उन्हें अब एक मिनट भी कुर्सी पर बैठने का हक़ नहीं है
लाख टके का सवाल है कि एक के बाद एक घोटालों के भंडाफोड के बीच घिरते कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा कब जाएंगे? इस सवाल का सिर्फ एक ही जवाब हो सकता है कि उन्हें खुद तत्काल कुर्सी छोड़ देनी चाहिए और अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व को उन्हें तुरंत हटा देना चाहिए. लेकिन न सिर्फ येदियुरप्पा कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व अभी भी उनका बचाव कर रहा है.
अगर भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व में जरा भी राजनीतिक शर्म बची है और नैतिकता का लिहाज है तो उसे यह फैसला करने में अब एक मिनट की भी देर नहीं करनी चाहिए. भाजपा और उसके केन्द्रीय नेता जिस राजनीतिक नैतिकता, परम्पराओं और शुचिता की दुहाई देते नहीं थकते हैं उसके आधार पर येदियुरप्पा को हटाने का फैसला कई महीनों पहले ही हो जाना चाहिए था. यही नहीं, भाजपा जिस आधार पर ए. राजा, अशोक चाहवान और सुरेश कलमाड़ी के इस्तीफे और उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग करती रही है, उस आधार पर भी येदियुरप्पा को अब तक चले जाना चाहिए था.
लेकिन भाजपाई नैतिकता की ऊंचाई देखिये कि येदियुरप्पा न सिर्फ बने हुए हैं बल्कि ताल ठोंककर अपने सगे-सम्बन्धियों को करोड़ों की सरकारी जमीन कौडियों के मोल बांटने और उनपर सरकारी खजाना लुटाने बचाव कर रहे हैं. उनका कहना है कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है. वे सिर्फ अपने पूर्ववर्तियों के दिखाए रास्ते और परंपरा का पालन कर रहे हैं. जब ज्यादा दबाव बढ़ा तो उन्होंने अशोक चाहवान की तर्ज पर कहा कि वे जमीन वापस कर देंगे. यही नहीं, येदियुरप्पा ने यह भी प्रचार किया कि उन्होंने भगवान के दरबार में जाकर अपनी गलतियों के लिए माफ़ी मांग ली है.
अब उनकी सरकार ने फैसला किया है कि पिछले दस वर्षों में कर्नाटक में सरकारी जमीन को डी-नोटिफाई करने और उसके आवंटन के सभी मामलों की सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज से जांच कराया जाए. लेकिन इस्तीफा देने के लिए वे अब भी तैयार नहीं हैं. जबकि निष्पक्ष जांच के लिए यह अनिवार्य है कि वे अविलम्ब पद छोड़ें. ऐसे में, जनता से माफ़ी मांगने और उसके दरबार में दोबारा जनादेश मांगने जाने की बात ही दूर है. ऐसे में, यह समझना मुश्किल नहीं है कि जांच सिर्फ एक नाटक और घोटालों से ध्यान हटाने की कोशिश भर है.
कहते हैं कि टेलीकाम मंत्री ए. राजा के मामले में प्रधानमंत्री गठबंधन सरकार की मजबूरियों के कारण लाचार थे. हालांकि इस तर्क को किसी भी तरह से स्वीकार नहीं किया जा सकता है लेकिन भाजपा के पास कर्नाटक में यह तर्क भी नहीं है. आखिर राजनीति में ‘नैतिकता और शुचिता’ की प्रतिमूर्ति आडवाणी जी धृतराष्ट्र की तरह आँखों पर पट्टी क्यों बांधे हुए हैं?
साफ़ है कि भ्रष्टाचार के महा हमाम्म में सब नंगे हैं. लेकिन मजा देखिये कि हरेक को दूसरे की कालिख ही नजर आती है. चूँकि भाजपाई खुद को कुछ ज्यादा ही चतुर समझते हैं, इसलिए वे यह कालिख खुद को ही पोतने में जुटे हैं.
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