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सोमवार, मई 19, 2014

हा-हा! वामपंथ दुर्दशा देखि न जाई

क्या सरकारी वामपंथ हाशिए से अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ रहा है?

लोकसभा चुनावों में वाम मोर्चे यानी सी.पी.आई-एम और सी.पी.आई की ऐतिहासिक हार हुई है. वाम मोर्चे का यह प्रदर्शन पिछले तीन दशकों में अब तक का सबसे बदतर प्रदर्शन है. सीटों और कुल वोटों दोनों के मामलों में आई गिरावट खतरे की घंटी है. सी.पी.आई-एम और सी.पी.आई दोनों की राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता खतरे में पड़ गई है. पश्चिम बंगाल में सी.पी.आई-एम और भाजपा के वोटों में सिर्फ कुछ फीसदी वोटों का ही फर्क रह गया है.
इस हार से पहले से ही हाशिए पर पहुँच चुके सरकारी वामपंथ के लिए राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक और वैचारिक रूप से अप्रासंगिक होने का खतरा पैदा हो गया है. लेकिन लगता नहीं है कि वाम मोर्चे के नेतृत्व खासकर सी.पी.आई-एम के नेतृत्व में इस खतरे को लेकर कोई बेचैनी और उससे निपटने की रणनीति, तैयारी और उत्साह है.

उल्टे लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश भर में वाम कार्यकर्ताओं के बीच पैदा हुई पस्त-हिम्मती, निराशा और हताशा के बीच वाम मोर्चे खासकर सी.पी.आई-एम नेतृत्व की निश्चिन्तता और जैसे कुछ हुआ ही न हो (बिजनेस एज यूजुअल) का व्यवहार हैरान करनेवाला है.

सी.पी.आई-एम नेताओं का कहना है कि चुनावों में त्रिपुरा और केरल में पार्टी का प्रदर्शन संतोषजनक है जबकि पश्चिम बंगाल में खराब प्रदर्शन के लिए तृणमूल सरकार की गुंडागर्दी, आतंकराज और बूथ कब्ज़ा जिम्मेदार है.
माकपा महासचिव प्रकाश करात का तर्क है कि पश्चिम बंगाल के नतीजे वामपंथी पार्टियों की वास्तविक ताकत को प्रदर्शित नहीं करते हैं. यह सही है कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल ने सरकारी मशीनरी और गुंडों की मदद से आतंकराज कायम कर दिया है जिसकी मार वामपंथी नेताओं और कार्यकर्ताओं पर पड़ रही है.
लेकिन क्या सिर्फ इस कारण पश्चिम बंगाल में वामपंथ का प्रदर्शन इतना खराब और लगातार ढलान की ओर है? जाहिर है कि सी.पी.आई-एम का राष्ट्रीय और स्थानीय नेतृत्व सच्चाई से आँख चुरा रहा है.

क्या यह सच नहीं है कि तृणमूल के गुंडों में तीन चौथाई वही हैं जो कल तक सी.पी.आई-एम के साथ खड़े थे? हैरानी की बात नहीं है कि नंदीग्राम के लिए जिम्मेदार माने जानेवाले तत्कालीन माकपा सांसद लक्षमन सेठ आज पाला बदलकर तृणमूल की ओर खड़े हैं.

यह कड़वा सच है कि पश्चिम बंगाल में सी.पी.आई-एम ने जिस हिंसा-आतंक की राजनीतिक संस्कृति की नींव रखी और अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ उसका बेहिचक इस्तेमाल किया है, वह पलटकर उसे निशाना बना रही है.
लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सी.पी.आई-एम पश्चिम बंगाल में न सिर्फ तृणमूल सरकार की खामियों और विफलताओं को उठाने में नाकाम रही है बल्कि राजनीतिक रूप से उसकी लोकलुभावन राजनीति का जवाब खोजने में कामयाब नहीं हुई है. उसके पास न तो राज्य की राजनीति में कोई नया आइडिया और मुद्दा है और न ही राष्ट्रीय राजनीति में वह गैर कांग्रेस-गैर भाजपा राजनीति के लिए कोई चमकदार आइडिया पेश कर पा रही है.  
इसका नतीजा केरल में भी दिख रहा है. देश भर में कांग्रेस विरोधी लहर के बावजूद केरल में सी.पी.आई-एम उसकी धुरी नहीं बन पाई तो उसका कारण क्या है? लेकिन पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के बदतर प्रदर्शन और केरल में फीके प्रदर्शन को एक मिनट के लिए भूल भी जाएँ तो देश के अन्य राज्यों में वामपंथी पार्टियों की दुर्गति के लिए कौन जिम्मेदार है?

खासकर हिंदी प्रदेशों में सरकारी वामपंथ की ऐसी दुर्गति का क्या जवाब है? हालाँकि हिंदी प्रदेशों में वामपंथ की दुर्गति कोई नई बात नहीं है लेकिन इन चुनावों में वह लगभग अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ चला है.

इसकी वजह यह है कि हिंदी प्रदेशों और पंजाब सहित महाराष्ट्र आदि कई राज्यों में आम आदमी पार्टी सरकारी वामपंथ के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभर आई है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकारी वामपंथ ने गैर कांग्रेस-गैर भाजपा वैकल्पिक राजनीति को जिस तरह से सपा-राजद-जे.डी-यू-जे.डी-एस,बी.जे.डी,द्रुमुक-अन्ना द्रुमुक-वाई.एस.आर.पी जैसी उन मध्यमार्गी पार्टियों के अवसरवादी गठबंधन की बंधक और जातियों के गठजोड़ तक सीमित कर दिया है जो खुद भ्रष्टाचार और कारपोरेट-परस्त नीतियों के आरोपों से घिरी हैं.
इस कारण आज वाम मोर्चे ने अपनी स्वतंत्र पहचान खो दी है और उसे भी सपा-बसपा-आर.जे.डी जैसी तमाम मध्यमार्गी, अवसरवादी, सत्तालोलुप और कारपोरेट-परस्त पार्टियों की भीड़ में शामिल पार्टियों में मान लिया गया है जो धर्मनिरपेक्षता के नामपर कांग्रेस के साथ खड़ा हो जाती हैं.

कांग्रेस और दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों के साथ यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निकटता और उनके दुमछल्ले की छवि सरकारी वामपंथ के लिए भारी पड़ी है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन अवसरवादी और सत्तालोलुप मध्यमार्गी पार्टियों के संग-साथ के लिए वामपंथ ने अपने रैडिकल मुद्दों को छोड़ने के साथ और विचारों को भी लचीला बना दिया है.   

हैरानी की बात नहीं है कि इन चुनावों में मुद्दों, विचारों और व्यक्तियों की लड़ाई और बहसों में वामपंथ कहीं नहीं था. ऐसा लग रहा था जैसे लड़ाई शुरू होने से पहले ही वामपंथ ने हथियार डाल दिए हों. वह राजनीतिक रूप से अलग-थलग और वैचारिक रूप से दुविधा में दिख रहा था. पूरे चुनाव के कथानक में वाम राजनीति की कहीं कोई चर्चा नहीं थी. इसके लिए कोई और नहीं बल्कि सरकारी वामपंथ और उसका वैचारिक-राजनीतिक दिवालियापन जिम्मेदार था.
यही नहीं, धर्मनिरपेक्षता जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण विचार और मुद्दे को जिस सिनिकल तरह से भ्रष्टाचार, परिवारवाद, अवसरवाद और निक्कमेपन को छुपाने के लिए इस्तेमाल किया गया है, उसके लिए सरकारी वामपंथ कम जिम्मेदार नहीं है. इससे आज धर्मनिरपेक्षता का विचार संकट में है.

कहने की जरूरत नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता के विचार को आमलोगों के रोजी-रोटी और बेहतर जीवन के बुनियादी सवालों और बेहतर प्रशासन की जिम्मेदारी से काटकर सिर्फ भाजपा को रोकने के लिए जोड़तोड़ का पर्याय बना देने की सिनिकल राजनीति अब अपने अंत पर पहुँच गई है.

आशंका यह है कि इससे सीखने के बजाय भाजपा के जबरदस्त उभार के बाद सरकारी वामपंथ एक बार फिर चुकी और नकारी हुई कांग्रेस और दूसरी अवसरवादी मध्यमार्गी पार्टियों का गठबंधन बनाने की कोशिशें शुरू कर सकती है.
यह आत्महत्या के अलावा और कुछ नहीं होगा. चुनावों का साफ़ सन्देश है कि लोग अस्मिताओं की अवसरवादी, संकीर्ण और सिनिकल राजनीति से उब रहे हैं, उनकी आकांक्षाएं बेहतर जीवन की मांग कर रही हैं और वे वैकल्पिक राजनीति को मौका देने के लिए तैयार हैं.   
यह सरकारी वामपंथ के लिए सबक है और आखिरी मौका भी. अगर वे अब भी नहीं संभले तो हाशिए पर पहले ही पहुँच चुके थे, अब उन्हें अप्रासंगिक होने और खत्म होने से कोई बचा नहीं सकता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय राजनीति में वामपंथ के पुनरुज्जीवन का कोई शार्ट-कट नहीं है. वामपंथ के लिए एकमात्र रास्ता खुद को वामपंथ की स्वतंत्र पहचान के साथ खड़ा करना ही है. वामपंथ को वामपंथ की तरह दिखना होगा.

इसका सीधा मतलब है वामपंथ के रैडिकल एजेंडे के तहत वैकल्पिक राजनीति की ओर वापसी और बुर्जुआ पार्टियों के साथ अवसरवादी गठजोड़ बनाने की पिछलग्गू राजनीति को तिलांजलि देकर देश भर में जनांदोलन की ताकतों और संगठनों के साथ खड़ा होना और आम लोगों के बुनियादी मुद्दों पर जनांदोलनों की राजनीति को मजबूत करना. वामपंथ की पहचान और ताकत जनांदोलन रहे हैं और जनांदोलनों से ही वैकल्पिक राजनीति और विकल्प बने हैं.

लेकिन क्या सरकारी वामपंथ इसके लिए तैयार है?         

शुक्रवार, मई 16, 2014

जनतंत्र के हक़ में है कांग्रेस का जाना

धर्मनिरपेक्षता कुशासन और नाकामियों को छिपाने का हथियार नहीं है और लोकतंत्र में जवाबदेही तय होनी चाहिए

कांग्रेस का राजनीतिक रूप से लगभग सफ़ाया हो गया़ है. वह ऐतिहासिक हार की ओर बढ़ रही है. हालाँकि यह बहुत पहले ही तय हो चुका था. इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं है. कांग्रेस नेता भी कमोबेश इस नियति को स्वीकार कर चुके थे. लेकिन कांग्रेस की ऐसी शर्मनाक हार होगी, यह आशंका कांग्रेस नेताओं और उससे सहानुभूति रखनेवाले धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को भी नहीं थी.

कांग्रेस की हार की वजह भी यही है. उसके पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक चुकी थी लेकिन उसके नेताओं को या तो पता नहीं था या फिर अपने अहंकार और चापलूसी की संस्कृति के कारण वे उसे देखने को तैयार नहीं थे. कहने की ज़रूरत नहीं है कि अपनी इस ऐतिहासिक हार के लिए कांग्रेस ख़ुद ज़िम्मेदार है. उसके नेतृत्व की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति अंधभक्ति का यही हश्र होना था.

दरअसल, कांग्रेस को यूपीए सरकार के राज में बढ़ते भ्रष्टाचार, महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबों को राहत पहुँचाने में उसकी नाकामियों की सज़ा मिली है. यह जनतंत्र के हक़ में है. जनतंत्र में सरकार की नाकामियों और कुशासन की क़ीमत पार्टियों को चुकानी ही चाहिए. कल्पना कीजिए कि कांग्रेस की तमाम नाकामियों और कुशासन के बावजूद अगर कांग्रेस की जीत होती तो कांग्रेस के अहंकार पता नहीं किस आसमान पर पहुँच जाता? क्या वह कारपोरेट लूट और नव उदारवादी नीतियों के लिए जनादेश की तरह व्याख्या नहीं करती?

इस अर्थ में यह फ़ैसला जनतंत्र के हक़ में है. कांग्रेस और उसके शुभचिंतकों ने अपनी नाकामियों और कुशासन को 'धर्मनिरपेक्षता' की आड़ में छुपाने की बहुत कोशिश की लेकिन लोग इस झाँसे में नहीं आए. यह धर्मनिरपेक्षता की नहीं बल्कि साफ़ तौर पर धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे को लोगों के रोज़ी-रोटी के मुद्दों से काटकर सिर्फ सत्ता के लिए भुनाने की राजनीति की नाकामी है.

यह उन सभी बुद्धिजीवियों के लिए एक सबक़ है जो कांग्रेस और सपा-राजद जैसी पार्टियों के सीमित, संकीर्ण और अवसरवादी राजनीति के भरोसे सांप्रदायिक राजनीति से लड़ने की वकालत करते हैं. साफ़ है कि सांप्रदायिक राजनीति का मुक़ाबला एक नई और बेहतर जनोन्मुखी राजनीति ही कर सकती है.


मंगलवार, मई 13, 2014

क्या यह कांग्रेस विरोधी लहर का संकेत है?

यह कारपोरेट-मीडिया गठजोड़ की बढ़ती ताक़त का भी संकेत है
 
एक्ज़िट पोल और ओपिनियन पोल के नतीजों के बारे जितना कम कहा जाए, उतना अच्छा है. पिछले दो आम चुनावों में उनके अनुमान लगातार ग़लत साबित हुए हैं. इसे ध्यान में रखते हुए २०१४ के आम चुनावों के बारे में विभिन्न चैनलों के एक्ज़िट पोल के अनुमानों में जिस तरह से बीजेपी और एनडीए को बहुमत दे दिया गया है, उसपर हैरानी नहीं होनी चाहिए. 

लेकिन चर्चा और बहस के लिए एक क्षण के वास्ते इसके रुझानों को सही मान लिया जाए तो इसके क्या मायने है? इसके  कुछ मोटे मतलब तो बिल्कुल साफ़ हैं:

१. यह यूपीए ख़ासकर कांग्रेस विरोधी लहर का संकेत है. कांग्रेस का जिस तरह से पूरे देश से सफ़ाया हो रहा है और वह ऐतिहासिक पराजय की ओर बढ़ रही है, उससे साफ़ है कि लोगों ने बढ़ते भ्रष्टाचार, कारपोरेट लूट, महँगाई और बेरोज़गारी के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराते हुए उसे राजनीतिक रूप से बिल्कुल हाशिए पर ढकेल दिया है. 

२. निश्चित तौर पर यह कारपोरेट-मीडिया गठजोड़ की बढ़ती ताक़त का भी संकेत है. कारपोरेट्स ने जिस तरह से भाजपा/एनडीए और उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर दाँव लगाया, पानी की तरह पैसा बहाया है और उसके नेतृत्व में कारपोरेट मीडिया ने जिस तरह से मोदी की एक 'विकासपुरूष, निर्णायक फ़ैसला करनेवाला और सख़्त प्रशासक' की छवि गढ़ी है, उससे लगता है कि कारपोरेट्स और कारपोरेट्स मीडिया के गठजोड़ ने भारतीय लोकतंत्र में जनमत को तोड़ने-मरोड़ने (मैनुपुलेट) करने में निर्णायक बढ़त हासिल कर ली है.

३. यह मोदी को आगे करके ९० के दशक के रामजन्मभूमि अभियान के बाद पहली बार हिंदुत्व की राजनीति को एक बड़ी उछाल देने और उत्तर और पश्चिम भारत के सीमित दायरे से बाहर निकालकर उसे पूर्वी और दक्षिण भारत में घुसने, अपने बल पर ख़ुद को खड़ा करने और अपने फुटप्रिंट को बढ़ाने की आरएसएस के प्रोजेक्ट की पहली बड़ी और गंभीर कोशिश के रूप में भी देखा जाना चाहिए. उसने जिस तरह से विकास के छद्म के पीछे हिंदू ध्रुवीकरण का इस्तेमाल किया है, वह आरएसएस की बड़ी कामयाबी है. 

४. यह रोज़ी-रोटी और बेहतर शिक्षा-स्वास्थ्य के बुनियादी मुद्दों से काटकर सिर्फ जातियों के जोड़तोड़ से सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई लड़ने या कांग्रेस/सपा/बसपा/राजद के भरोसे सांप्रदायिकता से लड़ने की राजनीति की सीमाओं को भी उजागर कर रहा है.

फ़िलहाल इतना ही. बाक़ी विस्तार से जल्दी ही. 

शनिवार, नवंबर 02, 2013

साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को आमलोगों की हक-हुकूक की लड़ाई से जोड़ना होगा

९० के दशक की छात्र राजनीति के सबक: साम्प्रदायिकता का मुकाबला एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति ही सकती है 

जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा फिर से गर्म होने लगा है. चुनावी आंच पर एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता की खिचड़ी पकाने की तैयारी होने लगी है. पिछले चार-साढ़े चार साल से जो बढ़ती साम्प्रदायिकता को अनदेखा करते रहे या उससे कभी खुले-कभी छिपे प्रेम की पींगें बढ़ाते रहे या भाजपा के साथ सत्ता सुख भोगते रहे या फिर केन्द्र या प्रदेश में राज करते हुए जनता से किये गए वायदों को भुलाकर सत्ता की मलाई का लुत्फ़ उठाते रहे, उन सभी को साम्प्रदायिकता की चिंता सताने लगी है.
खुद को सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष साबित करने की होड़ शुरू हो गई है और एक बार फिर से साम्प्रदायिकता के खिलाफ गोलबंदी और लड़ाई की दुहाई दी जाने लगी है.
ऐसा लगता है जैसे हर चुनाव से पहले होनेवाला कोई पांच साला कर्मकांड शुरू हो गया है. हमेशा की तरह एक बार फिर इस कर्मकांड की मुख्य पंडित- वामपंथी पार्टियां हैं जो केन्द्र की अगली सरकार में अपनी जगह पक्की करने और सत्ता की मलाई में अपने-अपने हिस्से के लिए बेचैन यजमानों को चुनावी युद्ध में उतरने से पहले धर्मनिरपेक्षता का मन्त्र पढ़ाने में जुट गई हैं. वे एक बार फिर यजमानों को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट बांट रही हैं, भले ही यजमान चार महीने पहले तक सांप्रदायिक खेमे का बड़ा सिपहसालार था.

यही नहीं, वामपंथी पार्टियां भी अच्छी तरह से जानती हैं कि अगले चुनावों से पहले कोई गैर कांग्रेस-गैर भाजपा धर्मनिरपेक्ष तीसरा मोर्चा नहीं बनने जा रहा है, सबने चुनावों के बाद अपने सभी विकल्प खुले रखे हैं और इनमें से कई चुनावों के बाद फिर भाजपा के साथ गलबहियां करते हुए दिख जाएंगे.

कहने की जरूरत नहीं है कि ठीक चुनावों से पहले साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई और धर्मनिरपेक्षता का झंडा बुलंद करने और चुनावों के बाद नतीजों के मुताबिक कभी धर्मनिरपेक्षता के झंडे के नीचे सत्ता की मलाई काटने और कभी उस झंडे को लपेट कर कुर्सी के नीचे रख देने और सांप्रदायिक शक्तियों के साथ सत्ता सुख भोगने की अवसरवादी राजनीति की कलई खुल चुकी है.
सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि देश में साम्प्रदायिक फासीवाद का खतरा वास्तव में बढ़ता जा रहा है लेकिन उसके खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लगातार कमजोर होती जा रही है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के अवसरवादी अलमबरदारों ने इस लड़ाई को चुनावी रणनीति और गणित तक सीमित करके निहायत अविश्वसनीय और मजाक का विषय बना दिया है.
असल में, साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई आमजन के बुनियादी सवालों- रोजी-रोटी, शिक्षा-स्वास्थ्य, बिजली-सड़क-पानी, सुरक्षा, अमन-चैन आदि और हक-हुकूक से कटकर नहीं हो सकती है.

मुझे याद है कि ९० के दशक के शुरूआती वर्षों में जब देश खासकर उत्तर भारत साम्प्रदायिकता के बुखार में तप रहा था, भगवा ब्रिगेड के नेतृत्व में एक अत्यंत जहरीले साम्प्रदयिक अभियान के बाद बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी, देश के कई हिस्सों में भड़के दंगों में हजारों लोग मारे गए थे और सबसे बढ़कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने की कोशिशें परवान चढती दिख रही थीं, उस समय हमने पूरे उत्तर प्रदेश के परिसरों में छात्रों-युवाओं के बीच आल इंडिया स्टूडेंट्स एसोशियेशन (आइसा) की अगुवाई में साम्प्रदायिक राजनीति को कड़ी चुनौती दी.

मुझे वे दिन आज भी याद है जब हमने साम्प्रदायिकता के खिलाफ छात्रों-नौजवानों को गोलबंद करने के लिए परिसरों में नारा दिया था- ‘दंगा नहीं, रोजगार चाहिए/ जीने का अधिकार चाहिए.’
नतीजा यह हुआ कि १९९२-९३ में इलाहाबाद, बी.एच.यू, कुमाऊं, लखनऊ, गोरखपुर आदि कई विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों के चुनावों में आइसा ने भगवा हिंदुत्व की चैम्पियन ए.बी.वी.पी, नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ा रही कांग्रेस के छात्र संगठन- एन.एस.यू.आई और सामाजिक न्याय के नामपर जातिवादी गोलबंदी करने में जुटी छात्र जनता और छात्र सभा जैसे संगठनों को हारने में कामयाबी हासिल की. उसी दौर में दशकों बाद बी.एच.यू में छात्रसंघ में मैं भी एक वामपंथी छात्र कार्यकर्ता के बतौर छात्रसंघ चुनाव में जीतकर अध्यक्ष बना था.
लेकिन मुझे इसका कोई मुगालता नहीं है कि वह मेरी या आइसा की जीत थी बल्कि वह सांप्रदायिक फासीवाद और नव उदारवादी अर्थनीति की राजनीति का पूर्ण नकार और सामाजिक न्याय की सीमित-संकीर्ण राजनीति का सकारात्मक नकार था. यह एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति और वैचारिकी के पक्ष में आम छात्रों का जनादेश था.

इस जीत ने साफ़ कर दिया था कि साम्प्रदायिक राजनीति का मुकाबला एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति और वैचारिकी से ही किया जा सकता है. इस जीत का सबक यह था कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी लड़ाई आमलोगों के रोजी-रोटी और हक-हुकूक से जुड़े बिना कामयाब नहीं हो सकती है.

असल में, आमलोगों के दुःख-दर्दों से जुड़े बिना और उनके दैनिक जीवन के संघर्षों और हक-हुकूक की लड़ाई से जुड़े बिना साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की गोलबंदी एक अवसरवादी सत्तालोलुप राजनीति का पर्याय बन जाती है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि सांप्रदायिक राजनीति की चैम्पियन के बतौर भाजपा के उभार में कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश मध्यमार्गी और कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है जिन्होंने अपनी सुविधा और अवसर के मुताबिक कभी भाजपा के साथ सत्ता की मलाई काटी और कभी उसका विरोध करके सत्ता सुख भोगा.
यही नहीं, इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने धर्मनिरपेक्षता को अपनी जनविरोधी अर्थनीति और राजनीति, भ्रष्टाचार, कुशासन, परिवारवाद और तमाम गडबडियों पर पर्दा डालने का माध्यम बना लिया है.
चिंता की बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता की यह अवसरवादी राजनीति सबसे ज्यादा नुकसान धर्मनिरपेक्षता को ही पहुंचा रही है. इससे आमलोग धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के प्रति ‘सिनिकल’ होते जा रहे हैं.

आश्चर्य नहीं कि यू.पी.ए के राज में बढ़े भ्रष्टाचार, आसमान छूती महंगाई और रोजगार के घटते अवसरों के खिलाफ लोगों के गुस्से को दिशा देने में प्रगतिशील-लोकतांत्रिक राजनीति की नाकामी का सबसे अधिक फायदा सांप्रदायिक राजनीति उठा रही है. यह देश में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और समता के बुनियादी मूल्यों के लिए खतरे की घंटी है.

('राष्ट्रीय सहारा' के २ नवम्बर के अंक में हस्तक्षेप में प्रकाशित)