राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी के नव उदारवादी सुधारों खासकर पेंशन सुधारों के खिलाफ ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व में शुरू हुए देशव्यापी मजदूर आंदोलन की नई लहर ने सिर्फ फ़्रांस ही नहीं बल्कि पूरे यूरोप को हिला कर रख दिया है. लगभग एक महीने से भी अधिक समय से जारी हडतालों और विरोध प्रदर्शनों के कारण पूरा फ़्रांस ठहर सा गया और सडकों पर लाखों की संख्या में मजदूरों-छात्रों का सैलाब छाया रहा. इस जबरदस्त आंदोलन ने १९६८ के ऐतिहासिक युवा-श्रमिक आंदोलन की यादों को फिर से ताजा कर दिया है.
हालांकि सरकोजी ने पेंशन सुधारों को अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है और विरोधों के बावजूद फ़्रांस की सीनेट में यह कानून बहुत मामूली बहुमत १५३ मतों के मुकाबले १७७ मतों से पारित हो गया है. लेकिन मजदूर संगठनों के रूख से साफ है कि यह लड़ाई का अंत नहीं है. कानून के सीनेट और राष्ट्रीय असेम्बली में पारित होने के बावजूद विरोध प्रदर्शनों और हडतालों का सिलसिला जारी है.
यही नहीं, इस आंदोलन को मिलनेवाला जनसमर्थन लगातार बढ़ता जा रहा है. कई जनमत सर्वेक्षणों के मुताबिक इस आंदोलन को ७० प्रतिशत से अधिक लोगों का समर्थन हासिल है. दूसरी ओर, सरकोजी निहायत ही अलोकप्रिय राष्ट्रपति हो गए हैं. हालत यह हो गई है कि सरकोजी की लोकप्रियता रेटिंग घटकर सिर्फ ३० प्रतिशत रह गई है.
सरकोजी की पार्टी- यू.एम.पी को लोगों के बढ़ते गुस्से का राजनीतिक खामियाजा भी उठाना पड़ा है. इस साल मार्च में हुए राज्य असेम्बलियों के चुनावों में यू.एम.पी को करार झटका लगा जब २६ में से २३ असेम्बलियों में ग्रीन-लेफ्ट गठबंधन ने कब्ज़ा जमा लिया. असल में, सरकोजी के नव उदारवादी सुधारों के खिलाफ पिछले डेढ़ साल से मजदूरों का संघर्ष जारी है. यह संघर्ष सरकोजी सरकार द्वारा पेंशन सुधारों के नाम पर रिटायरमेंट की उम्र ६० साल से बढ़ाकर ६२ साल करने और पूरे पेंशन लाभ के लिए उम्र सीमा ६५ से बढ़ाकर ६७ साल करने के फैसले के बाद और तेज हो गया है.
जाहिर है कि मजदूर संगठन और व्यापक जनमत इन सुधारों के खिलाफ है. उनका कहना है कि मौजूदा वित्तीय संकट और वैश्विक मंदी बैंकों और वित्तीय संस्थानों की बेलगाम मनमानी और सट्टेबाजी के कारण आई है और उनके नुकसान की भरपाई आमलोगों के हितों को कुर्बान करके की जा रही है. उनका तर्क है कि नए पेंशन सुधारों के बाद मजदूरों को पेंशन के लिए न सिर्फ अधिक उम्र तक कम करना पड़ेगा बल्कि पूर्ण पेंशन लाभों के लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ेगा. इसके उलट अमीरों और अभिजात्य वर्गों को पहले की तरह ही मलाई मिलती रहेगी. मजदूरों के साथ-साथ युवा, विद्यार्थी, रिटायर्ड लोग इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है.
यह ठीक है कि फ़्रांस के इस जबरदस्त मजदूर आंदोलन को पिछले दो सालों से पूरे यूरोप में मैड्रिड से लेकर एथेंस तक जारी मजदूर आंदोलनों की कड़ी में ही देखा जाना चाहिए जो वैश्विक मंदी की आड़ में शासक वर्गों द्वारा नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने और सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों में कटौती को खुली चुनौती दे रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद फ़्रांस का यह मजदूर आंदोलन कई कारणों से खास और महत्वपूर्ण है.
पहली बात तो यह है कि इस आंदोलन सिर्फ मजदूरों तक सीमित नहीं है. हालांकि मजदूरों के मामले में भी यह हाल के दशकों में सबसे व्यापक आंदोलन है लेकिन इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसे फ्रेंच समाज के मुट्ठी भर अभिजात्य और अमीर वर्गों को छोड़कर सभी वर्गों का व्यापक समर्थन मिल रहा है.
इस आंदोलन की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि विरोध प्रदर्शनों में सिर्फ श्रमिक ही नहीं बल्कि विद्यार्थी, युवा और आमलोग भी खुलकर हिस्सा ले रहे हैं. इस आंदोलन में विद्यार्थियों और युवाओं की जबरदस्त भागेदारी ने सबको चौंका दिया है. यह भी एक बड़ा कारण है कि यह आंदोलन जल्दी खतम होता नहीं दिख रहा है. दूसरे, पहली बार ऐसा हो रहा है कि मजदूर आंदोलन सिर्फ पेरिस और कुछ दूसरे बड़े शहरों तक सीमित नहीं है बल्कि देश के कोने-कोने में फ़ैल गया है. हालत यह है कि बीस-बीस हजार की आबादी वाले छोटे-छोटे कस्बों और नगरों में भी सात-आठ हजार के विरोध प्रदर्शन हुए हैं.
तीसरे, फ़्रांस के इस आंदोलन ने यूरोप के अन्य देशों में भी मजदूरों और ट्रेड यूनियनों में जोश भर दिया है. इस कारण इस बात के पूरे आसार हैं कि आनेवाले दिनों में यूरोप में मजदूर आन्दोलनों की नई और जोरदार लहर दिख सकती है क्योंकि वैश्विक मंदी से निपटने और बजट घाटे को कम करने की आड़ में पूरे यूरोप में सामाजिक सुरक्षा के बजट में भारी कटौती की जा रही है. नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को थोपा जा रहा है. इसके खिलाफ लोगों में गुस्सा बढ़ रहा है.
इस लिहाज से अगले कुछ महीने बहुत महत्वपूर्ण हैं. नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को उन देशों में ही चुनौती मिलनी शुरू हो गई है जिन्हें उसकी सफलता के माडल के रूप में पेश किया जाता रहा है. सवाल है कि फ़्रांस के बाद अगली बारी किसकी है?
('समकालीन जनमत' के नवम्बर'१० अंक में दिल्ली डायरी स्तम्भ में प्रकाशित)
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