रविवार, जुलाई 31, 2011

प्रेमचंद, 'हंस' और राजेंद्र जी के बहाने कुछ अपने दुखड़े


बैठे-ठाले : रविवारी गपशप

आज रविवार है. हप्ते भर इसका इंतज़ार रहता है. लगता है कोई दिन ऐसा हो जब बिना किसी काम के अपने मन का काम हो. चाय हो, कुछ अच्छी धुनें हों, कुछ पढ़ने को हो और जो मन में आए, वह लिखने की आज़ादी हो. ब्लाग ने यह मौका भी दे दिया है.

इस तरह आज से शुरू होता है, “बैठे-ठाले : रविवारी गपशप”. कोशिश रहेगी कि अब आगे से हर रविवार कुछ अपने मन की बातें करें. हालांकि मन का ठिकाना नहीं. लेकिन अभी तो मन कह रहा है. आइये, शुरू करते हैं..

प्रेमचंद

क्या संयोग है? आज प्रेमचंद का जन्मदिन है. हिंदी कथा साहित्य के शिखर पुरुष हैं प्रेमचंद. किशोरावस्था से लेकर कालेज के दिनों में उनकी न जाने कितनी कहानियां पढ़ी हैं. हालांकि प्रेमचंद की किसी कहानी से पहला परिचय तो आठ-नौ साल की उम्र में ही हो गया था जब सबसे पहले ‘ईदगाह’ पढ़ी थी. शायद पांचवीं कक्षा में हिंदी की किताब में यह कहानी थी. उस कहानी ने रुला दिया था मुझे. वैसे कई कहानियों ने रुलाया है. उनमें एक और कहानी की याद आ रही है. फणीश्वर नाथ रेणु की ‘ठेस’ भी एक ऐसी ही कहानी थी.

लेकिन प्रेमचंद से विस्तृत परिचय कराया बड़े भैया अवधेश प्रधान (प्रोफ़ेसर, हिंदी, बी.एच.यू) ने. उनके पास प्रेमचंद की कहानियों के अलावा उनके सभी उपन्यास भी थे. हालांकि मैं सब नहीं पढ़ पाया और कुछ जो पढ़ा, उसकी भी अब बहुत क्षीण सी यादें हैं. लेकिन यह अफसोस आज तक है कि उनकी सबसे मशहूर कृति ‘गोदान’ नहीं पढ़ पाया. क्यों? नहीं जानता. ऐसा नहीं कि उपन्यास पढ़ने का धैर्य नहीं था.

यूनिवर्सिटी के दिनों में कई बार कोई उपन्यास लगातार एक या दो दिन में पढ़ जाता था. होस्टल के कमरे में बिना खाए-पिए सिर्फ चाय पर उपन्यास खत्म किये हैं. उन्हीं दिनों में सबसे ज्यादा पढ़ा. खूब मजा आता था. कई बार उन्हीं दिनों को फिर से जीने की इच्छा जोर मारने लगती है. क्या दिन थे वे भी!

आज जिस चीज को सबसे अधिक मिस करता हूँ, वह एक साथ आठ-दस घंटे का पढ़ना है. सोचता हूँ कि क्या हो गया है मुझे? ऐसा नहीं कि अब पढता नहीं हूँ. अब भी पढता हूँ लेकिन साहित्य से इतर ज्यादा पढ़ना होता है. उसमें भी खूब मजा आता है. अच्छा लगता है. लेकिन फुर्सत के साथ कोई कहानी या उपन्यास पढ़े अरसा हो गया. उसकी बात ही अलग है. उसका सुख वही जानता है जिसने उसे जिया है.

आज प्रेमचंद को याद करते हुए सोच रहा हूँ कि अब ‘गोदान’ पढ़ लिया जाए. देखें, यह मौका कब बनता है. आप भी मेरे लिए दुआ कीजिये.

‘हंस’

कभी प्रेमचंद के संपादन में निकली पत्रिका ‘हंस’ दोबारा १९८६ में हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार-बुद्धिजीवी राजेंद्र यादव के संपादन में निकलनी शुरू हुई. आज उसके पच्चीस साल पूरे हो गए. निश्चय ही, यह एक बड़ी उपलब्धि है. राजेंद्र जी को बधाई और ‘हंस’ की उनकी टीम को शुभकामनाएं.

आज के समय में समाज और साहित्य को लेकर चलनेवाली कई महत्वपूर्ण और जरूरी बहसों के लिए ‘हंस’ को पढ़ना अनिवार्य है. मौजूदा दौर में ‘हंस’ की विचारोत्तेजक उपस्थिति हम सभी लोगों के लिए एक बड़ा संबल है. कहने की जरूरत नहीं कि ‘हंस’ का नियमित पाठक हूँ और बेहिचक सबसे पहले राजेंद्र जी का लिखा संपादकीय पढता हूँ. राजेंद्र जी की सबसे बड़ी खूबी उनका खुलापन, जनतांत्रिक व्यवहार और नए लेखकों को प्रोत्साहन देना है.

मुझपर भी गाहे-बगाहे उनकी कृपा-दृष्टि पड़ती रही है. कोई आठ-नौ साल पहले पता नहीं उन्हें क्या सूझी कि उन्होंने ३१ जुलाई की गोष्ठी में मुझे भी ‘वैश्वीकरण और संस्कृति’ विषय पर बोलने के लिए बुला लिया था. मैंने भी बिना आगा-पीछा सोचे कि वहां साहित्य, समाज विज्ञान और संस्कृति के जाने-माने विद्वान होंगे, वह न्यौता स्वीकार कर लिया. कृष्ण कुमार, सुधीश पचौरी, योगेन्द्र यादव और रमाकांत अग्निहोत्री जैसे दिग्गजों के बीच मैंने क्या बोला, यह मत पूछिए लेकिन आज भी राजेंद्र जी के साहस की दाद देता हूँ.

ऐसे ही, राजेंद्र जी ने पिछले साल हंस की गोष्ठी में संचालन के लिए बुला लिया. विषय काफी विचारोत्तेजक था और पता था कि आज पुर्जे उड़ने वाले हैं. वही हुआ. ऐसा हंगामा हुआ कि बस पूछिए मत. मैं बड़े अपराधबोध के साथ घर लौटा कि संचालक की जिम्मेदारी नहीं निभा पाया. उस अफरा-तफरी में राजेंद्र जी से माफ़ी भी नहीं मांग पाया.

लेकिन इससे पहले कि मैं फोन कर पाटा, अगले दिन उनका फोन आ गया और वे कहने लगे कि आपने बहुत अच्छा संचालन किया. मैं हैरान. अब क्या कहूँ? कहने लगे कि आप परेशान मत होइएगा. ऐसा होता रहता है. क्या कहता? मैंने माफ़ी भी मांगने की कोशिश की तो कहने लगे कि इसमें माफ़ी मांगने की कोई बात नहीं है. गोष्ठी बहुत अच्छी रही.

ऐसे हैं राजेंद्र जी. ऐसे ही स्वस्थ-सक्रिय रहें, यही कामना है.

चलते-चलते

आज प्रेमचंद का जन्मदिन के साथ हिंदी फिल्मों के एक बेहतरीन गायक मोहम्मद रफ़ी की पुण्यतिथि है. उन्हें याद करने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है कि प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ पर इसी नाम से बनी फिल्म का एक गीत पेश करूँ जिसे रफ़ी साहब ने गाया है. यह गीत फिल्म में महमूद पर फिल्माया गया है. सबसे खास बात यह है कि इसका संगीत पंडित रविशंकर ने दिया है. गीत अनजान ने लिखे हैं जो बनारस के रहनेवाले थे. गीत के बोल बनारसी भोजपुरी में हैं.

उसी फिल्म का एक और गीत मुकेश की आवाज़ में...इसकी बात ही कुछ अलग है:

अरे हाँ, आपकी राय और टिप्पणियों का इंतजार रहेगा. फिर मिलते हैं अगले रविवार.

शनिवार, जुलाई 30, 2011

नए चुनाव के अलावा और कोई रास्ता नहीं है

कर्नाटक का एब्सर्ड राजनीतिक ड्रामा

मुद्दा सिर्फ येदियुरप्पा का इस्तीफा नहीं बल्कि अवैध खनन के सभी आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने का है


कर्नाटक का राजनीतिक ड्रामा ‘एब्सर्डिटी’ की हद तक पहुँच गया है. अलग ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ वाली भगवा पार्टी की पोल खुलती जा रही है. भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे और लोकायुक्त की रिपोर्ट में दोषी पाए गए भाजपाई मुख्यमंत्री बी.एस येदियुरप्पा को पार्टी न निगल पा रही है और न उगल पा रही है. हमेशा की तरह येदियुरप्पा की उलटबांसियां जारी हैं. वे कभी नरम और कभी गरम येदियुरप्पा भगवा पार्टी की खूब फजीहत करा रहे हैं.

असल में, भगवा पार्टी के पास येदियुरप्पा से इस्तीफा मांगने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है. आखिर सवाल नैतिकता और ‘नैतिकता के खेल’ में कांग्रेस और यू.पी.ए सरकार के मंत्रियों से मुकाबले का है. इसलिए न चाहते हुए भी मजबूरी में भाजपा को ‘नैतिकता के नाम’ पर येदियुरप्पा से इस्तीफा मांगने का नाटक करना पड़ रहा है. लेकिन भगवा पार्टी को नैतिकता का ख्याल कुछ देर से आया है.

अभी बहुत दिन नहीं हुए जब भगवा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार के ऐसे ही आरोपों के बारे में यह कह चुके हैं कि ‘येदियुरप्पा नैतिक रूप से गलत हो सकते हैं लेकिन इसमें कुछ भी गैरकानूनी नहीं है.’ अब येदियुरप्पा भी अपने अध्यक्ष जी के कहे को ही दोहरा रहे हैं. लेकिन अगर येदियुरप्पा का इस्तीफा अब भी नहीं होता है तो पार्टी किस मुंह से कांग्रेस और यू.पी.ए पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा पायेगी.

इसलिए भाजपा चाहती है कि येदियुरप्पा इस्तीफा दे दें. लेकिन येदियुरप्पा पार्टी और उसके आलाकमान का इम्तहान लेने पर तुले हैं. वे इस्तीफा न देने पर अड़े हैं. अनुशासन का दावा करनेवाली पार्टी ने येदियुरप्पा को गुरुवार शाम तक का समय दिया था. लेकिन शाम तक गवर्नर के पास कोई इस्तीफा नहीं पहुंचा. येदियुरप्पा ने इस्तीफा देने का मुहूर्त निकलवाया है और वे ३१ जुलाई को आषाढ़ खत्म होने के बाद ही इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं.

लेकिन यह तो सिर्फ बहाना है. सच्चाई यह है कि वह भगवा पार्टी से पूरा मोलतोल कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि उन्हें राज्य पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाए और उनकी करीबी शोभा करंदलाजे को मुख्यमंत्री बनाया जाए.

यही नहीं, वे आलाकमान पर दबाव बनाने के लिए अपने समर्थक विधायकों और सांसदों के साथ बैठकें कर रहे हैं. इनमें से कुछ विधायक और सांसद पार्टी से येदियुरप्पा के इस्तीफे के फैसले पर पुनर्विचार की अपील कर रहे हैं.

साफ है कि कर्नाटक में भाजपा की अंदरूनी राजनीति में शह और मात का खेल अभी खत्म नहीं हुआ है. सच पूछिए तो खेल अभी शुरू हुआ है जो बंगलुरु से लेकर दिल्ली और नागपुर तक खेला जा रहा है. इसमें भगवा पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं के विभिन्न गुटों से लेकर आर.एस.एस के नेता और बड़े कारपोरेट समूह भी शरीक हैं.

जाहिर है कि मसला राजनीति में ऊँचे मूल्यों और आदर्शों के लिए इस्तीफे का नहीं है. मुद्दा है कि कर्नाटक में रियल इस्टेट, जमीन और अरबों-खरबों के अवैध खनिज कारोबार पर कब्जे और उसमें अपने-अपने हिस्से का. चूँकि दांव बहुत ऊँचे हैं, इसलिए कोई पक्ष मौके को गंवाना नहीं चाहता है. येदियुरप्पा और उनके राजनीतिक और कारपोरेट समर्थक इस मलाई पर अपना कब्ज़ा बनाए रखना चाहते हैं जबकि विरोधी खेमे को यह एक सुनहरे मौके की तरह दिखाई दे रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह सब एक भद्दा मजाक है जो कर्नाटक की जनता के चल रहा है. येदियुरप्पा के इस्तीफे के सवाल को सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर कहीं न कहीं असल सवालों और मुद्दों पर पर्दा डालने की कोशिश हो रही है.

असल मुद्दा है : कर्नाटक में सार्वजनिक संसाधनों खासकर खनिजों और जमीन की खुली लूट का. इस आपराधिक लूट में भाजपा सहित कांग्रेस, जे.डी-एस जैसी सभी पार्टियां बराबर की शरीक हैं. यह सही है कि भगवा पार्टी के राज में लूट का नया रिकार्ड बन गया है.

मुद्दा यह भी है कि लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट में येदियुरप्पा और मौजूदा भाजपा सरकार के और कई मंत्रियों सहित पूर्व मुख्यमंत्रियों और नेताओं-अफसरों के साथ-साथ कई बड़ी कंपनियों को भी अवैध खनन और हेराफेरी के लिए दोषी ठहराया है. सवाल यह है कि बेल्लारी भाइयों सहित अन्य मंत्रियों से भी इस्तीफा क्यों नहीं लिया जा रहा है?

यही नहीं, जस्टिस हेगड़े ने इन सभी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों में मुक़दमा चलाने की सिफारिश की है. इसलिए मुद्दा सिर्फ इस्तीफा नहीं बल्कि येदियुरप्पा सहित सभी दोषियों पर मुक़दमा चलाने का है.

लेकिन इसकी कोई चर्चा नहीं हो रही है. भगवा पार्टी में सचमुच अगर जरा भी नैतिकता बची है तो उसे तुरंत येदियुरप्पा और अन्य मंत्रियों का इस्तीफा लेने के अलावा उनपर भ्रष्टाचार के आरोपों में मुक़दमा चलाने का एलान करना चाहिए. लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकती है क्योंकि कर्नाटक की मलाई सबने जीमी है. अगर ऐसा नहीं होता तो येदियुरप्पा में आलाकमान को इस तरह से ठेंगा दिखाने और सौदेबाजी करने की हिम्मत नहीं होती.

इसलिए आश्चर्य नहीं कि भाजपा और उसका आलाकमान येदियुरप्पा के इस्तीफे के बदले में उनके राजनीतिक पुनर्वास के उपाय ढूंढने में लगा है. सच पूछिए तो कर्नाटक के इस शर्मनाक राजनीतिक ड्रामे का सिर्फ एक ही समाधान है कि वहां विधानसभा तत्काल भंग की जाए और नए चुनाव कराये जाएँ. कर्नाटक की राजनीति में जारी सौदेबाजी, खरीद-फरोख्त और छीना-झपटी के खेल से मुक्ति का इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं है.

हालांकि चुनाव से किसी जादू की उम्मीद नहीं की जा सकती है क्योंकि कर्नाटक के लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है. अवैध खनन और सार्वजनिक संपत्ति की लूट के हम्माम में सभी नंगे हैं और चुनावों से एक बार फिर कोई नया नंगा चुनकर आ जाएगा. लेकिन लोकतंत्र में ऐसे गतिरोध को तोड़ने के लिए जनता के पास जाने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है.

जनता के पास जाने का विकल्प किसी भी सौदेबाजी और खरीद-फरोख्त से बेहतर है. कर्नाटक में इस विकल्प को आजमाने का समय आ गया है.

(लखनऊ से प्रकाशित दैनिक जनसंदेश टाइम्स' में ३० जुलाई को पहले पृष्ठ पर प्रकाशित पूरी टिप्पणी : http://www.jansandeshtimes.com/ )

* कर्नाटक के राजनीतिक ड्रामे पर पहले प्रकाशित कुछ और टिप्पणियां :

 
 
 
                                                                               

गुरुवार, जुलाई 28, 2011

मूल्यों पर मुनाफे को तरजीह देनेवाले कार्पोरेट मीडिया के सिरमौर हैं मर्डोक


मर्डोक ने अनुदार, मजदूर विरोधी और युद्धोन्मादी पत्रकारिता को आगे बढाया है   

दूसरी किस्त

कहते हैं कि मर्डोक के मीडिया साम्राज्य में उसकी इजाजत के बिना पत्ता भी नहीं खड़कता है. इसलिए यह स्वीकार करना बहुत मुश्किल है कि यह सारा धतकरम मर्डोक की मर्जी के बिना हुआ है. सच यह है कि मर्डोक ने ‘जो बिकता है, वही चलता और छपता है’ के तर्क के साथ आक्रामक तरीके से सनसनीखेज, चटपटे-रसीले, परपीडक रतिसुख देनेवाले ‘स्कूप’ खोजने को बढ़ावा दिया जो आज टैबलायड पत्रकारिता की पहचान बन चुका है.

इस मर्डोकी टैबलायड पत्रकारिता में पत्रकारिता के उसूलों, मूल्यों, आदर्शों और आचार संहिता से लेकर आम नियम-कानूनों के लिए कोई जगह नहीं है. वहां सिर्फ उस सर्कुलेशन और टेलीविजन रेटिंग पॉइंट्स की कदर और पूछ है जो अधिक से अधिक विज्ञापनदाताओं को खींच कर ला सकता है और इस तरह से मोटे मुनाफे की गारंटी कर सकता है.


कहते हैं कि मर्डोक को मुनाफे के अलावा और कुछ नहीं दिखता है. आखिर उसने छह महाद्वीपों में फैले अपने विशाल मीडिया साम्राज्य को यूँ ही नहीं खड़ा किया है. आज मर्डोक की मुख्य कंपनी न्यूज कार्पोरेशन मीडिया और मनोरंजन के क्षेत्र में सालाना कारोबार के मामले दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी है. वर्ष २०१० में उसका सालाना कारोबार ३२.७७ अरब डालर और शुद्ध मुनाफा २.५३ अरब डालर था. उसकी कुल परिसंपत्ति ५४.३८ अरब डालर की है.

आश्चर्य नहीं कि आज खुद मर्डोक की परिसंपत्तियां लगभग ७.६ अरब डालर की हैं और वह दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में ११७ वें स्थान पर है. लेकिन अपने विशाल मीडिया साम्राज्य के कारण मर्डोक का राजनीतिक प्रभाव इससे कहीं अधिक है. ‘फ़ोर्ब्स’ पत्रिका ने मर्डोक को दुनिया के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में १३ वें स्थान पर रखा है.

असल में, इस विशाल मीडिया साम्राज्य को खड़ा करने के लिए मर्डोक ने पूरी निर्ममता के साथ उस छिछली-छिछोरी और वैचारिक तौर पर अनुदार और युद्धोन्मादी पत्रकारिता को आगे बढ़ाया जिसमें न सिर्फ पत्रकारिता के उसूलों और मूल्यों के साथ नियम-कानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई गईं बल्कि वैचारिक रूप से उदार और वाम विचारों, राजनीति, नेताओं, बुद्धिजीवियों, श्रमिक संगठनों आदि को निशाना बनाया गया.

यही नहीं, मर्डोक के अख़बारों और चैनलों ने मुक्त बाजार और राज्य की सीमित भूमिका की वकालत से लेकर बुश के आतंकवाद के खिलाफ युद्ध और इराक-अफगानिस्तान पर हमले के पक्ष में जहरीला प्रोपेगंडा अभियान चलाने में कोई कसर नहीं उठा रखी.

दरअसल, मर्डोक ने ७०-८० के दशक में ब्रिटेन में मार्गरेट थैचर की मुक्त बाजार समर्थक नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का खुलकर समर्थन किया. थैचर की मदद से मर्डोक ने अख़बारों की ट्रेड यूनियनों को तोड़ा और खत्म कर दिया. बदले में, मर्डोक ने थैचर को रेल और कोयला खनिकों समेत अन्य श्रमिक आन्दोलनों को तोड़ने और खत्म करने के लिए खुला समर्थन दिया.

निजीकरण की जमकर वकालत की और सत्ता प्रतिष्ठान से अपनी नजदीकियों का फायदा नियमों-कानूनों में तोड़-मरोड़ से लेकर मीडिया रेगुलेशन को अपने अनुकूल बनवाने में किया. बदले में, जब सत्ता प्रतिष्ठान को नव उदारवादी अमीरपरस्त नीतियों से लेकर युद्ध बेचने के लिए मर्डोक की जरूरत पड़ी, उसका मीडिया साम्राज्य सबसे आगे रहा.

कहने का अर्थ यह कि मर्डोक और राजनेताओं के बीच सम्बन्ध एक तरह के लेनदेन से बंधा हुआ है. इस गठजोड़ को खबरों में तोड़-मरोड़ करने, फर्जी खबरें गढ़ने और खबरों को मनमाना अर्थ देने के लिए ‘स्पिन’ करने से कभी परहेज नहीं हुआ. कहते हैं कि मर्डोक की पत्रकारिता डिक्शनरी में सच्चाई, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और निष्पक्षता जैसे शब्द नहीं हैं.

आश्चर्य नहीं कि मर्डोक और उसका विशाल मीडिया साम्राज्य आज पत्रकारिता में ‘डमबिंग डाउन’ यानि खबरों को हल्का-फुल्का, छिछला, मनोरंजक और बिना माने-मतलब का बनाने, सेक्स स्कैंडलों और साफ्ट पोर्नोग्राफी के जरिये पीत पत्रकारिता को नए सिरे से पारिभाषित करने, अनुदार पूर्वाग्रहों को आक्रामक तरीके से थोपने, मुनाफे के लिए ख़बरों की खरीद-फरोख्त से लेकर उसके हर तरह के व्यावसायिक इस्तेमाल का वैश्विक प्रतीक बन चुके हैं.

मर्डोक के मीडिया साम्राज्य के प्रभाव का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि ब्रिटेन और अमेरिका समेत दुनिया के और कई देशों में सत्ता में पहुँचने और वहां टिके रहने के लिए राजनेताओं में व्यक्तिगत रूप से मर्डोक से आशीर्वाद लेने की होड़ लगी रहती है. हालत यह है कि सत्ता का दावेदार कोई राजनेता मर्डोक को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकता है.

यही नहीं, मर्डोक ने अपने रास्ते में आनेवाले राजनेताओं-अफसरों को धमकाने से भी गुरेज नहीं किया. हैकिंग विवाद के बाद ब्रिटेन के कई राजनेताओं ने मुंह खोलना शुरू किया है जिससे यह पता चल रहा है कि मर्डोक के लोगों ने उन्हें चुप न रहने पर किस तरह से देख लेने की धमकी दी. यहाँ तक कि पूर्व प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन भी इन धमकियों के शिकार हुए.

सच पूछिए तो ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’ की तर्ज पर मर्डोक के किस्से अनंत हैं. लेकिन इस पूरे किस्से का सबसे बड़ा सबक यह है कि किसी एक व्यक्ति के हाथ में इतने बड़े मीडिया साम्राज्य का संकेन्द्रण न सिर्फ पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए बल्कि व्यापक लोकतंत्र और समाज के लिए भी बहुत घातक और खतरनाक हो सकता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें भारत जैसे देशों के लिए गहरे सबक हैं जहाँ न सिर्फ खुद मर्डोक का मीडिया साम्राज्य लगातार अपने पैर पसार रहा है बल्कि कई देशी मीडिया मुग़ल भी उसके रास्ते पर चल रहे हैं.

यही नहीं, एक प्रवृत्ति के बतौर भारतीय मीडिया का बढ़ता मर्डोकीकरण किसी से छुपा नहीं है. मजा देखिए कि आत्मावलोकन के बजाय इसे यह कहकर अनदेखा करने की कोशिश की जा रही है कि हमारे यहाँ ब्रिटेन की तरह छिछोरी टैबलायड पत्रकारिता का कोई अस्तित्व नहीं है. लेकिन आप चाहें तो हमें अपने मर्डोक, रेबेका ब्रुक्स और एंडी कॉलसन को ढूंढने में बहुत दिक्कत नहीं होगी.

('जनसत्ता' के २७ जुलाई को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख की दूसरी किस्त)

बुधवार, जुलाई 27, 2011

मर्डोकीकरण के सबक


क्या सचमुच मर्डोक को कुछ भी पता नहीं था?


वैश्विक मीडिया के बेताज बादशाह माने जानेवाले कीथ रूपर्ट मर्डोक ने शायद सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसने जिस तरह की गटर टैबलायड पत्रकारिता को बढ़ावा और उसके बल पर अपना विशाल मीडिया साम्राज्य खड़ा किया, उसके अपराधों के लिए एक दिन ब्रिटिश जनता से इस तरह माफ़ी मांगनी पड़ेगी. लेकिन न चाहने के बावजूद अपने विशाल मीडिया साम्राज्य को बचाने के लिए मर्डोक को पिछले सप्ताह ऐसा करना पड़ा.

भले ही यह मर्डोक का नया ड्रामा हो और उसका कुछ खास न बिगड़ने वाला हो लेकिन दुनिया ने देखा कि जिस मीडिया मुग़ल के आगे पूरा ब्रिटिश सत्ता प्रतिष्ठान बिछा रहता है, प्रधानमंत्री से लेकर विपक्ष के नेता तक उसके इशारे का इंतज़ार करते हैं, उस मर्डोक को न सिर्फ अपना सबसे अधिक बिकनेवाला साप्ताहिक टैबलायड ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ बंद करना पड़ा बल्कि ब्रिटिश जनता से हाथ जोड़कर और अख़बारों में लिखित रूप से माफ़ी मांगनी पड़ी.

यही नहीं, मर्डोक और उसके बेटे और ब्रिटेन में उसकी कंपनी- न्यूज इंटरनेशनल के प्रमुख जेम्स मर्डोक को संसदीय समिति के सामने पेश होकर सफाई देनी पड़ी. दूसरी ओर, मर्डोक की सबसे करीबी और ब्रिटेन में न्यूज इंटरनेशनल की सी.ई.ओ रेबेका ब्रुक्स को इस्तीफा देना पड़ा है.

इससे पहले ब्रुक्स और ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ के पूर्व संपादक और प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के प्रेस सलाहकार रहे एंडी कॉलसन को पुलिस हिरासत में भी रहना पड़ा. चौतरफा आलोचनाओं और जन विक्षोभ के कारण प्रधानमंत्री कैमरन को इस पूरे प्रकरण की स्वतंत्र जाँच के लिए जांच आयोग का गठन करना पड़ा है.

निश्चय ही, मर्डोक के लिए यह सब किसी दु:स्वपन से कम नहीं है. लेकिन सच पूछिए तो मर्डोक के लिए सबसे बड़ा झटका ब्रिटिश स्काई ब्राडकास्टिंग (बी.स्काई.बी) को अधिग्रहित करने के सौदे का खटाई में पड़ जाना है. बी.स्काई.बी के लिए मर्डोक ने कोई १३.६ अरब डालर का दांव चला था. मर्डोक ने इस सौदे को बचाने के लिए ही ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ की कुर्बानी दी थी.

असल में, बी.स्काई.बी पर पिछले कई वर्षों से मर्डोक की निगाह गड़ी थी. मर्डोक का मानना था कि ब्रिटेन में अपने मीडिया साम्राज्य को अजेय बनाने के लिए बी.स्काई.बी पर पूर्ण नियंत्रण जरूरी है. उसे पूरी तरह से अपने कब्जे में लेने के लिए मर्डोक ने पिछले डेढ़ साल में क्या नहीं किया?

यहाँ तक कि मर्डोक के दबाव में इस सौदे की राह में रोड़ा बन रहे वाणिज्य मंत्री विन्स केबल से इस सौदे की जांच-पड़ताल का अधिकार छीन लिया गया. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ की गटर पत्रकारिता खासकर फोन हैकिंग का विवाद इस हद तक नहीं बढ़ा होता तो अब तक बी.स्काई.बी पर मर्डोक का कब्ज़ा हो चुका होता.

यह किसी से छुपा नहीं है कि प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने अपने मीडिया संरक्षक की इस महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए पूरा जोर लगा रखा था. दरअसल, कैमरन एक तरह से आम चुनावों में मर्डोक के ताकतवर मीडिया साम्राज्य की खुली मदद का कर्ज उतारने की कोशिश कर रहे थे.

आश्चर्य नहीं कि हैकिंग विवाद के बढ़ने के बाद भी पिछले पखवाड़े तक कैमरन इस सौदे को यह कहकर बचाने की कोशिश कर रहे थे कि उनकी सरकार आम वाणिज्यिक सौदों में हस्तक्षेप नहीं करती. हालांकि कैमरन को अच्छी तरह से पता था कि यह आम वाणिज्यिक सौदा नहीं था. इससे ब्राडकास्टिंग क्षेत्र में न सिर्फ मर्डोक के एकाधिकार या वर्चस्व का खतरा दिख रहा था बल्कि इससे समाचार मीडिया के क्षेत्र में लोकतंत्र और सर्व सूचित नागरिक समाज के लिए अनिवार्य ‘विविधता और बहुलता’ का ह्रास भी निश्चित था.

तथ्य यह है कि इस सौदे से ब्रिटेन के मीडिया परिदृश्य पर मर्डोक का एकछत्र राज कायम हो जाता. अभी मर्डोक का ब्रिटेन के एक तिहाई मीडिया पर कब्ज़ा है. लेकिन यह जानते हुए भी कैमरन और उनकी सरकार इस सौदे को सफल बनाने के लिए जिस तरह से जुटी हुई थी, उससे मर्डोक के राजनीतिक प्रभाव का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

कैमरन ही क्यों, ब्रिटेन में सत्ता पक्ष हो या विपक्ष- सभी मर्डोक की कृपा के आकांक्षी रहे हैं. मर्डोक के जलवे का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि चाहे लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री रहे टोनी ब्लेयर और गोर्डन ब्राउन रहे हों या अब कंजर्वेटिव पार्टी के डेविड कैमरन और विपक्ष में बैठे एड मिलिबैंड- सभी बिना किसी अपवाद के मर्डोक की मेहमाननवाजी का लुत्फ़ उठाते और उसके इशारों पर नाचते रहे हैं.

ऐसा नहीं है कि इन्हें मर्डोक की टैबलायड पत्रकारिता और उसके निरंतर सनसनीखेज, पतित और अपराधी होते चरित्र के बारे में मालूम नहीं था. सच यह है कि मर्डोक के टैबलायड ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ और ‘सन’ पिछले कुछ महीनों या सालों से नहीं बल्कि एक-डेढ़ दशक से अधिक समय से चर्चित फ़िल्मी सितारों, खिलाडियों, राजनेताओं और सेलेब्रिटीज के निजी जीवन में तांक-झांक के लिए फोन हैकिंग और ई-मेल पढ़ने सहित निजी जासूसों के इस्तेमाल से लेकर पुलिस अफसरों को घूस देने जैसे तमाम कानूनी-गैरकानूनी हथकंडे इस्तेमाल कर रहा था.

शुरुआत में निशाने पर सेलेब्रिटीज थीं लेकिन धीरे-धीरे इस खून का स्वाद ऐसा लगा कि आम लोगों के निजी जीवन में भी घुसपैठ शुरू हो गई. हालत यह हो गई कि पत्रकारिता की आड़ में फोन हैकिंग का धंधा लगभग औद्योगिक स्तर पर पहुँच गया जहाँ उसकी चपेट में आने से ब्रिटिश राजपरिवार, अन्य सेलेब्रिटीज से लेकर ईराक युद्ध में मारे गए सैनिकों के परिवारजनों, लन्दन बम विस्फोट के पीडितों एयर यहाँ तक कि हत्या की शिकार १३ साल की मिली डावलर भी नहीं बच सकी.

रिपोर्टों के मुताबिक, पिछले कुछ वर्षों में ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ ने कोई ४५०० से ज्यादा फोन हैक किये और लोगों के निजी वायसमेल सुने. कहने की जरूरत नहीं है कि इतने सालों से और इतने बड़े पैमाने फोन हैकिंग से लेकर निजी जासूसों के इस्तेमाल और पुलिस अफसरों को घूस के जरिये सनसनीखेज स्कूप निकालने की ‘गटर पत्रकारिता’ बिना मर्डोक पिता-पुत्र और उनके सी.ई.ओ और संपादकों की जानकारी के नहीं चल रही होगी.

लेकिन अब मर्डोक पिता-पुत्र से लेकर उनकी सी.ई.ओ और संपादक तक यह सफाई दे रहे हैं कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं थी, उनके साथ धोखा हुआ है और यह सब कुछ पथभ्रष्ट रिपोर्टरों का किया-धरा है. इस कमजोर सफाई पर भला कौन भरोसा कर सकता है?

('जनसत्ता' में २७ जुलाई को प्रकाशित आलेख की पहली किस्त...बाकी कल)

मंगलवार, जुलाई 26, 2011

खबरों का धंधा यानी मीडिया का अंडरवर्ल्ड

पुस्तक समीक्षा

कार्पोरेट मीडिया से अब कोई उम्मीद नहीं बची है
मीडिया का अंडरवर्ल्ड : पेड न्यूज, कारपोरेट और लोकतंत्र (राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली : मूल्य ३५० रूपये)



मीडिया का भी एक अंडरवर्ल्ड है जिसके बारे में खुद मीडिया में बहुत कम या न के बराबर चर्चा होती है. अपराध के अंडरवर्ल्ड की तरह मीडिया के अंडरवर्ल्ड में भी हर तरह के धतकरम हो रहे हैं- खबरों की खुलेआम खरीद-बिक्री हो रही है, ख़बरें ‘मैनेज’ की जा रही हैं, पाठकों-दर्शकों को धोखा दिया जा रहा है और समाचार मीडिया का एजेंडा कारपोरेट पूंजी और राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान तय करने लगे हैं. नतीजा, यह अंडरवर्ल्ड मुनाफे के लिए पत्रकारिता के सभी आदर्शों, मूल्यों, सिद्धांतों और नैतिकता की खुलेआम बोली लगाने में भी नहीं हिचकिचा रहा है.

हालाँकि इसमें नया कुछ नहीं है. पत्रकार और मीडिया विश्लेषक दिलीप मंडल अपनी किताब ‘मीडिया का अंडरवर्ल्ड : पेड न्यूज, कारपोरेट और लोकतंत्र’ में स्वीकार करते हैं कि भारतीय समाचार मीडिया में ये प्रवृत्तियां काफी लंबे अरसे से देखी जा रही हैं. अलबत्ता, पहले यह थोड़ा ढंका-छुपा और डरा-शर्माया सा था. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह खुला खेल फर्रुखाबादी हो गया है. इस बीच, मीडिया के इस अंडरवर्ल्ड का न सिर्फ दायरा और दबदबा बढ़ा है बल्कि काफी हद तक लाज-शर्म भी खत्म हो गई है.

खासकर खबरों की खरीद-बिक्री यानि पेड न्यूज का चलन इस हद तक बढ़ गया है कि संसद से लेकर सड़क तक थू-थू होने लगी है. निश्चय ही, इसके कारण समाचार मीडिया की साख दरकी है, लोकतंत्र के चौथे खम्भे और सार्वजनिक हितों के पहरेदार की उसकी छवि विखंडित हुई है और उसपर सार्वजनिक तौर पर सवाल उठने लगे हैं. इसके बावजूद खुद मीडिया ने अपने तईं इसे अनदेखा करने की बहुत कोशिश की और सब कुछ खुलने के बावजूद अभी भी एक पर्दादारी दिखती है.

यह सचमुच बहुत हैरानी की बात है कि देश-दुनिया के सभी छोटे-बड़े मुद्दों पर चर्चा और उनकी चीरफाड़ करने को अपना अधिकार समझनेवाला समाचार मीडिया खुद अपने अंदर झांकने या अपने बारे में बातें करने को बहुत उत्सुक नहीं दिखता है. लेकिन स्थिति धीरे-धीरे बदलने लगी है. बढती आलोचनाओं के कारण मीडिया में खुद के कामकाज की पड़ताल और चर्चा होने लगी है.

पिछले एक-डेढ़ दशकों में जिस तरह से मीडिया का विस्तार और उसके प्रभाव में वृद्धि हुई है, उसके कारण लोकतान्त्रिक ढांचे में उसकी भूमिका और क्रियाकलापों की छानबीन और विमर्श में रूचि बढ़ी है.

इसी का नतीजा है दिलीप मंडल की किताब. इसका कई कारणों से स्वागत किया जाना चाहिए. यह न सिर्फ समाचार मीडिया में फैलते पेड न्यूज के कैंसर की बारीक़ पड़ताल करती है बल्कि उसे मीडिया के कारपोरेट ढांचे और उसके व्यापक राजनीतिक अर्थशास्त्र के सन्दर्भ में जांचने-परखने की कोशिश करती है. इस प्रक्रिया में यह मीडिया के उस अंडरवर्ल्ड पर से पर्दा उठाने में काफी हद तक कामयाब होती है जो हाल के वर्षों में कारपोरेट मीडिया के मुख्यधारा पर छाता जा रहा है.

दिलीप की कई स्थापनाएं चौंकाती है लेकिन उनसे असहमत होना मुश्किल है. जैसे आज ‘मीडिया की अंतर्वस्तु लगभग पूरी तरह से मीडिया के अर्थशास्त्र से निर्धारित हो रही है. सम्पादकीय सामग्री पर बाजार का नियंत्रण लगभग समग्र रूप से स्थापित हो चुका है.


विज्ञापनदाता, क्या छपेगा के साथ ही क्या नहीं छपेगा का भी काफी हद तक निर्धारण करने लगे हैं.’ उनका यह भी कहना है कि, ‘ इस वजह से कंटेंट की विविधता का भी लगभग अंत हो गया है. लगभग सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर मीडिया के विचारों का मानकीकरण हो चुका है.’

वे यहीं नहीं रुकते. उनका यह भी मानना है कि, ‘मीडिया में संपादक नाम की संस्था का लगभग पूरी तरह से क्षय हो चुका है. मीडिया कारोबार में सम्पादकीय स्वतंत्रता अब अखबार या चैनल के व्यावसायिक हितों के दायरे से बाहर संभव नहीं है.’ वे बहुत बेलागी के साथ कहते हैं कि जो पाठक या दर्शक किसी अखबार या पत्रिका या चैनल की लागत का लगभग १० से २० प्रतिशत चुकाकर उम्मीद करते हैं कि वे उसे सही सूचनाएं देंगे या उनके हित की बात करेंगे, वे बड़ी गलतफहमी में हैं.

दिलीप के मुताबिक, पेड न्यूज मीडिया को लगी गंभीर बीमारी का लक्षण मात्र है. वे ऐसे अनेकों लक्षणों- प्राइवेट ट्रीटी, मीडियानेट, पी.आर की खुली घुसपैठ और मीडिया का रादियाकरण आदि की चर्चा करते हुए मीडिया की असली बीमारी उसके व्यावसायिक ढांचे और लक्ष्यों में देखते हैं.

यही नहीं, दिलीप मीडिया स्वामित्व के मौजूदा कारपोरेट ढांचे को लेकर अपनी निराशा छुपाते नहीं हैं. उन्हें इस कारपोरेट मीडिया से कोई उम्मीद नहीं दिखती है. वे मानते हैं कि यह मीडिया पर बाजार और विज्ञापन की विजय का दौर है.

निश्चय ही, पेड न्यूज की परिघटना लोकतान्त्रिक राजनीति के लिए खतरे की घंटी है. मीडिया का अंडरवर्ल्ड लोकतंत्र की जड़ें खोदने में लगा हुआ है. लेकिन उससे भी बड़ी चिंता की बात मुख्यधारा के समाचार मीडिया का कारपोरेट टेकओवर है जो मुनाफे और कारपोरेट हितों को आगे बढ़ाने के लिए खबरों की खरीद-फरोख्त से लेकर लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में तोड़-मरोड़ करने से भी नहीं हिचकिचा रहा है.

हालाँकि दिलीप इसका कोई समाधान नहीं सुझाते लेकिन सच यह है कि बीमारी की सही पड़ताल से ही इलाज की शुरुआत होती है. इस मायने में इस किताब को एक महत्वपूर्ण शुरुआत माना जा सकता है.

('इंडिया टुडे' के १३ जुलाई के अंक में प्रकाशित)

गुरुवार, जुलाई 21, 2011

चैनल और युवराज : हम साथ-साथ हैं

राहुल गाँधी के उत्तर प्रदेश अभियान में ‘एम्बेडेड’ हो गए हैं चैनल



आगे-आगे युवराज, पीछे-पीछे न्यूज चैनलों की कतार. युवराज ग्रामीण पर्यटन, माफ कीजिएगा, किसानों का हालचाल पूछने निकले हैं. इस यात्रा का आँखों देखा हाल बताने के लिए चैनल भी उनके लाव-लश्कर में साथ हैं. बिलकुल ‘हम साथ-साथ हैं’ की तर्ज पर. युवराज अपनी किसान प्रजा का हालचाल ले रहे हैं. चैनल युवराज का हालचाल लेने में लगे हैं.

युवराज किसानों की चिंता में परेशान दिख रहे हैं. चैनलों को युवराज की चिंता सता रही है. युवराज गांव-गांव घूम और पसीना बहा रहे हैं. चैनल युवराज का पसीना दिखाने के लिए पसीना बहा रहे हैं.

चैनल युवराज यानी राहुल गाँधी की अदाओं पर फ़िदा हैं. वे पल-पल का हाल बता रहे हैं. बता रहे हैं कि युवराज ने किस किसान के घर चाय पी, क्या खाया, उनके लिए क्या खास बना था, रात कहाँ और किस खाट पर गुजारी, कहाँ नहाए...

यह भी कि उनमें कितना जबरदस्त स्टैमिना है, कैसे बिना थके दर्जनों किलोमीटर चल रहे हैं, कैसे उनके साथ के कांग्रेसी नेता गर्मी-उमस-थकान के कारण बेहोश तक हो जा रहे हैं जबकि राहुल वैसे ही उत्फुल्ल, सक्रिय और फुर्ती के साथ आगे बढे जा रहे हैं. यहाँ तक कि चैनलों के रिपोर्टर भी हांफने लगे हैं.

युवराज जल्दी में हैं. उनकी जल्दबाजी समझी जा सकती है. उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव नजदीक हैं. कहते हैं कि दिल्ली जाने का रास्ता लखनऊ होकर गुजरता है. इसीलिए युवराज के एजेंडे में लखनऊ फतह सबसे ऊपर है. जाहिर है कि इस चुनाव पर उनका बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. वे कोई भी कसर नहीं उठा रखना चाहते हैं.

यही कारण है कि वे ‘नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे’ की खाक छान रहे हैं. वे कभी दलितों का हालचाल लेने उनके घर पहुँच जा रहे हैं और कभी बुंदेलखंड में सूखे का जायजा लेने निकल पड़ रहे हैं.

इसी कड़ी में इन दिनों उनका किसान प्रेम उफान मार रहा है. निश्चय ही, राहुल गाँधी और उनके रणनीतिकारों को किसानों का राजनीतिक महत्व पता है. वे जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में जातियों की दलदली राजनीति में किसानों के कंधे पर चढ़कर चुनावी वैतरणी पार की जा सकती है क्योंकि किसान को आगे करके जातियों के विभाजन को ढंका जा सकता है. मायावती सरकार की मनमानी भूमि अधिग्रहण नीति ने उन्हें यह मौका दिया है. उन्होंने उसे भुनाने में देर नहीं की है.

लेकिन राहुल गाँधी की इस ‘राजनीतिक सफलता’ में मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के उदार योगदान को अनदेखा करना मुश्किल है. याद रहे, न्यूज मीडिया को ‘मैजिक मल्टीप्लायर’ माना जाता है. आश्चर्य नहीं कि न्यूज चैनलों के अति उदार और भरपूर कवरेज ने राहुल की पदयात्रा के प्रभाव को कई गुना बढ़ा दिया. राहुल जितने गांवों में नहीं गए और जितने किसानों से नहीं मिले, उससे अधिक गांवों और किसानों तक वे अख़बारों और न्यूज चैनलों के जरिये पहुँच गए.

वैसे भी भारतीय राजनीति में जैसे-जैसे मीडिया खासकर टी.वी की गढ़ी हुई छवियों की भूमिका बढ़ती जा रही है, न्यूज चैनलों का पर्दा राजनीति का नया अखाड़ा बनता जा रहा है. आश्चर्य नहीं कि आज राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता चैनलों को ध्यान में रखकर अपने बयानों, फैसलों और राजनीतिक कार्रवाइयों की टाइमिंग तय करते हैं.

राहुल भी इसके अपवाद नहीं हैं. राहुल की पदयात्रा और किसान महापंचायत की योजना और टाइमिंग में भी न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का पर्याप्त ध्यान रखा गया था. पदयात्रा का मीडिया मैनेजमेंट जबरदस्त था.

वैसे भी चैनल हमेशा सेलेब्रिटीज, ‘घटनाओं’ (इवेंट), टकराव (कनफ्लिक्ट) और कार्रवाई (एक्शन) की तलाश में रहते हैं. इस पदयात्रा में वह सारा आकर्षण था. लेकिन सबसे बढ़कर यह युवराज की पदयात्रा थी. नतीजा, चैनलों पर इस पदयात्रा को अति उदार और मुग्ध कवरेज मिली.

ऐसा लगा जैसे चैनल राहुल की पदयात्रा के साथ ‘नत्थी’ (एम्बेडेड) हो गए हैं. कुछ इस हद तक कि उन्हें पूरी यात्रा में राहुल के अलावा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश रिपोर्टों के केन्द्र में सिर्फ और सिर्फ राहुल थे.

यह और बात है कि खुद राहुल इस पदयात्रा को किसानों और उनकी समस्याओं को समझने का माध्यम बता रहे थे. उनके मुताबिक, किसानों और गांवों की समस्याएं दिल्ली या लखनऊ में पता नहीं चलती हैं. यह भी कि जितना उन्होंने लोकसभा में नहीं सीखा, उससे ज्यादा किसानों के बीच जाकर सीखा है.

लेकिन अफसोस कि चैनल इस यात्रा से भी नहीं सीख पाए. वजहें कई हैं. पहली यह कि उन्हें राहुल के अलावा और कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. आखिर वे किसानों के दुःख-दर्द और उनकी समस्याएं देखने-सुनने और समझने गए भी नहीं थे.

दूसरे, चैनलों की खुद गांवों, किसानों और उनकी समस्याओं में कोई दिलचस्पी नहीं है. अगर उन्हें दिलचस्पी होती तो वे उन गांवों और किसानों के बीच पहले जाते. लेकिन चैनलों की ओ.बी और उनके स्टार रिपोर्टर शायद ही कभी गांवों की धूल और कीचड़ भरे कच्चे-पक्के रास्तों का रुख करते हों. जाहिर है कि चैनलों की भी ज्यादा दिलचस्पी दिल्ली और लखनऊ में है. वे वहीँ से देश को देखते और दिखाते हैं या कहिये कि उनका देश वहीँ तक सीमित है.

यह और बात है कि चैनलों को मजबूरी में राहुल के पीछे-पीछे जाना पड़ा. लेकिन जब चले ही गए थे तो कम से कम इतना तो कर सकते थे कि इस यात्रा के दौरान युवराज को मिल रहे समय में से कुछ समय किसानों के दुःख-दर्द और उनकी समस्याओं को भी देते. इससे दर्शकों को भी राहुल से इतर गांवों और किसानों की तकलीफों का कुछ अहसास होता.

क्या हमारे गांव और किसान इतने के भी हकदार नहीं हैं?

(‘तहलका’ के ३१ जुलाई के अंक में प्रकाशित स्तंभ : http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/921.html )

बुधवार, जुलाई 20, 2011

भ्रष्टाचार की मार से सबसे पस्त है आम आदमी

हो रही है भ्रष्टाचार को वैधता देने की कोशिश



भारतीय समाज और राज व्यवस्था में भ्रष्टाचार की जड़ें किस कदर गहराती जा रही हैं, इसका अनुमान फोरेंसिक इंडिया की एक ताजा रिपोर्ट से लगाया जा सकता है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, एक आम नागरिक को अपना वाजिब काम करवाने या हक पाने के लिए घूस के रूप में लगभग २२१८ रूपये खर्च करने पड़े. आज से दस साल पहले घूस की यह रकम कोई ८३६ रूपये थी.

इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले एक दशक में एक आम भारतीय नागरिक पर घूस का बोझ लगभग २६५ फीसदी यानि ढाई गुने से भी ज्यादा बढ़ गया है. यही नहीं, इस रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले एक दशक में देश को भ्रष्टाचार के कारण लगभग १५५५ हजार करोड़ रूपयों का नुकसान उठाना पड़ा है.

आश्चर्य नहीं कि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. इसकी सीधी सी वजह यह है कि भ्रष्टाचार की सबसे अधिक मार उसी पर पड़ रही है. हालांकि कई विश्लेषकों को यह लगता है कि भ्रष्टाचार मूलतः एक अमीर और मध्यम वर्गों तक सीमित परिघटना है और आम आदमी खासकर गरीबों को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता है.

लेकिन सच्चाई यह है कि भ्रष्टाचार की सबसे अधिक मार गरीबों पर ही पड़ती है जिन्हें अपने वाजिब हक और जरूरतों जैसे राशन से अनाज, स्कूल में दाखिले, पानी-बिजली के कनेक्शन, अस्पताल में इलाज, ट्रेन में यात्रा, रेहडी-फेरी लगाने आदि के लिए सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को घूस देने के लिए मजबूर होना पड़ता है.

सेंटर फार मीडिया स्टडीज (सी.एम.एस) की हाल में जारी रिपोर्ट के अनुसार, पिछले साल अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के ४० फीसदी लोगों ने अपने अनुभव के आधार पर यह कहा कि देश में सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार बढ़ा है जबकि २८ फीसदी ने कहा कि हालात कमोबेश पिछले साल की तरह ही हैं.

असल में, सी.एम.एस ने देश भर में कोई दो हजार गाँवों के ९९६० ग्रामीण परिवारों के बीच चार जन सेवाओं- पी.डी.एस, स्कूली शिक्षा, पेयजल और अस्पताल सुविधाओं में भ्रष्टाचार की पड़ताल के लिए एक सर्वेक्षण किया था जिससे यह चौंकानेवाला तथ्य सामने आया कि देश के बारह राज्यों में अकेले इन चार सेवाओं के लिए ग्रामीण गरीबों को लगभग ४७१.८ करोड़ रूपये की घूस देनी पड़ी.

यही नहीं, हर चार में से जिन तीन ग्रामीण परिवारों को इन सार्वजनिक सुविधाओं के तहत अपने वाजिब हक को हासिल करने के लिए घूस देना पड़ा, उनकी मासिक आय पांच हजार रूपये से कम थी. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भ्रष्टाचार की कितनी जबरदस्त मार आम आदमी और गरीबों पर पड़ रही है. उन्हें अपना हक लेने के लिए अपनी खून-पसीने की कमाई में से घूस देनी पड़ती है क्योंकि उनका काम इन जन सेवाओं के बिना नहीं चल सकता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मध्यम और उच्च वर्गों ने धीरे-धीरे इन सरकारी सेवाओं का उपयोग करना छोड़ दिया है, इसलिए उन्हें इस भ्रष्टाचार से शायद उतना फर्क नहीं पड़ता है लेकिन गरीबों के लिए ये सार्वजनिक सेवाएं जीवन रेखा की तरह हैं.

इसके बावजूद इन चार महत्वपूर्ण सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार का घुन उन्हें न सिर्फ अंदर से खोखला करता जा रहा है बल्कि उसकी कीमत गरीबों को जान तक देकर चुकानी पड़ रही है. विश्वास नहीं हो तो कभी सरकारी प्राइमरी हेल्थ सेंटर और जिला अस्पताल जाकर देखिए कि वहां आम आदमी और गरीबों का क्या हाल है?

यही नहीं, आज देश के किसी भी राज्य में चले जाइये, सबसे भ्रष्ट विभागों में पी.डी.एस, स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग सबसे ऊपर चल रहे हैं. खासकर जबसे स्कूली शिक्षा/सर्व शिक्षा और ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए केन्द्र से हजारों करोड़ की रकम हर साल राज्यों में पहुँच रही है, हालात और बिगड गए हैं. हालांकि २ जी और कामनवेल्थ घोटालों के शोर में इनकी चर्चा कहीं नहीं हो रही है.

लेकिन सच्चाई यह है कि बिना किसी अपवाद के विकास और सार्वजनिक कल्याण की सभी योजनाओं को भ्रष्टाचार का घुन चाटता जा रहा है. खुद युवराज राहुल गाँधी ने भी स्वीकार किया है कि विकास और सार्वजनिक कल्याण की योजनाओं के लिए दिल्ली या राज्य की राजधानियों से चलनेवाले हर एक रूपये में से सिर्फ पांच पैसे ही गरीब तक पहुँच रहे हैं.

याद रहे कि उनके पिता और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के ज़माने में एक रूपये में से १५ पैसे गांव तक पहुँचते थे. साफ़ है कि पिछले दो-ढाई दशकों में न सिर्फ भ्रष्टाचार का दायरा बढ़ा है बल्कि भ्रष्टाचार में होनेवाली सार्वजनिक धन की लूट भी कई गुना बढ़ गई है.

लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ शोर-शराबे के बावजूद आम लोगों खासकर गरीबों के वाजिब अधिकारों को लूटने वाले, जल-जंगल-जमीन-खनिज जैसी सार्वजनिक सम्पदा को कौडियों के भाव हथियानेवाले और विकास के महाभोज में शामिल नेताओं, अफसरों, कंपनियों (ठेकेदारों) और माफियाओं की चौकड़ी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. उलटे उसके ताकत और प्रभाव में लगातार बढोत्तरी हुई है.

यहाँ तक कि भ्रष्टाचार और लूट की संस्कृति ने व्यवस्था के उन अंगों को भी अपने चपेट में ले लिया है जिनसे लोगों को कुछ राहत की उम्मीद थी. हाल के वर्षों में भ्रष्टाचार ने जिस तरह से न्यायपालिका, मीडिया और यहाँ तक कि गैर सरकारी संगठनों को भी अपने चपेट में ले लिया है, उससे भ्रष्टाचार की सर्वव्यापी पहुँच का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

लेकिन विडम्बना देखिए कि जिस समय देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक प्रभावी लोकपाल की जरूरत पर बहस चल रही है, उसी समय वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने बाकायदा एक विमर्शपत्र जारी करके ‘नायाब और रेडिकल’ सुझाव दिया है कि निचले स्तर के भ्रष्टाचार को एक तरह का कानूनी दर्जा दे दिया जाए.

बसु के मुताबिक, आम आदमी को रोज-रोज की जरूरतों के लिए जो घूस देनी पड़ती है, वह एक तरह का उत्पीडक भ्रष्टाचार है. उनके अनुसार, लोगों को मजबूरी में ऐसी घूस देनी पड़ती है, इसलिए इस तरह मजबूरी में घूस देनेवाले को भ्रष्टाचार के आरोप से बरी कर देना चाहिए. उन्हें उम्मीद है कि इससे घूस देनेवाले लोग इसकी शिकायत कर सकेंगे और यह भ्रष्टाचार को रोकने में मददगार साबित होगा.

बसु के ‘क्रांतिकारी’ सुझाव की सीमाएं, अंतर्विरोध और विसंगतियाँ बताने की जरूरत नहीं है. इसे लागू करने मतलब भ्रष्टाचार को न सिर्फ एक तरह की कानूनी मान्यता देना है बल्कि यह भ्रष्टाचार को एक तरह की सामाजिक स्वीकृति देना भी है. लेकिन सबसे हैरानी की बात यह है कि जो सरकार छोटे और मंझोले स्तर के अधिकारियों को लोकपाल के दायरे में लाने के लिए तैयार नहीं है, उसका सबसे बड़ा आर्थिक सिद्धांतकार उसे कानूनी बनाने की सिफारिश कर रहा है.

साफ़ है कि भ्रष्टाचार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है बल्कि उसे किसी न किसी रूप में वैध बनाने की कोशिश हो रही है. एक मायने में यह भ्रष्टाचार के इस व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा बनने की स्वीकृति है.

(‘राष्ट्रीय सहारा’ के २० जुलाई के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

मंगलवार, जुलाई 12, 2011

क्या चैनलों को पता है कि दिल्ली और उसके आसपास लाखों मजदूर काम करते हैं?

चैनल के पत्रकारों का भी आम श्रमिकों से कम शोषण-उत्पीड़न नहीं हो रहा है


दूसरी और अंतिम किस्त



संगठित और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के बीच सिर्फ अब कहने भर को अंतर रह गया है. माना जाता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों में श्रमिकों को बेहतर वेतन और सेवाशर्तों के तहत काम करने का मौका मिलता है लेकिन सच यह है कि उनमें और देशी कंपनियों में कोई खास फर्क नहीं है.

उदाहरण के लिए, मारुति सुजूकी फैक्टरी को ही लीजिए जोकि एक जापानी बहुराष्ट्रीय कंपनी है. लेकिन तथ्य यह है कि मारुति सुजूकी में लगभग ८५ फीसदी श्रमिक ठेके पर हैं जिन्हें वे सुविधाएँ और लाभ नहीं मिलते जो स्थाई श्रमिकों को मिलते हैं या मिलने चाहिए. यहाँ तक कि मारुति सुजूकी का प्रबंधन उन्हें यूनियन बनाने का अधिकार भी देने को तैयार नहीं है. आश्चर्य नहीं कि श्रमिकों की हड़ताल की सबसे बड़ी मांग अपनी यूनियन को मान्यता देने और ११ श्रमिक नेताओं की मुअत्तली को रद्द करने की थी.

मारुति सुजूकी ऐसी अकेली बहुराष्ट्रीय कंपनी नहीं है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, नोकिया में ५० फीसदी और फोर्ड मोटर्स में ७५ फीसदी श्रमिक ठेके पर हैं. सच यह है कि निजी क्षेत्र की अधिकांश देशी-विदेशी कंपनियों की यही स्थिति है.

दूर क्यों जाएँ, बिना किसी अपवाद के लगभग सभी न्यूज चैनलों में भी ९० से १०० फीसदी टी.वी पत्रकार, एंकर, रिपोर्टर और संपादक ठेके पर हैं. नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है. किसी को कभी भी निकाला जा सकता है और निकाला जाता है. दो साल पहले आर्थिक मंदी के नाम पर सैकड़ों पत्रकारों की रातों-रात छुट्टी कर दी गई. सेवाशर्तें अमानवीय हैं. काम के निश्चित घंटे नहीं हैं और न छुट्टी की कोई नियमित व्यवस्था है. काम का दबाव और तनाव इस कदर रहता है कि बहुतेरे टी.वी पत्रकार कम उम्र में डायबिटीज से लेकर स्लिप डिस्क के शिकार हो रहे हैं.

आमतौर पर बाहर यह धारणा है कि टी.वी. न्यूज चैनलों में पत्रकारों की संविदा पर नियुक्ति के बावजूद उन्हें बहुत मोटा वेतन मिलता है. लेकिन यह एक बहुत बड़ा मिथक है. सच यह है कि चुनिन्दा चैनलों को छोड़ दिया जाए तो ८० फीसदी न्यूज चैनलों में न सिर्फ वेतन बहुत कम है बल्कि काम की परिस्थितियां भी बहुत दमघोंटू हैं.

अधिकांश चैनलों में पत्रकारों की तनख्वाहों के बीच बहुत ज्यादा अंतर है. चैनलों में शीर्ष पर बैठे चुनिन्दा पत्रकारों को मोटा वेतन दिया जाता है लेकिन दूसरी ओर, निचले स्तर पर पत्रकारों की बड़ी संख्या को बहुत मामूली वेतन मिलता है.

जाहिर है कि न्यूज चैनल कोई अपवाद नहीं हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि अधिकांश मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र की कंपनियों के अंदर कामकाज की स्थितियां इतनी अमानवीय, दमघोंटू और खतरनाक हैं और प्रबंधन का आतंक इस कदर है कि अकसर वहां श्रमिकों का गुस्सा फूट पड़ता है. कई बार यह गुस्सा हिंसक भी हो उठता है.

स्थिति कितनी विस्फोटक हो चुकी है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले दो-तीन वर्षों में श्रमिकों और प्रबंधन के बीच हुए टकराव में नोयडा स्थित इटालियन कंपनी ग्रेजियानो ट्रांसमिशन के सी.इ.ओ एल.के चौधरी, कोयम्बतूर की प्राइकोल इंडस्ट्रीज के वाइस प्रेसिडेंट-एच.आर रॉय जार्ज और गाजियाबाद की एलाइड निप्पन के असिस्टेंट मैनेजर जोगिन्दर चौधरी की मौत हो गई जबकि दर्जनों श्रमिक गंभीर रूप से घायल हो गए.

हालाँकि इन हिंसक घटनाओं की न्यूज चैनलों में अच्छी-खासी कवरेज हुई लेकिन रिपोर्टों में जोर श्रमिकों की हिंसा पर था. इन रिपोर्टों में श्रमिकों में बढती हिंसा, अराजकता और कानून हाथ में लेने की प्रवृत्ति के साथ-साथ औद्योगिक अशांति को उठाया गया था.

प्राईम टाइम चर्चाओं में सबसे अधिक चिंता श्रमिकों की बदहाल स्थिति पर नहीं बल्कि इन घटनाओं से विदेशी निवेश पर पड़नेवाले कथित नकारात्मक प्रभाव पर व्यक्त की गई. अधिकांश चैनलों ने इस बात की जाँच-पड़ताल करने की कोशिश नहीं की कि यह स्थिति क्यों आई? श्रमिकों की मांगें क्या थीं और फैक्ट्री में उनकी स्थिति क्या थी?

जाहिर है कि यह चैनलों के लिए सिर्फ एक और सनसनीखेज घटना भर थी और उनके पास अन्य घटनाओं की तरह इन घटनाओं के भी तह में जाने की फुर्सत और इच्छा नहीं थी. ध्यान देनेवाली बात यह है कि जिस नोयडा में अधिकांश न्यूज चैनलों के दफ्तर हैं, वह एक बड़ा औद्योगिक क्षेत्र भी है.

लेकिन हैरान करनेवाली बात यह है कि चैनलों पर नोयडा के हजारों श्रमिकों की दास्तानें शायद ही कभी सुनाई देती हैं. न सिर्फ नोयडा बल्कि दिल्ली के ५० किलोमीटर के इर्द-गिर्द नोयडा, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, गुड़गांव, फरीदाबाद, मानेसर, कोंडली, नरेला, बवाना, सोनीपत आदि इलाके औद्योगिक क्षेत्र हैं जहाँ हजारों फैक्टरियों में लाखों श्रमिक काम करते हैं. इसके बावजूद चैनलों पर वे कभी दिखाई नहीं देते हैं.

इसका मतलब यह हुआ कि अगर आप चैनलों के जरिये दिल्ली और देश को जानते-पहचानते हैं तो संभव है कि आप कभी इस सच्चाई से परिचित न हो पायें कि अकेले राजधानी दिल्ली के बाहरी इलाकों में लाखों मजदूर फैक्ट्रियों में काम करते हैं जिन्हें उनका कानूनी हक भी मयस्सर नहीं है.

चैनलों के जरिये दिल्ली और उसके आसपास के उपनगरों की जो चमकती-दमकती, रंगीन और खुशनुमा छवियाँ हम-आप तक पहुंचती हैं, उससे ऐसा लगता है कि यहाँ दिन-रात रोशन बाज़ार हैं, शापिंग माल्स हैं, दमकता मध्यम और अमीर वर्ग है और कुलांचे भरती अर्थव्यवस्था है. इस खुशनुमा तस्वीर में आप उन लाखों श्रमिकों को शायद ही कभी देखें जो इस बूमिंग अर्थव्यवस्था की नींव में होते हुए भी उसके लाभों से वंचित हैं.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि चैनलों के लिए वे ‘अस्पृश्य’ हैं. नतीजा, वे चैनलों के ‘लोकतंत्र’ से ‘बहिष्कृत’ और उसके परदे से ‘अदृश्य’ हैं. यही नहीं, चैनलों खासकर बिजनेस न्यूज चैनलों पर कभी श्रमिकों की बात होती भी है तो सबसे ज्यादा चर्चा श्रम सुधारों की होती है. इन चर्चाओं में आमतौर पर औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठनों जैसे फिक्की, सी.आई.आई और एसोचैम आदि के प्रतिनिधि, उद्योगपति और नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार अर्थशास्त्री बुलाये जाते हैं और वे एक सुर में श्रम सुधारों को आगे बढ़ाने की मांग करते हैं.

यहाँ श्रम सुधारों का मतलब श्रमिकों की स्थिति में सुधार से नहीं बल्कि उन श्रम कानूनों को और ढीला, लचीला और उद्योग जगत के अनुकूल बनाने का है जो पहले से ही ठेका, कैज्युअल और दिहाडी व्यवस्था के जरिये बेमानी बना दिए गए हैं.

इस मामले में अधिकांश चैनल अपने मालिकों और बड़े विज्ञापनदाताओं की आवाज़ बन जाते हैं. इस मामले में प्रेस की आज़ादी पत्रकारों की आज़ादी न होकर मालिकों की आज़ादी बन जाती है. हालत का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इन दिनों कुछ टी.वी न्यूज चैनल, अखबार मालिकों की संस्था आई.एन.एस के साथ मिलकर समाचारपत्र और समाचार एजेंसियों के कर्मचारियों और श्रमिकों के लिए गठित न्यायमूर्ति मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के खिलाफ मुहिम चलाये हुए हैं. उन्होंने सरकार पर जबरदस्त रूप से दबाव बनाया हुआ है कि वह मजीठिया आयोग की सिफारिशों को न माने.

अखबार मालिकों का तर्क है कि जब टी.वी चैनलों के पत्रकारों के लिए सरकार ऐसा कोई वेतन आयोग नहीं गठित करती तो अखबारों के कर्मचारियों के लिए अलग से वेतन आयोग क्यों बनाती है? उनका यह भी कहना है कि अगर यह सिफारिशें मान ली गईं तो समाचारपत्र उद्योग उसका बोझ नहीं उठा पायेगा और बंद होने के कगार पर पहुँच जाएगा. आई.एन.एस ने इसे लेकर एक जबरदस्त प्रचार अभियान छेड दिया है.

मजे की बात यह है कि अखबारों में मजीठिया वेतन आयोग के खिलाफ खूब रिपोर्टें छप रही हैं लेकिन अखबारी श्रमिकों और पत्रकारों का पक्ष पूरी तरह से ब्लैक-आउट कर दिया गया है. यहाँ तक कि पत्रकार और कर्मचारी यूनियनों के आंदोलन और उनके बयानों को भी खुद के अखबारों में जगह नहीं मिल रही है.

यही नहीं, कई बड़े मीडिया समूहों के न्यूज चैनलों में भी मजीठिया वेतन आयोग के खिलाफ इसी तरह से एकतरफा रिपोर्टें दिखाई जा रही हैं. उदाहरण के लिए, टाइम्स समूह के न्यूज चैनल- टाइम्स नाउ में खुद अर्नब गोस्वामी के कार्यक्रम न्यूज आवर में मजीठिया आयोग के खिलाफ एकतरफा रिपोर्ट दिखाई गई.

खुद को अन्याय के खिलाफ सबसे बड़े योद्धा की तरह पेश करने वाले अर्नब गोस्वामी ने बिना किसी हिचक के इस एकतरफा रिपोर्ट को दिखाया. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि चैनलों की कथित आज़ादी वास्तव में किसकी आज़ादी है? इससे यह भी पता चलता है कि चैनलों के लिए देश की इतनी बड़ी श्रमिक आबादी अदृश्य और अस्पृश्य क्यों है?

आश्चर्य नहीं कि बिना किसी अपवाद के अधिकांश चैनलों में श्रमिक मामले कोई अलग और नियमित बीट नहीं है और न ही उसे कवर करने के लिए अलग से कोई रिपोर्टर नियुक्त किया जाता है. यह बात और है कि लगभग सभी चैनलों में मनोरंजन यानी इंटरटेन्मेंट, फैशन, लाइफ स्टाइल आदि कवर करने के लिए खास और आम रिपोर्टरों की भरमार है.

उनके लिए अलग से ब्यूरो है. चैनलों पर नियमित बुलेटिनों के अलावा अलग से आधे-आधे घंटे के कार्यक्रम हैं. लेकिन करोड़ों श्रमिकों के लिए चैनलों के पास आधे घंटे तो छोडिये, एक मिनट का भी समय नहीं है. लेकिन चैनलों के ‘गुड नाईट एंड गुड लक’ जर्नलिज्म से इसके अलावा और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है?


(‘कथादेश’ के जुलाई’११ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)



अपील : कथादेश के अगले अगस्त अंक में चैनलों की आंतरिक स्थिति खासकर वहां काम करने वाले पत्रकारों की कामकाज की परिस्थितियों और सेवाशर्तों, वेतन, काम के दबाव, तनाव और सेहत आदि मुद्दों पर विस्तार से लिखने का इरादा है. चैनलों में काम करने वाले मित्र अगर मुझे फीडबैक भेज सके तो मेरा काम आसान हो जाएगा. मेरा ई-मेल है: apradhan28@gmail.com  . भरोसा रखें, पूरी गोपनीयता रखी जायेगी.

 

सोमवार, जुलाई 11, 2011

न्यूज चैनलों के ‘अस्पृश्य’

मजदूरों के लिए जगह नहीं है चैनलों पर


पहली किस्त



याद कीजिये कि आपने श्रमिकों- संगठित और असंगठित यानि सभी तरह के श्रमिकों, उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति और कामकाज की परिस्थितियों के बारे में टी.वी. न्यूज चैनलों पर आखिरी बार कोई रिपोर्ट कब देखी थी? क्या आपने हाल में कोई ऐसी रिपोर्ट देखी जिससे यह पता चलता हो कि देश में श्रमिकों की क्या स्थिति है?

क्या आपको न्यूज चैनलों पर हर दिन होनेवाली प्राईम टाइम चर्चाओं में हाल में श्रमिकों की स्थिति, उनके मुद्दों, मांगों, संघर्षों, हड़ताल आदि पर कोई गरमागरम चर्चा सुनाई पड़ी? क्या आपको किसी भी न्यूज चैनल का कोई स्टार रिपोर्टर याद आता है जो नियमित तौर पर श्रमिक मामलों का बीट कवर करता हो?

मुझे डर है कि इनमें से अधिकांश का जवाब ढूंढने के लिए आपको दिमाग पर बहुत जोर डालना पड़ेगा. इसके बाद भी इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि आपको ऐसी कोई हालिया न्यूज रिपोर्ट या प्राईम टाइम चर्चा या श्रमिक बीट कवर करनेवाले रिपोर्टर की याद आए.

यही नहीं, हाल-फिलहाल को छोड़ भी दें तो पिछले कई महीनों या सालों में भी शायद ही ऐसी किसी न्यूज रिपोर्ट, प्राईम टाइम चर्चा या श्रमिक बीट कवर करनेवाले रिपोर्टर की याद आ पाए. संभव है कि दिमाग पर बहुत जोर डालने पर आपको पिछले कुछ वर्षों में किसी श्रमिक हड़ताल खासकर उसके दौरान हुई हिंसा पर हुई इक्का-दुक्का रिपोर्टों की याद आ जाए.

संभव है कि आपमें से कुछ लोग पिछले साल जेट एयरवेज से निकाले गए केबिन कर्मचारियों की हड़ताल या हाल में एयर इंडिया के पायलटों की हड़ताल या सरकारी बैंकों के कर्मचारियों की एकदिवसीय हड़ताल की कवरेज का हवाला दें. निश्चय ही, एयरलाइन के केबिन कर्मचारियों और पायलटों की हड़ताल को खासा कवरेज मिला. उनपर प्राईम टाइम चर्चाएँ भी हुईं. उन्हें कवर करने के लिए स्टार रिपोर्टरों में भी होड़ लगी हुई थी.

लेकिन इसकी कई वजहें थीं. एयरलाइन उद्योग एक अप-मार्केट और इलीट उद्योग है जिसमें उच्च मध्यवर्ग और अमीरों की खासी दिलचस्पी रहती है. दूसरे, अगर उन एयरलाइन कर्मचारियों और पायलटों को श्रमिक मान भी लिया जाए तो वे उच्च मध्यवर्गीय व्हाइट-कालर श्रमिक हैं जिनके प्रति इलीट समुदाय की सहानुभूति स्वाभाविक है.

तीसरे, पायलटों या बैंक कर्मचारियों की हड़ताल से प्रभावित होनेवाले लोग- ‘पीपुल लाइक अस’ (पी.एल.यू) हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि वे न्यूज चैनलों के टारगेट आडिएंस हैं जिन्हें अनदेखा करना संभव नहीं है. आश्चर्य नहीं कि उनके हड़ताल को अच्छी-खासी कवरेज मिली.

जाहिर है कि न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों में अच्छी-खासी और सहानुभूतिपूर्ण कवरेज के कारण एयरलाइन कर्मचारियों और पायलटों के आंदोलन सरकार और एयरलाइन कंपनियों पर दबाव बनाने और काफी हद तक अपनी मांगें मनवाने में भी सफल रहे.

लेकिन लगता है कि दिल्ली से सटे गुड़गांव-मानेसर इलाके में स्थित जापानी आटोमोबाइल कंपनी मारुति सुजूकी उद्योग के श्रमिकों में वह आकर्षण नहीं था कि न्यूज चैनल उनकी दस दिनों से भी ज्यादा चली शांतिपूर्ण हड़ताल को कवरेज और प्राईम टाइम चर्चा के लायक मानते. नतीजा यह कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो किसी भी न्यूज चैनल ने इस हड़ताल को कवरेज नहीं दिया.

किसी स्टार रिपोर्टर ने दिल्ली से सिर्फ ५० किलोमीटर दूर मारुति उद्योग तक जाने का कष्ट उठाना जरूरी नहीं समझा. स्वाभाविक ही था कि देश का ठेका उठाए एंकर संपादकों और प्राईम टाइम टाइगरों ने इस मुद्दे को १० मिनट की चर्चा के लायक भी नहीं माना.

यह ठीक है कि उन्हीं दिनों में चैनल बाबा रामदेव के अनशन, रामलीला मैदान की पुलिस कार्रवाई और अन्ना हजारे के प्रतिवाद अनशन के अलावा लोकपाल बनाम जोकपाल की दैनिक बहस में अति व्यस्त थे. सारे स्टार रिपोर्टर रामलीला मैदान, शास्त्री भवन, नार्थ ब्लाक, अकबर रोड, रेस कोर्स रोड से लेकर हरिद्वार तक दौड़-भाग में जुटे थे, उनके पास मारुति के दो हजार से अधिक श्रमिकों की शांतिपूर्ण हड़ताल कवर करने की फुर्सत कहाँ थी? इसी तरह, स्टार और 'टाइगर' एंकरों को भ्रष्टाचार, कालेधन और लोकपाल जैसे राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर चर्चा से फुर्सत नहीं थी.

ऐसे में, आप कह सकते हैं कि इस दौरान श्रमिकों की हड़ताल ही क्यों, और भी कई बड़ी घटनाओं और मुद्दों के लिए २४ घंटे के चैनलों पर जगह नहीं थी. लेकिन सवाल यह है कि क्या ये घटनाएँ और मुद्दे नहीं होते तो मारुति के श्रमिकों की १३ दिनों तक चली हड़ताल को एयरलाइन के केबिन कर्मचारियों या पायलटों की हड़ताल के बराबर कवरेज मिलती? या उतनी नहीं तो कम से कम इतनी कवरेज मिलती, जिसकी वह हकदार थी? शायद नहीं.

संभव है कि कुछ चैनलों में फटाफट खबरों में एकाध बार ३० सेकेण्ड की खबर के रूप में या बहुत हुआ तो एक मिनट के एक पैकेज के रूप में किसी बुलेटिन में यह खबर चल जाती लेकिन इसकी सम्भावना न के बराबर है कि उसे एक बड़ी खबर के रूप में प्राईम टाइम बुलेटिन में जगह मिलती. लाइव कवरेज या प्राईम टाइम चर्चा बहुत दूर की बात है.

यही नहीं, इस बात की सम्भावना काफी ज्यादा है कि उसे सिरे से अनदेखा कर दिया जाता, जैसाकि अधिकांश चैनलों ने किया और करते रहते हैं. इसकी वजह यह है कि दिन-रात लोकतंत्र की कसमें खानेवाले चैनलों के कवरेज का लोकतंत्र बहुत सीमित और संकुचित है.

इस लोकतंत्र में सबसे ज्यादा जगह ‘पीपुल लाइक अस’ के लिए रिजर्व है. जाहिर है कि श्रमिक खासकर असंगठित क्षेत्र के करोड़ों श्रमिक पी.एल.यू नहीं हैं यानी उनमें विज्ञापनदाताओं की दिलचस्पी नहीं है, इसलिए चैनल की भी उनमें कोई रूचि नहीं है.

यही कारण है कि आमतौर पर चैनलों में श्रमिकों खासकर अगर वह व्हाइट कालर कर्मचारी नहीं हैं तो उन्हें कवरेज के लायक नहीं समझा जाता है. संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को अपवादस्वरूप थोड़ी-बहुत जगह मिल भी जाती है लेकिन असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को तो लगभग अछूत सा समझा जाता है.

आश्चर्य नहीं कि आप न्यूज चैनलों पर असंगठित क्षेत्र के उन करोड़ों श्रमिकों के दीन-दशा, समस्याओं और संघर्षों के बारे में अपवादस्वरूप भी कोई खबर या रिपोर्ट नहीं देखते हैं जिनके बारे में भारत सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट बताती है कि उनमें से ७९ फीसदी प्रतिदिन २० रुपये से भी कम की आय में गुजर-बसर करने के लिए मजबूर हैं.

ऐसा लगता है, जैसे वे देश के नागरिक नहीं हैं. तथ्य यह है कि देश की कुल श्रमशक्ति में लगभग ९२ फीसदी श्रमिक असंगठित क्षेत्र में काम करने को मजबूर हैं जहाँ न्यूनतम मजदूरी भी नहीं या बहुत मुश्किल से मिलती है. सामाजिक सुरक्षा आदि की बातें उनके लिए सपने की तरह हैं. यहाँ कोई श्रम कानून लागू नहीं होता है.

उनके काम करने की अमानवीय और शारीरिक रूप से असुरक्षित परिस्थितियों से लेकर उनके रहने की नारकीय स्थितियों तक ऐसा बहुत कुछ है जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को बेचैन करने के लिए काफी है. लेकिन जाहिर है कि देश-दुनिया के बोझ से परेशान चैनलों को इससे कोई बेचैनी नहीं होती है.

यहाँ तक कि न्यूज चैनलों पर संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए भी जगह नहीं है. मारुति के श्रमिकों की हड़ताल को अनदेखा किया जाना इसका ताजा उदाहरण है. सच पूछिए तो संगठित क्षेत्र कोई स्वर्ग नहीं है और न उसमें काम करनेवाले सभी श्रमिक स्वर्ग का आनंद उठा रहे हैं. तथ्य यह है कि हाल के वर्षों में संगठित क्षेत्र में भी श्रमिकों के लिए काम की परिस्थितियां लगातार बिगड़ी हैं. नौकरी की सुरक्षा बीते दिनों की बात हो चुकी है.

कारण, स्थाई श्रमिकों और कर्मचारियों की जगह ठेका और दिहाड़ी श्रमिकों की भर्ती की प्रवृत्ति बढ़ी है जिन्हें जब चाहा रखा और जब चाहा निकाल दिया जाता है. यहाँ तक कि निजी क्षेत्र की बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों में ज्यादातर श्रमिक ठेके पर हैं जिन्हें स्थाई कर्मचारियों वाली सुविधाएँ और लाभ नहीं मिलते हैं. उन्हें यूनियन बनाने या अपनी मांग उठाने के संवैधानिक अधिकार से भी वंचित रखा जाता है.


जारी......


(कथादेश के जुलाई’११ के अंक में प्रकाशित आलेख की पहली किस्त)

शुक्रवार, जुलाई 08, 2011

'न्यूज आफ द वर्ल्ड' की मौत छिछोरी टैबलायड पत्रकारिता का अंत नहीं है

भारत में भी मर्डोक और उसके देशी अवतारों के बढ़ते साम्राज्य पर अंकुश लगाने का समय आ गया है


मीडिया मुग़ल रूपर्ट मर्डोक को आखिरकार अपने प्रिय साप्ताहिक टैबलायड ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ को बंद करने का एलान करना पड़ा. इस टैबलायड पर राजनेताओं, सेलेब्रिटीज से लेकर आम लोगों यहाँ तक कि अपराध की शिकार छोटी बच्ची और ईराक और अफगानिस्तान में मारे गए सैनिकों के परिवार के सदस्यों तक के फोन टेप करने का आरोप है. इसे लेकर ब्रिटेन की राजनीति, समाज और मीडिया में जबरदस्त हंगामा मचा हुआ है.

लोगों के बढ़ते विरोध के कारण मर्डोक को मजबूरी में यह फैसला करना पड़ा है. फैसले के मुताबिक, इस सप्ताह इस १६८ साल पुराने टैबलायड का आखिरी अंक छपेगा. इसके साथ ही, छिछोरी और गटर पत्रकारिता के लिए कुख्यात ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ इतिहास के कूड़ेदान में चला जाएगा. उसने जिस तरह की पत्रकारिता की, उसमें उसका यही हश्र होना था. यह बहुत पहले हो जाना चाहिए था. आश्चर्य है कि यह १६८ साल कैसे चल गया?

जाहिर है कि आज उसकी मौत पर कोई आंसू बहानेवाला नहीं है. लेकिन ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ की मौत से छिछोरी और गटर पत्रकारिता का अंत नहीं होनेवाला है. सच यह है कि मर्डोक का दूसरा दैनिक टैबलायड ‘सन’ भी इसी छिछोरी पत्रकारिता का अगुवा है. मर्डोक के दोनों अख़बारों ‘सन’ और ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ में कोई खास फर्क नहीं है. ‘सन’ सप्ताह में छह दिन निकलता है जबकि ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ रविवार को निकलता है.

असल में, मर्डोक ने न्यूज आफ द वर्ल्ड को एक झटके में बंद करके एक तीर से कई शिकार किये हैं. इस फैसले के जरिये उसने आम लोगों के गुस्से को शांत करने की कोशिश की है. वैसे भी अब ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ का कोई व्यावसायिक भविष्य नहीं रह गया था. विज्ञापनदाता उसे छोडकर भाग रहे थे और पाठक उसके बहिष्कार का अभियान चला रहे थे. साथ ही, मर्डोक की कंपनी- न्यूज इंटरनेशनल के लिए दो अलग-अलग टैबलायड को मैनेज करने में भी मुश्किल आ रही थी. इस फैसले के बाद चर्चा है कि ‘सन’ को अब सप्ताह के सातों दिन छापा जाएगा.

इस तरह मर्डोक को इस फैसले कोई आर्थिक नुकसान नहीं होने जा रहा है. अलबत्ता न्यूज इंटरनेशनल को एक झटके में २०० पत्रकारों को से बिना किसी झंझट के मुक्ति मिल गई. इनमें से अधिकांश की कोई गलती नहीं थी जबकि फोन टैपिंग के जिम्मेदार संपादक रेबेका ब्रुक्स आज भी मर्डोक की कंपनी में सी.इ.ओ के पद पर बैठी है और दूसरे संपादक एंडी कॉलसन ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून के प्रेस सलाहकार बने हुए हैं.

यही नहीं, मर्डोक ने ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ की कुर्बानी देकर एक बड़े व्यावसायिक सौदे को बचाने की कोशिश की है. मर्डोक की कंपनी इन दिनों ब्रिटेन की बड़ी ब्राडकास्टिंग कंपनी- ब्रिटिश स्काई ब्राडकास्टिंग यानि बी.स्काई.बी के टेकओवर की कोशिश में लगी हुई है. अभी बी.स्काई.बी में मर्डोक का कोई ३९ प्रतिशत शेयर है लेकिन वह उसके पूरे मालिकाने के लिए पूरी ताकत लगाये हुए हैं. लेकिन ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ के विवाद के बाद ब्रिटेन में यह बहस छिड गई है कि क्या मीडिया में किसी एक व्यक्ति और कंपनी को इतनी असीमित ताकत मिलना उचित है?

दरअसल, ब्रिटेन में मर्डोक के विशाल मीडिया साम्राज्य की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था पर बढ़ते प्रभाव को लेकर खूब बहस हो रही है और चिंताएं जाहिर की जा रही हैं. कहते हैं कि मर्डोक की लेबर और कंजर्वेटिव पार्टी में बराबर की पकड़ और घुसपैठ है. यही नहीं, दोनों ही पार्टियों में मर्डोक के समर्थन के लिए होड़ लगी रहती है. इसलिए यह मांग तेज हो रही है कि मर्डोक के मीडिया साम्राज्य को नियंत्रित किया जाना चाहिए. यही नहीं, मर्डोक को बी.स्काई.बी का टेकओवर करने की इजाजत नहीं देने की मांग भी जोर पकड़ रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मर्डोक ने ९ अरब डालर के इस सौदे को बचाने के लिए ही न्यूज आफ द वर्ल्ड की कुर्बानी देकर लोगों के बीच अपनी साख बहाल करने की कोशिश की है. हालांकि मर्डोक की इस चाल को लोग समझ रहे हैं लेकिन मुश्किल यह है कि सत्ता और विपक्ष दोनों उसके साम्राज्य के आगे घुटने टेक चुके हैं. यही कारण है कि न्यूज आफ द वर्ल्ड के एक आरोपी संपादक एंडी कॉलसन जिसको जेल में होना चाहिए था, वह प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार बने हुए हैं.

लेकिन ब्रिटेन में हाल के खुलासों के बाद मीडिया के जिस अंडरवर्ल्ड का पर्दाफाश हुआ है और जो लोगों के गुस्से और विरोध के निशाने पर है, उसपर लगाम लगाने की कोशिशें कामयाब होंगी. उम्मीद करनी चाहिए कि ब्रिटेन में यह मुहिम आगे बढ़ेगी.

लेकिन क्या उचित समय नहीं है कि हम भारत में भी मर्डोक और उसके देशी अवतारों की अगुवाई में मीडिया के निरंतर फैलते और बढ़ते अंडरवर्ल्ड को लेकर सावधान हो जाएँ और उसपर अंकुश लगाने के उपायों पर विचार करें? क्या हम अपने न्यूज आफ द वर्ल्ड का इंतज़ार कर रहे हैं?