बुधवार, जुलाई 20, 2011

भ्रष्टाचार की मार से सबसे पस्त है आम आदमी

हो रही है भ्रष्टाचार को वैधता देने की कोशिश



भारतीय समाज और राज व्यवस्था में भ्रष्टाचार की जड़ें किस कदर गहराती जा रही हैं, इसका अनुमान फोरेंसिक इंडिया की एक ताजा रिपोर्ट से लगाया जा सकता है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, एक आम नागरिक को अपना वाजिब काम करवाने या हक पाने के लिए घूस के रूप में लगभग २२१८ रूपये खर्च करने पड़े. आज से दस साल पहले घूस की यह रकम कोई ८३६ रूपये थी.

इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले एक दशक में एक आम भारतीय नागरिक पर घूस का बोझ लगभग २६५ फीसदी यानि ढाई गुने से भी ज्यादा बढ़ गया है. यही नहीं, इस रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले एक दशक में देश को भ्रष्टाचार के कारण लगभग १५५५ हजार करोड़ रूपयों का नुकसान उठाना पड़ा है.

आश्चर्य नहीं कि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. इसकी सीधी सी वजह यह है कि भ्रष्टाचार की सबसे अधिक मार उसी पर पड़ रही है. हालांकि कई विश्लेषकों को यह लगता है कि भ्रष्टाचार मूलतः एक अमीर और मध्यम वर्गों तक सीमित परिघटना है और आम आदमी खासकर गरीबों को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता है.

लेकिन सच्चाई यह है कि भ्रष्टाचार की सबसे अधिक मार गरीबों पर ही पड़ती है जिन्हें अपने वाजिब हक और जरूरतों जैसे राशन से अनाज, स्कूल में दाखिले, पानी-बिजली के कनेक्शन, अस्पताल में इलाज, ट्रेन में यात्रा, रेहडी-फेरी लगाने आदि के लिए सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को घूस देने के लिए मजबूर होना पड़ता है.

सेंटर फार मीडिया स्टडीज (सी.एम.एस) की हाल में जारी रिपोर्ट के अनुसार, पिछले साल अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के ४० फीसदी लोगों ने अपने अनुभव के आधार पर यह कहा कि देश में सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार बढ़ा है जबकि २८ फीसदी ने कहा कि हालात कमोबेश पिछले साल की तरह ही हैं.

असल में, सी.एम.एस ने देश भर में कोई दो हजार गाँवों के ९९६० ग्रामीण परिवारों के बीच चार जन सेवाओं- पी.डी.एस, स्कूली शिक्षा, पेयजल और अस्पताल सुविधाओं में भ्रष्टाचार की पड़ताल के लिए एक सर्वेक्षण किया था जिससे यह चौंकानेवाला तथ्य सामने आया कि देश के बारह राज्यों में अकेले इन चार सेवाओं के लिए ग्रामीण गरीबों को लगभग ४७१.८ करोड़ रूपये की घूस देनी पड़ी.

यही नहीं, हर चार में से जिन तीन ग्रामीण परिवारों को इन सार्वजनिक सुविधाओं के तहत अपने वाजिब हक को हासिल करने के लिए घूस देना पड़ा, उनकी मासिक आय पांच हजार रूपये से कम थी. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भ्रष्टाचार की कितनी जबरदस्त मार आम आदमी और गरीबों पर पड़ रही है. उन्हें अपना हक लेने के लिए अपनी खून-पसीने की कमाई में से घूस देनी पड़ती है क्योंकि उनका काम इन जन सेवाओं के बिना नहीं चल सकता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मध्यम और उच्च वर्गों ने धीरे-धीरे इन सरकारी सेवाओं का उपयोग करना छोड़ दिया है, इसलिए उन्हें इस भ्रष्टाचार से शायद उतना फर्क नहीं पड़ता है लेकिन गरीबों के लिए ये सार्वजनिक सेवाएं जीवन रेखा की तरह हैं.

इसके बावजूद इन चार महत्वपूर्ण सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार का घुन उन्हें न सिर्फ अंदर से खोखला करता जा रहा है बल्कि उसकी कीमत गरीबों को जान तक देकर चुकानी पड़ रही है. विश्वास नहीं हो तो कभी सरकारी प्राइमरी हेल्थ सेंटर और जिला अस्पताल जाकर देखिए कि वहां आम आदमी और गरीबों का क्या हाल है?

यही नहीं, आज देश के किसी भी राज्य में चले जाइये, सबसे भ्रष्ट विभागों में पी.डी.एस, स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग सबसे ऊपर चल रहे हैं. खासकर जबसे स्कूली शिक्षा/सर्व शिक्षा और ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए केन्द्र से हजारों करोड़ की रकम हर साल राज्यों में पहुँच रही है, हालात और बिगड गए हैं. हालांकि २ जी और कामनवेल्थ घोटालों के शोर में इनकी चर्चा कहीं नहीं हो रही है.

लेकिन सच्चाई यह है कि बिना किसी अपवाद के विकास और सार्वजनिक कल्याण की सभी योजनाओं को भ्रष्टाचार का घुन चाटता जा रहा है. खुद युवराज राहुल गाँधी ने भी स्वीकार किया है कि विकास और सार्वजनिक कल्याण की योजनाओं के लिए दिल्ली या राज्य की राजधानियों से चलनेवाले हर एक रूपये में से सिर्फ पांच पैसे ही गरीब तक पहुँच रहे हैं.

याद रहे कि उनके पिता और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के ज़माने में एक रूपये में से १५ पैसे गांव तक पहुँचते थे. साफ़ है कि पिछले दो-ढाई दशकों में न सिर्फ भ्रष्टाचार का दायरा बढ़ा है बल्कि भ्रष्टाचार में होनेवाली सार्वजनिक धन की लूट भी कई गुना बढ़ गई है.

लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ शोर-शराबे के बावजूद आम लोगों खासकर गरीबों के वाजिब अधिकारों को लूटने वाले, जल-जंगल-जमीन-खनिज जैसी सार्वजनिक सम्पदा को कौडियों के भाव हथियानेवाले और विकास के महाभोज में शामिल नेताओं, अफसरों, कंपनियों (ठेकेदारों) और माफियाओं की चौकड़ी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. उलटे उसके ताकत और प्रभाव में लगातार बढोत्तरी हुई है.

यहाँ तक कि भ्रष्टाचार और लूट की संस्कृति ने व्यवस्था के उन अंगों को भी अपने चपेट में ले लिया है जिनसे लोगों को कुछ राहत की उम्मीद थी. हाल के वर्षों में भ्रष्टाचार ने जिस तरह से न्यायपालिका, मीडिया और यहाँ तक कि गैर सरकारी संगठनों को भी अपने चपेट में ले लिया है, उससे भ्रष्टाचार की सर्वव्यापी पहुँच का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

लेकिन विडम्बना देखिए कि जिस समय देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक प्रभावी लोकपाल की जरूरत पर बहस चल रही है, उसी समय वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने बाकायदा एक विमर्शपत्र जारी करके ‘नायाब और रेडिकल’ सुझाव दिया है कि निचले स्तर के भ्रष्टाचार को एक तरह का कानूनी दर्जा दे दिया जाए.

बसु के मुताबिक, आम आदमी को रोज-रोज की जरूरतों के लिए जो घूस देनी पड़ती है, वह एक तरह का उत्पीडक भ्रष्टाचार है. उनके अनुसार, लोगों को मजबूरी में ऐसी घूस देनी पड़ती है, इसलिए इस तरह मजबूरी में घूस देनेवाले को भ्रष्टाचार के आरोप से बरी कर देना चाहिए. उन्हें उम्मीद है कि इससे घूस देनेवाले लोग इसकी शिकायत कर सकेंगे और यह भ्रष्टाचार को रोकने में मददगार साबित होगा.

बसु के ‘क्रांतिकारी’ सुझाव की सीमाएं, अंतर्विरोध और विसंगतियाँ बताने की जरूरत नहीं है. इसे लागू करने मतलब भ्रष्टाचार को न सिर्फ एक तरह की कानूनी मान्यता देना है बल्कि यह भ्रष्टाचार को एक तरह की सामाजिक स्वीकृति देना भी है. लेकिन सबसे हैरानी की बात यह है कि जो सरकार छोटे और मंझोले स्तर के अधिकारियों को लोकपाल के दायरे में लाने के लिए तैयार नहीं है, उसका सबसे बड़ा आर्थिक सिद्धांतकार उसे कानूनी बनाने की सिफारिश कर रहा है.

साफ़ है कि भ्रष्टाचार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है बल्कि उसे किसी न किसी रूप में वैध बनाने की कोशिश हो रही है. एक मायने में यह भ्रष्टाचार के इस व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा बनने की स्वीकृति है.

(‘राष्ट्रीय सहारा’ के २० जुलाई के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

1 टिप्पणी:

manoj kaushik ने कहा…

anand ji aapka lekh pada acha laga, aaj jo ye avyavastha fali hui hai jiske karan barastachar, kalabazari, risvatkhori fali hui hai usma sabi babu log ak dusra sa juda hua hai.
sarkar sa juda hua kisi bi vibhag mai agar kam niklavana ho to do chiza jaruri hai- ya to pasa, ya fir sifaras. agar aam admi par ya nahi hai to kam nahi hoga.
rahi baat politican logo ki to unka pass itna pasa hai ka unjo koi tension nahi hai ka kitna dam badh raha hai or kitan nahi. farq to us aam admi ko padta hai jisa subha ghar sa niklna ka baad ya pata nahi hota ka syam ko rot milaga bhi ya nahi