सोमवार, नवंबर 29, 2010

मीरवाइज़ पर हमला करनेवाले किसकी मदद कर रहे हैं?

भगवा गुंडों को देश नहीं सिर्फ अपने मुस्लिम विरोधी एजेंडे और वोटों की फ़िक्र है   

पिछले सप्ताह जब चंडीगढ़ में एक सेमिनार में बोलने आये हुर्रियत कांफ्रेंस के नरमपंथी धड़े के नेता मीरवाइज़ उमर फारुख के साथ हाथापाई और बदतमीजी की कोशिश हुई तो गुस्सा भी आया और चिंता भी हुई कि देशभक्ति के नाम पर भगवा गुंडागर्दी की यह संस्कृति कितनी तेजी से फ़ैल रही है. उस समय भी इच्छा हुई कि इस प्रवृत्ति पर एक तीखी टिप्पणी लिखी जाए लेकिन यह सोचकर कि इसे तूल देने की जरूरत नहीं है, टाल गया.

लेकिन मैं गलत था. इन घटनाओं को नजरंदाज करना ठीक नहीं है. चंडीगढ़ के बाद अब कोलकाता में भी रविवार को विरोध के नाम पर मीरवाइज़ के साथ एक बार फिर हाथापाई और बदतमीजी करने की कोशिश हुई है. मीरवाइज़ वहाँ एक सेमिनार में अपनी बात रखने गए थे. दोनों ही जगहों पर कथित विरोध की अगुवाई आर.एस.एस और भाजपा के कार्यकर्ताओं के साथ बजरंग दल के लफंगे कर रहे थे. हर बार की तरह इस बार भी पुलिस खड़ी तमाशा देखती रही.

जाहिर है कि इस तरह का विरोध और अपमान झेलनेवाले मीरवाइज़ कश्मीर के पहले नेता नहीं हैं. पिछले कुछ महीनों में ऐसी शर्मनाक घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. इससे पहले दो और अलगाववादी नेताओं, जम्मू-कश्मीर फ्रीडम पार्टी के नेता शब्बीर शाह और जे.के.एल.एफ के यासीन मलिक के साथ प्रेस कांफ्रेंस के दौरान जम्मू में हाथापाई हो चुकी है. यही नहीं, दिल्ली में भी एक सेमिनार में हुर्रियत के कट्टरपंथी धड़े के नेता सैय्यद अली शाह गिलानी और लेखिका अरुंधती राय को भी ऐसा ही विरोध झेलना पड़ा था.

अगर एक मिनट के लिए विरोध के तरीके को किनारे भी कर दिया जाए तो भी अहम सवाल है कि ये भगवाधारी देशभक्त इस तरह के विरोध से किसकी मदद कर रहे हैं? कश्मीर की स्थिति किसी से छिपी नहीं है. खासकर घाटी में बेहद गंभीर और चिंताजनक हालात हैं. घाटी में अलगाव निरंतर बढ़ता जा रहा है और भारत से आज़ादी की भावनाएं जोर पकड़ रही हैं. ऐसे में, हर अमनपसंद भारतीय जो कश्मीर से प्यार करता है, उसकी पहली प्राथमिकता कश्मीर के लोगों का दिल जीतने की होनी चाहिए.

यह इसलिए भी जरूरी है कि कश्मीर को साथ रखने का एक मतलब वहां की जमीन नहीं बल्कि लोगों को साथ रखना है. लोगों को साथ रखने का एक ही तरीका है कि वे अपने को हिन्दुस्तानी महसूस करें. वे यह महसूस करें कि किसी भी अन्य हिन्दुस्तानी की तरह वे भी पहले दर्जे के नागरिक हैं. उन्हें भी अपनी बात कहने, अपने सवाल उठाने, लोकतान्त्रिक आंदोलन करने और अपने अधिकार मांगने की पूरी आज़ादी है. यहां यह स्पष्ट करते चलना भी जरूरी है कि भारतीय संघ में कश्मीर की ऐतिहासिक कारणों से एक विशेष स्थिति है.

ऐसे में, अगर कोई सच्चा देशभक्त है और सचमुच, दिली तौर पर चाहता है कि कश्मीर भारत के साथ रहे तो उसे ऐसा माहौल बनाने में मदद करनी चाहिए जिसमें कश्मीर में स्थितियां सामान्य हो सकें. वहां के लोगों का दिल और दिमाग जितने के लिए बहुत जरूरी है कि उनकी हर बात चाहे वह कितनी भी कडवी, तीखी और उत्तेजित करनेवाली क्यों न हो, उसे पूरी गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ सुना जाए. यहां धैर्य और संयम बरतना बहुत जरूरी है.

असल में, कई बार लोगों की पीड़ा, शिकायत और गुस्से को धैर्य और पूरी संवेदना के साथ सुनना ही वह जरूरी माहौल तैयार करता है जिसमें गहरे घावों के भरने की शुरुआत होती है. आज कश्मीर में बातचीत और परस्पर विश्वास का माहौल बनाने के लिए भी यह जरूरी है कि कश्मीर के हर नेता की बात सुनी जाए, चाहे वह मीरवाइज़ हों या यासीन मलिक या शब्बीर शाह या फिर सैय्यद अली शाह गिलानी. इससे बेहतर कोई बात नहीं हो सकती है कि ये नेता देश के कोने-कोने में जाएं और अपनी बात करें.

अगर उनकी बात सुनी जायेगी तो कश्मीरियों को भी लग सकता है कि इस देश में उनकी बात सुनी जा रही है. यह देश उनका भी है और इसमें उनके सभी वास्तविक मुद्दों और चिन्ताओं को सुनने और उसका हाल ढूंढने की इच्छा है. इससे कश्मीर में हिन्दुस्तान को लेकर जो गलत-सही धारणाएं, भ्रांतियां और भावनाएं बनी हुई हैं, उन्हें दूर करने में मदद मिलेगी. सच तो यह है कि कश्मीर में हालात सुधारने की यह एक कारगर रणनीति यह हो सकती है कि अधिक से अधिक कश्मीरी लोगों, युवाओं, उनके नेताओं को देश भर में विश्वविद्यालयों, बार कौंसिलों, प्रेस कांफ्रेंसों, खुले और लोकतान्त्रिक मंचों पर बोलने और चर्चा के लिए आमंत्रित किया जाए.

लेकिन जो भगवाधारी गुंडे मीरवाइज़ जैसे नेताओं को बोलने नहीं दे रहे हैं, उनका अपमान कर रहे हैं, उनके साथ हाथापाई पर उतारू हैं और उन्हें जेल में डालने की मांग कर रहे हैं, वे वास्तव में, उनसे दुश्मन की तरह सुलूक कर रहे हैं और उन्हें देश से अलग होने के लिए उकसा रहे हैं. इन भगवा गुंडों के रूख से साफ है कि वे कश्मीरियों और उनके नेताओं को देश से अलग मान चुके हैं. वे नहीं चाहते हैं कि कश्मीर में हालात सुधरें. कहने की जरूरत नहीं है कि उनके निहित राजनीतिक स्वार्थ इसी में हैं कि कश्मीर में हालात और खराब हों. इसके लिए वे किसी हद तक जा सकते हैं और जा रहे हैं.

(पुनश्च: पहले यह तय किया था कि आज बिहार पर कुछ बातें करेंगे लेकिन मीरवाइज़ के साथ हो रहे इस व्यवहार ने मजबूर कर दिया कि पहले इसपर बात की जाए....बिहार पर फिर कभी...इस बीच, बिहार में नीतिश की आंधी से उठा गर्दो-गुबार भी बैठ जायेगा और लोगों को कुछ चीजें साफ दिखने लगेंगी...)

शनिवार, नवंबर 27, 2010

राजा ही नहीं, सुखराम और प्रमोद महाजन को भी याद कीजिये

उन कंपनियों  को भी मत बख्शिये जो आम उपभोक्ताओं और सरकारी खजाने की कीमत पर सुखराम से लेकर महाजनों और राजाओं की मदद से भारी मुनाफा कमा रही  हैं  


क्या आपको कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार में संचार मंत्री रहे पंडित सुखराम की याद है? वही सुखराम जिनके घर और बिस्तर से आज से कोई १५ साल पहले सी.बी.आई ने ३.६ करोड़ रूपये नकद बरामद किए थे. सी.बी.आई ने उनपर संचार मंत्रालय में घोटाले और आय से अधिक संपत्ति के मामलों में मुक़दमा दर्ज किया था जिसमें उन्हें एक साल की सजा भी हुई. कहा जाता है कि सुखराम के कार्यकाल में संचार मंत्रालय में भ्रष्टाचार, पक्षपात और अनियमितताएं अपने चरम पर थीं.

उस समय हर सौदे और लाइसेंस से लेकर छोटे से छोटे काम की दर तय थी. अनुमानों के मुताबिक, सुखराम के कार्यकाल के दौरान हुए सौदों और लाइसेंस के बंटवारों में कोई १५०० से २००० करोड़ रूपये घूस की रकम का लेनदेन हुआ था जो मंत्री और अफसरों से लेकर दलालों के बीच बंटा था.

आज यहां सुखराम को याद करने का उद्देश्य सिर्फ यह रेखांकित करना है कि संचार मंत्रालय में भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और घोटालों की कथाएं ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’ की तरह व्यापक, गहरी और दूर तक फैली हुई हैं. हालांकि संचार मंत्रालय में घोटालों और अनियमितताओं का इतिहास बहुत पुराना है लेकिन पिछले १८ वर्षों में जब से संचार मंत्रालय में उदारीकरण के नाम पर निजी देशी-विदेशी टेलीकाम कंपनियों को प्रवेश की इजाजत मिली है, भ्रष्टाचार और घोटालों की संख्या ही नहीं उनका आकार भी बहुत बढ़ गया है. यही नहीं, पिछले डेढ़ दशक में संचार मंत्रालय में हुए सभी बड़े सौदों और प्राइवेट टेलीकाम आपरेटरों को बंटे लाइसेंसों और स्पेक्ट्रम पर गंभीर सवाल और उंगलियां उठी हैं.

कहने का तात्पर्य यह कि आज १.७६ लाख करोड़ रूपये से अधिक के जिस २ जी घोटाले की इतनी चर्चा हो रही है, उसकी नींव ९० के दशक की शुरुआत में ही रख दी गई थी. असल में, आर्थिक उदारीकरण के दौरान जिस तरह से अर्थव्यवस्था के अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों की तरह टेलीकाम क्षेत्र को देशी-विदेशी निजी कंपनियों के लिए खोला गया, उस प्रक्रिया में ही भारी गडबडियां थीं. इस पूरी प्रक्रिया में टेलीकाम कंपनियों और उनके राजनीतिक और नौकरशाह आकाओं को अनुचित फायदा पहुंचने के लिए जान-बूझकर इतने छिद्र छोड़े गए कि सुखराम से लेकर ए. राजा तक और बड़े टेलीकाम आपरेटरों और एच.एफ.सी.एल से लेकर हालिया यूनिटेक और स्वान जैसी कंपनियों को मनमानी करने का लाइसेंस सा मिल गया.

हालांकि आज उस प्रसंग की बहुत चर्चा नहीं हो रही है लेकिन सच्चाई है कि संचार मंत्री के बतौर सुखराम ने जिस तरह से नियम-कानूनों और प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर मोबाइल और अन्य टेलीकाम सेवाएं शुरू करने के लिए लाइसेंस और स्पेक्ट्रम बांटे और खासकर अपने हिमाचली मित्र महेंद्र नाहटा की कंपनी एच.एफ.सी.एल पर कृपादृष्टि बरसाई, उसका मुकाबला सिर्फ ए. राजा के कार्यकाल से ही हो सकता है. लेकिन ऐसा नहीं है कि एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में टेलीकाम मंत्रालय में रामराज्य आ गया था बल्कि सच यह है कि सुखराम के ज़माने के घोटालों और अनियमितताओं को ठीक करने के नाम पर वाजपेयी सरकार ने भी आम उपभोक्ताओं और सरकारी खजाने की कीमत पर निजी टेलीकाम कंपनियों पर नजरे-इनायत बनाये रखी.

उल्लेखनीय है कि एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में ही उन निजी टेलीकाम कंपनियों को लाइसेंस फ़ीस से राजस्व साझेदारी- रेवेन्यू शेयरिंग व्यवस्था में शिफ्ट करने की इजाजत दी गई थी. हुआ यह था कि पहले इन कंपनियों ने ऊँची बोलियां लगाकर लाइसेंस और स्पेक्ट्रम हासिल कर लिए और बाद में सरकार पर दबाव बनाया कि उनके लिए इतनी ऊँची लाइसेंस फ़ीस दे पाना संभव नहीं है और घाटे के कारण उन्हें अपना कारोबार बंद करना पड़ेगा. संचार मंत्री प्रमोद महाजन और बाद में अरुण शौरी ने अत्यधिक उदारता और अतिरिक्त तत्परता दिखाते हुए निजी टेलीकाम कंपनियों को लाइसेंस फ़ीस के बजाय रेवेन्यू शेयरिंग में शिफ्ट होने की इजाजत दे दी.

जाहिर है कि इसके कारण सरकारी खजाने को सैकड़ों करोड़ रूपये का चूना लगा. यह पूरा फैसला इसलिए भी गलत था कि इन कंपनियों ने बोली प्रक्रिया में अनाप-शनाप और अत्यधिक ऊँची बोली लगाकर लाइसेंस और स्पेक्ट्रम हथिया लिए और बाद में अपने कांट्रेक्ट की शर्तों से पीछे हटकर उसे बदलवा लिया जबकि वे कंपनियां जिन्होंने बोली प्रक्रिया में कम लेकिन तार्किक बोली लगाई थी, वे लाइसेंस से वंचित हो गईं. एन.डी.ए सरकार के फैसले ने पूरी निविदा और बोली प्रक्रिया को ही अप्रासंगिक बना दिया. यही नहीं, तत्कालीन संचार मंत्री प्रमोद महाजन पर रिलायंस इन्फोकाम के प्रति कुछ ज्यादा ही उदारता दिखाने के भी आरोप लगे.

दरअसल, उत्तर उदारीकरण दौर में टेलीकाम जैसे दुधारू आर्थिक मंत्रालयों पर उनके मंत्रियों, बड़े अफसरों, रेग्युलेटर, देशी-विदेशी बड़ी टेलीकाम कंपनियों, पावर ब्रोकर्स और लाबीइंग कंपनियों का एक ऐसे गठजोड़ राज कर रहा है जो सारे नियम-कानूनों और प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर आम उपभोक्ताओं और सरकारी खजाने को लूट रहा है. लेकिन इस गठजोड़ की ताकत सिर्फ यही नहीं है कि वह नियम-कानूनों की को खुलेआम ठेंगा दिखता है बल्कि इसकी सबसे बड़ी ताकत यह है कि यह उदार और उद्योग अनुकूल ऐसी नीतियां और नियम बनवाने में कामयाब हो रहा है जिससे देशी-विदेशी छोटी-बड़ी टेलीकाम कंपनियों को आम उपभोक्ताओं और सरकारी खजाने की कीमत पर भारी मुनाफा बनाने का मौका मिल रहा है.

कहने को यह सब नियमाकूल है लेकिन सवाल यह है कि ये नियम कौन और किसके हित में बना रहा है? दोहराने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी टेलीकाम कंपनियां और उनके एजेंट ये नियम बनवा रहे हैं. इन टेलीकाम कंपनियों की संस्था- सेल्युलर आपरेटर्स असोसिएशन आफ इंडिया- सी.ओ.ए.आई की ताकत का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके सार्वजनिक क्षेत्र की दोनों टेलीकाम कंपनियों- एम.टी.एन.एल और बी.एस.एन.एल को पांच साल तक मोबाइल सेवा में प्रवेश करने से रोके रखा. इसका खामियाजा आम उपभोक्ताओं को किस तरह से उठाना पड़ा, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जैसे ही इन दोनों सरकारी कंपनियों को मोबाइल सेवा की इजाजत मिली, मोबाइल सेवा की दरें गिरने लगीं.

इन प्राइवेट कंपनियों की ताकत और सरकार पर प्रभाव का ही नतीजा है कि दोनों सरकारी टेलीकाम कंपनियों को एक सोची-समझी योजना के तहत धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है. एक और उदाहरण नंबर पोर्टेबिलिटी के फैसले को लंबे समय तक टालने में देखा जा सकता है. यही नहीं, देशी-विदेशी बड़ी टेलीकाम कंपनियां और उनकी सेवाओं से अधिकांश उपभोक्ताओं तंग और परेशान हैं लेकिन उनकी कहीं सुनवाई नहीं है. टेलीकाम मंत्रालय की तरह ट्राई उपभोक्ताओं के हितों के बजाय बड़ी कंपनियों के हितों का रक्षक बन चुका है. संचार मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री नहीं, कंपनियां और उनके राजनीतिक-व्यावसायिक-मीडिया एजेंट लाबीइंग की ताकत से करवा रहे हैं.

ऐसे में, टेलीकाम मंत्रालय में घोटाले नहीं तो क्या वहां सदाचार का रिंग बजेगी? यह ठीक है कि इस कारण ए. राजाओं, महाजनों, मारानों, सुखरामों का दोष कम नहीं हो जाता है. लेकिन उस व्यवस्था को भी बख्शना ठीक नहीं है जो सुखराम से लेकर ए. राजा जैसों को ही पैदा कर रही है. इस व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करना इसलिए भी जरूरी है कि सुखराम से लेकर ए. राजा तक राजनेता और अफसर तो पकड़ में आ भी जाते हैं लेकिन घोटालों की सबसे बड़ी लाभार्थी कंपनियां साफ बच निकलती हैं. एक बार फिर से राजा की बलि चढाकर कंपनियों को बचाने की मुहिम शुरू हो गई है और इसके साथ ही, एक नए घोटाले के आसार बनने लगे हैं.

(राष्ट्रीय सहारा के २७ नवम्बर'१० के अंक में हस्तक्षेप में प्रकाशित : http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=17 )

शुक्रवार, नवंबर 26, 2010

पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?

बिहार में नीतीश की जीत को जोरशोर से विकास की जीत बताया जा रहा है. क्या राजनेता, क्या मीडिया, क्या राजनीतिशास्त्री, क्या समाजशास्त्री और क्या अर्थशास्त्री- सभी एक सुर में बिहार में नीतीश के नेतृत्व में विकास और सुशासन की नई कहानी लिखे जाने का गाना गा रहे हैं. इस कोरस में कुछ बहुत बुनियादी बातें भुला दी गई हैं या उनपर बड़ी चालाकी से पर्दा डालने की कोशिश हो रही है.

सवाल है कि इस विकास और सुशासन की राजनीति क्या है? क्या विकास और सुशासन के नाम पर विकास पुरुष की राजनीति को नजरंदाज़ किया जा सकता है. क्या सांप्रदायिक और सामंती शक्तियों के साथ गलबहियां डाले नीतीश की राजनीति को सिर्फ इसलिए अनदेखा कर दिया जाये कि उन्होंने बिहार में सड़क-सुरक्षा और सुशासन दिया है? भाजपा के साथ खड़े नीतीश आखिर किस राजनीति को मजबूत कर रहे हैं?

 याद रहे  यह कथित विकास और सुशासन तो गुजरात में भी खूब हो रहा है और इसी आधार पर कार्पोरेट जगत से लेकर बहुतेरे स्वनामधन्य पत्रकारों को भी लगता है कि इस 'विकास और सुशासन' के सूत्रधार नरेन्द्र  मोदी को प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए. नीतीश ने मोदी को बिहार आकर प्रचार नहीं करने दिया लेकिन उनकी राजनीति परोक्ष रूप से मोदी और उनकी राजनीति को मजबूत कर रही है.

लेकिन हवा देखकर पीठ बदल लेनेवाले कुछ बुद्धिजीवियों को लगता है कि बिहार में भाजपा बदल गई है. क्या भाजपा सचमुच, बदल गई है? आखिर ये लोग किसे बेवकूफ बना रहे हैं? भाजपा जो थी, वही है और वही रहेगी.   

माफ़ कीजिये मैं इस कोरस में शामिल होने को तैयार नहीं हूँ. मैं नीतीश और उनके समर्थकों से जरूर पूछना चाहता हूँ कि पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?

(इस मुद्दे पर विस्तार से मेरी राय पढने के लिए इंतजार किये, अगले सोमवार तक... इस बीच, आपको जो भी सवाल या मुद्दे जरूरी लगते है, मुझे जरूर बताइए ताकि उनपर बात की जा सके...और हाँ, कल 'राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में २ जी पर अलग नजर... )      

गुरुवार, नवंबर 25, 2010

नीतीश के पास न विकास का वैकल्पिक माडल और न ही राजनीतिक साहस है

बिहारी अस्मिता के नाम पर अपने सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन के फाल्टलाइंस को ढंकना चाहते हैं नीतीश   

बिहार के मतदाताओं ने अपना बिल्कुल साफ फैसला सुना दिया है. उन्होंने मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के नेतृत्ववाले जे.डी(यू)-भाजपा गठबंधन को तीन-चौथाई से अधिक बहुमत के साथ दोबारा सत्ता सौंप दी है. बिहार में चार दशकों बाद किसी गठबंधन को इतना जबरदस्त जनादेश मिला है. इसमें कोई शक नहीं है कि यह एक सकारात्मक जनादेश है जो नीतिश कुमार के नेतृत्व को मिला है. निश्चय ही, इस निर्णायक जीत का पूरा श्रेय नीतिश कुमार के नेतृत्व को मिलना चाहिए जिन्होंने अपने राजनीतिक एजेंडे के हक में बिहार के मतदाताओं का भरोसा जीतने में कामयाबी हासिल की है.

लेकिन इससे कम महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि यह लालू प्रसाद यादव-राम विलास पासवान के नेतृत्ववाले आर.जे.डी-लोजपा की करारी हार भी है. यह कहने का उद्देश्य नीतिश कुमार से उनकी जीत का श्रेय लेना नहीं है लेकिन सच यह है कि यह नीतिश की जीत से ज्यादा लालू प्रसाद मार्का राजनीति की हार है. अगर सभी पार्टियों और गठबंधनों को मिले वोट प्रतिशत पर गौर करें तो उससे साफ है कि जहां सत्तारूढ़ गठबंधन को लगभग ३९ प्रतिशत के आसपास वोट मिले हैं जो पिछले लोकसभा चुनावों से भी एक प्रतिशत अधिक हैं.

जबकि लालू प्रसाद के नेतृत्ववाले गठबंधन को मात्र २५ प्रतिशत के करीब वोट मिले हैं जो लोकसभा चुनावों की तुलना में लगभग दो प्रतिशत कम हैं. लेकिन उससे भी अधिक चौंकानेवाली बात यह है कि वोट प्रतिशत के मामले में सत्तारूढ़ गठबंधन के बाद दूसरे स्थान पर आर.जे.डी-लोजपा गठबंधन नहीं बल्कि अन्य छोटी पार्टियां और निर्दलीय हैं जिन्हें लगभग २७ प्रतिशत वोट मिले हैं.

इसका अर्थ यह हुआ कि बिहार के जिन मतदाताओं में नीतिश से कोई नाराजगी थी, उन्होंने भी लालू प्रसाद और राम विलास पासवान को वोट देना पसंद नहीं किया. इस मायने में यह जनादेश इस बात का सबूत है कि बिहार के मतदाता अभी भी लालू को उनके पन्द्रह साल के कुशासन के लिए माफ़ करने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने स्पष्ट तौर पर सिर्फ जातिगत समीकरणों के संकीर्ण दायरे और सीमित एजेंडे की लालू प्रसाद की राजनीति को निर्णायक रूप से ख़ारिज कर दिया है.

यही नहीं, मतदाताओं ने कांग्रेस को भी अपनी पसंद के लायक नहीं समझा. वामपंथी दलों को भी मतदाताओं की नाराजगी का खामियाजा उठाना पड़ा है. इससे ऐसा लगता है कि मतदाताओं ने यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश की कि किसी तरह से फिर से लालू वापस न आ जाएं.

तात्पर्य यह कि जहां नीतिश विरोधी वोट बंट गए, वहीँ लालू प्रसाद विरोधी वोट पूरी तरह से नीतिश के पक्ष में एकजुट हो गए. इससे पता चलता है कि पिछले एक दशक खासकर पांच वर्षों में बिहार की राजनीति का एजेंडा, मुहावरा और मिजाज काफी बदल गया है. इस बीच, गंगा-गंडक-कोशी में बहुत पानी बह चुका है और बिहार की राजनीति ९० के दशक की राजनीति से बहुत आगे निकाल चुकी है. नीतिश कुमार को मिले भारी जनादेश में बिहार के लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाओं, उम्मीदों और अपेक्षाओं की धमक को साफ सुना जा सकता है.

ऐसा लगता है कि नीतिश कुमार ने न सिर्फ बिहार के लोगों में आ रहे इस बदलाव को सबसे बेहतर तरीके से पकड़ा है बल्कि इस बदलाव की प्रक्रिया को त्वरित भी किया है जिसका उन्हें भरपूर चुनावी फायदा भी मिला है. वे अपनी राजनीति को बिहार की महिला और युवा मतदाताओं के साथ कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से जोड़ने में भी कामयाब हुए हैं.

लेकिन इस आधार पर यह निष्कर्ष निकलना कि बिहार की राजनीति में जाति की प्रासंगिकता पूरी तरह से खत्म हो गई है, थोड़ी जल्दबाजी होगी. इसी तरह से यह एक अतिरेकपूर्ण विश्लेषण है कि लोगों ने केवल विकास के नाम पर वोट दिया है. ऐसे किसी नतीजे तक पहुँचने के लिए चुनाव परिणामों का थोड़ा ठहरकर और बारीकी से विश्लेषण करना होगा.

लेकिन यह एक मोटा निष्कर्ष जरूर निकला जा सकता है कि नीतिश कुमार ने एक बहुत सुविचारित राजनीतिक रणनीति के तहत मध्यवर्ग, उच्च जातियों, मध्यवर्ती किसान जातियों के एक हिस्से, अति पिछडों, दलितों के एक छोटे से हिस्से और यहां तक कि अल्पसंख्यकों के भी एक हिस्से को जोड़कर जिस तरह का सामाजिक गठबंधन तैयार किया और विकास और सुशासन के एजेंडे के साथ उसकी उम्मीदों और अपेक्षाओं को जगाने में कामयाबी हासिल की है, चुनाव परिणाम उसी का नतीजा हैं.

इसी तरह कुछ लोग इसे विकास की जीत बता रहे हैं. पर वे भूल रहे हैं कि नीतिश ने पिछले पांच सालों में विकास की बातें जरूर कीं लेकिन उनका विकास सड़क और कुछ हद तक स्वास्थ्य से आगे नहीं बढ़ा है. उन्होंने बालिकाओं को स्कूल जाने के लिए साइकिल जैसी कुछ लोकलुभावन योजनाओं के जरिये भी मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की है. लेकिन यह पूरी तरह से नव उदारवादी विकास का माडल नहीं है.

उनके अब तक के विकास के माडल और चंद्र बाबू नायडू जैसों के विकास माडल में बड़ा फर्क यह है कि उनकी विकास योजनाओं का अभी तक जमीन अधिग्रहण आदि के सवाल पर किसानों और गरीबों से उस तरह से टकराव नहीं हुआ है जिस तरह से औद्योगिक परियोजनाओं या खनन प्रोजेक्ट्स आदि के कारण अन्य राज्यों में हुआ या हो रहा है. नीतिश अभी तक इससे बचते रहे हैं या कहें कि राज्य में ऐसी किसी बड़ी योजना के लिए निजी या सार्वजनिक निवेश आया ही नहीं. नीतिश ने सेज जैसी योजनाओं के लिए स्पष्ट तौर पर ना कर दिया था.

लेकिन जो लोग इसे ‘विकास’ की जीत बता रहे हैं, वे और मतदाताओं में से एक हिस्सा खासकर बिहारी मध्यवर्ग और उच्च और कुलक जातियां नव उदारवादी विकास की मांग तेज करेंगी जिसका अर्थ होता है कि राज्य में निजी बड़ी पूंजी को निवेश के लिए उदार शर्तों पर आमंत्रित किया जाए. जाहिर है कि आनेवाले दिनों में नीतिश सरकार पर यह दबाव बढ़ेगा कि वह विकास के लिए बड़ी पूंजी को राज्य में लाए, बड़ी बिजली परियोजनाएं आएं और इन्फ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने के लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा दिया जाए. लेकिन दूसरी ओर, उनके गरीब, मध्यवर्ती जातियों, अति पिछड़े, महादलित सामाजिक आधार की ओर से सामाजिक क्षेत्र में ज्यादा निवेश के साथ कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की मांग होगी.

यह देखना दिलचस्प होगा कि नीतिश ‘विकास’ के इस अंतर्विरोध को कैसे हल करते हैं? वे बिहार में बड़ी परियोजनाओं और निवेश के लिए जमीन कैसे अधिग्रहित करते हैं और उसके साथ होनेवाले निश्चित टकराव को कैसे सुलझाते हैं? यही नहीं, ‘विकास’ के लिए निजी बड़ी पूंजी को आकर्षित करने के नाम पर वह किस तरह की रियायतें देते हैं? असल में, नीतिश ने अब तक विकास का कोई स्पष्ट वैकल्पिक माडल पेश नहीं किया है. उनके प्रमुख आर्थिक सलाहकार और पूर्व नौकरशाह एन.के सिंह जिन आर्थिक नीतियों के लिए जाने जाते हैं, वह वही नव उदारवादी आर्थिक नीतियां है जिसमें आम किसानों और गरीबों की कीमत पर बड़ी पूंजी के हितों को प्राथमिकता दी जाती है.

दूसरे, नीतिश के सामने अपने व्यापक लेकिन अंतर्विरोधों और तनावों से भरे सामाजिक गठबंधन के अंतर्विरोधों को साधने की बड़ी चुनौती भी होगी. उच्च जातियों से लेकर महादलितों तक का गठबंधन बनाना जितना मुश्किल नहीं था, उससे ज्यादा मुश्किल होगा इन दोनों सामाजिक समूहों की बढ़ी हुई आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के बीच तालमेल बैठना. इसी तरह, उन्होंने जिस चतुराई से अपनी एक धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने की कोशिश की है, उसे आनेवाले दिनों में अपनी बढ़ी हुई सीटों के साथ महत्वाकांक्षी होती भाजपा से सुरक्षित रखने की चुनौती भी होगी.

नीतिश के प्रशंसकों को यह बात याद रखनी होगी कि कथित विकास की तुलना में राजनीति कम महत्वपूर्ण नहीं है. वाजपयी सरकार की २००४ में हर में राजनीति की सबसे बड़ी भूमिका थी. अगर आपकी राजनीति समावेशी नहीं है, धार्मिक भेदभाव और टकराव को बढाती है और विकास का माडल सिर्फ सडकों और एयरपोर्ट तक सीमित है तो ज्यादा दूर नहीं जाती है.

लेकिन इस सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि नीतिश कुमार की सरकार पर सभी बिहारी मतदाताओं की उम्मीदों और अपेक्षाओं का भरी बोझ होगा जिसे पूरा करना इतना आसान भी नहीं है. असल में, इन चुनावों में विधानसभा से जिस तरह से विपक्ष का लगभग सफाया हो गया है, उससे एक मायने में इस बात के आसार बढ़ गए हैं कि नीतिश का विपक्ष खुद नीतिश ही होंगे.

तात्पर्य यह कि नीतिश जिन आकांक्षाओं और उम्मीदों को जगा कर दोबारा सत्ता में आ रहे हैं, आनेवाले दिनों में अगर वे उन्हें ईमानदारी से पूरा करते हुए नहीं दिखे तो उनका सबसे बड़ा विपक्ष वहीँ उम्मीदें और अपेक्षाएं होंगी. इस अर्थ में यह जनादेश नीतिश की सबसे बड़ी परीक्षा साबित होने जा रहे हैं क्योंकि उम्मीदें जगाना आसान है लेकिन उन्हें पूरा करना उतना ही कठिन है.

यही नहीं, नीतिश को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह जिस बिहारी अस्मिता को जगाने और एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं और जिसकी आड़ में बिहारी समाज में मौजूद गहरे अंतर्विरोधों और फाल्टलाइन्स को ढंकने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें बहुत दिनों तक ढंककर नहीं रखा जा सकता है. बिहार में बड़े सामाजिक बदलाव के लिए इन अंतर्विरोधों को दबाने-छुपाने या सिर्फ मैनेज करने के बजाय उनका हल खोजना जरूरी है और इसके लिए बड़े राजनीतिक साहस की जरूरत है. यहां यह दर्ज करना जरूरी है कि नीतिश में अब तक वह राजनीतिक साहस नहीं दिखाई पड़ा है और अधिकांश मौकों पर वे बड़े फैसलों से बचते रहे हैं.

उदाहरण के लिए उन्होंने बड़े जोश-खरोश के साथ अपने पिछले कार्यकाल में भूमि सुधार के लिए बंदोपाध्याय समिति और शिक्षा में सुधार के लिए मुचकुंद दुबे समिति का गठन किया लेकिन जब दोनों समितियों की सिफारिशों को लागू करने के लिए राजनीतिक साहस दिखाने का समय आया, नीतिश कुमार न सिर्फ पीछे हट गए बल्कि दोनों समितियों को निहित स्वार्थों के दबाव में अंगूठा दिखा दिया. इसी तरह, राजनीति में अपराधीकरण के खिलाफ बातें करने के बावजूद चुनावो में अपराधियों को टिकट देने के मामले में वे भी पीछे नहीं रहे हैं. यही नहीं, राजनीतिक रूप से उनमें वह साहस भी नहीं है जो नवीन पटनायक में है जिन्होंने भाजपा को अपने कन्धों से उतार फेंकने में देर नहीं लगाई.

कहने की जरूरत नहीं है कि नीतिश जिन उम्मीदों को जगाकर आ रहे हैं, उन्हें जमीन पर उतारने के लिए बड़े राजनीतिक साहस और वैकल्पिक सोच की जरूरत है. सवाल है कि क्या उनमें यह राजनीतिक साहस और वैकल्पिक सोच है? उनके घोषणापत्र या अब तक के कार्यक्रमों या फैसलों में तो यह नहीं दिखाई पड़ता है. ऐसे में, उन्हें अपने पूर्ववर्ती के राजनीतिक हश्र को जरूर याद रखना चाहिए.

(जनसत्ता में २५ नवम्बर'१० को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

मंगलवार, नवंबर 23, 2010

चैनलों का ओबामा मैनिया !

पता नहीं, गिनीज बुक आफ रिकार्ड्स को खबर है या नहीं लेकिन समाचार चैनलों ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे का लगातार ७२ घंटे कवरेज करके एक नया रिकार्ड बना दिया है. मुझे नहीं लगता कि इससे पहले किसी राष्ट्राध्यक्ष को इतना अधिक और व्यापक कवरेज मिला होगा. मुझे ध्यान नहीं आता. चैनलों को इस रिकार्ड के लिए बधाई देते हुए भी पूछने की इच्छा हो रही है कि क्या मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा को भी वहां के मीडिया में इतनी ही जगह मिलेगी? दूसरे, सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए बेचैन चैनल क्या भारत यात्रा पर आनेवाले अन्य राष्ट्राध्यक्षों की भी नोटिस लेते हैं?

ओबामा से ठीक दो दिन पहले भारत आये मलावी के राष्ट्रपति बिंगु वा मुथारिका की यात्रा को कितने चैनलों ने कवर किया? याद रहे मलावी भारत की ही तरह जी-२० का सदस्य है. लेकिन अमेरिका और ओबामा मैनिया से ग्रस्त चैनलों को इन सवालों पर सोचने की फुर्सत कहां थी? ऐसा लगा जैसे तीन दिनों के लिए देश ठहर सा गया है. ओबामा के अलावा और कोई खबर नहीं है. चैनल पूरी तरह से ओबामामय हो गए थे जहां निरंतर ओबामावली का पाठ और विदेश नीति-सुरक्षा-रणनीति के पंडितों द्वारा उसकी टीका चल रही थी.

जाहिर है कि ७२ घंटे की अहर्निश कवरेज कोई मजाक नहीं है खासकर तब जब चैनलों की राष्ट्रपति ओबामा तक सीधी पहुंच नहीं थी. असल में, योजना के मुताबिक उन्हें पृष्ठभूमि में रहकर ही इस यात्रा का माहौल बनाना था. चैनलों को इस खेल में महारत है. नतीजा- एक ओर अमेरिकी राष्ट्रपति के खास विमान- एयरफोर्स वन और कैडिलक कार से लेकर उनकी सुरक्षा में लगी अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियों और एजेंटों और ओबामा जिस होटल में ठहरे उसके प्रेसिडेंट सुइट और प्रधानमंत्री के घर हुई डिनर पार्टी के मेन्यू से लेकर मिशेल ओबामा के नाच और खरीददारी तक हर बेमतलब जानकारी ‘आधी हकीकत, आधा फ़साने’ के तर्ज पर दी गई.

दूसरी ओर, अधिकांश चैनलों के स्टूडियो यानी घाट पर ओबामा के कहे-अनकहे एक-एक शब्द की व्याख्या के लिए विदेश नीति, रक्षा और रणनीति के जाने-पहचाने पंडितों के अलावा राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं (स्पिनर्स) की भीड़ जमा कर ली गई. हमेशा की तरह वही कुछ जाने-पहचाने चेहरे और उनकी वही घिसी-पिटी बातें थीं लेकिन ७२ घंटे तक इसे ‘खींचने-तानने’ का दबाव ऐसा था कि आखिर आते-आते दोहराव के कारण वे बातें न सिर्फ बकवास लगने लगीं बल्कि एंकरों और पंडितों, दोनों की थकान और बोरियत भी साफ-साफ दिखने लगी थी.

आश्चर्य नहीं कि इस थकान के कारण स्मार्ट एंकर और विशेषज्ञ पंडित भी संसद में ओबामा के भाषण और भारत-अमेरिका साझा बयान की कई महत्वपूर्ण बातों को या तो अनदेखा कर गए या समझ ही नहीं पाए. वैसे इतने व्यापक और रिकार्ड कवरेज और बतकुच्चन के बावजूद चैनलों ने ओबामा यात्रा के कई महत्वपूर्ण पहलुओं को नजरंदाज किया. इसकी वजह यह थी कि उन्होंने इस दौरे के कवरेज और विश्लेषण का एजेंडा पहले से ही तय कर लिया था. एक बहुत ही संकीर्ण दायरे और सीमित मुद्दों के इर्द-गिर्द ओबामा की पूरी यात्रा को देखा और दिखाया गया.

बारीकी से देखिये तो ऐसा लगता है जैसे यह सब पूर्व नियोजित और एक रणनीति के तहत था ताकि ओबामा की यात्रा की सफलता और भारत के अमेरिकी खेमे को ज्वाइन करने के पक्ष में अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाया जा सके. चाहे वह दौरे की शुरुआत में होटल ताज में दिए गए ओबामा के भाषण में ‘पी’ यानी पाकिस्तान शब्द का जिक्र न होने को लेकर चैनलों पर शोर-शराबा हो या यात्रा शुरू होने से पहले स्थाई सदस्यता के मुद्दे पर किसी स्पष्ट वायदे से ओबामा का इंकार- इसके जरिये तनाव, उद्विग्नता और अपेक्षाओं का ऐसा माहौल बनाया गया कि जब ओबामा ने संसद में अपने भाषण में ‘पी’ शब्द और सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता का उल्लेख किया तो हर बात यानी असली मुद्दों को भूलकर चहुँओर चैनलों पर ओबामा की जय-जयकार शुरू हो गई.

असल में, चैनलों के इस सामूहिक शोर में ऐसा माहौल बनाया गया, गोया ओबामा के समर्थन करते ही सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता मिल जायेगी. जबकि सच्चाई यह है कि ओबामा ने एक ऐसा चेक दिया है जो कब भुनेगा, यह किसी को पता नहीं. सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता का रास्ता न सिर्फ बहुत लंबा है बल्कि बहुत टेढ़ा-मेढा और अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति की जटिलताओं से भरा हुआ है.

इसी तरह, चैनलों खासकर अर्णब गोस्वामी और ‘टाइम्स नाउ’ का पाकिस्तान ऑब्सेशन सारी हदें पार कर गया है. ऐसा लगता है कि आजकल चैनलों की लाइन और न्यूज एजेंडा ‘टाइम्स नाउ’ ही तय करता है. ओबामा के ताज के भाषण के बाद अर्णब के शुरू करते ही सभी चैनलों ने पाकिस्तान को लताड़ने को इतना बड़ा मुद्दा बना दिया जैसे कोई बच्चा अपने पिता से बिगड़ैल भाई की शिकायत कर रहा हो. नतीजा- जैसे ही पिता ने पाकिस्तान को लताड़ा, रूठे चैनल ऐसे नाचने लगे जैसे ओबामा ने उनकी मुंहमांगी पूरी कर दी हो?

लब्बोलुआब यह कि चैनलों ने ७२ घंटे के कवरेज के रिकार्ड के बावजूद ओबामा की यात्रा के राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक निहितार्थों का खुलासा करने में नाकाम का भी रिकार्ड बनाया. या कह सकते हैं कि यह उनका उद्देश्य भी नहीं था. इस कवरेज को देखकर आज मार्क्स होते तो कहते कि ‘समाचार चैनल मध्यवर्ग और बुद्धिजीवियों की अफीम हैं.’

(तहलका के ३० नवम्बर'१० अंक में प्रकाशित)
http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/775.html

सोमवार, नवंबर 22, 2010

भाजपा की पूरी छिछालेदर कराके जाएंगे येदियुरप्पा

चैनलों की खबर के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा को इस्तीफा देने के लिए आज सुबह ११ बजे तक का समय दिया है. भाजपा नेतृत्व को यह डेडलाइन इसलिए देनी पड़ी है कि काफी टालमटोल और सोच-विचार के बाद अंततः भाजपा नेताओं ने येदियुरप्पा से रविवार को इस्तीफा देने को कहा और उन्हें दिल्ली बुलाया था. लेकिन येदियुरप्पा ने दिल्ली का टिकट दो बार रद्द कराने के बाद बंगलुरु में ऐलान कर दिया कि उनके साथ न सिर्फ ११०-१२० विधायक हैं बल्कि येदियुरप्पा का उत्तराधिकारी येदियुरप्पा ही हैं.

साफ है येदियुरप्पा बगावती मूड में हैं. वे दिल्ली आने के बजाय साईं बाबा की शरण में पहुँच गए हैं. वे अपनी विदाई टालने के सारे जतन कर रहे हैं. लेकिन भाजपा हाईकमान के हाथ-पैर फूले हुए हैं. उसे समझ में नहीं आ रहा है कि येदियुरप्पा को कैसे काबू में करें? उसे डर सता रहा है कि कहीं येदियुरप्पा बगावत की बगावत या नाराजगी के कारण राज्य में किसी तरह तीन-तिकडम करके घिसट-घिसटकर चल रही भाजपा सरकार खतरे में न पड़ जाए. उसे इस बात की चिंता भी सता रही है कि कर्नाटक में पार्टी के मुख्य सामाजिक आधार- लिंगायतों में येदियुरप्पा को हटाने का नकारात्मक सन्देश न चला जाए.

लेकिन दक्षिण भारत में भगवा पार्टी की इस पहली सरकार की जो हालत है कि उसके लिए येदियुरप्पा से कम जिम्मेदार भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं है. पार्टी नेतृत्व ने ही नहीं बल्कि आर.एस.एस ने भी जिस तरह से सच जानते हुए भी पिछले कई महीनों से खुलकर येदियुरप्पा का बचाव किया है और अभी पिछले सप्ताह तक उन्हें क्लीन चिट दी है, उसके कारण ही येदियुरप्पा को इतनी हिम्मत हो रही है कि वे इस्तीफा देने से इंकार कर रहे हैं. इस पूरे प्रकरण ने भाजपा में पार्टी अनुशासन की भी पोल खोल दी है. इससे यह भी पता चलता है कि ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ की राजनीति में नैतिकता, शुचिता और मूल्यों की क्या हैसियत रह गई है?

सच यह है कि येदियुरप्पा आज अगर चोरी, ऊपर से सीनाजोरी के मूड में हैं तो इसकी वजह भाजपा की वह राजनीति है जिसके स्खलन के सबूत बहुत पहले से मिलने लगे थे. केंद्र में एन.डी.ए के नेतृत्व वाली वाजपेयी सरकार पर भी भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, अनियमितताओं और पक्षपात के गंभीर आरोप लगते रहे हैं. भाजपा में सत्ता के लिए मारामारी, छीना-झपटी और निकृष्ट स्तर के समझौते कोई नई बात नहीं हैं. कल्याण सिंह से लेकर येदियुरप्पा तक यह सूची बहुत लंबी है.

जाहिर है कि येदियुरप्पा को पार्टी की यह कमजोर नस पता है. उन्हें यह भी पता है कि पार्टी सत्ता के लिए किस हद तक नीचे उतर कर समझौते कर सकती है? वे इसका ही टेस्ट ले रहे हैं. वैसे उन्हें पता है कि उनका जाना तय है लेकिन जाने से पहले वे भाजपा केन्द्रीय नेतृत्व की पूरी छिछालेदर कर के जाने की तैयारी में है.

शनिवार, नवंबर 20, 2010

क्या राहुल गाँधी सचमुच चाहते हैं छात्रसंघ?

छात्रसंघों को गाली देने के बजाय उन्हें अनिवार्य बनाने के लिए संसद कानून पारित करे


कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी चाहते हैं कि अलीगढ, इलाहाबाद और बनारस विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ बहाल किए जाएं. अच्छा है, देर से ही सही उन्हें छात्रसंघों की याद आई. अन्यथा जब से वे राजनीति में आए हैं, एक के बाद एक बचे-खुचे छात्रसंघों को भी खत्म करने की ही मुहिम चल रही है.

हालांकि छात्रसंघों को खत्म करने की यह मुहिम पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से चल रही है और इसके लिए व्यक्तिगत तौर पर वे दोषी नहीं हैं लेकिन सच यह भी है कि कांग्रेस के राज में ही छात्रसंघों को प्रतिबंधित और छात्र राजनीति को खत्म करने का अभियान शुरू हुआ और परवान चढ़ा.

तथ्य यह भी है कि जिन दिनों में राहुल गांधी युवा नेता के रूप में तेजी से राजनीति की सीढियाँ चढ रहे थे, उन्हीं दिनों में छात्र राजनीति के सुंदरीकरण के नाम पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर यू.पी.ए सरकार द्वारा गठित लिंगदोह समिति ने छात्रसंघों के बधियाकरण की सिफारिश की जिसे उनकी सरकार ने खुशी-खुशी लागू कर दिया. नतीजा- उसके बाद से ही देश के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालयों में से एक जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के अत्यंत लोकतान्त्रिक और साफ-सुथरे छात्रसंघ चुनाव भी बंद हो गए हैं.

हालांकि उत्तर प्रदेश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनावों की मांग करते हुए युवराज को जे.एन.यू ही नहीं, दिल्ली के जामिया मिल्लिया का ध्यान नहीं आया जहां पिछले कई सालों से छात्रसंघ चुनाव नहीं हुए हैं.

लेकिन बात सिर्फ बी.एच.यू, जे.एन.यू, ए.एम.यू, इलाहाबाद या जामिया की ही नहीं है बल्कि स्थिति यह है कि देश के अधिकांश राज्यों के विश्वविद्यालयों और कालेजों में छात्रसंघ के चुनाव नहीं हो रहे हैं. यहां तक कि केंद्र सरकार द्वारा लिंगदोह समिति की सिफारिशों को लागू करने और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद अधिकांश राज्य सरकारों और विश्वविद्यालय प्रशासनों की छात्रसंघ बहाल करने और उनका चुनाव कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिख रही है.

छात्रसंघों और छात्र राजनीति के प्रति विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के रवैये का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि राहुल गांधी के ज्ञापन पर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की तत्काल चुनाव कराने के निर्देश को ए.एम.यू से लेकर बी.एच.यू तक के सभी कुलपतियों ने अंगूठा दिखा दिया है.

असल में, कोई भी कुलपति और विश्वविद्यालय प्रशासन से जुड़ा आला अधिकारी छात्रसंघ नहीं चाहता है. सच तो यह है कि वे कोई यूनियन नहीं चाहते हैं, चाहे वह शिक्षक संघ हो या कर्मचारी संघ या फिर छात्र संघ. लेकिन विश्वविद्यालय अधिकारी इनमें से भी सबसे अधिक छात्रसंघ से ही चिढते हैं. वे इस चिढ को छुपाते भी नहीं हैं.

उनका आरोप है कि छात्रसंघ परिसरों में गुंडागर्दी, अराजकता, तोड़फोड़, जातिवाद, क्षेत्रवाद और अशैक्षणिक गतिविधियों के केन्द्र बन जाते हैं जिससे पढाई-लिखाई के माहौल पर असर पड़ता है. उनकी यह भी शिकायत है कि इससे परिसरों में राजनीतिकरण बढ़ता है जिसके कारण छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों में गुटबंदी, खींच-तान और संघर्ष शुरू हो जाता है जो शैक्षणिक वातावरण को बिगाड़ देता है.

ऐसा नहीं है कि इन आरोपों और शिकायतों में दम नहीं है. निश्चय ही, पिछले कुछ दशकों में छात्र राजनीति से समाज और व्यवस्था में बदलाव के सपनों, आदर्शों, विचारों और संघर्षों के कमजोर पड़ने के साथ अपराधीकरण, ठेकेदारीकरण, अवसरवादीकरण और साम्प्रदायिकीकरण का बोलबाला बढ़ा है और उसके कारण छात्रसंघों का भी पतन हुआ है. इससे आम छात्रों की छात्रसंघों और छात्र राजनीति से अरुचि भी बढ़ी है. इस सच्चाई को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि अधिकांश परिसरों में इन्हीं कारणों से आम छात्र, शिक्षक और कर्मचारी भी छात्र राजनीति और छात्रसंघों के खिलाफ हो गए हैं.

विश्वविद्यालयों के अधिकारियों ने इसका ही फायदा उठाकर परिसरों में छात्र राजनीति और छात्रसंघों को खत्म कर दिया है. लेकिन सवाल यह है कि छात्र राजनीति और छात्रसंघों के यह पतन क्यों और कैसे हुआ और उसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या इसमें मोरल हाई ग्राउंड लेनेवाले राजनेताओं, अफसरों और विश्वविद्यालयों के अधिकारियों की कोई भूमिका नहीं है?

सच यह है कि छात्र राजनीति को भ्रष्ट, अवसरवादी, विचारहीन और गुंडागर्दी का अखाडा बनाने की सबसे अधिक जिम्मेदारी कांग्रेस, भाजपा और मुख्यधारा के अन्य राजनीतिक दलों के जेबी छात्र संगठनों- एन.एस.यू.आई, ए.बी.वी.पी, छात्र सभा, छात्र जनता आदि की है.

यही नहीं, इन छात्र संगठनों और उनके नेताओं को विश्वविद्यालयों के अधिकारियों और कुलपतियों ने भी भ्रष्ट बनाया ताकि उनके भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर छात्रसंघ उंगली न उठाएं. उत्तर प्रदेश के कई विश्वविद्यालयों के अनुभव के आधार पर दावे के साथ कह सकता हूँ कि छात्र राजनीति और छात्रसंघों को भ्रष्ट और पतित बनाने में विश्वविद्यालयों के भ्रष्ट अफसरों की बहुत बड़ी भूमिका रही है जिन्होंने छात्रसंघ पदाधिकारियों को “खिलाओ-पिलाओ, भ्रष्ट बनाओ, बदनाम करो और निकाल फेंको” की रणनीति का शिकार बनाया.

इस रणनीति के तहत छात्रसंघ पदाधिकारियों को अफसरों ने ही पैसे खिलाए, उनकी गुंडागर्दी को अनदेखा किया, उन्हें मनमानी करने की छूट दी, फिर इन सबके लिए उन्हें छात्रों के बीच बदनाम करना शुरू किया और जब यह लगा कि ये नेता विद्यार्थियों में खलनायक बन गए हैं तो उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंका.

असल में, वे इसलिए सफल हुए क्योंकि छात्र राजनीति के एजेंडे से जब बड़े सपने, लक्ष्य, आदर्श, विचार और संघर्ष गायब हो गए तो छात्र संगठनों और छात्र नेताओं को भ्रष्ट बनाना आसान हो गया. लेकिन ऐसा नहीं है कि छात्रसंघों के खत्म हो जाने के बावजूद परिसरों में रामराज्य आ गया है. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश को ही लीजिए जहां बी.एच.यू में १९९७ और अन्य विश्वविद्यालयों में पिछले तीन-चार सालों से छात्रसंघों के चुनाव नहीं हो रहे हैं. सच्चाई यह है कि छात्रसंघों के खत्म होने के बाद से इन विश्वविद्यालयों ने न तो शैक्षणिक श्रेष्ठता का कोई रिकार्ड बनाया है और न ही वहां भ्रष्टाचार और अनियमितताएं खत्म हो गई हैं.

हकीकत यह है कि अधिकांश विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक जड़ता इस कदर हावी है कि वहां पढाई-लिखाई के अलावा बाकी सब कुछ हो रहा है. दरअसल, छात्रसंघों और छात्र राजनीति को शैक्षणिक पतन का कारण बताने का यह तर्क सच्चाई और तथ्यों को सिर के बल खड़ा करने की तरह है. बिहार के किसी भी विश्वविद्यालय में पिछले २५ वर्षों से छात्रसंघ नहीं है लेकिन इससे क्या वहां के विश्वविद्यालय शैक्षणिक नव जागरण के केन्द्र बन गए हैं?

तथ्य यह है कि जे.एन.यू, दिल्ली आदि देश के कई बेहतरीन विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ हैं और वे वहां के शैक्षणिक वातावरण के अनिवार्य हिस्से हैं. उनके होने से इन परिसरों में बौद्धिक बहस और विचार-विमर्श का ऐसा माहौल बना रहता है जिससे राजनीतिक और बौद्धिक रूप से सचेत नागरिकों की नई पीढ़ी तैयार करने में मदद मिलती है.

यहां यह कहना जरूरी है कि परिसरों में छात्र राजनीति और छात्रसंघों का होना न सिर्फ जरूरी है बल्कि इसे संसद से कानून पारित करके अनिवार्य किया जाना चाहिए. आखिर विश्वविद्यालयों और कालेजों के संचालन में छात्रों की भागीदारी क्यों नहीं होनी चाहिए? दूसरे, छात्रों के राजनीतिक प्रशिक्षण में बुराई क्या है? क्या उन्हें देश-समाज के क्रियाकलापों में हिस्सा नहीं लेना चाहिए?

 कल्पना कीजिये, अराजनीतिक छात्र-युवाओं की जो कल देश के नागरिक होंगे, वे कैसा लोकतंत्र बनाएंगे? इन अराजनीतिक छात्र-युवाओं की आज छात्र राजनीति से चिढ कल अगर आम राजनीति से चिढ़ में बदल जाए तो क्या होगा? साफ है कि छात्रसंघों और छात्र राजनीति का विरोध वास्तव में, न सिर्फ अलोकतांत्रिक बल्कि तानाशाही की वकालत है.

वास्तव में, आज अगर विश्वविद्यालयों डिग्रियां बांटने का केन्द्र बनाने के बजाय देश में बदलाव और शैक्षणिक पुनर्जागरण का केंद्र बनाना है तो उसकी पहली शर्त परिसरों का लोकतंत्रीकरण है. इसका मतलब सिर्फ छात्रसंघ की बहाली नहीं बल्कि विश्वविद्यालय के सभी नीति-निर्णयों में भागीदारी है. इसके लिए जरूरी है कि सिर्फ शिक्षकों और कर्मचारियों ही नहीं, छात्रों को भी विश्वविद्यालय के नीति निर्णय करनेवाले सभी निकायों में पर्याप्त हिस्सेदारी दी जाए. आखिर विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक बेहतरी में सबसे ज्यादा स्टेक और हित छात्रों के हैं, इसलिए उनके संचालन में छात्रों की भागीदारी सबसे अधिक होनी चाहिए. इससे परिसरों के संचालन की मौजूदा भ्रष्ट नौकरशाह व्यवस्था की जगह पारदर्शी, उत्तरदायित्वपूर्ण और भागीदारी आधारित व्यवस्था बन सकेगी.

 जैसाकि भारतीय पुनर्जागरण के कविगुरु टैगोर ने कहा था, “जहां दिमाग बिना भय के हो, जहां सिर ऊँचा हो, जहां ज्ञान मुक्त...उसी स्वतंत्रता के स्वर्ग में, मेरे प्रभु मेरा देश (या विश्वविद्यालय) आँखें खोले.” इस स्वतंत्रता के बिना परिसरों में सिर्फ पैसा झोंकने या उन्हें पुलिस चौकी बनाने या विदेशी विश्वविद्यालयों के सुपुर्द करने से बात नहीं बननेवाली नहीं है. क्या राहुल गांधी इसके लिए तैयार हैं? क्या वे छात्रसंघों को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाने के लिए संसद में कानून पारित करवाने की पहल करेंगे?

('राष्ट्रीय सहारा' के २० नवम्बर'१० के हस्तक्षेप में प्रकाशित आलेख का असंपादित रूप)
http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=17

शुक्रवार, नवंबर 19, 2010

मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने...उर्फ याद सलिल दा की

अभी ट्विट करते हुए लता दी के ट्विट से यह पता चला कि आज मेरे एक पसंदीदा संगीतकार सलिल चौधरी यानी सलिल दा का ८५वां जन्मदिन है..लता दी ने बहुत आदर और शिद्दत से याद किया है. उन्हें न सिर्फ एक बेहतरीन संगीतकार बलिक लेखक, गायक, कवि और कहानीकार बताया है.

सचमुच, सलिल दा का कोई जवाब नहीं है. उनके संगीत ने कई पीढ़ियों को आवाज दी है. आखिर हृषिकेश दा की फिल्म ‘आनंद’ को कौन भूल सकता है? उस फिल्म के गानों में जो कशिश है, वह जवानी के दिनों में ही नहीं, आज भी कहीं सपनों में खींच ले जाती है.

इस मौके पर खुद लता जी ने अपनी पसंद का जो गाना पेश किया है, वह यह रहा:

न जाने क्यों होता है ये जिंदगी के साथ..
http://www.youtube.com/watch?v=3h1Vc_ur0Dg
खुद मुझे उनका जो गाना सबसे पसंद है, वह यह रहा:
मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने...
http://www.youtube.com/watch?v=lGISh7L0Nb0
उनका एक और गाना जो मुझे बेहद पसंद है, आप भी सुनिए.
http://www.youtube.com/watch?v=rGI3rPSPcVA 
और जब गानों की ही बात चली तो इस गाने को कैसे भुला सकते हैं:
http://www.youtube.com/watch?v=w4ZI4_QcNE0&feature=related 
और चलते-चलते, अब जब शाम के साये गहरा रहे हैं:
http://www.youtube.com/watch?v=BmYT79bYIQw 

कब जाएंगे येदियुरप्पा?

उन्हें अब एक मिनट भी कुर्सी पर बैठने का हक़ नहीं है

लाख टके का सवाल है कि एक के बाद एक घोटालों के भंडाफोड के बीच घिरते कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा कब जाएंगे? इस सवाल का सिर्फ एक ही जवाब हो सकता है कि उन्हें खुद तत्काल कुर्सी छोड़ देनी चाहिए और अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व को उन्हें तुरंत हटा देना चाहिए. लेकिन न सिर्फ येदियुरप्पा कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व अभी भी उनका बचाव कर रहा है.

अगर भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व में जरा भी राजनीतिक शर्म बची है और नैतिकता का लिहाज है तो उसे यह फैसला करने में अब एक मिनट की भी देर नहीं करनी चाहिए. भाजपा और उसके केन्द्रीय नेता जिस राजनीतिक नैतिकता, परम्पराओं और शुचिता की दुहाई देते नहीं थकते हैं उसके आधार पर येदियुरप्पा को हटाने का फैसला कई महीनों पहले ही हो जाना चाहिए था. यही नहीं, भाजपा जिस आधार पर ए. राजा, अशोक चाहवान और सुरेश कलमाड़ी के इस्तीफे और उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग करती रही है, उस आधार पर भी येदियुरप्पा को अब तक चले जाना चाहिए था.

लेकिन भाजपाई नैतिकता की ऊंचाई देखिये कि येदियुरप्पा न सिर्फ बने हुए हैं बल्कि ताल ठोंककर अपने सगे-सम्बन्धियों को करोड़ों की सरकारी जमीन कौडियों के मोल बांटने और उनपर सरकारी खजाना लुटाने बचाव कर रहे हैं. उनका कहना है कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है. वे सिर्फ अपने पूर्ववर्तियों के दिखाए रास्ते और परंपरा का पालन कर रहे हैं. जब ज्यादा दबाव बढ़ा तो उन्होंने अशोक चाहवान की तर्ज पर कहा कि वे जमीन वापस कर देंगे. यही नहीं, येदियुरप्पा ने यह भी प्रचार किया कि उन्होंने भगवान के दरबार में जाकर अपनी गलतियों के लिए माफ़ी मांग ली है.

अब उनकी सरकार ने फैसला किया है कि पिछले दस वर्षों में कर्नाटक में सरकारी जमीन को डी-नोटिफाई करने और उसके आवंटन के सभी मामलों की सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज से जांच कराया जाए. लेकिन इस्तीफा देने के लिए वे अब भी तैयार नहीं हैं. जबकि निष्पक्ष जांच के लिए यह अनिवार्य है कि वे अविलम्ब पद छोड़ें. ऐसे में, जनता से माफ़ी मांगने और उसके दरबार में दोबारा जनादेश मांगने जाने की बात ही दूर है. ऐसे में, यह समझना मुश्किल नहीं है कि जांच सिर्फ एक नाटक और घोटालों से ध्यान हटाने की कोशिश भर है.

कहते हैं कि टेलीकाम मंत्री ए. राजा के मामले में प्रधानमंत्री गठबंधन सरकार की मजबूरियों के कारण लाचार थे. हालांकि इस तर्क को किसी भी तरह से स्वीकार नहीं किया जा सकता है लेकिन भाजपा के पास कर्नाटक में यह तर्क भी नहीं है. आखिर राजनीति में ‘नैतिकता और शुचिता’ की प्रतिमूर्ति आडवाणी जी धृतराष्ट्र की तरह आँखों पर पट्टी क्यों बांधे हुए हैं?

साफ़ है कि भ्रष्टाचार के महा हमाम्म में सब नंगे हैं. लेकिन मजा देखिये कि हरेक को दूसरे की कालिख ही नजर आती है. चूँकि भाजपाई खुद को कुछ ज्यादा ही चतुर समझते हैं, इसलिए वे यह कालिख खुद को ही पोतने में जुटे हैं.

बुधवार, नवंबर 17, 2010

सिर्फ राजा के इस्तीफे से बात नहीं बनेगी !

घोटाले की तह तक पहुँचने के लिए अवैध तरीके से आवंटित टेलीकाम लाइसेंसों को रद्द करके फिर से बोली लगनी चाहिए

टेलीकाम मंत्री अन्दिमुथू राजा ने आखिकार इस्तीफा दे दिया. हालांकि उनका कहना है कि उनका ‘अंतर्मन साफ है’ और उन्होंने केवल ‘सरकार को परेशानी से बचाने और संसद चलाने में आ रही दिक्कत को दूर’ करने के लिए इस्तीफा दिया है. लेकिन सच यह है कि वे खुद और यू.पी.ए सरकार २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में इस कदर घिर चुकी थी कि उसके पास चेहरा बचाने के लिए कोई और विकल्प नहीं रह गया था. राजा अब भी नहीं जाते तो प्रधानमंत्री के लिए खुद का बचाव कर पाना मुश्किल हो जाता और शीर्ष पदों पर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यू.पी.ए खासकर कांग्रेस की ‘मोरल हाई ग्राउंड’ लेने की राजनीति की धार कमजोर पड़ जाती.

असल में, राजा की विदाई महाराष्ट्र में अशोक चहवाण और सुरेश कलमाड़ी के इस्तीफे के साथ तय हो गई थी. यू.पी.ए, कांग्रेस, डी.एम.के और खुद राजा के पास विकल्प नहीं रह गए थे. उन्हें आज या कल जाना ही था. पिछले कुछ दिनों से यू.पी.ए के अंदर कांग्रेस और डी.एम.के राजा की विदाई का सम्मानजनक रास्ता तलाशने की कोशिश की जा रही थी. लेकिन २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में एक के बाद एक जिस तरह से हर दिन नए खुलासे हो रहे थे और उसके छींटें पूरी सरकार पर पड़ रहे थे, उसमें यू.पी.ए सरकार के पास वह विकल्प भी नहीं रह गया था.

लेकिन राजा के इस्तीफे भर से कहानी खत्म नहीं हो जाती है. सच पूछिए तो कहानी अब शुरू हो रही है. इस्तीफा घोटाले की सजा नहीं है. इसलिए सिर्फ इस्तीफे से बात नहीं बनेगी. बहुत देर और बहुत नुकसान पहुंचाने के बाद हुए ए. राजा के इस्तीफे के आधार पर यू.पी.ए सरकार को ‘मोरल हाई ग्राउंड’ लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और न ही, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की नई थ्यूरी को स्वीकार किया जाना चाहिए कि ‘जनभावना- पब्लिक परसेप्शन- का आदर’ करते हुए इस्तीफा लिया गया है. अगर नैतिकता और जनभावना का इतना ही सम्मान था तो राजा का इस्तीफा २००८ में ही हो जाना चाहिए था और उन्हें २००९ में वापस मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया जाना चाहिए था.

इसलिए अब राजा से अधिक प्रधानमंत्री और पूरी यू.पी.ए सरकार के लिए नैतिकता का तकाजा यह है कि इस इस्तीफे को उसके तार्किक अंत तक ले जाया जाए. इसके बिना इस इस्तीफे का मतलब यह होगा कि राजा १.७० लाख करोड़ रूपये के इस घोटाले की बहुत मामूली कीमत देकर बच निकले. ऐसा नहीं होना चाहिए. इसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि २००७-०८ में संचार मंत्रालय ने जिन भी कंपनियों को २ जी स्पेक्ट्रम का आवंटन किया, उसे तत्काल रद्द किया जाए और २ जी स्पेक्ट्रम की फिर से पारदर्शी तरीके से नीलामी की जाए. आखिर इस घोटाले की लाभार्थी ये कंपनियां भी हैं. उन्हें भी इसकी कीमत चुकानी ही चाहिए. उन्हें यह स्पष्ट सन्देश जाना चाहिए कि किसी मंत्री या अफसर को खरीदकर हासिल किए गया अवैध और अनुचित लाभ स्थाई नहीं है.

यह इसलिए भी जरूरी है कि घोटालों से असली फायदा उठानेवाली कंपनियां हमेशा बच निकलती है जबकि नियमों को तोड़ने-मरोड़ने में उनकी भूमिका मंत्रियों और अधिकारियों से कम नहीं होती है. सच यह है कि लाइसेंस-परमिट राज खत्म करने के नाम पर देश में कंपनी राज चल रहा है. उदारीकरण के इस दौर में कंपनियों की ताकत बहुत बढ़ गई है. सबसे बड़ा घोटाला तो यह है कि ये कंपनियां ही अपने मुताबिक नीतियां तय करवा रही हैं और जरूरत पड़ने पर नीतियों में अपने हितों के मुताबिक तोड़-मरोड़ करती-करवाती हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि अधिकांश आर्थिक मामलों के मंत्रालय और विभाग ये कंपनियां ही अपने प्राक्सी मंत्रियों और अफसरों के जरिये चला रही हैं.

टेलीकाम मंत्रालय इसका सबसे बदतरीन उदाहरण है. चूँकि इस मंत्रालय में अरबों-खरबों रूपये दांव पर लगे हुए हैं, इसलिए स्टेक भी बहुत ऊँचा है. ऐसे में, बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता और घात-प्रतिघात का खेल भी चलता रहता है. यह भी एक कडवी सच्चाई है कि इस खेल के कारण ही अधिकांश घोटाले सामने आ पाते हैं, अन्यथा हकीकत यह है कि जब कंपनियों का सामूहिक हित एक हो तो सभी मिलकर सरकार से मन-मुताबिक फैसला करा लेती हैं. फिर वही नियम बन जाता है और मजे की बात यह है कि उसे घोटाला नहीं माना जाता है.

इस प्रवृत्ति के कई उदाहरण टेलीकाम मंत्रालय में ही मौजूद है लेकिन कारपोरेट मीडिया उसपर चर्चा नहीं कर रहा है. इस मायने में, २ जी घोटाले की जड़ें बहुत गहरी हैं और एन.डी.ए के कार्यकाल तक फैली हुई हैं. ध्यान रहे कि एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में प्राइवेट टेलीकाम कंपनियों को लाइसेंस फ़ीस व्यवस्था से राजस्व साझेदारी की व्यवस्था में शिफ्ट करने की अनुमति दी गई थी. इसमें सभी कंपनियां एकजुट थीं. उन्होंने मिलकर लाबीइंग की ताकत से नीति बदलवा दी. निश्चय ही, बीच में ही नीति में बदलाव से सरकारी खजाने को नुकसान हुआ. यह सबको पता है कि इस नुकसान से फायदा किसे हुआ?

इसी तरह, सी.डी.एम.ए लाइसेंसधारी टेलीकाम कंपनियों ने भी पहले नियमों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हुए जी.एस.एम की तरह सेवाएं प्रदान कीं और फिर दबाव बनाकर जी.एस.एम में शिफ्ट करने की अनुमति ले ली. टेलीकाम कंपनियों की ताकत का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि पिछले दो साल से फैसले के बावजूद मोबाइल नंबर पोर्टबिलिटी लागू नहीं हो पा रहा है. ऐसे एक नहीं, दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं. इसलिए यह जरूरी हो गया है कि टेलीकाम हो या अन्य मंत्रालय- कंपनियों के ताकतवर कार्टेल को तोड़ने के लिए न सिर्फ २ जी स्पेक्ट्रम की फिर से नीलामी की जाए बल्कि अन्य कंपनियों को मिले अतिरिक्त स्पेक्ट्रम के लिए नई दरों पर कीमत वसूल की जाए.

दूसरे, 2 जी घोटाले में सभी दोषियों के खिलाफ अनिवार्य रूप से आपराधिक षड्यंत्र का मुक़दमा दर्ज किया जाना चाहिए. साथ ही, इसकी समयबद्ध जांच पूरी करके पूरे मामले को फास्ट ट्रैक कोर्ट को सौंपा जाना चाहिए ताकि कानून को अपना काम करने देने के नाम पर न्याय का मजाक न बनाया जा सके. यही नहीं, जांच का दायरा भी २ जी लाइसेंस के आवंटन तक सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि पूरे टेलीकाम मंत्रालय की साख बहाल करने के लिए जांच के दायरे में लाइसेंस से राजस्व साझेदारी व्यवस्था और सी.डी.एम.ए से जी.एस.एम में शिफ्ट को भी लाया जाना चाहिए.

इसके बिना राजा के इस्तीफे भर से कुछ नहीं बदलने वाला है. एक राजा जाएंगे, दूसरे राजा आ जाएंगे और भ्रष्टाचार का राज चलता रहेगा.
('राष्ट्रीय सहारा' के १६ नवम्बर'१० के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

मंगलवार, नवंबर 16, 2010

येदियुरप्पा को भ्रष्ट मत कहिये, वे परंपरा निभा रहे हैं


सुशासन के नाम पर ‘निजी हितों’ को आगे बढ़ाने की राजनीति की चैम्पियन बन गई है भाजपा
कर्नाटक से झारखंड तक यही है भाजपा का असली ‘चाल, चरित्र और चेहरा’

जमीन लूट और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों पर कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस येदियुरप्पा का  कहना है कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है. उन्होंने सिर्फ परंपरा का पालन किया है. उनसे पहले भी कांग्रेस और जे.डी-यू के मुख्यमंत्रियों ने अपने सगे-सम्बन्धियों को सरकारी जमीन के प्लाट आवंटित किये हैं. उनसे पहले, टेलीकाम मंत्री ए. राजा भी यही तर्क दे रहे थे कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है और सिर्फ परंपरा और अपने पूर्ववर्तियों के दिखाए रास्ते का पालन किया है.  लेकिन भाजपा उनका इस्तीफा लेने के लिए जमीन-आसमान एक किये हुए थी.

यह है भाजपा की असलियत. खुद को अपने ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ से ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ बतानेवाली भारतीय जनता पार्टी के दावे की पोल-पट्टी बहुत पहले ही खुल चुकी है. पिछले डेढ़ दशकों में केंद्र और कई राज्यों में सत्ता की मलाई चख चुकी भाजपा ने राजनीतिक और नैतिक गिरावट के मामले में कांग्रेस को भी पीछे छोड़ दिया है. लेकिन ऐसा लगता है कि पार्टी के इस राजनीतिक और नैतिक पतन को रोकने के नाम पर पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस) की ओर से थोपे गए उसके नए अध्यक्ष नितिन गडकरी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता की मलाई के लिए राजनीतिक और नैतिक पतन के नए रिकार्ड बनाकर ही मानेगी.

पिछले कुछ सप्ताहों में कर्नाटक और झारखण्ड की राजनीति में गिरावट का जो नया रसातल देखा गया है, उससे एक बात साफ हो गई है कि आर.एस.एस के नेतृत्व में भाजपा की ‘नई राजनीति’ अपने ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ में किसी भी तरह से ‘पूर्ववर्ती राजनीति’ अलग नहीं है. जिन लोगों को यह भ्रम था कि आर.एस.एस राजनीति में शुचिता, ईमानदारी और नैतिकता का प्रतीक है और उसके नेतृत्व में भाजपा का कायाकल्प हो जायेगा, उनका भ्रम बहुत जल्दी टूट गया है. सत्ता की मलाई में खुली लूट के लिए भाजपा ने बाकायदा घोषित तौर पर न्यूनतम राजनीतिक और नैतिक मूल्यों, आदर्शों और परम्पराओं को भी ताक पर रख दिया है.

गडकरी की अगुवाई में भाजपा ने तय कर लिया है कि सत्ता के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती है और कोई भी समझौता कर सकती है. सच पूछिए तो कर्नाटक और झारखंड में सत्ता के लिए भाजपा ने खुद को खान (माइनिंग) माफिया के हाथों में सौंप दिया है. इन दोनों ही राज्यों में सत्ता की बागडोर वास्तव में बड़ी माइनिंग, रीयल इस्टेट कंपनियों और भ्रष्ट मंत्रियों-अफसरों-ठेकेदारों-दलालों-माफियाओं के हाथों में है. झारखण्ड भाजपा के अध्यक्ष के अनुसार, राज्य में खुद गडकरी की पहल पर कुछ दलाल उद्योगपतियों ने अर्जुन मुंडा की सरकार बनाने के लिए सारे इंतजाम किए ताकि पार्टी को धन-साधनों की कमी नहीं रहे. कर्नाटक में भी सत्ता से चिपके रहने के लिए हर तिकडम करने के पीछे यही तर्क दिया जा रहा है.

अगर ऐसा नहीं होता तो राजनीतिक शुचिता और नैतिकता की दुहाई देनेवाली भाजपा कर्नाटक में खुलेआम २५ से ५० करोड़ में एक-एक विधायक खरीदने, उन्हें मंत्री पद का लालच देने और अपने बागी विधायकों को अयोग्य ठहराने के लिए स्पीकर का इस्तेमाल करने जैसे पतित समझौते करने के बजाय अपने मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को इस्तीफा देने और विधानसभा भंग करके नया जनादेश लेने का फैसला करती.

लेकिन इसके उलट भाजपा कर्नाटक में ‘सुशासन’ का नया चेहरा पेश करने में जुटी हुई है. यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि भाजपा कर्नाटक में हर तिकडम का इस्तेमाल करके तकनीकी रूप से भले ही विश्वास मत जीतने में सफल हो गई हो लेकिन राजनीतिक और नैतिक रूप से वह न सिर्फ विधानसभा बल्कि जनता का विश्वास भी खो चुकी है.

सकी वजह यह है कि दक्षिण भारत में भाजपा की इस पहली सरकार ने सुशासन के नाम पर कर्नाटक की जनता के साथ धोखा ही किया है. लोगों ने कांग्रेस और जे.डी(एस) के नेतृत्ववाली सरकारों की भ्रष्ट, अवसरवादी, नाकारा और अमीरपरस्त नीतियों से तंग आकर और जे.डी (एस) द्वारा येदियुरप्पा के साथ कथित ‘धोखे’ से नाराजगी में भाजपा को मौका दिया था. लेकिन येदियुरप्पा सरकार को सत्ता में आये अभी मुश्किल से तीन साल भी नहीं हुए हैं और हालत यह है कि उसने भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, अवसरवाद, निकम्मेपन और आपसी सिर-फुटव्वल में पिछली सभी सरकारों को पीछे छोड़ दिया है.

पूरी सरकार भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है. यहां तक कि खुद मुख्यमंत्री येदियुरप्पा और उनके बेटों पर जमीन घोटालों के गंभीर आरोप लगे हैं. वैसे अधिकांश मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं. भ्रष्टाचार के आरोपों में अब तक दो मंत्रियों- एस.एन कृष्णैया और रामचंद्र गौड़ा को इस्तीफा देना पड़ा है जबकि अभी हाल में एक और मंत्री कट्टा सुब्रमनियम नायडू पर जमीन घोटाले का आरोप लगा है.

यहां तक कि लोकायुक्त ने कट्टा के बेटे को एक किसान को घूस देने की कोशिश करते हुए गिरफ्तार किया है. दूसरी ओर, सरकार पर बेल्लारी के माइनिंग किंग रेड्डी बंधुओं के दबदबे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सिर्फ साल भर पहले येदियुरप्पा को अपने पैरों पर नाक रगडने के लिए मजबूर करनेवाले रेड्डी बंधु इस बार सरकार बचाने की अगुवाई कर रहे थे.

जाहिर है कि रेड्डी बंधु इसकी पूरी कीमत भी वसूल रहे हैं और आगे भी वसूलेंगे. यह किसी से छुपा नहीं है कि बेल्लारी की खदानों से बड़े पैमाने पर लौह अयस्क का अवैध खनन और व्यापार सरकार के संरक्षण में चल रहा है. यहां तक कि इस साल जून में कर्नाटक के बेलेकेरी पोर्ट से लोकायुक्त द्वारा जब्त किया गया सैकड़ों करोड़ रूपये का लगभग ३५ लाख टन लौह अयस्क अवैध तरीके से निर्यात कर दिया गया. इस मामले में लोकायुक्त एन. संतोष हेगड़े ने इस्तीफा तक दे दिया था, इससे येदियुरप्पा सरकार की भारी किरकिरी हुई थी.

बात यहीं खतम नहीं होती. येदियुरप्पा सरकार के एक मंत्री एच. हलप्पा को अपने मित्र की पत्नी के साथ बलात्कार के आरोपों में इस्तीफा देना पड़ा जबकि एक अन्य मंत्री रेणुकाचार्य पर एक नर्स ने सार्वजनिक तौर पर यौन उत्पीडन का आरोप लगाया था. एक भाजपा विधायक वाई. सम्पंगी को पांच लाख रूपये की घूस लेते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया. आश्चर्य नहीं कि सत्ता की मलाई में अपने हिस्से के लिए भाजपा विधायकों में मंत्री बनने के लिए मार मची हुई है. हालत यह हो गई है कि मंत्री बनने के लिए भाजपा विधायक खुलेआम धरना, प्रदर्शन और लाबींग करते दिखे और जब मंत्री पद नहीं मिला या मलाईदार मंत्रालय नहीं मिला तो खुलेआम बगावत पर उतारू हो गए.

सल में, कर्नाटक में राजनीतिक पतन और उच्चक्केपन का जो खेल चल रहा है, वह कोई अपवाद नहीं है. कमोबेश यह एक राष्ट्रीय परिघटना बन चुका है. अधिकांश सत्ताधारी पार्टियां इस खेल में भागीदार हैं. हालांकि कांग्रेस इसकी स्रोत रही है लेकिन अब भाजपा पूरी तरह से कांग्रेसी संस्कृति में रंग चुकी है और कई मामलों में कांग्रेस के भी कान काटने पर उतारू है. कर्नाटक और झारखंड भाजपा के उस दोहरे राजनीतिक चरित्र की गवाही हैं जहां एक ओर पार्टी सार्वजनिक तौर पर ‘सुशासन’ की बात करती है लेकिन व्यवहार में, उसके नेता, विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री अपने ‘निजी हितों’ को प्राथमिकता देते हैं. पार्टी और सरकार दोनों इस ‘निजी हित’ के बंधक बन चुके हैं. आश्चर्य नहीं कि कर्नाटक में पार्टी और सरकार रेड्डी बंधुओं और झारखंड में अजय कुमार संचेती जैसों के निजी हितों की बंधक है.

यह ठीक है कि गडकरी ने कथित सुशासन पर ‘निजी हितों’ की प्राथमिकता की राजनीति को न सिर्फ खुली स्वीकृति और वैधता दे दी है बल्कि सांस्थानिक रूप भी दे दिया है. लेकिन गडकरी के इस योगदान के बावजूद पूरा सच यह है कि वह भाजपा की परंपरा और विरासत को ही आगे बढ़ा रहे हैं. आखिर सत्ता की मलाई के लिए सबसे पहले भाजपा ने उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में ९५ सदस्यी मंत्रिमंडल का रिकार्ड बनाया था.

उसी दौर में भाजपा के सुशासन के माडल राज्य गुजरात में केशुभाई पटेल और शंकर सिंह बघेला के बीच सत्ता पर कब्जे का खुला और नंगा खेल चला. इसके बाद तो भाजपा के ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ को तार-तार होने में ज्यादा समय नहीं लगा. इस मायने में, आज कर्नाटक और झारखंड के अलावा दूसरे भाजपा शासित राज्यों में जो कुछ हो रहा है, वह उसी प्रवृत्ति की निरंतरता और विस्तार भर है.

लेकिन निजी हितों की भरपाई के लिए सत्ता के इस्तेमाल और सार्वजनिक संपत्ति और संसाधनों की लूट की इस राजनीति की असली कीमत आम जनता चुका रही है. कहने की जरूरत नहीं है कि येदियुरप्पा की सरकार विधायकों और मंत्रियों और उनके कारपोरेट संरक्षकों के निजी हितों को प्राथमिकता देकर जितने भी दिन और सत्ता में रहेगी, राज्य और आम लोगों के हितों की ही क़ुरबानी देगी. कर्नाटक को इस लूट और राजनीतिक कीचड़ से निकालने के लिए कांग्रेसी राज्यपाल या कांग्रेस-जे.डी(एस) की अवसरवादी सरकार बनाने या हाई कोर्ट से उम्मीद करना भी बेकार है.

ऐसे में, यह जरूरी हो गया है कि विधानसभा भंग करके तत्काल नए चुनाव कराए जाएं. हालांकि कर्नाटक में लोगों के सामने कोई खास विकल्प नहीं है लेकिन लोकतंत्र में किसी भी और जोड़तोड़ के बजाय लोगों की अदालत में जाना ज्यादा बेहतर विकल्प है.

('समकालीन जनमत' के नवम्बर अंक में प्रकाशित लेख का संशोधित और परिवर्धित रूप)

सोमवार, नवंबर 15, 2010

इट्स जॉब स्टुपिड !

देश में ऊँची बेरोजगारी दर के बावजूद सरकार अमेरिका को रोजगार आउटसोर्स कर रही है

आप चाहें या न चाहें लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को इसका श्रेय देना पड़ेगा. उनके मुंबई दौरे से ‘रोजगार’ शब्द अचानक चर्चाओं में आ गया है. अपनी राजनीतिक मजबूरियों के कारण ही सही लेकिन ओबामा जिस तरह से ‘जॉब-जॉब’ का मन्त्र जाप कर रहे हैं, उसे अनदेखा करना मुश्किल है. हमारे-आपके लिए रोजी-रोजगार भले ही कितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो लेकिन कारोबारी समझौतों में रोजगार को शायद ही कभी इतना महत्व मिलता रहा हो, जितना ओबामा की भारत यात्रा में मिला है.

ऐसा पहली बार हो रहा है कि कारोबारी डील की कुल कीमत के बराबर चर्चा रोजगार की भी हो रही है. खबरों के मुताबिक ओबामा के मुंबई दौरे में अमेरिकी कंपनियों ने भारतीय कंपनियों के साथ लगभग १० अरब डालर (४४ हजार करोड़ रूपये) के कोई बीस समझौतों पर दस्तखत किए हैं जिनसे अमेरिका में कोई ५० हजार नई नौकरियां पैदा होंगी. जाहिर है कि ओबामा इन सौदों के जरिये एक तीर से कई शिकार कर रहे हैं.

वह एक ओर इन बड़े-बड़े सौदों के जरिये राजनीतिक रूप से अत्यधिक ताकतवर अमरीकी कारपोरेट लाबी को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी ओर, उनकी निगाह इन सौदों से पैदा होनेवाले रोजगार की जोरशोर से चर्चा करके मध्यमवर्गीय-कामकाजी अमेरिकियों का समर्थन जीतने पर है.

यह ओबामा की राजनीतिक मजबूरी है. माना जा रहा है कि अमेरिकी कांग्रेस के लिए हाल में हुए चुनावों में ओबामा की डेमोक्रेटिक पार्टी की हार की सबसे बड़ी वजह इस समय अमेरिका में बेरोजगारी दर का ९.५ प्रतिशत के आसपास पहुंच जाना है. असल में, अमेरिकी अर्थव्यवस्था जिस संकट में फंसी है, वह केवल एक अर्थव्यवस्था का संकट नहीं है बल्कि पूरे वैश्विक पूंजीवाद का संकट है.

हालांकि इस संकट से निकलने के लिए अमेरिका और यूरोप समेत अधिकांश विकासशील देशों ने स्टिमुलस पैकेजों के नाम पर खरबों डालर झोंक दिए लेकिन उनका असली फायदा वे बैंकिंग और वित्तीय कंपनियां उठा ले गईं जिनके लालच और सट्टेबाजी के कारण संकट पैदा हुआ था. नतीजा संकट कमोबेश ज्यों का त्यों बना हुआ है.

इस गहराते संकट ने एक झटके में कारपोरेट भूमंडलीकरण पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. यहां तक कि अमेरिका समेत तमाम विकसित देशों में स्थानीय जनमत भूमंडलीकरण के नाम पर रोजगार के आउटसोर्सिंग से लेकर घरेलू अर्थव्यवस्था में प्रवासी कामगारों की बढ़ती संख्या के खिलाफ होता जा रहा है. इस कारण राजनीतिक रूप से कारपोरेट भूमंडलीकरण का बचाव करना मुश्किल हो रहा है. आश्चर्य नहीं कि अमेरिका में हाल के महीनों में आउटसोर्सिंग आदि के खिलाफ सुर तेज हो रहे हैं जिनकी अगुवाई खुद ओबामा कर रहे हैं.

हालांकि तथ्य यह है कि आउटसोर्सिंग और प्रवासी कामगार कारपोरेट भूमंडलीकरण की अनिवार्यताएं हैं और इसके लिए सिर्फ और सिर्फ बड़ी अमेरिकी पूंजी जिम्मेदार है. लेकिन ओबामा असली वजह को निशाना बनाने के बजाय उन विकासशील देशों और उनकी कंपनियों को निशाना बना रहे हैं जिनके सस्ते श्रम के बिना कई बड़ी अमेरिकी कंपनियों के लिए बाजार में टिकना मुश्किल हो जायेगा. ओबामा इन्हीं कंपनियों को बचाने के लिए ‘रोजगार-रोजगार’ खेल रहे हैं ताकि अमेरिकी जनमत को संतुष्ट किया जा सके.

अफसोस की बात यह है कि ओबामा के इस खेल में मनमोहन सिंह सरकार भी शामिल हो गई है. वह अमेरिका को खुश करने के लिए भारत से रोजगार आउटसोर्स करने पर भी तैयार हो गई है. सवाल सिर्फ ५० हजार नौकरियों का ही नहीं है बल्कि भारतीय औद्योगिक संगठन- सी.आई.आई के मुताबिक अगले एक दशक में भारत द्वारा अमेरिकी हथियारों, युद्धक विमानों, परमाणु रिएक्टरों और उपकरणों और इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र की मशीनरी की खरीद से अमेरिका में सात लाख से अधिक रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे.

इस उदारता को देखकर ऐसा लगता है कि भारत में रोजगार की कोई समस्या ही नहीं है. लगता है कि यू.पी.ए सरकार ने खुद अपने श्रम मंत्रालय के लेबर ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट नहीं देखी है जिसके मुताबिक वर्ष २००९-१० में देश में बेरोजगारी की दर ९.४ प्रतिशत तक पहुंच चुकी है. इसका अर्थ यह हुआ कि इस समय देश में चार करोड़ से अधिक बेरोजगार हैं. बेरोजगारी की यह वही दर है जिसपर अमेरिकी राजनीति में इस कदर भूचाल आया हुआ है कि ओबामा की पूरी कूटनीति सिर्फ एक शब्द- रोजगार के इर्द-गिर्द घूम रही है.

लेकिन भारत में बेरोजगारी की इस विस्फोटक स्थिति के बावजूद कहीं कोई हलचल नहीं है. इस मुद्दे पर न तो कभी संसद ठप्प हुई और न ही कोई बंद हुआ. ऐसा लगता है, जैसे इस मुद्दे पर सरकार, विपक्ष, राजनीतिक दलों और कारपोरेट मीडिया में एक ‘षड्यंत्र भरी चुप्पी’ छाई हुई है. जाहिर है कि इसकी कीमत देश के वे करोड़ों बेरोजगार चुका रहे हैं जिनकी नौकरियों को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के वायदे की भेंट चढ़ाने का फैसला कर लिया गया है.

लेकिन अंततः इसकी कीमत भारतीय अर्थव्यवस्था को ही चुकानी पड़ेगी क्योंकि बढ़ती बेरोजगारी से घरेलू बाजार में भी मांग में गिरावट की वही स्थिति पैदा हो सकती है जिसका सामना अमेरिका समेत विकसित देश कर रहे हैं. बिल क्लिंटन के शब्दों में कुछ फेरबदल करके कहें तो मुद्दा सुरक्षा परिषद् की सीट या पाकिस्तान को अमेरिकी झाड़ नहीं है- "इट्स जाब स्टुपिड!"

('अमर उजाला' के १२ नवम्बर के अंक सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)