“भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की.
बम्ब-सम्ब की छोडो, भाषण दिया कि पकडे जाओगे.”
- कवि शंकर शैलेन्द्र (१९४८, हंस)
कुछ दोस्तों का कहना है कि अरुंधती जैसों को देश में रहने का हक नहीं है क्योंकि वे ‘देश’ के खिलाफ बोलती हैं. मतलब यह कि अरुंधती जैसों को बोलने के जुर्म में या तो जेल भेजो या देश से बाहर करो.
हालांकि इनमें से कई मित्र बड़े गर्व से यह भी कहते हैं कि यह भारत जैसे देश में ही संभव है कि यहां देश के खिलाफ बोलनेवाले को सिर पर बैठाया जाता है या ‘प्रधानमंत्री के खिलाफ बोलनेवाले को लात नहीं, पुलिस सुरक्षा मिलती है.’ तात्पर्य यह कि देखो, भारत कितना महान लोकतंत्र है जहां ‘देशद्रोहियों’ को भी ‘बोलने की आज़ादी’ है!
और तो और, गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने भी कुछ ऐसे ही अंदाज़ में कहा कि अरुंधती के खिलाफ कार्रवाई न करना भी एक कार्रवाई है. वाह, ‘कौन न मर जाए ए खुदा इस सादगी पर, लड़ते तो है पर हाथ में तलवार नहीं.’ लेकिन माफ़ करिए, ढोंग की भी एक हद होती है. यह आला दर्जे का पाखंड है.
कहने की इच्छा होती है कि किसी दया की जरूरत नहीं है, अरुंधती को जेल भेज दो. इससे कम से कम एक ढोंग से तो पर्दा हट जायेगा. इससे समूची दुनिया को कम से कम ‘दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र’ की असलियत का पता चल जायेगा. भारत और पाकिस्तान या म्यांमार या ईरान या उत्तर कोरिया के बीच का कथित ‘अंतर’ तो मिट जायेगा.
लेकिन सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि कश्मीर की मौजूदा स्थिति की तरफ दुनिया का ध्यान जायेगा. साथ ही, इससे उन दर्जनों पत्रकारों, लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों की तरफ भी लोगों का ध्यान जायेगा जिन्हें इसी महान देश में देशद्रोह जैसे गंभीर आरोपों में अभी भी जेल में बंद रखा गया है.
निश्चय ही, अरुंधती बहुत ‘भाग्यशाली’ या कहिये कि अंग्रेजी में लिखनेवाली अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की लेखिका हैं, अन्यथा अब तक जेल में होतीं. ऐसे लेखकों, पत्रकारों और कलाकारों की सूची काफी लंबी है जिन्हें लिखने, बोलने या और कुछ नहीं तो माओवादियों/नक्सलियों/आतंकवादियों से सम्बन्ध रखने के जुर्म में देशद्रोह से लेकर टाडा/पोटा के आरोपों में जेल में बंद रखा गया है. पिछले दो साल में हुई ऐसी गिरफ्तारियों की सूची बहुत लंबी है.
देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या हाल है, यह कृपया इस वेबसाइट पर जाकर देखें:
http://www.ifex.org/india/alerts/
इस देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी के क्या मायने हैं, यह उन गुमनाम पत्रकारों/लेखकों/बुद्धिजीवियों से नहीं तो जाने-माने बुद्धिजीवी आशीष नंदी से ही पूछ लीजिए. उन्हें गुजरात के शर्मनाक जनसंहार के खिलाफ ‘टाइम्स आफ इंडिया’ में लेख लिखने के आरोप में विभिन्न जगहों पर मुकदमे दर्ज करके किस तरह से परेशान करने की कोशिश की गई. यही नहीं, ‘टाइम्स आफ इंडिया’ के अहमदाबाद संस्करण के स्थानीय संपादक के खिलाफ देशद्रोह के आरोपों में मुक़दमा दर्ज किया गया.
ऐसे दर्जनों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं. हालांकि यह कोई नई बात नहीं है. कवि-लेखकों को इसका अहसास बहुत पहले ही हो गया था. कवि शंकर शैलेन्द्र ने १९४८ में ‘हंस’ में यह गीत लिखा था: “भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की...बम्ब-सम्ब की छोडो, भाषण दिया कि पकडे जाओगे.” आश्रय नहीं कि ‘हंस’ के जिस अंक में यह कविता छपी, उसे भी प्रतिबंधित कर दिया गया. और फिर आपातकाल आते-आते लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी की असलियत खुल कर सामने आ गई.
मित्रों, कहने का आशय यह कि भारत इतना साफ्ट स्टेट भी नहीं है और न ही इतना उदार लोकतंत्र है, जितना साबित करने की कोशिश की जाती है. कवि धूमिल ने लिखा था: “लोहे का स्वाद मुहर से नहीं, घोड़े से पूछो, जिसके मुंह में लगाम होती है.” यह राज्य कितना कठोर है, इसका पता तभी चल सकता है जब आप या तो कश्मीर, उत्तर पूर्व के किसी राज्य या झारखंड, छत्तीसगढ़ के आदिवासी और गरीब परिवार में पैदा हों.
यही नहीं, अगर आप देश के किसी भी हिस्से में दलित, अल्पसंख्यक, गरीब और दबे-कुचले परिवार में पैदा हुए हैं, तब भी आपको राज्य की कठोरता का अंदाज़ा हो चुका होगा. और अगर आपने गलती से भी अपने संवैधानिक अधिकारों जैसे न्यूनतम मजदूरी, भूमि सुधार जैसे मुद्दों पर आवाज़ उठाने की जुर्रत कर दी तो इस साफ्ट स्टेट को गोलियाँ चलाने में देर नहीं लगती है. कभी गिनने की कोशिश कीजियेगा कि इस देश में आज़ादी के बाद से किसानों, मजदूरों, विद्यार्थियों, आदिवासियों, गरीबों, अल्पसंख्यकों और बेरोजगारों पर कितनी बार लाठियां और गोलियाँ बरसाई गई हैं.
मित्रों, फिर भी अगर आप चाहते हैं कि जैसे मकबूल फ़िदा हुसैन को देश बदर कर दिया गया या जैसे बंगलादेश ने तस्लीमा नसरीन को खदेड़ दिया, उसी तरह से अरुंधती जैसों को भी देश से बाहर कर दिया जाए तो दो मिनट के लिए ठन्डे दिमाग से सोचिये कि इसका क्या मतलब है? कल्पना कीजिये उस मुल्क के बारे में जहां अरुंधती जैसे सैकड़ों लेखक, कलाकार, पत्रकार, बुद्धिजीवी जेल में हों या देश से निर्वासित, क्या वह देश सचमुच, रहने लायक होगा?
सच मानिये, ऐसा देश खुद में एक जेल होगा. दरअसल, कोई भी देश और समाज अपने लोकतंत्र को तभी सुरक्षित रख सकता है जब वह सत्ता और शासक वर्गों की बनाई ‘आम सहमति’ के खिलाफ अपने लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों को खुलकर बोलने की आज़ादी देता है.
किसी भी लोकतंत्र की वास्तविक परीक्षा यह है कि वह कितनी तरह की आवाजों को और कहां तक बोलने की आज़ादी देता है. कोई भी लोकतंत्र अपने आप में पूर्ण नहीं है और उसे बेहतर बनाने के लिए यह जरूरी है कि उसमें बोलने की आज़ादी से लेकर अन्य सभी मौलिक मानवाधिकारों के दायरे को सीमाओं में बांधने के बजाय उसके दायरे को लगातार फ़ैलाने की कोशिश की जाए.
सच पूछिए तो भारत में जैसा भी और जितना भी लोकतंत्र जीवित है, वह किसी सत्ताधारी पार्टी या उसके नेता के कारण नहीं बल्कि इस देश के करोड़ों गरीबों और दबे-कुचले लोगों की बदौलत जिन्दा है. कौन नहीं जनता कि इस देश में इमरजेंसी के दिनों में जब कारपोरेट मीडिया को “घुटने चलने के लिए कहा गया तो वह रेंगने लगा था.”
यह तो करोड़ों गरीब-गुरबा थे जिन्होंने आपातकाल के पैरोकारों को चुनावों में सबक सिखाकर इस लोकतंत्र बचा लिया था. इसी तरह, इस देश के देशभक्त मध्यवर्ग में फौजी शासन को लेकर प्रेम जब-तब जाहिर होता रहता ही है. उनका वश चलता तो देश में फौजी शासन ही होता.
मित्रों, इस देश में लोकतंत्र अभी गढा जा रहा है. उसमें अभी बाहर सुधार और रैडिकल बदलाव की जरूरत है. यह तभी संभव है जब उसमें अरुंधती जैसे लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों की कद्र की जाए न कि उन्हें जेल भेजने या देश से निकालने की मांग की जाए.
...अभिव्यक्ति की आज़ादी के क्या मायने हैं, इसपर शनिवार को कुछ और बातें करेंगे....
1 टिप्पणी:
सर,जरा हमें भी बताएं ,आपकी वरुण गाँधी और राज ठाकरे के बारे में क्या राय है ! वो भी तो अपनी बात ही तो रखते है ! ravi
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