मंगलवार, जुलाई 05, 2011

मनमोहनी 'समावेशी विकास' की असलियत : अमीर हो रहे हैं और अमीर, गरीब और गरीब



'समावेशी विकास' की असली कीमत चुका रहा है आम आदमी


यू.पी.ए सरकार की कामयाबियों की सूची में एक और उपलब्धि जुड़ गई है. भारत में अमीरों और सुपर अमीरों की संख्या और उनकी संपत्ति देश के विकास दर की तुलना में लगभग ढाई गुना तेजी से बढ़ रही है. मेरिल लिंच और केपजेमिनी की ताजा वैश्विक सम्पदा रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में वर्ष २०१० में ऐसे अमीरों की संख्या में २०.८ प्रतिशत की बढोत्तरी हुई है जिनकी संपत्ति ४.५ करोड़ रूपये से अधिक है.

रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में ऐसे अमीरों की संख्या वर्ष २००९ के १,२६,७०० से बढ़कर २०१० में १.५३ लाख पहुँच गई है. इसके साथ ही, अमीरों की कुल संख्या के मामले में भारत दुनिया में १४ वें से १२ वें स्थान पर पहुँच गया है.

हालाँकि अमीरों की कुल संख्या के मामले में भारत अभी भी दुनिया के कई देशों से पीछे है लेकिन अमीरों की संख्या वृद्धि के मामले में भारत ने सभी रिकार्ड तोड़ दिए हैं. यहाँ अमीरों की संख्या में सबसे तेज गति से वृद्धि दर्ज की गई है. रिपोर्ट के अनुसार, जहाँ अधिकांश देशों में अमीरों की संख्या में इकहरे अंकों में बढोत्तरी दर्ज की गई है, वहीँ भारत में वृद्धि की दर दोहरे अंकों में है.

यही नहीं, पिछले वर्ष भारतीय अमीरों की तादाद में ५० फीसदी की रिकार्ड़तोड़ बढोत्तरी देखी गई थी. हालाँकि समाचार रिपोर्टों में भारतीय करोड़पतियों की कुल संपत्ति का उल्लेख नहीं है लेकिन २०१० की सम्पदा रिपोर्ट को आधार मानें तो वर्ष २००९ में भारतीय अमीरों की कुल सम्पदा लगभग ४३७ अरब डालर यानि लगभग १९६६५ अरब रूपये थी.

जाहिर है कि इस कामयाबी पर गुलाबी अखबारों सहित कारपोरेट जगत में खुशी और जश्न का माहौल है. दुनिया के बड़े लक्जरी ब्रांड्स के निर्माता खुश हैं कि उनके महंगे उत्पादों के उपभोक्ता तेजी से बढ़ रहे हैं. इसे २००८ की वैश्विक मंदी के असर से बाहर निकल आने के सबूत के तौर पर देखा जा रहा है.

साथ ही, यह माना जा रहा है कि देश के एक बार फिर से तेज आर्थिक विकास दर के दौर में पहुँच गया है. मेरिल लिंच और केपजेमिनी के मुताबिक, भारत में अमीरों की संख्या और संपत्ति में तेज गति से बढोत्तरी के पीछे ९.१ प्रतिशत की जी.डी.पी वृद्धि दर के साथ-साथ पिछले वर्ष शेयर बाजार में २४ फीसदी की उछाल की बहुत बड़ी भूमिका है.

इस कामयाबी से बमबम विश्लेषक दावे कर रहे हैं कि अगले कुछ वर्षों में भारत अमीरों की वैश्विक सूची में टॉप देशों की कतार में पहुँच जाएगा. लेकिन समावेशी विकास के नारों के बीच अमीरों की इस तेज गति से बढती संख्या और संपत्ति के क्या मायने हैं? इसे कई तरह से देखा जा सकता है.

सबसे पहले, यह देश में तेजी से बढ़ती गैर बराबरी का सबूत है. देश की कुल आबादी में करोड़पति अमीरों की संख्या सिर्फ ०.०१ फीसदी है लेकिन उनकी निवेश लायक कुल संपत्ति देश की कुल राष्ट्रीय आय के एक तिहाई के बराबर है. इसका अर्थ यह हुआ कि डेढ़ लाख अमीरों की कुल संपत्ति देश के ८० फीसदी से ज्यादा भारतीयों की कुल संपत्ति से ज्यादा है. याद रहे कि देश में ७९ फीसदी भारतीय प्रतिदिन सिर्फ २० रूपये से कम की आय में गुजर-बसर करते हैं.

साफ है कि देश में अमीर-गरीब के बीच फासला तेजी से बढ़ रहा है. इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश के सौ सुपर अमीरों की कुल संपत्ति लगभग १३ लाख करोड़ है जो देश की जी.डी.पी के एक चौथाई के बराबर है. यही नहीं, देश के १० सबसे अमीर धनकुबेरों की कुल संपत्ति १५५ अरब डालर है जो कि चीन के दस सबसे अमीरों की कुल संपत्ति से चार गुना अधिक है.

एक अन्य अखबारी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में एक करोड़पति अमीर की औसत संपत्ति लगभग १६.६ करोड़ रूपये है. अगर २००७-०८ की प्रति व्यक्ति आय को आधार मान लें तो एक आम शहरी भारतीय को इस स्तर तक पहुँचने में २२३८ साल और एक ग्रामीण भारतीय को और ज्यादा लगभग ३८१४ साल लग जाएंगे.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस बीच ये करोड़पति अरबपति और खरबपति बन चुके होंगे. दूसरी ओर, एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक जब देश में करोड़पति अमीरों की संख्या और उससे अधिक उनकी संपत्ति फर्राटे लगा रही थी, समावेशी विकास के दावों को झुठलाते हुए देश में गरीबों की संख्या भी बढ़ रही थी.

संयुक्त राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक मामलों के विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक, वैश्विक मंदी के असर में देश में २००८ और ०९ में जी.डी.पी की वृद्धि दर में आई गिरावट के कारण ३.३६ करोड़ भारतीय गरीबी रेखा के नीचे पहुँच गए या उससे बाहर नहीं निकल पाए. इसका सीधा सा अर्थ यह है कि मंदी की सबसे अधिक और तगड़ी मार गरीबों पर पड़ी जबकि अमीरों पर इसका कोई खास असर नहीं हुआ.

उलटे ऐसा लगता है कि भारतीय अमीरों ने मंदी को अपनी स्थिति और मजबूत और बेहतर बनाने के लिए इस्तेमाल किया. साफ है कि मंदी से निपटने के नाम पर यू.पी.ए सरकार ने जो दो लाख करोड़ रूपये से अधिक के पैकेज और अन्य रियायतों का एलान किया, उसका सारा लाभ अमीर और धनकुबेर उठा ले गए.

इसका एक और प्रमाण यह है कि देश में रोजगार की स्थिति पर एन.एस.एस.ओ के एक ताजा सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक, देश की श्रम शक्ति में रोजगार प्राप्त श्रमिकों की कुल संख्या २००४-०५ में जहां ४२ फीसदी थी, वह २००९-१० में घटकर ३९.२ फीसदी रह गई है. यही नहीं, इसी अवधि में देश में अस्थाई श्रमिकों की संख्या में २.१९ करोड़ की वृद्धि दर्ज की गई जबकि स्थाई श्रमिकों की संख्या घटकर आधी यानि लगभग ५८ लाख रह गई है.

यह है समावेशी विकास का असली रूप जिसमें रोजगार के अस्थाईकरण पर सबसे अधिक जोर है. आश्चर्य नहीं कि आज निजी क्षेत्र में ८० फीसदी से अधिक नौकरियां अस्थाई और ठेके पर हैं. पिछले दस-पन्द्रह वर्षों में अधिक से अधिक श्रमिकों और कर्मचारियों को अस्थाई और ठेका श्रमिक के रूप काम करने के लिए बाध्य किया गया है जिन्हें बद से बदतर स्थितियों में काम करना पड़ रहा है.

उनकी जाब की कोई सुरक्षा नहीं है और उन्हें किसी तरह की कोई सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है. हैरानी की बात नहीं है कि पिछले दो-तीन वर्षों में देश के अलग-अलग हिस्सों में इन श्रमिकों का गुस्सा हिंसक रूपों में फूट रहा है. मारुति सुजूकी की हालिया हड़ताल के पीछे भी यही वजह थी.

यही नहीं, जन अमीरों की संख्या और संपत्ति में तेजी से इजाफा हो रहा था, उसी दौर में आम आदमी खासकर गरीब आसमान छूती महंगाई की मार झेल रहे थे. नतीजा, पिछले तीन सालों से बेकाबू महंगाई ने देश के आम परिवारों की आय से ५.८ लाख करोड़ रूपये झटक लिए.

क्रेडिट रेटिंग संस्था क्रिसिल की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष २००८-०९ से २०१०-११ के बीच आम भारतीयों को आसमान छूती महंगाई के कारण आम उपभोक्ता वस्तुओं और सामानों की खरीद पर ५.८ लाख करोड़ रूपये अधिक खर्चने पड़े. यह एक तरह से आम आदमी की जेब पर डाके की तरह है. साफ है कि बेलगाम महंगाई आम आदमी की जेब से पैसा निकालकर अमीरों की तिजोरी भरने का माध्यम बन चुकी है.

उल्लेखनीय है कि विश्व बैंक और विश्व खाद्य संगठन ने अपनी एक हालिया रिपोर्ट में यह चेतावनी दी थी कि अगर खाद्य वस्तुओं की कीमतें इसी तरह बढ़ती रहीं तो दुनिया की एक बड़ी आबादी फिर से गरीबी में धकेल दी जायेगी. बैंक के अनुसार, पिछले साल खाद्य वस्तुओं की कीमतों में ३० से लेकर ४० फीसदी की बढोत्तरी दर्ज की गई जिसके कारण करीब ४.४ करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे धकेल दिए गए.

जाहिर है कि भारत में स्थिति और भी खराब है जहाँ पिछले तीन सालों से खाद्य वस्तुओं की कीमतों में आग लगी हुई है. लेकिन विडम्बना देखिए कि आम आदमी की सरकार होने का दावा करने वाली यू.पी.ए सरकार के राज में एक ओर पिछले तीन सालों से खाद्य सुरक्षा क़ानून पर बहस चल रही है और दूसरी ओर, सरकारी गोदामों में रिकार्ड़तोड़ अनाज का भण्डार सड़ रहा है या चूहे खा रहे हैं.

हालत यह है कि इस समय सरकारी भण्डार में रिकार्ड ६.५ करोड़ टन अनाज है जबकि गोदामों में सिर्फ ६.२ करोड़ टन अनाज रखने की जगह है. यही नहीं, इसमें से करीब ८० लाख टन अनाज खुले में पड़ा है और उसका क्या हश्र होगा, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. लेकिन लगता नहीं है कि समावेशी विकास की रट लगानेवाली सरकार की सेहत पर कोई असर पड़ रहा है.

हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के रवैये से खीजकर कहा कि यह अनाज गरीबों में मुफ्त बाँट दिया जाए लेकिन सरकार ने ऐसा करने से साफ़ मना कर दिया. अब यह सरकार कह रही है कि वह निजी क्षेत्र की मदद से और गोदाम बनाएगी ताकि अनाज को सड़ने से बचाया जा सके. दूसरे, इस बीच तात्कालिक तौर पर अनाज के निर्यात की भी तैयारी चल रही है.

इन दोनों फैसलों का मतलब यह है कि यू.पी.ए सरकार महंगाई की मार से त्रस्त गरीबों और आम आदमी तक यह अनाज पहुँचाने के बजाय उसे सुरक्षित गोदामों में रखने या निर्यात करने को ज्यादा प्राथमिकता दे रही है. सवाल यह है कि सरकार को अपने गोदामों में रिकार्ड़तोड़ अनाज क्यों रखना चाहिए?

इससे तो यह सरकार खुद सबसे बड़े जमाखोर के रूप में अनाजों की किल्लत पैदा करके महंगाई की आग को हवा दे रही है. कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार अपने गोदामों से अनाज निकालने या खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे को बढ़ाने में आनाकानी इसलिए कर रही है कि उसे गरीबों और महंगाई से ज्यादा वित्तीय घाटे की चिंता है.

यह और बात है कि अमीरों के लिए बजट में साढ़े पांच लाख करोड़ से ज्यादा की टैक्स छूट और रियायतें देते हर उसे वित्तीय घाटे की कभी चिंता नहीं होती है.

मजे की बात यह है कि यह सरकार अब महंगाई से निपटने के नाम पर खुदरा व्यापार के क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का एलान करने जा रही है. उसका तर्क है कि बिचौलियों की मुनाफाखोरी के कारण महंगाई बढ़ रही है और बिचौलियों को खत्म करने के लिए संगठित और बड़ी विदेशी खुदरा व्यापार कंपनियों को लाना जरूरी हो गया है. इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और नतीजे में, महंगाई पर लगाम लगेगी.

यह तर्क कुछ ऐसा ही है कि चूहे से लड़ने के लिए बिल्ली और बिल्ली से बचने के लिए कुत्ता और कुत्ते से परेशानी होने पर बाघ को बुलाया जाए. जाहिर है कि ‘समावेशी विकास’ की दिशा में यह एक और कदम है जिससे देश के सबसे बड़े अमीरों की संपत्ति और तेजी से बढ़ेगी लेकिन उसका खामियाजा छोटे दुकानदारों, फेरीवालों और फुटपाथ वेंडरों के साथ-साथ आम आदमी को उठाना होगा.


('जनसत्ता' में सम्पादकीय पृष्ठ पर ४ जुलाई'११ को प्रकाशित) 

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