मंगलवार, जुलाई 26, 2011

खबरों का धंधा यानी मीडिया का अंडरवर्ल्ड

पुस्तक समीक्षा

कार्पोरेट मीडिया से अब कोई उम्मीद नहीं बची है
मीडिया का अंडरवर्ल्ड : पेड न्यूज, कारपोरेट और लोकतंत्र (राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली : मूल्य ३५० रूपये)



मीडिया का भी एक अंडरवर्ल्ड है जिसके बारे में खुद मीडिया में बहुत कम या न के बराबर चर्चा होती है. अपराध के अंडरवर्ल्ड की तरह मीडिया के अंडरवर्ल्ड में भी हर तरह के धतकरम हो रहे हैं- खबरों की खुलेआम खरीद-बिक्री हो रही है, ख़बरें ‘मैनेज’ की जा रही हैं, पाठकों-दर्शकों को धोखा दिया जा रहा है और समाचार मीडिया का एजेंडा कारपोरेट पूंजी और राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान तय करने लगे हैं. नतीजा, यह अंडरवर्ल्ड मुनाफे के लिए पत्रकारिता के सभी आदर्शों, मूल्यों, सिद्धांतों और नैतिकता की खुलेआम बोली लगाने में भी नहीं हिचकिचा रहा है.

हालाँकि इसमें नया कुछ नहीं है. पत्रकार और मीडिया विश्लेषक दिलीप मंडल अपनी किताब ‘मीडिया का अंडरवर्ल्ड : पेड न्यूज, कारपोरेट और लोकतंत्र’ में स्वीकार करते हैं कि भारतीय समाचार मीडिया में ये प्रवृत्तियां काफी लंबे अरसे से देखी जा रही हैं. अलबत्ता, पहले यह थोड़ा ढंका-छुपा और डरा-शर्माया सा था. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह खुला खेल फर्रुखाबादी हो गया है. इस बीच, मीडिया के इस अंडरवर्ल्ड का न सिर्फ दायरा और दबदबा बढ़ा है बल्कि काफी हद तक लाज-शर्म भी खत्म हो गई है.

खासकर खबरों की खरीद-बिक्री यानि पेड न्यूज का चलन इस हद तक बढ़ गया है कि संसद से लेकर सड़क तक थू-थू होने लगी है. निश्चय ही, इसके कारण समाचार मीडिया की साख दरकी है, लोकतंत्र के चौथे खम्भे और सार्वजनिक हितों के पहरेदार की उसकी छवि विखंडित हुई है और उसपर सार्वजनिक तौर पर सवाल उठने लगे हैं. इसके बावजूद खुद मीडिया ने अपने तईं इसे अनदेखा करने की बहुत कोशिश की और सब कुछ खुलने के बावजूद अभी भी एक पर्दादारी दिखती है.

यह सचमुच बहुत हैरानी की बात है कि देश-दुनिया के सभी छोटे-बड़े मुद्दों पर चर्चा और उनकी चीरफाड़ करने को अपना अधिकार समझनेवाला समाचार मीडिया खुद अपने अंदर झांकने या अपने बारे में बातें करने को बहुत उत्सुक नहीं दिखता है. लेकिन स्थिति धीरे-धीरे बदलने लगी है. बढती आलोचनाओं के कारण मीडिया में खुद के कामकाज की पड़ताल और चर्चा होने लगी है.

पिछले एक-डेढ़ दशकों में जिस तरह से मीडिया का विस्तार और उसके प्रभाव में वृद्धि हुई है, उसके कारण लोकतान्त्रिक ढांचे में उसकी भूमिका और क्रियाकलापों की छानबीन और विमर्श में रूचि बढ़ी है.

इसी का नतीजा है दिलीप मंडल की किताब. इसका कई कारणों से स्वागत किया जाना चाहिए. यह न सिर्फ समाचार मीडिया में फैलते पेड न्यूज के कैंसर की बारीक़ पड़ताल करती है बल्कि उसे मीडिया के कारपोरेट ढांचे और उसके व्यापक राजनीतिक अर्थशास्त्र के सन्दर्भ में जांचने-परखने की कोशिश करती है. इस प्रक्रिया में यह मीडिया के उस अंडरवर्ल्ड पर से पर्दा उठाने में काफी हद तक कामयाब होती है जो हाल के वर्षों में कारपोरेट मीडिया के मुख्यधारा पर छाता जा रहा है.

दिलीप की कई स्थापनाएं चौंकाती है लेकिन उनसे असहमत होना मुश्किल है. जैसे आज ‘मीडिया की अंतर्वस्तु लगभग पूरी तरह से मीडिया के अर्थशास्त्र से निर्धारित हो रही है. सम्पादकीय सामग्री पर बाजार का नियंत्रण लगभग समग्र रूप से स्थापित हो चुका है.


विज्ञापनदाता, क्या छपेगा के साथ ही क्या नहीं छपेगा का भी काफी हद तक निर्धारण करने लगे हैं.’ उनका यह भी कहना है कि, ‘ इस वजह से कंटेंट की विविधता का भी लगभग अंत हो गया है. लगभग सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर मीडिया के विचारों का मानकीकरण हो चुका है.’

वे यहीं नहीं रुकते. उनका यह भी मानना है कि, ‘मीडिया में संपादक नाम की संस्था का लगभग पूरी तरह से क्षय हो चुका है. मीडिया कारोबार में सम्पादकीय स्वतंत्रता अब अखबार या चैनल के व्यावसायिक हितों के दायरे से बाहर संभव नहीं है.’ वे बहुत बेलागी के साथ कहते हैं कि जो पाठक या दर्शक किसी अखबार या पत्रिका या चैनल की लागत का लगभग १० से २० प्रतिशत चुकाकर उम्मीद करते हैं कि वे उसे सही सूचनाएं देंगे या उनके हित की बात करेंगे, वे बड़ी गलतफहमी में हैं.

दिलीप के मुताबिक, पेड न्यूज मीडिया को लगी गंभीर बीमारी का लक्षण मात्र है. वे ऐसे अनेकों लक्षणों- प्राइवेट ट्रीटी, मीडियानेट, पी.आर की खुली घुसपैठ और मीडिया का रादियाकरण आदि की चर्चा करते हुए मीडिया की असली बीमारी उसके व्यावसायिक ढांचे और लक्ष्यों में देखते हैं.

यही नहीं, दिलीप मीडिया स्वामित्व के मौजूदा कारपोरेट ढांचे को लेकर अपनी निराशा छुपाते नहीं हैं. उन्हें इस कारपोरेट मीडिया से कोई उम्मीद नहीं दिखती है. वे मानते हैं कि यह मीडिया पर बाजार और विज्ञापन की विजय का दौर है.

निश्चय ही, पेड न्यूज की परिघटना लोकतान्त्रिक राजनीति के लिए खतरे की घंटी है. मीडिया का अंडरवर्ल्ड लोकतंत्र की जड़ें खोदने में लगा हुआ है. लेकिन उससे भी बड़ी चिंता की बात मुख्यधारा के समाचार मीडिया का कारपोरेट टेकओवर है जो मुनाफे और कारपोरेट हितों को आगे बढ़ाने के लिए खबरों की खरीद-फरोख्त से लेकर लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में तोड़-मरोड़ करने से भी नहीं हिचकिचा रहा है.

हालाँकि दिलीप इसका कोई समाधान नहीं सुझाते लेकिन सच यह है कि बीमारी की सही पड़ताल से ही इलाज की शुरुआत होती है. इस मायने में इस किताब को एक महत्वपूर्ण शुरुआत माना जा सकता है.

('इंडिया टुडे' के १३ जुलाई के अंक में प्रकाशित)

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