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सोमवार, अक्टूबर 31, 2011

अफ्स्पा पर दाएं-बाएं करती यू.पी.ए सरकार

केन्द्र सरकार अफ्स्पा को हटाने के फैसले पर टालमटोल करके कश्मीर में राजनीतिक समाधान का एक और मौका गँवा रही है


यू.पी.ए सरकार का मौके गंवाने में कोई सानी नहीं है. कश्मीर समस्या इसकी एक और मिसाल है. यह सचमुच हैरानी की बात यह है कि कश्मीर में अनुकूल राजनीतिक हालात होने के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार साहसिक राजनीतिक पहलकदमी लेने से हिचकिचा रही है. 

चिंता की बात यह है कि खुद गृह मंत्रालय का दावा है कि कश्मीर में हालात पहले से बेहतर हुए हैं. आतंकवादी घटनाओं में कमी आई है. लेकिन इसके बावजूद केन्द्र सरकार न सिर्फ मानसिक रूप से कोई साहसिक राजनीतिक पहलकदमी के लिए तैयार नहीं दिख रही है बल्कि लगातार परस्पर विरोधी संकेत दे रही है.

इससे स्थिति के फिर से बिगड़ने का खतरा पैदा हो गया है. ऐसा लगता है कि वह कश्मीर के मामले में एक कदम आगे और दो कदम पीछे की रणनीति पर चल रही है. इसका नतीजा यह हुआ है कि कश्मीर मामले में यू.पी.ए सरकार की स्थिति नौ दिन चले अढाई कोस की है.

उदाहरण के लिए, कश्मीर घाटी से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट यानी अफ्स्पा) को हटाने के मुद्दे को ही लीजिए. इस मुद्दे पर केन्द्र और राज्य सरकार के अंदर भ्रम और मतभेद की स्थिति यह है कि बाएं हाथ को पता नहीं है कि दायाँ हाथ क्या कर रहा है?

हैरत की बात नहीं है कि खुद केन्द्र सरकार और राज्य की उमर अब्दुल्ला सरकार के अंदर से इस मुद्दे पर जिस तरह से परस्पर विरोधी बयान आ रहे हैं और खुली राजनीति शुरू हो गई है, उससे लगता नहीं है कि इनमें से कोई भी वास्तव में अफ्स्पा को राज्य से हटाने के मुद्दे पर गंभीर है.

अफ्स्पा के मुद्दे पर कई मुंह से बोलती सरकार न सिर्फ अपना ही मजाक उड़ा रही है बल्कि घाटी में एक बड़ी राजनीतिक पहलकदमी लेने के लिए अनुकूल माहौल बनाने का मौका चूक रही है. इसका फायदा किसे होगा, यह बताने की जरूरत नहीं है.

ऐसा नहीं है कि राज्य से अफ्स्पा हटा लेने से कश्मीर का मुद्दा रातों-रात सुलझ जाएगा या वहां पूरी तरह से अमन-चैन आ जाएगा या फिर वहां की सभी राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक समस्याएं खत्म हो जाएँगी.

असल में, कश्मीर मुद्दे के स्थाई राजनीतिक समाधान के लिए सभी राजनीतिक दलों, संगठनों और समूहों से बातचीत का रास्ता साफ़ करने के लिए जरूरी है कि कश्मीर घाटी का पूरी तरह से वि-सैन्यीकरण किया जाए. इस वि-सैन्यीकरण की दिशा में पहला कदम अफ्स्पा को हटाना है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अफ्स्पा हटाने से कश्मीर घाटी में लोगों में भरोसा पैदा करने और अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाने में मदद मिलेगी.

सच यह है कि अफ्स्पा का समय पूरा हो चुका है. इसकी वजह यह है कि न सिर्फ कश्मीर में बल्कि देश के अन्य हिस्सों खासकर मणिपुर में अफ्स्पा एक काले कानून के रूप में बदनाम हो चुका है.

दरअसल, यह आंतरिक अशांति और उग्रवाद से निपटने के नाम पर सेना को इतने व्यापक और असीमित अधिकार दे देता है कि वह बिना वारंट के किसी के भी घर में घुसकर तलाशी ले सकती है, शक के बिना पर गिरफ्तार कर सकती है, गोली चला और मार सकती है. इस कानून के तहत सैन्य अधिकारियों को इन फैसलों के लिए उन्मुक्ति मिली हुई है.

आश्चर्य नहीं कि इस कानून के बेजा इस्तेमाल और सेना पर मानवाधिकार हनन के अनेकों गंभीर आरोप लगते रहे हैं. इस कारण पिछले एक-डेढ़ दशक से इस कानून को खत्म करने की मांग रह-रहकर उठती रही है.

खासकर मणिपुर से अफ्स्पा को हटाने की मांग को लेकर पिछले एक दशक से अधिक समय से अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला के ऐतिहासिक प्रतिरोध ने पूरे देश की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया है. सच पूछिए तो किसी भी लोकतान्त्रिक मुल्क में अफ्स्पा जैसे कानून का होना न सिर्फ शर्मनाक है बल्कि उस लोकतंत्र पर गंभीर सवाल खड़े करता है.

हैरानी की बात यह है कि इस कानून की समीक्षा के लिए खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में पांच सदस्यी समिति का गठन किया था जिसने जून’२००५ में अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी. इस समिति ने अफ्स्पा को खत्म करने की सिफारिश की थी.

कहने की जरूरत नहीं है कि उसके बाद से ही देश में अफ्स्पा की प्रासंगिकता और उसे रद्द करने के मुद्दे पर सरकार के अंदर और बाहर बहस और चर्चा चल रही है. लेकिन देश में जनवाद और इंसाफपसंद लोगों के बीच इस कानून को खत्म करने को लेकर आमराय होने के बावजूद केन्द्र सरकार कोई ठोस फैसला करने में हिचकिचा रही है.

यही नहीं, कश्मीर मामले के राजनीतिक समाधान की संभावनाओं का पता लगाने के लिए वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर के नेतृत्व में गठित तीन सदस्यी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में अफ्स्पा को हटाने की सिफारिश की है. लेकिन ऐसा लगता है कि इस मुद्दे पर मनमोहन सिंह सरकार का एजेंडा भाजपा-आर.एस.एस और सैन्य प्रतिष्ठान से जुड़े आक्रामक तत्व तय कर रहे हैं.

यही कारण है कि वह कश्मीर मुद्दे पर बड़ी राजनीतिक पहलकदमी तो दूर घाटी से अफ्स्पा हटाने तक का फैसला नहीं कर पा रही है. मजे की बात यह है कि उमर सरकार का प्रस्ताव तो अफ्स्पा को शुरुआत में घाटी के सिर्फ दो जिलों से हटाने भर का है.

अगर यू.पी.ए सरकार कश्मीर जैसे जटिल और संवेदनशील मुद्दे के हल की दिशा में इतना मामूली सा राजनीतिक जोखिम उठाने का भी साहस नहीं दिखा सकती तो उसे समझ लेना चाहिए कि वह बड़े राजनीतिक संकट को दावत दे रही है. उसे याद रखना चाहिए कि ‘मुदहूँ आँख, कतहूँ कछु नाहिं’ और समस्याओं को लटकाने की नीति से चीजें बेहतर नहीं होती बल्कि बिगड़ती हैं.

कश्मीर मसला इसका सबसे त्रासद उदाहरण है जहाँ आज़ादी के बाद से एक के बाद दूसरी केन्द्र और राज्य सरकारों ने पहले सत्ता के लिए राजनीतिक छल, जोड़तोड़ और मनमानी से हालात खराब किये और बाद में आतंकवाद से निपटने के नाम पर राजनीति, जनतंत्र और मानवाधिकारों को ताक पर रखकर कमान सेना को सौंप दी.

लेकिन ऐसा करते हुए वे इतिहास का सबसे बड़ा सबक भूल गईं. इतिहास गवाह है कि राजनीतिक मसलों का समाधान बंदूक से नहीं राजनीति से ही निकलता है. लेकिन ऐसी राजनीति साहस, विवेक, दूरदृष्टि और प्रतिबद्धता मांगती है. अफसोस की आज की राजनीति में ये सबसे दुर्लभ चीजें हैं. यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है.



('नया इंडिया' के ३१ अक्तूबर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

सोमवार, नवंबर 29, 2010

मीरवाइज़ पर हमला करनेवाले किसकी मदद कर रहे हैं?

भगवा गुंडों को देश नहीं सिर्फ अपने मुस्लिम विरोधी एजेंडे और वोटों की फ़िक्र है   

पिछले सप्ताह जब चंडीगढ़ में एक सेमिनार में बोलने आये हुर्रियत कांफ्रेंस के नरमपंथी धड़े के नेता मीरवाइज़ उमर फारुख के साथ हाथापाई और बदतमीजी की कोशिश हुई तो गुस्सा भी आया और चिंता भी हुई कि देशभक्ति के नाम पर भगवा गुंडागर्दी की यह संस्कृति कितनी तेजी से फ़ैल रही है. उस समय भी इच्छा हुई कि इस प्रवृत्ति पर एक तीखी टिप्पणी लिखी जाए लेकिन यह सोचकर कि इसे तूल देने की जरूरत नहीं है, टाल गया.

लेकिन मैं गलत था. इन घटनाओं को नजरंदाज करना ठीक नहीं है. चंडीगढ़ के बाद अब कोलकाता में भी रविवार को विरोध के नाम पर मीरवाइज़ के साथ एक बार फिर हाथापाई और बदतमीजी करने की कोशिश हुई है. मीरवाइज़ वहाँ एक सेमिनार में अपनी बात रखने गए थे. दोनों ही जगहों पर कथित विरोध की अगुवाई आर.एस.एस और भाजपा के कार्यकर्ताओं के साथ बजरंग दल के लफंगे कर रहे थे. हर बार की तरह इस बार भी पुलिस खड़ी तमाशा देखती रही.

जाहिर है कि इस तरह का विरोध और अपमान झेलनेवाले मीरवाइज़ कश्मीर के पहले नेता नहीं हैं. पिछले कुछ महीनों में ऐसी शर्मनाक घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. इससे पहले दो और अलगाववादी नेताओं, जम्मू-कश्मीर फ्रीडम पार्टी के नेता शब्बीर शाह और जे.के.एल.एफ के यासीन मलिक के साथ प्रेस कांफ्रेंस के दौरान जम्मू में हाथापाई हो चुकी है. यही नहीं, दिल्ली में भी एक सेमिनार में हुर्रियत के कट्टरपंथी धड़े के नेता सैय्यद अली शाह गिलानी और लेखिका अरुंधती राय को भी ऐसा ही विरोध झेलना पड़ा था.

अगर एक मिनट के लिए विरोध के तरीके को किनारे भी कर दिया जाए तो भी अहम सवाल है कि ये भगवाधारी देशभक्त इस तरह के विरोध से किसकी मदद कर रहे हैं? कश्मीर की स्थिति किसी से छिपी नहीं है. खासकर घाटी में बेहद गंभीर और चिंताजनक हालात हैं. घाटी में अलगाव निरंतर बढ़ता जा रहा है और भारत से आज़ादी की भावनाएं जोर पकड़ रही हैं. ऐसे में, हर अमनपसंद भारतीय जो कश्मीर से प्यार करता है, उसकी पहली प्राथमिकता कश्मीर के लोगों का दिल जीतने की होनी चाहिए.

यह इसलिए भी जरूरी है कि कश्मीर को साथ रखने का एक मतलब वहां की जमीन नहीं बल्कि लोगों को साथ रखना है. लोगों को साथ रखने का एक ही तरीका है कि वे अपने को हिन्दुस्तानी महसूस करें. वे यह महसूस करें कि किसी भी अन्य हिन्दुस्तानी की तरह वे भी पहले दर्जे के नागरिक हैं. उन्हें भी अपनी बात कहने, अपने सवाल उठाने, लोकतान्त्रिक आंदोलन करने और अपने अधिकार मांगने की पूरी आज़ादी है. यहां यह स्पष्ट करते चलना भी जरूरी है कि भारतीय संघ में कश्मीर की ऐतिहासिक कारणों से एक विशेष स्थिति है.

ऐसे में, अगर कोई सच्चा देशभक्त है और सचमुच, दिली तौर पर चाहता है कि कश्मीर भारत के साथ रहे तो उसे ऐसा माहौल बनाने में मदद करनी चाहिए जिसमें कश्मीर में स्थितियां सामान्य हो सकें. वहां के लोगों का दिल और दिमाग जितने के लिए बहुत जरूरी है कि उनकी हर बात चाहे वह कितनी भी कडवी, तीखी और उत्तेजित करनेवाली क्यों न हो, उसे पूरी गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ सुना जाए. यहां धैर्य और संयम बरतना बहुत जरूरी है.

असल में, कई बार लोगों की पीड़ा, शिकायत और गुस्से को धैर्य और पूरी संवेदना के साथ सुनना ही वह जरूरी माहौल तैयार करता है जिसमें गहरे घावों के भरने की शुरुआत होती है. आज कश्मीर में बातचीत और परस्पर विश्वास का माहौल बनाने के लिए भी यह जरूरी है कि कश्मीर के हर नेता की बात सुनी जाए, चाहे वह मीरवाइज़ हों या यासीन मलिक या शब्बीर शाह या फिर सैय्यद अली शाह गिलानी. इससे बेहतर कोई बात नहीं हो सकती है कि ये नेता देश के कोने-कोने में जाएं और अपनी बात करें.

अगर उनकी बात सुनी जायेगी तो कश्मीरियों को भी लग सकता है कि इस देश में उनकी बात सुनी जा रही है. यह देश उनका भी है और इसमें उनके सभी वास्तविक मुद्दों और चिन्ताओं को सुनने और उसका हाल ढूंढने की इच्छा है. इससे कश्मीर में हिन्दुस्तान को लेकर जो गलत-सही धारणाएं, भ्रांतियां और भावनाएं बनी हुई हैं, उन्हें दूर करने में मदद मिलेगी. सच तो यह है कि कश्मीर में हालात सुधारने की यह एक कारगर रणनीति यह हो सकती है कि अधिक से अधिक कश्मीरी लोगों, युवाओं, उनके नेताओं को देश भर में विश्वविद्यालयों, बार कौंसिलों, प्रेस कांफ्रेंसों, खुले और लोकतान्त्रिक मंचों पर बोलने और चर्चा के लिए आमंत्रित किया जाए.

लेकिन जो भगवाधारी गुंडे मीरवाइज़ जैसे नेताओं को बोलने नहीं दे रहे हैं, उनका अपमान कर रहे हैं, उनके साथ हाथापाई पर उतारू हैं और उन्हें जेल में डालने की मांग कर रहे हैं, वे वास्तव में, उनसे दुश्मन की तरह सुलूक कर रहे हैं और उन्हें देश से अलग होने के लिए उकसा रहे हैं. इन भगवा गुंडों के रूख से साफ है कि वे कश्मीरियों और उनके नेताओं को देश से अलग मान चुके हैं. वे नहीं चाहते हैं कि कश्मीर में हालात सुधरें. कहने की जरूरत नहीं है कि उनके निहित राजनीतिक स्वार्थ इसी में हैं कि कश्मीर में हालात और खराब हों. इसके लिए वे किसी हद तक जा सकते हैं और जा रहे हैं.

(पुनश्च: पहले यह तय किया था कि आज बिहार पर कुछ बातें करेंगे लेकिन मीरवाइज़ के साथ हो रहे इस व्यवहार ने मजबूर कर दिया कि पहले इसपर बात की जाए....बिहार पर फिर कभी...इस बीच, बिहार में नीतिश की आंधी से उठा गर्दो-गुबार भी बैठ जायेगा और लोगों को कुछ चीजें साफ दिखने लगेंगी...)