इरोम शर्मिला लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
इरोम शर्मिला लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, मार्च 15, 2014

चैनलों के पर्दे पर उत्तर पूर्व

राष्ट्रीय मीडिया उत्तर पूर्व को एक खास “राष्ट्रवादी” वैचारिक खांचे में देखता है

अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानिया की दिल्ली के पाश बाजार लाजपतनगर में नस्लीय हत्या और उसकी न्यूज मीडिया में कवरेज ने पिछले साल अक्टूबर में कोई पन्द्रह दिनों के लिए अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर की यात्रा की दिला दी. ईटानगर के पास रानो हिल्स स्थित राजीव गाँधी विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं को पत्रकारिता पढ़ाने गया था.
वहीँ मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर चर्चा के दौरान एक छात्रा ने पूछा, ‘देश के बड़े और राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर उत्तर-पूर्व के राज्य और उनकी खबरें क्यों नहीं दिखाई पड़ती हैं?’ प्रश्न बहुत सीधा था और शायद उत्तर भी कि उत्तर-पूर्व नस्लीय भेदभाव का शिकार है.
हालाँकि उत्तर-पूर्व की रुटीन घटनाओं में राष्ट्रीय खबर बनने लायक न्यूज वैल्यू न होने से लेकर दिल्ली से दूरी जैसे तर्कों के जरिये विद्यार्थियों के सामने न्यूज चैनलों का पक्ष रखने की भी कोशिश की और खूब गरमागरम बहस भी हुई लेकिन सच यह है कि खुद इन कमजोर तर्कों से सहमत नहीं था.

ऐसा लग रहा था कि जैसे बहाने बना रहा हूँ और जिसका बचाव नहीं किया जा सकता है, उसका असफल बचाव करने की कोशिश कर रहा हूँ. सच यही है कि उत्तर-पूर्व दिल्ली के राष्ट्रीय न्यूज मीडिया में एक बारीक और कई बार बहुत नग्न और बर्बर किस्म की नस्लीय उपेक्षा और पूर्वाग्रहों का शिकार है.    

बात वहीँ खत्म नहीं हुई. उसके बाद से लगातार सोचता रहा कि आखिर हमारे राष्ट्रीय न्यूज चैनलों से उत्तर-पूर्व क्यों गायब है? क्या वह देश का हिस्सा नहीं है? क्या वहां की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक घटनाओं के बारे में देश के बाकी हिस्सों के लोगों को नहीं जानना चाहिए? वहां के लोग देश के बाकी हिस्सों से किसी मायने में कमतर हैं?

खुद उत्तर पूर्व के लोग राष्ट्रीय चैनलों में अपने इलाके और समाज को न देखकर क्या महसूस करते होंगे? बात-बात पर राष्ट्रभक्ति का राग अलापनेवाले चैनलों के लिए आखिर उत्तर-पूर्व के क्या मायने हैं और वह उनके न्यूज एजेंडा में कहाँ है?

तथ्य यह है कि जब कभी उत्तर-पूर्व चैनलों पर दिखता भी है तो वह किसी बड़े एथनिक नरसंहार या बम विस्फोट में बड़ी संख्या में मारे जाने या कन्फ्लिक्ट की किसी ऐसी बड़ी घटना के कारण दिखता है या फिर चीन की कथित घुसपैठ या अरुणाचल पर चीन के दावे या विभिन्न अलगाववादी आन्दोलनों और उनकी हिंसक कार्रवाइयों के कारण गाहे-बगाहे सुर्ख़ियों में दिख जाता है.

गोया उत्तर-पूर्व में एथनिक झगडों, अलगाववादी आन्दोलनों, तनावों, हत्याओं, नरसंहारों के अलावा और कुछ होता ही नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इससे राष्ट्रीय मीडिया में उत्तर पूर्व की एक इकहरी छवि बन गई है जो नस्ली भेदभाव का ही विस्तार और उसे मजबूत करने में मदद करती है.   

इस अर्थ में दिल्ली में नीडो तानिया की नस्ली हत्या के लिए जमीन तैयार करने में न्यूज मीडिया की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. यह सच है कि नीडो की हत्या के मुद्दे को राष्ट्रीय न्यूज मीडिया में काफी जगह मिली. न्यूज मीडिया के एक बड़े हिस्से ने उत्तर पूर्व के लोगों के साथ राजधानी में नस्लीय भेदभाव को मुद्दा बनाया.
इससे सरकार, पुलिस-प्रशासन और राजनीतिक दलों पर दिल्ली और देश के दूसरे शहरों में नस्लीय भेदभाव, छींटाकशी और हमलों के शिकार उत्तर पूर्व के लोगों खासकर विद्यार्थियों और युवा पेशेवरों को संरक्षण देने और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का दबाव बढ़ा.
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि नीडो तानिया की हत्या के मुद्दे को न्यूज मीडिया से पहले दिल्ली में रहनेवाले उत्तर पूर्व के युवाओं और सजग नागरिक समाज के एक हिस्से ने जोरशोर से उठाया. उनकी सक्रियता और लाजपतनगर थाने पर जोरदार प्रदर्शन के कारण न्यूज मीडिया खासकर चैनलों पर भी इसके कवरेज का दबाव बढ़ा.

इसके बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी और जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शनों के सिलसिले और प्रदर्शनकारियों के दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री से लेकर केन्द्रीय मंत्रियों और नेताओं से मिलकर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग ने नस्ली भेदभाव के मुद्दे को न सिर्फ जिन्दा रखा बल्कि केंद्र सरकार और दिल्ली पुलिस को कार्रवाई और न्यूज मीडिया को कवरेज देने के लिए मजबूर किया.

अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि अगर उत्तर पूर्व के युवाओं और दिल्ली के नागरिक समाज खासकर जे.एन.यू छात्रसंघ और आइसा सहित दूसरे वाम-जनवादी छात्र संगठनों ने राजधानी की सड़कों पर लगातार इस मुद्दे को उठाया नहीं होता और उत्तर पूर्व के लोगों के साथ वर्षों से जारी नस्ली भेदभाव, छींटाकशी और हमलों को मुद्दा नहीं बनाया होता तो क्या न्यूज मीडिया और चैनल इस मुद्दे को इतना कवरेज देते या नस्ली भेदभाव को मुद्दा बनाते?
अनुभव यही बताता है कि राष्ट्रीय मीडिया के लिए राजधानी और देश के बाकी हिस्सों में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव कोई मुद्दा नहीं रहा है. अगर रहा होता तो शायद नीडो की जान नहीं जाती.
असल में, दिल्ली सहित देश के अन्य हिस्सों में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव का मुद्दा एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिसे जानबूझकर अनदेखा किया जाता है या छुपाया-दबाया जाता है. यही नहीं, मीडिया और राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग के एक ‘राष्ट्रवादी’ हिस्से को लगता है कि उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव और छींटाकशी की सच्चाई को स्वीकार करने पर इसका फायदा उत्तर पूर्व के अलगाववादी समूह उठाएंगे.

इसलिए वह सच्चाई से अवगत होते हुए भी न सिर्फ उसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने से हिचकिचाता है बल्कि अक्सर उसे सख्ती से नकारने की कोशिश करता है. इसी तरह मीडिया और राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग के एक हिस्से को लगता है कि यह भेदभाव सिर्फ उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नहीं बल्कि दिल्ली में दक्षिण और मुंबई में बिहार-यू.पी आदि के लोगों के साथ भी होता है. इसी तर्क के आधार पर कुछ साल पहले तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव के आरोपों को नकारने की कोशिश की थी.

लेकिन नीडो तानिया की हत्या के बाद राजधानी में जिस बड़ी संख्या में उत्तर पूर्व के युवा सड़कों पर उतर आए और अपने गुस्से और पीड़ा का इजहार किया, उससे साफ़ है कि यह मामला सामान्य झगडे-मारपीट और हत्या का नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा गंभीर है. अगर यह एक सामान्य हत्या की घटना होती तो उत्तर पूर्व के हजारों युवा सड़कों पर नहीं उतर आते.
सच यह है कि नीडो तानिया की मौत एक ट्रिगर की तरह थी जिससे रोजमर्रा के जीवन में नस्ली भेदभाव, छींटाकशी और हमलों को झेलनेवाले उत्तर पूर्व को लोगों के दबे गुस्से और पीड़ा को फूटकर बाहर आने का मौका दिया.
कई स्वतंत्र संस्थाओं की रिपोर्ट्स इस कड़वी सच्चाई की पुष्टि करती है. जामिया मिल्लिया इस्लामिया के सेंटर फार नार्थ ईस्ट एंड पॉलिसी रिसर्च की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहनेवाले उत्तर पूर्व के ८१ प्रतिशत नागरिकों ने स्वीकार किया कि उन्हें कालेज, विश्वविद्यालय, बाजार और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर नस्लीय भेदभाव और छींटाकशी का शिकार होना पड़ता है.

इसके अलावा नार्थ ईस्ट सपोर्ट सेंटर और हेल्पलाइन की २००९ की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर पूर्व के ८६ फीसदी से ज्यादा लोगों को नस्ली भेदभाव और यौन उत्पीडन (सेक्सुअल हैरेसमेंट) का शिकार होना पड़ता है. इन रिपोर्टों से साफ़ है कि उत्तर पूर्व के लोगों को अपने ही देश और उसकी राजधानी में नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है.

इसके बावजूद न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का एक हिस्सा इसबार भी नीडो तानिया की हत्या को नस्ली भेदभाव का मामला मानने से इनकार करते हुए इसे तात्कालिक उत्तेजना में हुए झगडे और मारपीट के मामले की तरह पेश करता रहा.
सबसे अफ़सोस की बात यह है कि शुरू में कई चैनलों और उनके रिपोर्टरों ने पुलिस के तोते की तरह नीडो की मौत को ‘मामूली मारपीट’ और ‘ड्रग्स के ओवरडोज’ जैसी स्टीरियोटाइप ‘स्टोरीज’ से दबाना-छुपाना चाहा.
लेकिन सलाम करना चाहिए उत्तर पूर्व के उन सैकड़ों छात्र-युवाओं और प्रगतिशील-रैडिकल छात्र संगठनों का जिन्होंने नीडो की नस्ली हत्या के बाद लाजपतनगर से लेकर जंतर-मंतर तक अपने गुस्से और विरोध का इतना जुझारू इजहार किया कि मीडिया से लेकर राजनीतिक पार्टियों-नेताओं और सरकार-पुलिस-प्रशासन को उसे अनदेखा करना मुश्किल हो गया.  
अच्छी बात यह है कि न्यूज मीडिया और चैनलों के बड़े हिस्से ने इसे नस्ली भेदभाव के एक उदाहरण के रूप में पेश करते हुए मुद्दा बनाया. असल में, देश की राजधानी में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ होनेवाला नस्ली भेदभाव एक ऐसा बर्बर और कड़वा सच है जिसे जानते सब हैं लेकिन सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने के लिए कम ही तैयार होते हैं.

चाहे पुलिस-प्रशासन हो या मीडिया या फिर सिविल सोसायटी- सब अलग-अलग कारणों से उससे आँख चुराते हैं या बहुत दबी जुबान में चर्चा करते हैं. उन्हें इससे ‘देश की छवि’ से लेकर ‘उत्तर पूर्व में अलगाववादियों द्वारा भुनाने’ की चिंता सताने लगती है. लेकिन इससे समस्या घटने के बजाय बढ़ती जा रही है. 

विडम्बना देखिए कि दिल्ली और देश के अन्य राज्यों/शहरों में उत्तर पूर्व के लोगों को जिस तरह का नस्ली भेदभाव, उत्पीडन और अपमान झेलना पड़ता है, उसे मुद्दा बनाने और न्यूज मीडिया सहित नागरिक समाज की चेतना को झकझोरने के लिए अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानिया को अपनी जान देनी पड़ी.
हालाँकि नीडो नस्ली भेदभाव की कीमत चुकानेवाला पहला युवा नहीं है और स्थितियां नहीं बदलीं तो वह आखिरी भी नहीं है. हालात कितने खराब हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि नीडो की हत्या का खून अभी सूखा भी नहीं था कि राजधानी के मुनिरका में मणिपुर की एक बच्ची के साथ बलात्कार और साकेत में एक युवा पर जानलेवा हमले का मामला सामने आ गया.
जैसे इतना ही काफी नहीं हो, इस घटना के बाद मुनिरका गांव की रेजिडेंट वेलफेयर एसोशियेसन ने बिलकुल खाप की तरह व्यवहार करते हुए उत्तर पूर्व के लोगों पर कई तरह की बेतुकी पाबंदियां आयद कर दीं. यही नहीं, मुनिरका के मकान-मालिकों ने उत्तर पूर्व के लोगों घरों से निकालने और उन्हें घर न देने का फैसला भी कर लिया.

हालाँकि इस फैसले पर हंगामे के बाद मुनिरका के स्थानीय मकान-मालिकों ने उत्तर पूर्व के लोगों के बारे में ऐसा कोई फैसला करने से इनकार करते दावा किया कि वे सिर्फ ‘नशा करने, हंगामा करने और रात को देर से घर लौटनेवालों’ को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि उनके निशाने पर कौन है और क्यों?  

हैरानी की बात यह है कि पुलिस ने बीच-बचाव की कोशिश की लेकिन मकान-मालिकों के फैसले के आगे अपनी विवशता भी जाहिर कर दी क्योंकि यह उनका ‘अधिकार’ है कि वे किसे किरायेदार रखें और किसे नहीं? सवाल यह है कि क्या यह नस्ली भेदभाव का एक और सुबूत नहीं है?
ऐसा नहीं है कि इससे पहले ऐसी घटनाएं नहीं होती थीं लेकिन होता यह था कि या तो उन्हें दबा दिया जाता दिया जाता था या फिर उन्हें रुटीन अपराध के मामले मानकर निपटा दिया जाता था. नस्ली छींटाकशी और उपहास तो जैसे आम बात है. उत्तर पूर्व के लोगों के रहन-सहन और खान-पान से लेकर बात-व्यवहार के बारे में आम दिल्लीवालों में अनेकों भ्रामक धारणाएं, स्टीरियोटाइप्स और पूर्वाग्रह हैं.
यहाँ तक कि खुद पुलिस और प्रशासनिक मशीनरी का रवैय्या भी कम भेदभावपूर्ण नस्ली नहीं है. विभिन्न मामलों में दिल्ली पुलिस का व्यवहार भी उसी पूर्वाग्रह और स्टीरियोटाइप्स से संचालित होता रहा है. उदाहरण के लिए, दिल्ली पुलिस ने उत्तर पूर्व के लोगों के बारे में स्थानीय लोगों को शिक्षित करने के बजाय उल्टे उत्तर पूर्व के लोगों के लिए दिल्ली में “क्या करें और क्या न करें” की लंबी सूची जारी की हुई है.

यही नहीं, जब चीन के राष्ट्रपति भारत के दौरे पर आ रहे थे तो दिल्ली पुलिस ने उत्तर पूर्व के कई युवाओं को तिब्बती समझकर पकड़ लिया और थाने में बैठाए रहे. मामला सिर्फ दिल्लीवालों, दिल्ली पुलिस और प्रशासन तक सीमित नहीं है बल्कि सच यह है कि इस नस्ली भेदभाव की जड़ें काफी गहरी और व्यापक हैं और आम जनजीवन का कोई भी वर्ग और समूह इसके प्रभाव से बचा हुआ नहीं है.     

मीडिया भी इसका अपवाद नहीं है. राष्ट्रीय मीडिया खासकर न्यूज चैनल उत्तर पूर्व को एक खास “राष्ट्रवादी” वैचारिक खांचे में देखते हैं और उत्तर पूर्व के बारे में अपनी कवरेज में प्रचलित पूर्वाग्रहों और स्टीरियोटाइप्स को ही मजबूत करते हैं.
उदाहरण के लिए, अन्ना हजारे के अनशन को 24X7 कवरेज देनेवाले और उन्हें ‘महानायक’ बनानेवाले चैनलों ने मणिपुर में सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून के खिलाफ पिछले १४ साल से अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला की कितनी बार सुध ली?
यह सिर्फ एक उदाहरण है लेकिन उत्तर पूर्व में ऐसे अनेकों मामले/मुद्दे/घटनाएँ हैं जिन्हें राष्ट्रीय मीडिया ने या तो अनदेखा किया या फिर तोडमरोड कर पेश किया है.
लेकिन नीडो की मौत के बाद लगता है उत्तर-पूर्व के युवाओं का धैर्य जवाब देने लगा है. वे इसे और सहने के बजाय इससे लड़ने और चुनौती देने का मन बना चुके हैं. अच्छी बात यह है कि इससे चैनलों-अख़बारों से लेकर सिविल सोसायटी की अंतरात्मा भी जागी दिखती है. अगले कुछ महीनों में होनेवाले लोकसभा चुनावों के कारण नेताओं का दिल भी उत्तर पूर्व के लोगों के लिए फटा जा रहा है.

लेकिन सवाल यह है कि क्या यह स्थिति बदलेगी या फिर कुछ दिनों बाद फिर किसी नीडो को जान देनी पड़ेगी? यह सवाल पूछना इसलिए जरूरी है क्योंकि उत्तर पूर्व के लोगों के साथ लंबे समय से जारी नस्ली भेदभाव के लिए एक खास सवर्ण हिंदू राष्ट्रवादी-मर्दवादी-नस्लवादी मानसिकता जिम्मेदार है जिसकी जड़ें पुलिस-प्रशासन से लेकर मीडिया तक में फैली हुईं है.

इसके शिकार सिर्फ उत्तर पूर्व के ही नहीं बल्कि सभी कमजोर वर्ग और अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम-सिख और आदिवासी आदि हैं.

यह इतनी आसानी से खत्म होनेवाला नहीं है. इससे लड़ने के लिए न सिर्फ इस मानसिकता को चुनौती देने और एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है बल्कि नस्लभेद के उन सभी दबे-छिपे रूपों और स्टीरियोटाइप्स को खुलकर नकारना और सार्वजनिक स्थानों/मंचों को नस्ली रूप से ज्यादा से ज्यादा समावेशी बनाना होगा.
अपने न्यूज चैनलों को ही देख लीजिए, उनके कितने एंकर/रिपोर्टर उत्तर पूर्व के हैं? इन चैनलों पर उत्तर पूर्व की ख़बरों को कितनी जगह मिलती है? कितने चैनलों के उत्तर पूर्व में रिपोर्टर हैं? यही नहीं, मनोरंजन चैनलों पर कितने धारावाहिकों के पात्र या कथानक उत्तर पूर्व के हैं?
मनोरंजन से लेकर न्यूज चैनलों तक में उत्तर पूर्व के लोगों और इलाके के प्रतिनिधित्व और उनकी पूर्वाग्रहों से मुक्त प्रस्तुति का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि लोगों को शिक्षित करने और उनमें संवेदनशीलता पैदा करने में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है.

यह एक तथ्य है कि अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों खासकर हिंदी न्यूज चैनलों के न्यूजरूम में उत्तर पूर्व के लोगों की संख्या नगण्य है, वे फैसले लेने की जगहों पर नहीं हैं और उत्तर पूर्व के राज्यों में उनके संवाददाता भी नहीं हैं.

यही नहीं, इन चैनलों के रिपोर्टर/संपादक शायद ही कभी उत्तर पूर्व के राज्यों की रिपोर्टिंग पर गए हों. आश्चर्य नहीं कि न्यूजरूम में ऐसे गेटकीपरों और रिपोर्टरों की संख्या बहुतायत में है जो कभी उत्तर पूर्व नहीं गए और वहां के बारे में सुनी-सुनाई बातों के आधार पर धारणाएं बना रखी हैं.

क्या नीडो की मौत के बाद न्यूज मीडिया अपने अंदर भी झांकेगा? क्या इस ‘पब्लिक स्फीयर’ में भी हम कुछ बदलाव की उम्मीद करें? 
('कथादेश' के मार्च'2014 अंक में प्रकाशित स्तम्भ)      

सोमवार, नवंबर 05, 2012

इरोम शर्मिला संघर्ष का दूसरा नाम है, उन्हें सलाम कीजिये

लेकिन भारतीय लोकतंत्र बहरा क्यों बना हुआ है?

मणिपुर की राजधानी इम्फाल में इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल और पुलिस हिरासत के आज बारह साल पूरे हो गए. चालीस साल की इरोम पिछले १२ साल से पुलिस हिरासत में भूख हड़ताल पर हैं और उन्हें पुलिस हिरासत में ही जबरन नाक से खाना दिया जाता है. वे आज भी आमरण अनशन पर हैं.
वे अपनी इस मांग से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं हैं कि जनविरोधी काले कानून- सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून’ १९५८ (आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट-अफ्स्पा) को मणिपुर से तुरंत हटाया जाए. वे आज देश में अनथक और समझौता-विहीन संघर्ष, बलिदान और प्रतिबद्धता का दूसरा नाम बन गईं हैं.
लेकिन शर्मनाक अफसोस यह कि दुनिया के ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी है. बारह साल लंबे इस शांतिपूर्ण लेकिन अत्यंत पीडाजनक आंदोलन के बावजूद इस ‘महान लोकतंत्र’ की कुम्भकर्णी निद्रा टूटने का काम नहीं ले रही है. इस मामले में इरोम का संघर्ष भारतीय लोकतंत्र के लिए परीक्षा बन गया है और यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि वह मणिपुर से लेकर कश्मीर तक इस परीक्षा में पिछले कई सालों से लगातार फेल हो रहा है.

इस तथ्य के बावजूद कि मणिपुर में यह केवल इरोम का व्यक्तिगत संघर्ष नहीं है बल्कि उनके संघर्ष में मणिपुर की अधिकांश महिलाओं और पुरुषों की आवाज़ शामिल हैं. इरोम इस अनूठे संघर्ष की प्रतीक भर हैं.

आखिर हम कैसे भूल सकते हैं कि वर्ष २००४ में जब असम राइफल्स के जवानों ने मणिपुर युवा थांगजाम मनोरमा की बलात्कार के बाद निर्मम तरीके से हत्या कर दी थी. उस शर्मनाक घटना ने पूरे मणिपुर की आत्मा को झकझोर दिया था. लोगों खासकर महिलाओं का गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा था.
उस गुस्से, पीड़ा और बेचैनी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दर्जनों महिलाओं ने असम राइफल्स के इम्फाल स्थित कंगला फोर्ट मुख्यालय पर बिलकुल नंगे होकर यह कहते हुए प्रदर्शन किया था कि “असम राइफल्स हमारा बलात्कार करो.” यह एक ऐतिहासिक प्रदर्शन था जिसकी तस्वीरों ने अगले दिन पूरे देश को हिला कर रख दिया था.

इरोम भी ऐसे ही हालत में वर्ष २००० में आमरण अनशन पर बैठीं. उस साल असम राइफल्स के जवानों ने मणिपुर घाटी के मलोम कसबे में बस स्टैंड पर इंतज़ार कर रहे दस निर्दोष लोगों को भून डाला था जिसमें एक ६२ साल की महिला के अलावा राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार जीतनेवाला १८ वर्षीय युवा सिनम चंद्रमणि भी शामिल था.
मलोम नरसंहार जैसे मणिपुर की घायल आत्मा पर मरणान्तक प्रहार था जिसने पूरे मणिपुर के साथ-साथ २८ वर्षीया इरोम शर्मिला चानू को भी सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया. उसके बाद की कहानी एक इरोम के जीवट भरे, अडिग और धैर्यपूर्ण संघर्ष का ऐसा जीवित इतिहास है जो हम अपनी आँखों के सामने बनता हुआ देख रहे हैं.
इरोम की लड़ाई मणिपुर में शांति बहाली की लड़ाई है. यह शांति बिना अफ्स्पा को हटाए, मानवाधिकारों का हनन रोके, लोगों के बुनियादी संवैधानिक अधिकारों को बहाल किये और राजनीतिक प्रक्रिया को शुरू किये संभव नहीं है.

मणिपुर में निर्दोषों का बहुत खून बह चुका है. इन खून के दागों से रंगा भारतीय लोकतंत्र का चेहरा बहुत बदसूरत और भयावह दिखता है. इसके बावजूद भारतीय राज्य अपनी भूलों को सुधारने और मणिपुर में शांति बहाली को एक मौका देने को तैयार नहीं है तो मानना पड़ेगा कि इस लोकतंत्र में न मानवीय आत्मा है, न आत्मविश्वास और न ही साहस.

लेकिन इसके उलट इरोम की १२ साल लंबी भूख हड़ताल में लोकतांत्रिक संघर्षों के प्रति दृढ आस्था, उत्कट आत्मविश्वास, बेमिसाल साहस और एक बेहद मानवीय आत्मा की पीड़ा को देखा-समझा जा सकता है. सच पूछिए तो आज इरोम पूरे देश में लोगों के बुनियादी अधिकारों और हक-हुकूक की लड़ाई के लिए प्रेरणा बन गई हैं.
यही कारण है कि इरोम का संघर्ष अब सिर्फ मणिपुर का संघर्ष नहीं रह गया है और उनकी आवाज़ केवल मणिपुर की आवाज़ नहीं है. इस संघर्ष में देश के कोने-कोने में लड़ रहे लाखों गरीब, मेहनतकश, किसान, आदिवासी, दलित, छात्र-युवा और आमजन खुद को देखते और महसूस करते हैं.
पता नहीं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को रात में नींद कैसे आती होगी, जब देश की एक बेटी पिछले १२ साल से भूखी है? प्रधानमंत्री जी, क्या लोकतंत्र में लोगों की राय का कोई मतलब नहीं है? क्या भारतीय लोकतंत्र और राष्ट्र राज्य इतना भुरभुरा और कमजोर है कि मणिपुर में अफ्स्पा हटाते ही वह ढह जाएगा?   

इस मौके पर मुझे पाश याद रहे हैं :                   
अपनी असुरक्षा से

यदि देश की सुरक्षा यही होती है

कि बिना जमीर होना जिंदगी के लिए शर्त बन जाये

आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द

अश्लील हो

और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे

तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.

हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज

जिसमें उमस नहीं होती

आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है

गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है

और आसमान की विशालता को अर्थ देता है

हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम

हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा

हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफा

लेकिन गर देश

आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है

गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है

तो हमें उससे खतरा है

गर देश का अमन ऐसा होता है

कि कर्ज के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह

टूटता रहे अस्तित्व हमारा

और तनख्वाहों के मुंह पर थूकती रहे

कीमतों की बेशर्म हंसी

कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो

तो हमें अमन से खतरा है

गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा

कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी

कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा

अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी

तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.