बुधवार, जुलाई 06, 2011

उत्तर प्रदेश में गुंडाराज या चैनलों में 'सवर्ण राज'?


क्या चैनलों पर मायावती के खिलाफ एकतरफा अभियान चलाया जा रहा है?


न्यूज चैनलों को अचानक इलहाम हुआ है कि उत्तर प्रदेश बलात्कार प्रदेश बन गया है. दलित और महिला मुख्यमंत्री होने के बावजूद राज्य में महिलाओं खासकर दलित और कमजोर वर्गों की महिलाओं की इज्जत सुरक्षित नहीं है. हर २४ घंटे में बलात्कार की पांच घटनाएँ हो रही हैं.

चैनलों के मुताबिक, मायावती के राज में कानून व्यवस्था की स्थिति पूरी तरह से चरमरा गई है. राज्य में जंगल राज कायम हो गया है. बसपा से जुड़े गुंडे और अपराधी बेलगाम हो गए हैं. डाक्टरों की हत्याएं हो रही हैं. भ्रष्टाचार और अराजकता चरम पर है.

ये और ऐसी ही कई सुर्खियाँ इन दिनों चैनलों खासकर हिंदी न्यूज चैनलों पर छाई हुई हैं. ऐसा लगता है जैसे वहां कानून-व्यवस्था के मामले में कोई जलजला सा आ गया है. चैनलों में अचानक छा गई इन सुर्ख़ियों, रिपोर्टों और प्राईम टाइम चर्चाओं से ऐसा लगता है, जैसे उत्तर प्रदेश देश का सबसे असुरक्षित और कानून व्यवस्था की दृष्टि से बदतर राज्य बन गया है.

खुद मुख्यमंत्री मायावती का कहना है कि यह विपक्ष का कुप्रचार है. उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था की स्थिति दिल्ली, महाराष्ट्र या मध्यप्रदेश से ज्यादा खराब नहीं है.

बहन जी का सवाल है कि फिर उत्तर प्रदेश को लेकर इतना शोर क्यों मचाया जा रहा है? उनका आरोप है कि यह सवर्ण मनुवादी मीडिया की साजिश है. सवाल है कि क्या सचमुच, मायावती के प्रति पूर्वाग्रह के कारण न्यूज चैनलों में ये घटनाएँ उछाली जा रही हैं?

इस प्रश्न का उत्तर इतना आसान नहीं है. सरसरी तौर पर देखने पर मायावती की शिकायत में कोई खास दम नहीं दिखाई देता है. उनके आरोप खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे जैसे लगते हैं.

सच यह है कि चैनलों पर दिखाई जा रही रिपोर्टें तथ्यतः गलत नहीं हैं. इस सच्चाई को अनदेखा करना मुश्किल है कि बहन जी जिस गुंडा राज को खत्म करने के वायदे के साथ सत्ता में आईं थीं, उसमें कोई खास कमी नहीं आई है.

खासकर जिस तरह से बसपा से जुड़े विधायकों-सांसदों-मंत्रियों आदि के नाम संगीन अपराधों और भ्रष्टाचार के मामलों में आए हैं, उसे देखते हुए मीडिया और न्यूज चैनलों का शोर मचाना गलत कैसे कहा जा सकता है? आखिर सरकारों के कामकाज की पहरेदारी करना और उनकी कमियों-गलतियों-धतकरमों पर उंगली उठाना न्यूज चैनलों का काम है.

अगर न्यूज चैनल अपना ये काम कर रहे हैं तो मायावती को नाराज क्यों होना चाहिए? चैनल आइना भर हैं. वे यह कहकर कैसे बच सकती हैं कि कानून-व्यवस्था की इतनी ही बदतर स्थिति अन्य राज्यों में भी है?

अगर तथ्यतः यह सही भी है तो मुख्यमंत्री के नाते उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था की स्थिति बहाल करना, महिलाओं को पूरी सुरक्षा देना, अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करना और लूट-खसोट पर अंकुश लगाना उनकी जिम्मेदारी है.

फिर बलात्कार और एक के बाद एक तीन वरिष्ठ डाक्टरों की हत्याएं सामान्य अपराध की घटनाएँ नहीं हैं. सिर्फ दलित होने के कारण मायावती के ‘सात खून’ माफ नहीं किये जा सकते हैं.

कहने का मतलब यह कि न्यूज चैनलों की शिकायत करने से पहले बहन जी को अपने अंदर झांकना होगा. उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि उन्हीं चैनलों पर आजकल उनकी सरकार की कामयाबियों का गुणगान करता सात मिनट से ज्यादा लंबा विज्ञापन धड़ल्ले से चल रहा है.

लेकिन यह सब कहने का मतलब यह नहीं है कि सारे चैनल उत्तर प्रदेश के बारे में पूर्वाग्रह से मुक्त होकर जनहित में रिपोर्टिंग कर रहे हैं. यह मान भी लिया जाए कि तथ्यों के मामले में अधिकांश रिपोर्टें सही हैं तो भी उनकी भाषा, प्रस्तुति और टोन इस तरह का है कि उसमें पूर्वाग्रह सहज ही दिख जाता है.

असल में, चैनलों ने जिस तरह और जिस अंदाज़ में उत्तर प्रदेश से जुडी खबरों को उछाला है, उसमें उनकी अतिरिक्त आक्रामकता को अनदेखा करना मुश्किल है. इस सवाल को भी नकारा नहीं जा सकता है कि चैनलों को केवल उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था, गुंडाराज और भ्रष्टाचार क्यों दिख रहे है?

क्या दिल्ली, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में ‘रामराज्य’ है? जब चैनल उत्तर प्रदेश के गुंडाराज को लेकर सिर आसमान पर उठाए हुए थे, उसी समय बिहार के अररिया में पुलिस की गुंडागर्दी और अमानवीयता को लेकर नितीश कुमार के ‘सुशासन’ पर चैनलों की चुप्पी हैरान करनेवाली थी.

यही नहीं, मुंबई की हाल की घटनाओं खासकर पत्रकार जे. डे की दिन दहाड़े हत्या के बाद साफ हो गया है कि वहां का कुख्यात अंडरवर्ल्ड और उसके सरगना फिर जोरशोर से सक्रिय हो गए हैं. लेकिन वहां चैनलों की वह आक्रामकता नहीं दिखाई दे रही है जो उत्तर प्रदेश के मामले में छोटी से छोटी आपराधिक घटना पर दिखाई दे रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि उत्तर प्रदेश के मामले में कई हिंदी न्यूज चैनलों की रिपोर्टिंग और चर्चाओं में वह संतुलन और अनुपातबोध नहीं दिख रहा है जो वस्तुनिष्ठ और पक्षपातविहीन पत्रकारिता के लिए जरूरी शर्त है.

उलटे चैनलों की एकतरफा और अतिरिक्त रूप से आक्रामक रिपोर्टिंग के कारण ऐसा आभास होने लगता है कि जैसे वे घटनाओं के तटस्थ गवाह और खबरी के बजाय पार्टी बन गए हैं. इस तरह कई बार वे सिर्फ रिपोर्टिंग करते नहीं बल्कि बसपा सरकार के खिलाफ अभियान चलाते मालूम होते हैं.

क्या इसका एक बड़ा कारण यह है कि चैनलों के अंदर काम करनेवाले पत्रकारों-संपादकों-एंकरों में दलित और पिछड़े समुदायों की भागीदारी लगभग नगण्य है?

निश्चय ही, चैनलों के न्यूज रूम और उसमें निर्णायक पदों पर बैठे संपादकों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि खबरों के चयन और उनकी प्रस्तुति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. उत्तर प्रदेश पर चैनलों की हालिया हाहाकारी रिपोर्टिंग इसका एक और सबूत है. साफ है कि मायावती के साथ चैनलों को भी अपने अंदर झांकने की जरूरत है.

('तहलका' के १५ जुलाई'११ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ 'तमाशा मेरे आगे' :
http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/908.html )

3 टिप्‍पणियां:

khabar ने कहा…

ऐसा नहीं है दलित मायावती के खिलाफ सवर्णों ने अभियान चला रखा है या फिर मीडिया मनुवादी हो गया है..समस्या ये है कि लोगों को या मीडिया को मायावती सरकार से कोई जुड़ाव महसूस नहीं होता..और इसकी बड़ी वजह सरकार और जनता के बीच संचार की कमी है..यहां बर्तावस एक तानाशाह और उसकी ऱियाया की तरह है..

Digvijay Singh Rathor Azamgarh ने कहा…

sahi kaha

Unknown ने कहा…

अजीब तो जरुर लगता है कि अचानक कैसे सब कुछ काला काला सा होने लगता है?पर खबरों कि सच्चाई को जाति के आधार अपर नकारा नहीं जाना चाहिए?ये सोच मनुवादी हो या न हो चुनाव नज़दीक आते आते राजनीतिक जानवरों की सक्रियता बढ़ ही जाती है.मायावती को इस बात का ख्याल रखना चाहिए था और शासन को ज्यादा चुस्त और तंदुरुस्त रखना चाहिए था.