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शनिवार, सितंबर 21, 2013

उच्च शिक्षा की दुखान्तिका

उच्च शिक्षा में हालात इमरजेंसी के हैं और करोड़ों युवाओं का भविष्य दांव पर लगा हुआ है 

ब्रितानी कंपनी- क्वैक्रेल्ली साइमंड्स (क्यू.एस) की ओर से जारी दुनिया के २०० सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय या संस्थान अपनी जगह नहीं बना पाया है. स्वाभाविक तौर पर इस रिपोर्ट के आने के बाद से भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों खासकर विश्वविद्यालयों की दुर्गति और उनके खराब अकादमिक स्तर को लेकर एक बार फिर स्यापा शुरू हो गया है.

मजे की बात यह है कि उच्च शिक्षा व्यवस्था के नीति-नियंता इस रिपोर्ट पर ऐसी मासूमियत के साथ हैरानी जाहिर कर रहे हैं, जैसे उन्होंने उच्च शिक्षा की स्थिति सुधारने के लिए दिन-रात एक कर दिया हो और उन्हें उम्मीद थी कि भारतीय विश्वविद्यालय इस वैश्विक सूची में जरूर होंगे.
यहाँ तक कि कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति (चांसलर) राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने पिछले एक साल में कई उच्च शिक्षा संस्थानों के दीक्षांत और अन्य समारोहों में भारतीय विश्वविद्यालयों के दुनिया के २०० सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में जगह न बना पाने पर चिंता जाहिर की है. खुद प्रधानमंत्री भी इसपर कई बार चिंता जाहिर कर चुके हैं.

लेकिन भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था और ज्यादातर संस्थानों/विश्वविद्यालयों पर कब्ज़ा जमाए बैठी दमघोंटू नौकरशाही, अकादमिक दिशाहीनता और शैक्षिक अन्धकार से वाकिफ लोगों के लिए यह हैरान करनेवाली रिपोर्ट नहीं है कि दुनिया के बेहतरीन २०० विश्वविद्यालयों में एक भी भारतीय शिक्षा संस्थान नहीं है या दुनिया के सर्वश्रेष्ठ ८०० उच्च शिक्षा संस्थानों की सूची में में भारत से केवल ११ शिक्षा संस्थान शामिल हैं.

हालाँकि इस वैश्विक रैंकिंग में कई प्रविधिमूलक समस्याएं हैं, इसके विकसित पश्चिमी देशों की शैक्षिक व्यवस्था और उसके मानदंडों के पक्ष में पूर्वाग्रह भी स्पष्ट हैं और बुनियादी तौर पर असमान और भिन्न परिस्थितियों में विकसित हुए और काम कर रहे शैक्षिक संस्थानों की वैश्विक रैंकिंग बेमानी है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था और संस्थानों में कोई समस्या नहीं है या उसका प्रदर्शन संतोषजनक है.
इसके उलट सच्चाई यह है कि अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थान अकादमिक तौर पर जबरदस्त गतिरुद्धता के शिकार हैं, शिक्षण और शोध की दशा और दिशा बद से बदतर होती जा रही है और वे मूलतः दाखिले-परीक्षा और डिग्रियां बाँटने तक सीमित रह गए हैं.
अफसोस की बात यह है कि इनमें से अधिकांश विश्वविद्यालयों/संस्थानों की डिग्रियां भी कागज के
टुकड़ों से ज्यादा कीमत नहीं रखती हैं. योजना आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के ६० फीसदी विश्वविद्यालयों और ८० फीसदी कालेजों से पास स्नातक ‘रोजगार के लायक नहीं’ (अनइम्प्लायबल) हैं क्योंकि उनके पास न तो कोई तकनीकी कौशल है, न खुद को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करने की भाषा दक्षता है और न ही बुनियादी सामान्य ज्ञान है.

हैरानी की बात नहीं है कि कुछ चुनिंदा अभिजात्य विश्वविद्यालयों और कालेजों को छोड़कर ज्यादातर शिक्षा संस्थान आज शिक्षित बेरोजगार पैदा करने की फैक्ट्री में बदल गए हैं क्योंकि वहां पठन-पाठन के अलावा बाकी सब कुछ हो रहा है.

यह स्थिति एक बड़ी राष्ट्रीय त्रासदी में बदलती जा रही है. एक ओर उद्योग और सेवा क्षेत्र में प्रतिभाओं की कमी का रोना रोया जा रहा है और दूसरी ओर, उच्च शिक्षा संस्थानों से डिग्री लेकर निकले करोड़ों युवा हैं जो एक गरिमापूर्ण रोजगार के लिए भटक रहे हैं. इसका सीधा असर भारतीय अर्थव्यवस्था, उसकी प्रतियोगी क्षमता और उसमें नवोन्मेष (इन्नोवेशन) पर पड़ रहा है.
त्रासदी यह है कि भारत की आबादी में दो-तिहाई युवाओं की मौजूदगी के कारण देश को जिस ‘जनसांख्यकीय लाभांश’ का फायदा उठाते हुए तेजी से तरक्की करना चाहिए था, वह उच्च शिक्षा की मौजूदा दुर्गति के कारण देश के लिए ‘जनसांख्यकीय दु:स्वपन’ में बदलता जा रहा है.
सच पूछिए तो यह उन युवाओं के साथ भी अन्याय है जिन्हें उच्च शिक्षा संस्थानों/विश्वविद्यालयों की दुर्दशा की असली कीमत चुकानी पड़ रही है. यह तब है जब देश में विश्वविद्यालय/कालेज जाने की उम्रवाले युवाओं में से सिर्फ १८.१ फीसदी कालेज/विश्वविद्यालय का मुंह देख पाते हैं. इसके उलट विकसित देशों में यह ५० फीसदी से ऊपर है जबकि भारत जैसे कई विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में उच्च शिक्षा में कुल पंजीकरण अनुपात (जी.ई.आर) ३० फीसदी से ऊपर है.

योजना आयोग ने १२वीं पंचवर्षीय योजना (२०१२-१७) में उच्च शिक्षा में जी.ई.आर को २५.१ फीसदी पहुंचाने का लक्ष्य रखा है. अगर यह लक्ष्य हासिल भी हो गया तो भी २०१७ में ७५ फीसदी युवा कालेज/महाविद्यालय से बाहर रहेंगे और भारत उच्च शिक्षा में प्रवेश के मामले में अपने समकक्ष देशों से पीछे रहेगा.

लेकिन उच्च शिक्षा तक पहुँच से भी बड़ी समस्या उसकी गुणवत्ता का है जिसकी ओर केन्द्र और राज्य सरकारों का बिलकुल ध्यान नहीं है. असल में, उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति सिर्फ चिंता की बात नहीं है बल्कि यह एक राष्ट्रीय इमरजेंसी की स्थिति है. यह स्थिति एक दिन में पैदा नहीं हुई है. पिछले दशकों में नीति नियंताओं ने उच्च शिक्षा की जिस तरह से अनदेखी की, उसके साथ खिलवाड़ किया और उच्च शिक्षा संस्थानों को धीमी मौत मरने के लिए छोड़ दिया, उसका नतीजा सबके सामने है.
यही नहीं, कोढ़ में खाज की तरह उच्च शिक्षा में प्रवेश और गुणवत्ता की चुनौती से निपटने के लिए पिछले डेढ़ दशकों में केन्द्र और राज्य सरकारों ने शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण को बढ़ावा दिया है, उसके कारण स्थिति बद से बदतर हुई है.
यही नहीं, उच्च शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण का नतीजा न सिर्फ उच्च शिक्षा के महंगे होने और गरीबों की पहुँच से बाहर होने के रूप में सामने आया है बल्कि उसकी गुणवत्ता के साथ भी समझौता किया जा रहा है. उच्च शिक्षा के निजीकरण के नाम जिस तरह पर से दुकानें खुली हैं और लूट सी मची हुई है, वह अब किसी से छुपा नहीं है.

उसपर तुर्रा यह कि अब यू.पी.ए सरकार उच्च शिक्षा की इस महा-दुर्गति का हल विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने का न्यौता देने में खोज रही है. सवाल यह है कि दुनिया के किस देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से सुधरी है? यह भी कि हार्वर्ड या एमआईटी या स्टैनफोर्ड या आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज ने दुनिया के किन देशों में अपनी शाखाएं खोली हैं और क्या वह शाखा भी विश्वस्तरीय रैंकिंग में है?

असल में, उच्च शिक्षा व्यवस्था के नीति नियंता उसकी बुनियादी और संरचनात्मक समस्याओं और मर्ज से मुंह मोड़कर केवल लक्षणों का इलाज करने की कोशिश कर रहे हैं जिसके कारण मर्ज बढ़ता और गंभीर होता जा रहा है.
सच यह है कि उच्च शिक्षा को स्कूल और माध्यमिक शिक्षा से काटकर नहीं देखा जा सकता है. आखिर छात्र वहीँ से कालेज/विश्वविद्यालय पहुँचते हैं. लेकिन शिक्षा के अधिकार के कानून के बावजूद स्कूली और माध्यमिक शिक्षा खासकर सरकारी स्कूलों की दुर्दशा किसी से छिपी हुई नहीं है. लेकिन स्कूली शिक्षा की यह दुर्दशा मूलतः दोहरी शिक्षा व्यवस्था का नतीजा है जिसके तहत एक ओर अभिजात्य निजी पब्लिक स्कूल हैं और दूसरी ओर अभावग्रस्त सरकारी स्कूल हैं.
चूँकि इस देश के शासक वर्गों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं जाते, इसलिए उन्हें उनके हाल पर
छोड़ दिया गया है. इसी तरह तमाम वायदों और दावों के बावजूद देश में शिक्षा का कुल बजट जी.डी.पी के ३-४ फीसदी तक पहुँच पाया है और इसमें भी उच्च शिक्षा के लिए कुल बजट जी.डी.पी के एक फीसदी से भी कम है जबकि ६० के दशक में कोठारी आयोग ने शिक्षा के लिए जी.डी.पी का न्यूनतम ६ फीसदी बजट मुहैया कराने की सिफारिश की थी.

सवाल यह है कि वैश्विक स्तर पर सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय/संस्थानों की सूची में भारतीय उच्च शिक्षा संस्थान अपनी जगह कैसे बना पाएंगे, अगर उन्हें उनके समक्ष वैश्विक संस्थानों की तरह संसाधन, आज़ादी और स्वायतत्ता नहीं दी जायेगी?

ध्यान रहे कि वैश्विक रैंकिंग में पहुँचने के लिए जो भारांक हैं, उनके मुताबिक किसी शैक्षिक संस्थान की अकादमिक प्रतिष्ठा (४० फीसदी), रोजगार प्रदाताओं के बीच साख (१० फीसदी), छात्र-अध्यापक अनुपात (२० फीसदी), प्रति संकाय सदस्य शोध/साइटेशन (२० फीसदी), अंतर्राष्ट्रीय छात्र (५ फीसदी) और अंतर्राष्ट्रीय संकाय सदस्य (५ फीसदी) के आधार पर उसकी रैंकिंग तय होती है.
लेकिन अधिकांश भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में छात्र-अध्यापक अनुपात अंतर्राष्ट्रीय मानकों से काफी बदतर स्थिति में है. हालत यह है कि अधिकांश विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के तीस फीसदी से अधिक पद खाली हैं. यहाँ तक कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और आई.आई.टी जैसे संस्थानों में ३० से ४० फीसदी पद खाली हैं.
इसी तरह ज्यादातर विश्वविद्यालयों/संस्थानों की प्राथमिकता मौलिक शोध नहीं बल्कि अध्यापन (टीचिंग) है. यह भी शैक्षिक नीतियों का नतीजा है क्योंकि सरकार ने अध्यापन और शोध को एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह देखने के बजाय अधिकांश कालेजों/विश्वविद्यालयों को अध्यापन संस्थान और उनके समानांतर मौलिक शोध के लिए अभिजात्य संस्थानों को खड़ा किया जहाँ अध्यापन नहीं होता है.

अध्यापन और शोध को कृत्रिम तरीके से एक-दूसरे से काट देने का नतीजा यह हुआ है कि अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थान न खुदा ही मिला और न विसाल-ए-सनम की तर्ज पर न अध्यापन में बेहतर कर पा रहे हैं और न ही शोध में कोई कमाल दिखा पा रहे हैं. जाहिर है कि मौजूदा स्थिति में अधिकांश शिक्षा संस्थान अंतर्राष्ट्रीय छात्र या अध्यापक आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं. 

नतीजा सबके सामने हैं. मानिए या नहीं लेकिन उच्च शिक्षा या कहिए कि पूरी शिक्षा जिस दुष्चक्र में फंस गई है, वह एक राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति है. इसे अनदेखा करने का मतलब देश के भविष्य के साथ धोखा करना है. इसकी कीमत युवा पीढ़ी के साथ देश को भी चुकानी पड़ेगी. 

(इस लेख का संक्षिप्त और सम्पादित अंश 'राजस्थान पत्रिका' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 17 सितम्बर'13 के अंक में प्रकाशित)                                            

शनिवार, फ़रवरी 23, 2013

चिदंबरम की प्राथमिकता सूची में कहाँ है शिक्षा?

शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण की देश को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है

वित्त मंत्री पी. चिदंबरम इसबार जब आम बजट पेश करने को खड़े होंगे तो उनके मन में क्या चल रहा होगा? अगर उनके हालिया बयानों को ध्यान में रखें तो उनकी सबसे बड़ी चिंता राजकोषीय घाटे को कम करने और अर्थव्यवस्था की गिरती वृद्धि दर को बढ़ाने की होगी. उनपर आगामी चुनावों के मद्देनजर एक लोकलुभावन बजट पेश करने का दबाव भी होगा.
वे बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को लुभाने के उपाय भी सोच रहे होंगे. उनकी निगाह शेयर बाजार पर भी होगी. लेकिन इन सबके बीच उनकी प्राथमिकताओं की सूची में शिक्षा का मुद्दा किस पायदान पर होगा? क्या शिक्षा का सवाल उनकी चिंताओं में होगा?
इस सवाल का उत्तर तो बजट में ही मिलेगा लेकिन उनके हालिया बयानों, साक्षात्कारों और भाषणों पर गौर करें तो लगता नहीं है कि बजट बनाते हुए वे शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने और इसके जरिये उसके समतामूलक विस्तार और उसकी गुणवत्ता को बेहतर बनाने जैसे मुद्दे उनके एजेंडे पर प्राथमिकता में हैं.

ऐसा नहीं है कि चिदंबरम शिक्षा के महत्व को नहीं जानते हैं. आज भारत जनसांख्यकीय लाभांश की जिस बेहद अनुकूल लेकिन नाजुक स्थिति में खड़ा है, उसमें शिक्षा और स्वास्थ्य में अधिक से अधिक निवेश की जरूरत और उसके महत्व से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है.

उल्लेखनीय है कि भारत की जनसँख्या में इस समय लगभग ५० फीसदी आबादी २५ वर्ष से कम की उम्र की है. भारत आज दुनिया के चुनिन्दा सबसे जवान देशों में से एक है. जनसांख्यकीय तौर पर यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें कोई देश अगर अपनी युवा आबादी की शिक्षा में अपेक्षित निवेश करे तो वह आर्थिक-सामाजिक विकास के मामले में तेजी से छलांग लगा सकता है.
दुनिया के विकसित देशों का इतिहास इसका सबूत है. लेकिन अगर शिक्षा और स्वास्थ्य खासकर शिक्षा में प्राथमिकता के आधार अपेक्षित निवेश नहीं किया गया तो जनसांख्यकीय लाभांश की यह स्थिति न सिर्फ व्यर्थ चली जाती है बल्कि उसके जनसांख्यकीय आपदा में बदलने के खतरे पैदा हो जाते हैं.
भारत भी इसका अपवाद नहीं है. देश में शिक्षा और स्वास्थ्य की अनदेखी, उसके निजीकरण-व्यवसायीकरण और रोजगार के घटते अवसरों के बीच पिछले कुछ वर्षों में युवाओं की बढ़ती बेचैनी को देखते हुए यह आशंका बढ़ती जा रही है कि भारत जनसांख्यकीय लाभांश को गंवाने की ओर बढ़ रहा है.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में एक के बाद दूसरी सरकार ने शिक्षा के विस्तार, उसे समावेशी बनाने और उसमें गुणवत्ता सुनिश्चित करने के बजाय उसे बाजार के हवाले करने पर ज्यादा जोर दिया है.

इसका नतीजा यह हुआ है कि पिछले डेढ़ दशक में शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्र और राज्य सरकारों के पीछे हटने से जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका घटती गई है, वहीँ शिक्षा के समावेशी चरित्र और उसकी गुणवत्ता की कीमत पर बाजार और निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ती गई है. उदाहरण के लिए ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (२००७-१२) के दौरान उच्च शिक्षा के विस्तार में सबसे बड़ी भूमिका निजी क्षेत्र की रही.
याद रहे कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना को खुद प्रधानमंत्री ने शिक्षा योजना घोषित किया था लेकिन २००६-०७ से २०११-१२ के बीच उच्च शिक्षा में पंजीकरण में ५३.११ लाख की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई लेकिन इसमें केन्द्र सरकार का हिस्सा मात्र २.५३ लाख और राज्य सरकारों का हिस्सा २३.७२ लाख रहा जबकि निजी क्षेत्र में इन दोनों से ज्यादा २६.८६ लाख पंजीकरण हुए.
हैरानी की बात नहीं है कि ग्यारहवीं योजना के आखिरी वर्ष आते-आते उच्च शिक्षा के क्षेत्र में छात्रों के कुल पंजीकरण में निजी क्षेत्र का हिस्सा बढ़कर ५८.९ फीसदी हो गया है. इसकी तुलना में उच्च शिक्षा में पंजीकरण के लिहाज से केन्द्र का हिस्सा मात्र २.६ फीसदी और राज्य सरकारों का हिस्सा ३८.५ प्रतिशत रह गया है.

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की बढ़ती भागीदारी का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि ग्यारहवीं योजना के दौरान देश में निजी क्षेत्र ने ९८ विश्वविद्यालय, १७ डीम्ड विश्वविद्यालय, ७८१८ कालेज और ३५८१ डिप्लोमा संस्थान खोले. हाल ही में कर्नाटक विधानसभा के एक झटके में निजी क्षेत्र में तेरह नए विश्वविद्यालयों को खोलने की मंजूरी देने वाला विधेयक पारित किया है.

लेकिन प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से घुसपैठ कर रहा निजी क्षेत्र किसी दयानतदारी के भाव से नहीं बल्कि शिक्षा के तेजी से बढ़ते बाजार को कब्जाने और उससे अधिक से अधिक मुनाफा बनाने के इरादे से आ रहा है.
हालाँकि शिक्षा क्षेत्र में मुनाफा कमाने यानी शैक्षिक संस्थान से हुई कमाई को संस्थान से बाहर ले जाने की इजाजत नहीं है लेकिन किसी से छुपा नहीं है कि यह नियम सिर्फ कागजों में है और प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में घुसे भांति-भांति के कारोबारी इसे धता बताते हुए जमकर मुनाफा बना रहे हैं.
इस मुनाफे के लालच में ही छोटे-बड़े कारोबारियों से लेकर राजनेता, पूर्व नौकरशाह, प्रापर्टी डीलर, ठेकेदार और कोचिंग इंस्टीच्यूट चलानेवाले शिक्षा और छात्रों की कीमत पर मोटी कमाई कर रहे हैं.  
लेकिन शिक्षा के इस बढ़ते बाजार पर अब बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट समूहों की नजर लगी हुई है. औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन – एसोचैम के मुताबिक, भारत में अभी शिक्षा का बाजार लगभग २५ अरब डालर (१३७५ अरब रूपये) का है जो २०१५ तक बढ़कर लगभग ५० अरब डालर (२७५० अरब रूपये) का हो जाने का अनुमान है.

यही नहीं, शिक्षा को एक मंदीमुक्त कारोबार माना जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि कारपोरेट समूह इसमें घुसने के लिए बेचैन हैं और वे यू.पी.ए सरकार पर इसे पूरी तरह से खोलने यानी मुनाफा कमाने और उसे की इजाजत देने की मांग कर रहे हैं.

ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार कारपोरेट समूहों को यह इजाजत देने का मन बना चुकी है. बारहवीं पंचवर्षीय योजना (२०१२-१७) के दस्तावेज में इसकी वकालत की गई है. इसलिए आशंका यह है कि राजकोषीय घाटा कम करने की आड़ में वित्त मंत्री न सिर्फ शिक्षा के बजट में अपेक्षित बढ़ोत्तरी न करें बल्कि संभव है कि उसकी भरपाई के नामपर शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी निजी पूंजी को बढ़ावा देने की कोशिश भी करें.
यही नहीं, अगर वे शिक्षा के बजट आवंटन में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी नहीं करते हैं तो परोक्ष रूप से यह शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण के लिए रास्ता खोलने की तरह ही होगा क्योंकि शिक्षा में सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार के अभाव का सबसे अधिक फायदा निजी क्षेत्र ही उठा रहा है.
लेकिन निजी क्षेत्र ने शिक्षा में समता और गुणवत्ता की कीमत पर जिस तरह से उसे दुधारू गाय की तरह से दोनों हाथों से दुहना शुरू कर दिया है, उसके कारण भारत जनसांख्यकीय लाभांश की स्थिति गंवाता जा रहा है. देर-सबेर देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में २२ फरवरी को प्रकाशित टिप्पणी)        

रविवार, अगस्त 19, 2012

शिक्षा के बाजार पर कार्पोरेट की नजर

निजीकरण और व्यवसायीकरण के जरिये शिक्षा को बड़े कारपोरेट समूहों के हवाले करने की तैयारी 
शिक्षा का बाजारीकरण: दूसरी किस्त 
यह एक बहुत सोची-समझी राजनीति के तहत हो रहा था. निजी शैक्षिक संस्थानों के फलने-फूलने के लिए यह जरूरी था कि न सिर्फ सरकारी संस्थानों को बर्बाद किया जाये, उन्हें बदनाम किया जाये बल्कि उनकी फीसों को भी बढ़ाया जाए ताकि निजी शैक्षिक संस्थानों को उनसे मुकाबला करने में आसानी हो.
हैरानी की बात नहीं है कि ९० के दशक में सरकारी स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में फीस बढ़ाने के लिए कई सरकारी समितियां जैसे जस्टिस पुनैय्या समिति, मह्मुदुर्रहमान समिति, बिडला-अम्बानी समिति आदि गठित की गईं और फीस बढ़ाई गई. यह वही दौर था जब उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों से फायदा उठानेवाला एक नव दौलतिया वर्ग पैदा हो रहा था और जो निजीकरण और बाजार का सबसे बड़ा पैरोकार बनकर उभर रहा था.
दूसरी ओर, देशी-विदेशी पूंजीपतियों और कारपोरेट का एक बड़ा वर्ग शिक्षा में एक बड़ा बाजार और भारी मुनाफे की संभावनाएं देखने लगे थे. उनकी ओर से इस क्षेत्र को बड़ी निजी पूंजी के लिए खोलने की मांग उठने लगी थी. इसी दौरान एन.डी.ए सरकार ने शिक्षा के बारे में आगे का रोडमैप तैयार करने के लिए बिडला-अम्बानी समिति का गठन किया.

इस समिति ने शिक्षा में निजी क्षेत्र के अलावा पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देने की वकालत की और इसके साथ ही शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया ने रफ़्तार पकड़ ली. इसी दौरान देश भर में केन्द्र और राज्य सरकारों ने बड़े पैमाने पर निजी इंजीनियरिंग, मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल संस्थानों के अलावा निजी विश्वविद्यालयों को बिना किसी जांच-पड़ताल और देखरेख के अनुमति देना शुरू कर दिया.

हालत यह हो गई कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में सिर्फ कुछ घंटों में राज्य विधानसभा ने एक साथ २०० निजी विश्वविद्यालय खोलने की अनुमति दे दी. इसमें से अधिकांश के पास अपनी जमीन या बिल्डिंगें भी नहीं थीं और कुछ सिर्फ दो-चार कमरों तक सिमटे हुए थे. लेकिन इस मामले में छत्तीसगढ़ अकेला नहीं था. यहाँ तो हर राज्य में ‘रामनाम की लूट मची थी, लूट सके तो लूट’ वाली तर्ज पर शैक्षणिक संस्थानों की लूट मची हुई थी.
नतीजा, बिना जरूरी सुविधाओं, शिक्षकों, लैब-लाइब्रेरी और क्लासरूम के इंजीनियरिंग कालेज से लेकर विश्वविद्यालय तक खुल गए और छात्रों/अभिभावकों को फंसाकर लूटने में लग गए. उनको फलने-फूलने में इसलिए भी मदद मिली कि सरकारी संस्थान कम थे, उनमें सीटों की संख्या कम थी और छात्र ज्यादा थे. यह स्थिति इसलिए पैदा हुई थी कि ९० के दशक में सरकार ने आर्थिक संकट का बहाना बनाकर नए विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान नहीं खोले.
जाहिर है कि इसका सबसे अधिक फायदा शिक्षा के व्यापारियों ने उठाया. लेकिन शिक्षा के निजीकरण के पहले दौर में अपेक्षाकृत छोटे-मंझोले व्यापारी-ठेकेदारों ने पूंजी लगाईं लेकिन अब उसपर बड़े कारपोरेट समूहों और विदेशी शैक्षणिक संस्थानों की निगाहें लगी हुई हैं.

औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन – एसोचैम के मुताबिक, भारत में अभी शिक्षा का कुल बाजार लगभग २५ अरब डालर (१३७५ अरब रूपये) का है जो २०१५ तक बढ़कर लगभग ५० अरब डालर (२७५० अरब रूपये) का हो जाने का अनुमान है. यही नहीं, शिक्षा को एक मंदीमुक्त कारोबार माना जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि कारपोरेट समूहों की इस ओर ललचाई निगाहें लगी हुई हैं. वे सरकार पर इसे पूरी तरह से खोलने यानी मुनाफा बाहर ले जाने की मांग कर रहे हैं.

केन्द्र सरकार भी उन्हें पूरी शह दे रही है. योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया का प्रस्ताव है कि शिक्षा के क्षेत्र में प्रतियोगिता बढ़नी चाहिए. निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच प्रतियोगिता को बढ़ाने के लिए वे वाउचर व्यवस्था शुरू करने की वकालत कर रहे हैं. इसके तहत हर छात्र को उसकी फीस का पैसा सरकार वाउचर के रूप में उसे दे देगी और वह छात्र/छात्रा जिस भी संस्थान में दाखिला लेगा, उसे सरकार उस वाउचर का पैसा देगी.
अहलुवालिया के मुताबिक, अभी सरकार छात्रों/शिक्षा पर कोई ३६ हजार करोड़ रूपये खर्च कर रही है, इसे सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों को देने के बजाय वह सीधे छात्रों को दे देगी और छात्रों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए निजी और सरकारी संस्थानों को प्रतियोगिता करनी पड़ेगी.
यह साफ़ तौर पर चोर दरवाजे से निजीकरण और व्यवसायीकरण का प्रस्ताव है. सच यह है कि सरकारी अंकुश में बंधे सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों को निजी शिक्षा संस्थानों से प्रतियोगिता करने के लिए न तो संसाधन दिए जाएंगे और न ही निर्णय लेने में वह स्वायतत्ता.

यही नहीं, सारे नियम और अंकुश सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों पर होंगे और प्राइवेट संस्थानों को हर तीन-तिकडम की छूट होगी. दोनों के बीच प्रतियोगिता संभव ही नहीं है. रही-सही कसर विदेशी विश्वविद्यालयों के आने के बाद पूरी हो जाएगी. लेकिन सरकार प्रतियोगिता चाहती भी कहाँ है? वह तो निजीकरण और व्यवसायीकरण के जरिये शिक्षा को बड़े कारपोरेट समूहों के हवाले करने की ओर बढ़ रही है.

लेकिन इसका नतीजा क्या हो रहा है? शिक्षा दिन पर दिन महंगी और गरीबों की पहुँच से बाहर होती जा रही है. यहाँ तक कि आम मध्यवर्गीय परिवारों में भी बच्चों की पढाई खासकर उच्च शिक्षा के लिए कर्ज लेने की नौबत आ गई है. उन्हें अपनी सारी जमा-पूंजी बच्चों की शिक्षा पर खर्च करनी पड़ रही है. परिवारों के बजट पर दबाव बढ़ रहा है.

प्रतिभाशाली लेकिन गरीब छात्र/छात्राओं को अच्छे शिक्षा संस्थानों में दाखिला लेना मुश्किल होने लगा है. यही नहीं, शिक्षा की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है. प्रोफेशनल कोर्सेज की मांग बढ़ रही है और पारंपरिक विज्ञान और मानविकी का अध्ययन घट रहा है.

शनिवार, अगस्त 18, 2012

आर्थिक मंदी के बावजूद शिक्षा की खरीद-फरोख्त का धंधा जोरों पर है

शिक्षा का निजीकरण कोई दुर्घटना नहीं बल्कि सोची-समझी नीतियों और राजनीति का नतीजा है

शिक्षा का बाजारीकरण: पहली किस्त  

अगर आपको शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के वास्तविक मायने समझने हैं तो आप देश की राजधानी दिल्ली से सड़क के रास्ते आगरा की ओर या हरिद्वार या मेरठ या मुरादाबाद या जयपुर या चंडीगढ़ की ओर चलना शुरू कीजिए. सड़क के दोनों ओर आपको प्राइवेट इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट, बी.एड कालेजों से लेकर निजी विश्वविद्यालयों की अंतहीन कतार दिखाई देगी.
शहर के बाहर निकलते ही सड़क के किनारे और खेतों के बीच इनकी बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें और लुभाते बिलबोर्ड शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के चमकदार विज्ञापनों की तरह दिखते हैं. लेकिन यह परिघटना सिर्फ दिल्ली और उसके आसपास के शहरों तक सीमित नहीं है.
सच पूछिए तो पिछले दस सालों में देश के सभी राज्यों में रीयल इस्टेट के बाद सबसे फल-फूल रहा धंधा शिक्षा का ही है. इसका सबूत यह है कि अपने शहरों से छपनेवाले अखबारों के विज्ञापनों पर गौर कीजिए, आप पायेंगे कि उनमें से ३५ से ४० फीसदी से अधिक रंगीन विज्ञापन इन्हीं निजी शैक्षणिक संस्थानों के विभिन्न फैंसी कोर्सेज के हैं.

एक मोटे अनुमान के मुताबिक, अकेले दिल्ली से छपनेवाले अख़बारों/पत्रिकाओं को इन निजी शैक्षणिक संस्थानों और कोचिंग संस्थाओं से हर साह औसतन ६०० करोड़ रूपये का विज्ञापन मिल रहा है. रीयल इस्टेट के बाद सबसे अधिक विज्ञापन निजी शैक्षणिक संस्थान ही दे रहे हैं. इसे अनुमान लगाया जा सकता है कि शिक्षा निजीकरण और व्यवसायीकरण की जड़ें कितनी गहरी हो चुकी हैं.    

दरअसल, दशकों के संघर्ष के बाद दो साल पहले लागू हुए शिक्षा के अधिकार के कानून के बावजूद शिक्षा का निजीकरण और व्यवसायीकरण ही शिक्षा की असली सच्चाई है. इसपर पर्दा डालना मुश्किल है. वैसे भारतीय राज्य ने शिक्षा को कभी भी राज्य की सार्वजनिक जिम्मेदारी नहीं माना और तमाम वायदों और घोषणाओं के बावजूद देश में दोहरी शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा दिया गया.
यही नहीं, समाजवाद के ढकोसले के पीछे साजिशाना तरीके से सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त किया गया और उसकी कब्र पर निजी और मुनाफाखोर शिक्षा व्यवस्था करने फलने-फूलने का मौका दिया गया.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण की परिघटना कोई ऐसी दुर्घटना नहीं है जो अनजाने में या किसी लापरवाही के कारण हो गई है. तथ्य यह है कि शिक्षा का निजीकरण एक बहुत सोची-समझी नीति और राजनीति का नतीजा है. यह राजनीति देश के एक बड़े हिस्से खासकर गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने की थी.

इसके लिए जरूरी था कि दोहरी शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा दिया जाये जिसमें एक ओर कथित पब्लिक स्कूलों की अभिजात्य शिक्षा व्यवस्था थी और दूसरी ओर, बुनियादी सुविधाओं के लिए भी तरसती सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था थी.

जाहिर है कि अभिजात्य शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य देश के शासक वर्गों के लिए राज व्यवस्था को संभालनेवाले अफसर, प्रबंधक और दूसरे प्रोफेशनल पैदा करना था जबकि सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का मकसद क्लर्क और प्रशिक्षित श्रमिक पैदा करना था.
यह सच है कि शिक्षा में यह वर्गीय विभाजन आज़ादी के पहले से ही मौजूद था लेकिन इसके साथ ही, यह भी उतना ही बड़ा सच है कि आज़ाद भारत की सरकारों ने भी उन्हीं ब्रिटिशकालीन औपनिवेशिक नीतियों को आगे बढ़ाया जिसके खिलाफ आज़ादी की लड़ाई चली थी.
हालाँकि आज़ादी के बाद शुरूआती दशकों में शासक वर्गों की ओर से समतापूर्ण समाज बनाने में शिक्षा को बदलाव का यंत्र बनाने की लच्छेदार बातें भी होतीं रहीं लेकिन वास्तविकता में दोहरी शिक्षा प्रणाली को ही मजबूत किया गया.
इसके बावजूद आज़ादी के बाद शुरूआती दशकों में शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण को उतना खुलकर बढ़ावा नहीं दिया गया जितना ८० के दशक के मध्य खासकर नई शिक्षा नीति के एलान के बाद से दिया गया.

असल में, आज़ादी के बाद के शुरूआती दशकों में एक तो आज़ादी की लड़ाई और उसके बड़े सपनों और आकांक्षाओं का असर था और दूसरे, शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के लिए उतना बड़ा बाजार नहीं तैयार हुआ था जितना ८० के दशक बाद सामने आया है. इसके अलावा एक और बड़ा कारण यह है कि आज़ादी के बाद ७० और कुछ हद तक ८० के दशक तक छात्र-युवा आंदोलन बहुत मजबूत और सक्रिय था जिसने शिक्षा के निजीकरण के प्रयासों को लगातार चुनौती दी.

लेकिन ८० के दशक के मध्य में राजीव गाँधी सरकार के नेतृत्व में आई नई शिक्षा नीति ने शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के रास्ते की सारी रुकावटों को हटा दिया और उसे खुलकर प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया. ९० के दशक में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की शुरुआत ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी. सरकारों ने साफ़-साफ़ कहना शुरू कर दिया कि शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है.
हालाँकि तथ्य के बतौर इसमें कोई नई बात नहीं थी लेकिन शासक वर्गों की ओर से इससे पहले इतनी स्पष्टता से अपनी जिम्मेदारी से कभी हाथ नहीं झाडा गया था. यह वही दौर था जब आर्थिक संकट का बहाना बनाकर भारतीय राज्य अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से भाग रहा था और अर्थव्यवस्था के साथ-साथ शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक को बाजार के हवाले करने को एकमात्र विकल्प बता रहा था.
आश्चर्य नहीं कि इसी दौर में ‘इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है’ (देयर इज नो आल्टरनेटिव-टीना फैक्टर) के तर्क के साथ नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी ने शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण को जोरशोर से आगे बढ़ाना शुरू कर दिया. इसके लिए सार्वजनिक शिक्षा की बदहाल स्थिति को भी तर्क के बतौर इस्तेमाल किया गया जबकि उनकी बदहाली के लिए सबसे ज्यादा सरकारें ही जिम्मेदार थीं.

लेकिन कहा गया कि बाजार ही बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे सकता है क्योंकि सरकार शिक्षा संस्थानों को चलाने में अक्षम है, उसके पास संसाधनों की भारी कमी है, शैक्षिक संस्थानों में बहुत ज्यादा राजनीति है, अनुशासनहीनता है, सरकारी स्कूलों/कालेजों/विश्वविद्यालयों के शिक्षक पढाते नहीं हैं और इससे सबसे निपट पाना सरकारों के वश की बात नहीं है.

विश्व बैंक और मुद्रा कोष की अगुवाई में निजीकरण और व्यवसायीकरण के समर्थकों ने यह भी तर्क दिया कि सरकारी स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की तुलना में निजी शैक्षिक संस्थानों में ज्यादा बेहतर पढ़ाई होती है, वे फीस अधिक लेते हैं लेकिन छात्रों/अभिभावकों के प्रति जिम्मेदार होते हैं और यह भी कि लोग खुद ही निजी स्कूलों को पसंद कर रहे और उसमें अपने बच्चों को भेज रहे हैं.
आश्चर्य नहीं कि एक ओर निजी शैक्षिक संस्थानों के पक्ष में तर्क गढे जा रहे थे और दूसरी ओर, सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों के बजट में कटौती या अपेक्षित वृद्धि नहीं की जा रही थी. इसके अलावा आर्थिक संकट के नामपर सरकारी शैक्षिक संस्थानों की फ़ीस बढाई जा रही थी.
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