी राजनीति है और न ही अच्छा अर्थशास्त्र. यह सिर्फ बड़ी देशी-विदेशी पूंजी खासकर आवारा वित्तीय पूंजी को खुश करने की कोशिश है जो अपने मुनाफे का बोझ आम लोगों पर डालना चाहती है.

असल में, अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या वित्तीय घाटा या पेट्रोलियम और खाद सब्सिडी नहीं है. इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या निवेश में आई गिरावट है. खुद सरकार ने ताज़ी आर्थिक समीक्षा में माना है कि आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट की मुख्य वजह निवेश में आई गिरावट है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इससे वित्तीय घाटे में कटौती करके नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाकर निपटा जा सकता है. इसका मतलब यह हुआ कि सरकार को वित्तीय घाटे की चिंता कुछ समय के लिए छोड़नी होगी. इस मामले में उसे यूरोप की बिगडती आर्थिक हालत से सबक लेना चाहिए जहाँ आर्थिक संकट से निपटने के लिए मितव्ययिता और सरकारी खर्चों में कटौती की नीति का उल्टा असर हो रहा है.

जाहिर है कि इस समय पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि महंगाई की आग में घी डालने की तरह होगी जिसका असर न सिर्फ आम लोगों की जेब पर पड़ेगा बल्कि यह अर्थव्यवस्था के लिए भी घातक साबित होगी. अब फैसला यू.पी.ए सरकार को करना है.

('दैनिक भास्कर' के आप-एड पृष्ठ पर २७ मार्च को प्रकाशित आलेख)

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