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शनिवार, मार्च 03, 2012

तेल के लिए अंधा हो चुका है अमेरिका

अमेरिकी विदेश और रक्षा नीति के केन्द्र में है तेल 

ईरान एक बार फिर अमेरिकी-इजरायली निशाने पर है. उसे घेरने की कोशिशें तेज हो गईं हैं. ईरान पर आसन्न इजरायली हमले की चर्चाएँ जोर पकड़ने लगी हैं. तनाव बढ़ता जा रहा है. युद्ध के हालात बनने लगे हैं. लेकिन इसमें कोई नई बात नहीं है.

ईरान आज से नहीं बल्कि पिछले कई दशकों से अमेरिकी-इजरायली गठबंधन के आँखों की किरकिरी बना हुआ है. इस चिढ़ की सबसे बड़ी वजह ईरान में १९७९ की वह इस्लामी क्रांति है जिसने अमेरिका समर्थक शाह मोहम्मद रजा पहलवी की हुकूमत को उखाड़ फेंका था. कहने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका इसे कभी बर्दाश्त नहीं कर पाया.

इसके बाद से अमेरिका, इजरायल और पश्चिम एशिया की अपनी अन्य कठपुतली हुकूमतों की मदद से ईरान में तख्तापलट की कोशिश में जुटा हुआ है. वैसे कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि ईरान में अमेरिकी घुसपैठ उससे भी पहले से है.

माना जाता है कि ईरान में अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सी.आई.ए ने १९५३ में प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादिग की चुनी हुई सरकार के तख्तापलट में सबसे अहम भूमिका निभाई थी. अधिकांश ईरानी मानते हैं कि अमेरिका ने तब से ही ईरान के खिलाफ कभी प्रत्यक्ष और कभी परोक्ष युद्ध छेड़ा हुआ है.

लेकिन मोसादिग का कसूर क्या था? अमेरिका की निगाह में उनका सबसे बड़ा अपराध यह था कि उनके नेतृत्व में ही ईरान ने १९५१ में तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया था. असल में, ईरान में अमेरिकी दिलचस्पी की सबसे बड़ी वजह यह तेल ही है. इस तेल पर कब्जे और उसके उत्पादन-वितरण को नियंत्रित करने के लिए अमेरिका वहां अपनी कठपुतली सरकार चाहता रहा है.

इसके लिए ही उसने ब्रिटेन की मदद से मोसादिग की सरकार पलटी और शाह रजा पहलवी की तानाशाह हुकूमत को खुला समर्थन दिया. इससे ईरानी तेल उद्योग पर अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी कंपनियों का फिर से नियंत्रण कायम हो गया था.
लेकिन ईरानी जनता से इसे कभी स्वीकार नहीं किया. नतीजा, १९७९ की इस्लामी क्रांति जिसने एक बार फिर ईरानी तेल पर से अमेरिकी और पश्चिमी कंपनियों के कब्जे को खत्म कर दिया. यही कारण है कि अमेरिका १९७९ की इस्लामी क्रांति को कभी पचा नहीं पाया. वह उसे अस्थिर और पलटने की कोशिशों में लगातार जुटा रहा.

यह किसी से छुपा नहीं है कि अमेरिकी और पश्चिमी देशों के उकसावे पर ही इराक ने सितम्बर’१९८० में ईरान पर हमला बोल दिया था. आठ साल चले इस युद्ध में इराक को अमेरिकी और पश्चिमी देशों ने ही हथियारों की आपूर्ति की. इस युद्ध में लाखों ईरानी और इराकी सैनिक और नागरिक मारे गए.

यही नहीं, पिछले दो-ढाई दशकों में अमेरिकी अगुवाई में पश्चिमी देशों ने ईरान को विश्व समुदाय के बीच अलग-थलग करने, उसपर आर्थिक-राजनीतिक प्रतिबन्ध लगाने और उसके खिलाफ घोषित-अघोषित छाया युद्ध सा छेड़ रखा है. इसके लिए मुद्दा उसके परमाणु कार्यक्रम को बनाया गया है.

पिछले डेढ़-दो दशकों से अमेरिकी नेतृत्व में ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ एक जबरदस्त प्रचार अभियान चलाया जा रहा है. इस प्रचार अभियान की थीम जानी-पहचानी है कि ईरान परमाणु बम बनाने में लगा है और अगर उसे रोका नहीं गया तो बहुत जल्दी वह बम बनाने में कामयाब हो जाएगा. इससे इस इलाके की शांति-सुरक्षा और स्थायित्व को गंभीर खतरा पैदा हो जाएगा.

लेकिन यह सिर्फ बहाना है. असली निशाना ईरानी तेल है. इराक का उदाहरण अभी पुराना नहीं पड़ा है. इराक के मामले में भी बहाना उसके परमाणु और रासायनिक-जैविक हथियारों को ही बनाया गया था.
लेकिन सभी जानते हैं कि उसका असली मकसद इराकी तेल भंडारों पर कब्ज़ा जमाना था. तत्कालीन अमेरिकी रक्षा उपमंत्री और इराक पर हमले के प्रमुख रणनीतिकार पाल वुल्फोवित्ज़ के मुंह से एक बार गलती से निकल गया था कि ‘इराक तेल के समुद्र पर तैर’ रहा है.

असल में, यह अमेरिकी पी.आर मशीनरी की जबरदस्त खूबी है कि वह असली मकसद पर पर्दा डालने और नकली मकसद को उछालने और झूठ को सच बनाने में कामयाब रहती है. इसका एक और ताजा उदाहरण लीबिया है जहां अमेरिकी अगुवाई में नाटो देशों ने ‘आम नागरिकों के जनसंहार’ को रोकने के नाम पर सैन्य हमले को ‘मानवीय हस्तक्षेप’ बताते हुए जायज ठहराया.

लेकिन असली मकसद किसी से छुपा नहीं है. लीबिया लंबे समय से अमेरिकी निशाने पर था और कर्नल मुअम्मर गद्दाफी का तख्ता पलटने से लेकर हत्या करने की दर्जनों कोशिशें की गईं.

यही नहीं, नाटो ने सैन्य हस्तक्षेप से पहले लीबियाई विद्रोहियों से पश्चिमी तेल कंपनियों को प्राथमिकता देने का वायदा ले लिया था. यह भी किसी से छुपा नहीं है कि अमेरिका पश्चिम एशिया में इतनी दिलचस्पी क्यों लेता है? अगर पश्चिम एशिया में तेल का विशाल भण्डार नहीं होता तो शायद ही अमेरिका इधर झांकने आता.

दरअसल, उर्जा आधुनिक अर्थव्यवस्था की चालक शक्ति है. उर्जा के विभिन्न स्रोतों के विकास के बावजूद पेट्रोलियम अभी भी उर्जा का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत बना हुआ है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था तो तेल पर ही चलती है. वह तेल/गैस के बिना एक पल के लिए नहीं चल सकती है.

तेल पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था की निर्भरता का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्थाओं में वह एकमात्र अर्थव्यवस्था है जिसकी उर्जा जरूरतों का ४० फीसदी तेल से पूरा होता है. यही नहीं, वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था में अमेरिकी दबदबे और वर्चस्व के केन्द्र में सबसे महत्वपूर्ण कारण दुनिया के तेल भंडारों पर उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण है.
चौंकाने वाला तथ्य यह है कि दुनिया भर में अपने सैन्य वर्चस्व को बनाए रखने के लिए अकेले अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठान हर दिन जितना तेल जलाता है, वह स्वीडन जैसे बड़े देश की खपत के बराबर है.

असल में, कोई सौ साल पहले अमेरिका के आर्थिक विस्तार में इसकी बड़ी तेल कंपनियों जैसे जान डी राकफेलर की स्टैण्डर्ड आयल ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. जैसे-जैसे इन अमेरिकी तेल कंपनियों ने मेक्सिको से लेकर उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम एशिया और एशिया में उत्पादन, शोधन और वितरण में अपने कारोबार को फैलाना शुरू किया, इन तेल भंडारों की सुरक्षा और अमेरिकी कंपनियों के हितों की रक्षा अमेरिकी विदेश और रक्षा नीति के केन्द्र में आ गई.

खासकर दूसरे विश्वयुद्ध और उसके बाद शीत युद्ध के दौरान तो अमेरिकी विदेश और रक्षा नीति तेल के साथ ऐसी नाभिनालबद्ध हो गई कि उन्हें अलग करके देखना मुश्किल है. इस दौरान अमेरिका ने इन तेल भंडारों पर अपने कब्जे को हर हाल में बनाए रखने के लिए न सिर्फ विशाल सैन्य शक्ति खड़ी की बल्कि पश्चिम एशिया में अपने हस्तक्षेप को जायज ठहराने के लिए “मानवीय हस्तक्षेप”, “लोकतंत्र, स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की हिफाजत”, “आतंकवाद के खिलाफ युद्ध” और “बचाव में हमला” (प्री-एम्प्टीव स्ट्राइक) जैसे विवादस्पद सिद्धांत गढे.

लेकिन दूसरी ओर, तेल के लिए उसने राष्ट्रों की संप्रभुता को रौंदने और बर्बर तानाशाहियों को खुला समर्थन में कभी संकोच नहीं किया.

सच यह है कि अमेरिका ने ईरानी क्रांति के बाद जनवरी’१९८० में यह फैसला किया कि फारस की खाड़ी में अगर किसी भी देश ने तेल की आवाजाही को रोकने की कोशिश की तो अमेरिका उसके खिलाफ युद्ध छेड़ देगा. इसे अमेरिकी राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर के नाम पर कार्टर सिद्धांत के नाम से जाना जाता है.
यही नहीं, उसके बाद से एक के बाद दूसरे अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने इसी सिद्धांत का हवाला देकर पश्चिम एशिया में हमले और सैन्य हस्तक्षेप किये. १९८७ में रोनाल्ड रीगन ने इसी सिद्धांत के आधार पर खाड़ी में कुवैती तेल टैंकरों की सुरक्षा के नाम पर अमेरिकी नौसेना तैनात कर दी थी.

राष्ट्रपति जार्ज बुश सीनियर ने १९९०-९१ में इसी कार्टर डाक्ट्रिन के आधार पर पहले खाड़ी युद्ध की शुरुआत की थी जिसे जार्ज बुश जूनियर ने २००३ में इराक पर हमले के साथ समाप्त किया. इन उदाहरणों से साफ़ है कि अमेरिका तेल के लिए कहाँ तक जा सकता है?

कहने की जरूरत नहीं है कि पहले इराक और हाल में लीबिया में अमेरिका विरोधी सत्ताओं को निपटाने और वहां अपनी कठपुतली हुकूमतों को स्थापित करने के बाद पश्चिम एशिया में उसके निशाने पर अब सिर्फ ईरान और सीरिया बचे हैं. ईरान में उसकी दिलचस्पी इसलिए ज्यादा है कि पश्चिम एशिया में साउदी अरब के बाद तेल का सबसे बड़ा भण्डार वहीँ है.

ईरान के इस तेल भण्डार ने ही अमेरिका को बेचैन कर रखा है. लेकिन इसे कब्जाने के लिए वह ज्यादा जोखिम लेने को तैयार नहीं है. उसे अच्छी तरह मालूम है कि ईरान, इराक नहीं है और उसपर हमले का मतलब पश्चिम एशिया में भारी तबाही और तेल की बेकाबू कीमतों के कारण लड़खड़ाती वैश्विक अर्थव्यवस्था का बैठ जाना होगा.
यही कारण है कि उसने पश्चिम एशिया में अपने लठैत इजरायल को आगे करके ईरान को निशाना बनाने की व्यूह रचना शुरू कर दी है. लेकिन विडम्बना देखिए कि ईरान को जिस परमाणु बम को बनाने से रोकने के नाम पर अमेरिका ईरान को घेरने की तैयारी कर रहा है, उससे खुद ईरान के अंदर परमाणु बम बनाने की वकालत करने वाली लाबी मजबूत हुई है.

उसे यह कहने का मौका मिल गया है कि अगर ईरान के पास परमाणु बम होगा तो इजरायल या अमेरिका की हिम्मत नहीं होगी कि वे उसपर हमला कर सकें. साफ़ तौर पर यह अमेरिकी कूटनीति की विफलता है. लेकिन तेल के नशे में अंधे अमेरिका को इसकी परवाह कहाँ है? वैसे भी उसे कूटनीति से ज्यादा अपने हथियारों और बम वर्षकों पर भरोसा रहा है. तेल जो न करवाए.

(दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में ३ मार्च को प्रकाशित टिप्पणी..यह उसका असंपादित आलेख है..आपकी टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा)

सोमवार, अक्टूबर 24, 2011

गद्दाफी के साथ लीबिया में एक युग का अंत

लेकिन पश्चिमी देशों की वहां लोकतंत्र की स्थापना में नहीं बल्कि तेल की बंदरबांट में दिलचस्पी है


एक पूर्व निश्चित पटकथा के मुताबिक, नाटो समर्थित विद्रोहियों के हाथों कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के मारे जाने के साथ ही लीबिया में न सिर्फ गद्दाफी की ४२ वर्षों पुरानी हुकूमत बल्कि उसके साथ ही एक युग का अंत हो गया. आप चाहें तो कह सकते हैं कि अरब वसंत के साथ उठी जनविद्रोह की आंधी ने एक और तानाशाह और जनविरोधी हुकूमत की बलि ले ली.

लेकिन पूरा सच यह है कि लीबिया में जो कुछ हुआ और हो रहा है, उससे यह तय हो गया है कि अरब वसंत का नेतृत्व एक बार फिर अरब जनता के हाथ से निकलकर पश्चिमी आकाओं के हाथ में पहुँच चुका है.

आश्चर्य नहीं कि पश्चिमी देशों में इस कामयाबी पर खुशी के साथ-साथ निश्चिन्तता का भाव है. इसकी वजह साफ है. असल में, लीबिया में गद्दाफी हुकूमत के खिलाफ भडके स्वाभाविक जन उभार की वास्तविक कमान राष्ट्रीय अंतरिम परिषद के हाथों में नहीं बल्कि अमेरिका और नाटो देशों के हाथों में है.

सच पूछिए तो लगभग सभी व्यवहारिक अर्थों में नाटो ने इस विद्रोह को हड़प लिया है और लीबिया में इस तख्ता पलट की पटकथा वाशिंगटन-पेरिस और लन्दन में लिखी गई है. स्वाभाविक है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने गद्दाफी हुकूमत के अंत में ब्रिटेन की भूमिका पर खुशी और संतोष जाहिर किया है.

यह एक त्रासदी ही है कि जो अरब वसंत अरब जगत में पश्चिम के कठपुतली हुकूमतों और उनके लूट, अन्याय और दमन के खिलाफ शुरू हुआ था, वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सका और उन्हीं पश्चिमी देशों की गोद में जा बैठा है जिनका अतीत बहुत आश्वस्त नहीं करता है. इसमें कोई शक नहीं है कि इसके लिए काफी हद तक खुद गद्दाफी भी जिम्मेदार थे.

अगर उन्होंने अरब वसंत के साथ उठी बदलाव की आंधी के बीच दीवार पर लिखे साफ़ सन्देश को पढ़ा होता और लीबियाई जनता की भावनाओं और इच्छाओं का आदर किया होता तो शायद पश्चिमी देशों को इस तरह से नाक घुसाने की जगह नहीं मिलती.

इस मायने में गद्दाफी को अपनी राजनीतिक गलतियों और अति-आत्मविश्वास का खामियाजा भुगतना पड़ा है. वे यह समझ नहीं पाए कि न सिर्फ अरब जगत बल्कि लीबिया में भी समय बदल चुका है. यह जानते हुए भी कि लोग बदलाव चाहते हैं, गद्दाफी ने बदलाव को स्वीकार करने के बजाय ताकत के बल पर रोकने की कोशिश की और इसका फायदा उठाने में पश्चिमी देशों ने देरी नहीं की.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि गद्दाफी को बदलाव को रोकने की कीमत चुकानी पड़ी है. यह एक भ्रम है कि वे लीबिया में पश्चिमी देशों के साम्राज्यवादी घुसपैठ के खिलाफ लड़ रहे थे. खुद गद्दाफी ने इस लड़ाई को इसी रूप में पेश करने की कोशिश की लेकिन साफ है कि लीबियाई जनता के एक बड़े हिस्से ने इसे स्वीकार नहीं किया.

सच यह है कि वे अपनी तानाशाही को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे. लोगों के सामने यह सच्चाई उजागर हो चुकी थी. तथ्य यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों खासकर २००३ के बाद खुद गद्दाफी बहुत बदल चुके थे. पिछले साथ-आठ सालों में उनके पश्चिम विरोधी दिखावटी बडबोले बयानों को छोड़ दिया जाए तो व्यवहार में गद्दाफी ने पश्चिमी देशों के नजदीक आने की बहुत कोशिश की. इसके लिए उन्होंने न सिर्फ पश्चिमी देशों की बड़ी कंपनियों को लीबिया में निवेश और कारोबार का मौका दिया बल्कि आर्थिक सुधारों के नाम पर सरकारी कंपनियों के निजीकरण का अभियान चलाया.

हैरानी की बात नहीं है कि इस दौर में गद्दाफी की टोनी ब्लेयर, कोंडोलिजा राइस, गार्डन ब्राउन से लेकर बराक ओबामा, सिल्वियो बर्लुस्कोनी और जी-८ देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ मुस्कुराते हुए तस्वीरें दिखाई दीं. साफ़ था कि वे अरब जगत में पश्चिमी देशों की साम्राज्यवादी घुसपैठ और राष्ट्रीय संसाधनों पर कब्जे के खिलाफ आवाज़ उठानेवाले नेता के बजाय उनके साथ जोड़तोड़ और लेनदेन करनेवाले एक तानाशाह भर रह गए थे. सच पूछिए तो इस दौर में पश्चिमी देशों को भी उनसे कोई खास शिकायत नहीं रह गई थी.

आश्चर्य नहीं कि सिर्फ जनता की खपत के लिए गद्दाफी पर मानवाधिकार हनन के आरोप लगानेवाले पश्चिमी देशों को इस दौर में लीबिया को हथियार बेचने में कोई हिचक नहीं हुई. उदाहरण के लिए, पिछले साल ब्रिटेन ने लीबिया को ५.५ करोड़ डालर के हथियार बेचे थे. इसी तरह, बुश प्रशासन ने २००८ में लीबिया को ४.६ करोड़ डालर के हथियारों के निर्यात की इजाजत दी थी. बदले में, गद्दाफी ने भी बहुराष्ट्रीय पश्चिमी तेल कंपनियों- शेल और एक्सान को लीबिया में तेल निकलने के आकर्षक ठेके दिए. बुश प्रशासन को खुश करने के लिए अपने परमाणु कार्यक्रम को बंद करने का एलान कर दिया.

असल में, १९६९ में सत्ता में आने के बाद गद्दाफी के पहले पन्द्रह वर्ष एक हद तक अरब राष्ट्रवाद से प्रेरित और कुछ हद तक प्रगतिशील कार्यक्रमों को आगे बढ़ानेवाले थे. इस दौर में गद्दाफी ने पेट्रोलियम उद्योग के राष्ट्रीयकरण से होनेवाली आय की मदद से देश में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के साथ नागरिकों के सामाजिक सुरक्षा के इंतजाम किये. इससे लीबियाई जनता के जीवन स्तर में उल्लेखनीय सुधार आया. हैरानी की बात नहीं है कि मानवीय विकास के सूचकांक में आज लीबिया न सिर्फ समूचे अफ्रीका में पहले स्थान पर है बल्कि १७२ देशों की सूची में ५५वें स्थान पर है.

लेकिन १९८८ के बाद के गद्दाफी की सारी कोशिश किसी तरह सत्ता से चिपके रहने की हो गई. इसके लिए गद्दाफी ने एक ओर कट्टर इस्लाम समर्थक और पश्चिम विरोधी रेटार्रिक का सहारा लिया और दूसरी ओर, देश के अंदर विरोध की सभी आवाजों को निर्ममता से कुचल दिया. ऐसा नहीं है कि लीबियाई जनता ने गद्दाफी को मौके नहीं दिए. लेकिन गद्दाफी ने उन सभी मौकों को गवां दिया. असल में, गद्दाफी की सबसे बड़ी राजनीतिक भूल और ग़लतफ़हमी यह थी कि उन्हें लगने लगा था कि पश्चिमी देशों ने उन्हें स्वीकार कर लिया है.

लेकिन वे भूल गए कि जब तानाशाहों के दिन पूरे हो जाते हैं तो हवा का रुख देखकर पश्चिम को उन्हें कूड़े में फेंकने और नए घोड़ों पर दाँव लगाने में देर नहीं लगती है. मुबारक से लेकर गद्दाफी तक पश्चिमी देशों के दोहरे चरित्र की नई मिसालें हैं. भ्रम में मत रहिए, नाटो लीबिया में लोकतंत्र की स्थापना के लिए नहीं बल्कि गद्दाफी के बाद के लीबिया में अपने हितों की रक्षा के लिए लड़ रहा है.

फ्रेंच फाइटर जेट लीबिया में जनता की रक्षा के लिए नहीं बल्कि विद्रोही राष्ट्रीय अंतरिम परिषद के इस प्रस्ताव के बाद उड़ान भरने के लिए तैयार हुए थे कि गद्दाफी की विदाई के बाद देश के कुल तेल उत्पादन में से ३५ फीसदी फ़्रांस को मिलेगा. कहने की जरूरत नहीं है कि लीबिया के राष्ट्रीय संसाधनों खासकर तेल की बंदरबांट की यह शुरुआत भर है.

('नया इंडिया' में २४ अक्तूबर को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)