कृषि क्षेत्र लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कृषि क्षेत्र लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, जुलाई 09, 2012

इन्द्र देव की कृपा पर निर्भर कृषि

जी.डी.पी में सिर्फ १४ फीसदी का योगदान करनेवाले कृषि क्षेत्र की सरकार को कोई खास परवाह नहीं है

यह साफ़ हो चुका है कि इस साल मॉनसून की बारिश औसत से कम रहनेवाली है और जून महीने तक की बारिश सामान्य से ३१ फीसदी कम रही है. इससे सूखे की आशंका बढ़ गई है. इसके बावजूद कृषि मंत्री शरद पवार से लेकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया के चेहरों पर कोई शिकन नहीं है. वे निश्चिंत हैं.
उनका कहना है कि जून में मॉनसून की बारिश कम होने के बावजूद चिंता की कोई बात नहीं है. उनका दावा है कि अभी मॉनसून के तीन महीने बचे हुए हैं जिसमें अच्छी बारिश की उम्मीद है. इससे खरीफ की फसल अच्छी रहने की उम्मीद बनी हुई है.
साफ़ है कि कृषि मंत्री या योजना आयोग के उपाध्यक्ष ‘सूखा’ शब्द के जिक्र से बचना चाहते हैं. लेकिन उनके आत्मविश्वास की वजह यह नहीं है कि वे इन्द्र देव की कृपा पर भरोसा करते हैं या भारतीय कृषि मॉनसून की विफलता से मुक्त हो चुकी है. उन्हें सच्चाई पता है लेकिन वे उसे जाहिर करने से बच रहे हैं.

‘सूखा’ शब्द को लेकर उसकी घबराहट समझी जा सकती है. वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह स्वीकार करते ही उन्हें खरीफ की फसल को बचाने के लिए आपात और वैकल्पिक योजना तैयार करनी पड़ेगी, राजकोषीय घाटे की चिंता छोडकर किसानों की मदद करनी पड़ेगी और आवारा पूंजी को खुश करने करने के लिए सब्सिडी खासकर खाद, डीजल और बिजली सब्सिडी में कटौती की योजना को टालना पड़ेगा.  

जाहिर है कि यू.पी.ए सरकार इसके लिए तैयार नहीं है. वे ऐसी किसी भी स्थिति को टालना चाहते हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि यू.पी.ए सरकार अगले दो-तीन सप्ताहों तक सिवाय इन्द्र देव की प्रार्थना के और कुछ नहीं करने जा रही है. अगर उसके भाग्य से अगले कुछ दिनों/सप्ताहों में मॉनसून की बारिश में कुछ सुधार हुआ तो वह एक बार फिर कुछ भी करने की जिम्मेदारी और जवाबदेही से बच निकलेगी.
लेकिन अगर मॉनसून उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा तो भी उसके रूख से साफ़ है कि वह कुछ खास करने नहीं जा रही है. वैसे भी एक बार सूखा पड़ने और फसल बर्बाद हो जाने के बाद कुछ करने को नहीं रह जाता- ‘का बरसा जब कृषि सुखाने.’
उस स्थिति में सूखाग्रस्त क्षेत्रों को अधिक से अधिक कुछ दिखावटी मदद की घोषणा कर दी जाएगी और बाकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी जायेगी. नतीजा, मॉनसून की विफलता और सूखे को लेकर केन्द्र और राज्य सरकारों के वाक् युद्ध भी होगा. राज्य सरकारें सूखे को केन्द्र से प्राकृतिक आपदा घोषित करने की मांग करेंगी और केन्द्र सरकार उसे स्वीकार नहीं करेगी.

आश्चर्य नहीं कि इन दोनों की नूरा कुश्ती का सबसे अधिक फायदा जमाखोर, मुनाफाखोर और सट्टेबाज उठाएंगे जो सूखे का बहाना बनाकर खाद्य वस्तुओं, फलों-सब्जियों और दूध की मनमानी कीमतें वसूलेंगे और आम गरीब उपभोक्ता इसकी कीमत चुकायेंगे जबकि दूसरी ओर, किसान एक बार फिर फसल के नुकसान और उसके कारण कर्ज जाल में फंसने को मजबूर होंगे.

कहने की जरूरत नहीं है कि आज़ादी के बाद पिछले ६५ सालों में यह कहानी दर्जनों बार दोहराई जा चुकी है. मॉनसून की आँख-मिचौली नई बात नहीं है. आमतौर पर भारत पर मॉनसून की कृपा बनी रही है लेकिन हर कुछ साल बाद मॉनसून धोखा भी दे जाता है.
इस का दूसरा पहलू यह है कि इन सालों में कई बार मॉनसून की अति कृपा भी के कारण बाढ़ के रूप में फसलों और किसानों को बर्बाद करती रही है. वैसे इसमें मॉनसून का कोई दोष नहीं है. यह तो उसकी स्वाभाविक प्रकृति है. इस प्रकृति चक्र को नियंत्रित या निर्देशित करना संभव भी नहीं है.
असल में, सूखा या बाढ़ मॉनसून की विफलता या अधिकता का नहीं बल्कि नीतियों और नीति निर्माताओं की विफलताओं का नतीजा हैं. इस मायने में भारत में सूखा या बाढ़ मनुष्य निर्मित परिघटनाएं हैं. पी. साईनाथ ने ठीक ही लिखा है कि ‘इस देश में सभी (मतलब नेताओं-अफसरों-व्यापारियों) को सूखा अच्छा लगता है.’ इसी तरह सब जानते हैं कि बिहार-उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में नेता-अफसर-इंजीनियर-ठेकेदार बहुत बेसब्री से बाढ़ का इंतज़ार करते हैं.

इस देश में बाढ़ और सूखे के साथ राहत कार्यों की अर्थव्यवस्था अभिन्न रूप में जुडी हुई है और राहत के माल के महाभोज की कहानियां भी किसी से छुपी नहीं हैं. जाहिर है कि इन सभी के सूखे और बाढ़ में निहित स्वार्थ जुड़े हुए हैं और वे नहीं चाहते हैं कि आम गरीब किसानों को इससे मुक्ति मिले.

यह सचमुच इस देश के शासक वर्गों की सबसे बड़ी नीतिगत विफलताओं में से एक है कि आज़ादी के छह दशक बाद और विकास के तमाम बड़े-बड़े दावों के बावजूद भारतीय कृषि मॉनसून यानी इन्द्र देव की कृपा पर निर्भर है. तथ्य यह है कि देश में वर्ष २००९ तक कुल कृषि भूमि का सिर्फ ३५ फीसदी ही सिंचित था.
इसे ही कहते हैं कि नौ दिन, चले अढ़ाई कोस. यह उस देश का हाल है जो खुद को कृषिप्रधान देश कहता रहा है. लेकिन सिंचाई सुविधाओं के विस्तार और आखिरी खेत तक पानी पहुंचाने के मामले में यह नाकामी कृषि और देश के अन्नदाता किसानों के साथ किया गया बहुत बड़ा मजाक है. कृषि और किसान इसकी कीमत चुकाने को मजबूर हैं.
लेकिन सिंचाई सुविधाओं के विस्तार में यह विफलता किसी प्राकृतिक दुर्घटना या लापरवाही के कारण नहीं है. वास्तव में, इसके लिए ९० के दशक की वे नव उदारवादी आर्थिक नीतियां और आर्थिक सुधार जिम्मेदार हैं जिन्होंने कृषि को बिलकुल अनदेखा किया और साथ में, सरकारी खर्चों में कटौती की सबसे अधिक गाज सिंचाई योजनाओं पर गिरी.

यह किसी से छुपा तथ्य नहीं है कि इन दो दशकों में कृषि प्राथमिकता सूची में बहुत नीचे चली गई और कृषि में सार्वजनिक निवेश में गिरावट दर्ज की गई. नतीजा यह हुआ कि इस दौर में बजट की कमी के कारण एक तो सिंचाई परियोजनाओं पर काम की गति कछुए से भी धीमी हो गई और दूसरी ओर, नहरों और नलकूपों की देखरेख न होने के कारण उनकी भी हालत बद से बदतर होती चली गई.

एक और कड़वी सच्चाई यह है कि जिन इलाकों को आंकड़ों में सिंचित बताया जाता है, उनमें से काफी बड़े हिस्से में राज्य सरकारों की अनदेखी, लापरवाही और सबसे बढ़कर भ्रष्टाचार के कारण नहरों और नलकूपों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है.
आश्चर्य नहीं कि राज्यों में सिंचाई विभाग जमाने से सबसे भ्रष्ट और लूट-खसोट में लिप्त विभाग माने जाते रहे हैं. हालाँकि जब से केन्द्र और राज्य सरकारों ने सिंचाई परियोजनाओं पर खर्चों में कटौती शुरू कर दी, लूट-खसोट के लिए गुंजाइश कम होती चली गई और दूसरे कई विभाग भ्रष्टाचार के मामले में उनसे आगे निकल गए.
असल में, ९० के दशक में आर्थिक सुधारों के चैम्पियनों ने कृषि क्षेत्र की समस्याओं और चुनौतियों को देखते हुए यह मान लिया कि कृषि में कोई सुधार संभव नहीं है और भारत की आर्थिक मुक्ति का हाईवे उद्योग और सेवा क्षेत्र के जरिये ही बन सकता है. नतीजा यह हुआ कि पिछले दो दशकों में सुनियोजित तरीके से कृषि की उपेक्षा करके और एक तरह से उसे बाईपास करते हुए आर्थिक तरक्की का नया हाईवे तैयार किया गया है.

हैरानी की बात नहीं है कि इन दो दशकों में जी.डी.पी में कृषि का हिस्सा गिरते हुए आधे से भी कम रह गया है. १९९०-९१ में जी.डी.पी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा लगभग ३० फीसदी था जो २०११-१२ में घटकर १४ फीसदी के आसपास रह गया है जबकि कृषि पर आश्रित लोगों की तादाद में बहुत मामूली कमी आई है.

जाहिर है कि यह किसी दैवीय कारण से नहीं हुआ है बल्कि यह पिछले कई दशकों खासकर १९९० के बाद की नीतियों का नतीजा है. इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि आर्थिक सुधारों के पैरोकार इस तथ्य को अपनी नीतियों की सफलता के रूप में देखते हैं कि अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान कम से कमतर होता जा रहा है. वे इसे भारत के एक विकसित अर्थव्यवस्था के रूप में आगे बढ़ने का प्रमाण मानते है.
आश्चर्य नहीं कि अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नव उदारवादी सुधारों के चैपियनों में इसे लेकर जश्न का माहौल है. उनकी इस खुशी का बड़ा कारण यह है कि उन्होंने अर्थव्यवस्था को काफी हद तक कृषि के दबावों से मुक्त कर दिया है यानी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को प्रभावित करने की उसकी क्षमता काफी कम हो गई है.
यह तथ्य है कि पिछले वर्षों में जब अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर सालाना औसतन ८ फीसदी से अधिक चल रही थी, उस समय कृषि की वृद्धि दर औसतन २ फीसदी के आसपास थी. इससे नार्थ ब्लाक में बैठे आर्थिक मैनेजरों का हौसला बढ़ा कि कृषि क्षेत्र के खराब प्रदर्शन के बावजूद अर्थव्यवस्था की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़नेवाला है.

विश्लेषकों के मुताबिक, अगर इस साल मॉनसून अच्छा नहीं रहता है तो इससे अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में अधिक से अधिक आधी फीसदी की कमी आएगी. यही कारण है कि सूखे की आशंकाओं के बावजूद नीति नियंताओं और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों में वह बेचैनी, घबराहट और हड़बड़ी नहीं है जो औद्योगिक उत्पादन या सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर में आई गिरावट के कारण दिख रही है.

यह सचमुच अफसोस और चिंता की बात है कि कहाँ कृषि को मॉनसून यानी इन्द्र देव पर निर्भरता से मुक्त करने का वायदा था और कहाँ नीति नियंता अर्थव्यवस्था की कृषि पर से निर्भरता खत्म करके खुश हो रहे हैं और इसे अपनी कामयाबी मान रहे हैं? सवाल यह है कि यह ‘कामयाबी’ किस कीमत पर आई है?
लेकिन याद रहे, कृषि की उपेक्षा की कीमत सिर्फ किसानों और कृषि मजदूरों को ही नहीं, आम शहरी-मध्यमवर्गीय उपभोक्ताओं को भी चुकानी पड़ेगी. पिछले तीन वर्षों से खाद्य वस्तुओं की लगातार ऊँची मुद्रास्फीति दर कृषि की उपेक्षा और कृषि के बिना भी अर्थव्यवस्था की तेज रफ़्तार की नीति का नतीजा है जिसने अब अर्थव्यवस्था की तेज रफ़्तार पर भी ब्रेक लगाना शुरू कर दिया है.
क्या नार्थ ब्लाक और योजना भवन में बैठे अर्थव्यवस्था के मैनेजरों की आँखें मॉनसून की इस नाकामी से खुलेंगी?

('राष्ट्रीय सहारा' के परिशिष्ट 'हस्तक्षेप' में 7 जुलाई को प्रकाशित आलेख...)     

शुक्रवार, मार्च 16, 2012

आर्थिक समीक्षा में फिर वही नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का राग


जरूरत अर्थव्यवस्था में निवेश खासकर सार्वजनिक निवेश बढ़ने की है  : क्या प्रणब मुखर्जी इसके लिए तैयार हैं?


रेल बजट में किरायों में बढ़ोत्तरी के बाद यू.पी.ए सरकार के अंदर पैदा हुए राजनीतिक संकट के बीच अगर गुरुवार को संसद में पेश आर्थिक समीक्षा की मानें तो इस साल अर्थव्यवस्था के बदतर प्रदर्शन के बावजूद ज्यादा चिंता की बात नहीं है क्योंकि वित्त मंत्रालय को भरोसा है कि अर्थव्यवस्था का आधार मजबूत है और अगले साल वह फिर से ऊँची वृद्धि दर की पटरी पर दौड़ने लगेगी.

समीक्षा के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष (११-१२) में जी.डी.पी की ६.९ प्रतिशत की धीमी रफ़्तार के बावजूद अगले साल अर्थव्यवस्था ७.६ फीसदी और २०१३-१४ में ८.६ प्रतिशत की ऊँची रफ़्तार हासिल कर लेगी.

यहाँ यह उल्लेख करना जरूरी है कि बीते साल की आर्थिक समीक्षा में उम्मीद जाहिर की गई थी कि इस साल जी.डी.पी की वृद्धि दर ९ फीसदी के आसपास रहेगी. लेकिन सिर्फ १२ महीनों में यह उम्मीद धराशाई हो गई और जी.डी.पी की वृद्धि दर लुढ़कते हुए ६.९ प्रतिशत रह गई है.

ऐसा क्यों हुआ? ताजा आर्थिक समीक्षा में यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजरों ने इसकी सारी जिम्मेदारी वैश्विक आर्थिक संकट खासकर अमेरिकी और यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं की बिगड़ती स्थिति, जापानी अर्थव्यवस्था के ठहराव और कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी के मत्थे डाल दी है.

यही नहीं, आर्थिक समीक्षा ने इस साल अर्थव्यवस्था के उम्मीद से खराब प्रदर्शन की रही-सही जिम्मेदारी यह कहते हुए रिजर्व बैंक पर डाल दी है कि मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी से निवेश प्रभावित हुआ जिसका विकास दर पर नकारात्मक असर पड़ा है.

साफ़ है कि पिछले नौ वर्षों में अर्थव्यवस्था के इस दूसरे सबसे बदतर प्रदर्शन के लिए वित्त मंत्रालय अपनी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. अलबत्ता, वह मानता है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति चिंताजनक है लेकिन दूसरी ही सांस में अर्थव्यवस्था के बारे में उम्मीदों और खुशफहमियों के तूमार बांधने में भी जुट जाता है.

दरअसल, ये परस्पर विरोधी आकलन एक रणनीति के तहत पेश किये गए हैं. आर्थिक समीक्षा जानबूझकर पहले अर्थव्यवस्था के बारे में एक चिंताजनक तस्वीर पेश करती है. लेकिन इसके लिए अपनी जिम्मेदारी लेने के बजाय इसकी जवाबदेही आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में आ रही रुकावटों पर डाल देती है.

इस तरह बहुत चतुराई के साथ अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन को आर्थिक सुधारों की गति को तेज करने की शर्त से जोड़ देती है. यू.पी.ए के नव उदारवादी आर्थिक मैनेजरों का तर्क है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को मौजूदा स्थिति से निकालकर तेज वृद्धि दर की राह पर ले जाने के लिए जरूरी है कि सख्त फैसले किये जाएँ.

इस सिलसिले में आर्थिक सर्वेक्षण ने हर बार की तरह इस बार भी सरकार की बिगड़ती वित्तीय स्थिति को सबसे बड़ी चुनौती बताते हुए वित्तीय घाटे को काबू में करने और उसके लिए सब्सिडी में कटौती खासकर खाद और डीजल सब्सिडी में कटौती का सुझाव दिया है.

हालाँकि इन सुझावों में कोई नई बात नहीं है. बिना किसी अपवाद के आर्थिक समीक्षा में यही बातें पिछले कई वर्षों से थोड़े बहुत बदलाव के साथ दोहराई जा रही हैं. इस मायने में आर्थिक समीक्षा तैयार करने वाले अफसरों और आर्थिक सलाहकारों की दाद देनी पड़ेगी कि दुनिया भर में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को लेकर उठ रहे सवालों के बावजूद इन नीतियों के प्रति उनकी अगाध आस्था में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं हुआ है.

ताजा आर्थिक समीक्षा इसकी एक और मिसाल है. आश्चर्य नहीं कि सरकार के आर्थिक मैनेजर को अर्थव्यवस्था की सभी समस्याओं का हल उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों में दिखाई पड़ रहा है जिनके कारण यह संकट पैदा हुआ है.

उदाहरण के लिए, आर्थिक समीक्षा के मुताबिक अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के मामले में सबसे बड़ी चुनौती वित्तीय घाटे पर काबू पाना है जो चालू वित्तीय वर्ष में बजट अनुमानों से कहीं ज्यादा रहनेवाली है. गोया वित्तीय घाटे पर काबू पाने भर से सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा.

लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि वित्तीय घाटे के कारण अर्थव्यवस्था की समस्याएं और संकट हैं या अर्थव्यवस्था की समस्याओं के कारण वित्तीय घाटा बढ़ा है?

असल में, आर्थिक समीक्षा और नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों के तर्क गाड़ी को घोड़े के आगे रखने की तरह हैं. तथ्य यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी और अंदरूनी समस्याओं के कारण उसके खराब प्रदर्शन से वित्तीय घाटा बढ़ा है.

उदाहरण के लिए, आर्थिक समीक्षा स्वीकार करती है कि कृषि क्षेत्र को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. उसे नजरंदाज करने के कारण अर्थव्यवस्था को कई मोर्चों पर उसकी कीमत चुकानी पड़ रही है. खासकर पिछले दो-ढाई वर्षों से खाद्यान्नों की ऊँची मुद्रास्फीति दर ने नीति नियंताओं का ध्यान एक बार फिर कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की ओर खींचा है.

लेकिन सवाल यह है कि कृषि क्षेत्र की यह हालत क्यों है? खुद समीक्षा यह मानती है कि कृषि क्षेत्र की इस स्थिति के लिए एक बड़ा कारण उसमें निवेश में आई गिरावट है. लेकिन यह गिरावट क्यों आई है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है?

तथ्य यह है कि १९९० के दशक में आर्थिक सुधारों की शुरूआत के बाद से ही वित्तीय घाटे में कटौती और उसके लिए सरकारी खर्चों में कमी करने की सबसे अधिक मार कृषि क्षेत्र पर पड़ी है जहाँ पिछले दो दशकों में सार्वजनिक निवेश में काफी गिरावट दर्ज की गई है. इसके कारण कृषि क्षेत्र आज भी मानसून पर निर्भर है. उसकी उत्पादकता में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है.

नतीजा, सबके सामने है. कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर लगातार लक्ष्य से पीछे रह रही है. ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि के लिए ४ फीसदी वृद्धि दर का लक्ष्य निर्धारित किया गया था लेकिन वास्तविक वृद्धि दर ३.३ फीसदी रही. इसी तरह मानसून पर अति निर्भरता के कारण कृषि की विकास दर में उतार-चढाव बना रहता है.

उदाहरण के लिए, वर्ष २०१०-११ में कृषि की वृद्धि दर ७ फीसदी रही लेकिन चालू वित्तीय वर्ष में उसके लुढ़ककर सिर्फ २.५ प्रतिशत रहने की उम्मीद है. सवाल यह है कि इसके लिए वैश्विक आर्थिक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं या खुद सरकार की अपनी नीतियां?

इसी तरह, आर्थिक समीक्षा यह स्वीकार करता है कि इस साल अर्थव्यवस्था के बदतर प्रदर्शन के पीछे सबसे बड़ी वजह निवेश में आई गिरावट है जो २००७-०८ में जी.डी.पी के ३८.१ प्रतिशत तक पहुँच गई थी लेकिन घटते हुए अब ३० फीसदी के करीब पहुँच गई है.

इसका अर्थ यह हुआ कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए निवेश में भारी बढ़ोत्तरी की जरूरत है. इस सच्चाई को आर्थिक समीक्षा भी मानती है. लेकिन नव उदारवादी अर्थनीति के व्यामोह में फंसे आर्थिक मैनेजर चाहते हैं कि निवेश में बढ़ोत्तरी के लिए बड़ी निजी देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी को प्रोत्साहित किया जाये.

मुश्किल यह है कि देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी निवेश के लिए बहुत इच्छुक नहीं है. ऐसे में, यह जरूरी है कि सार्वजनिक निवेश में वृद्धि की जाये जो अर्थव्यवस्था में न सिर्फ मांग में वृद्धि करेगा बल्कि निजी क्षेत्र को भी निवेश के लिए प्रेरित करेगा.

यह कोई रेडिकल अर्थनीति नहीं है. यह पूंजीवाद का कीन्सवादी रणनीति है जो संकट में फंसी अर्थव्यवस्थाओं को बाहर निकालने के लिए इस्तेमाल की जाती रही है. लेकिन नव उदारवादी अर्थनीति के पैरोकार इसके उलट वित्तीय घाटे में कटौती पर जोर देकर संकट को और गहरा कर रहे हैं. अमेरिका और यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं का मौजूदा संकट इसी रणनीति का कुपरिणाम है.

अफसोस की बात यह है कि ताजा आर्थिक समीक्षा उससे सबक लेने के बजाय उसी राह पर आगे बढ़ने की वकालत कर रही है. अब गेंद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के पाले में है. देखना है कि आज बजट में वह कौन सी राह लेते हैं?

('दैनिक भाष्कर', नई दिल्ली  के औपेड पृष्ठ पर १६ मार्च को प्रकाशित त्वरित टिप्पणी)

शनिवार, फ़रवरी 05, 2011

कृषि क्षेत्र की लंबी उपेक्षा का नतीजा है यह महंगाई

जनसंख्या की वृद्धि दर से भी कम हो गई है खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि दर


खाद्यान्नों और खाद्य वस्तुओं की किल्लत और महंगाई के कारण कृषि क्षेत्र एक बार फिर सुर्ख़ियों में है. लेकिन अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि पिछले दो वर्षों से खाद्यान्नों और अन्य खाद्य वस्तुओं की कीमतों में भारी उछाल, अत्यधिक उतार-चढ़ाव और लगातार बढ़ोत्तरी एक तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था के नव उदारवादी आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं से कृषि क्षेत्र का बदला है.

असल में, जिन आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं ने यह मान लिया था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र यानी कृषि क्षेत्र को बाईपास करके भी ऊँची विकास दर हासिल की जा सकती है, इसलिए कृषि क्षेत्र पर बहुत ध्यान देने की जरूरत नहीं है, उनकी सोच पर यह कृषि क्षेत्र का पलटवार है.

उल्लेखनीय है कि पिछले दो-ढाई दशकों खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के नशे में कृषि क्षेत्र की जमकर उपेक्षा की गई है. इस उपेक्षा की वजह यह रही है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में कृषि क्षेत्र की औसतन सालाना दो फीसदी से भी कम की वृद्धि दर के बावजूद सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) की वृद्धि दर औसतन ७ से ८ फीसदी तक पहुंच गई.

अर्थव्यवस्था के इस प्रदर्शन से आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं को यह खुशफहमी हो गई कि कृषि क्षेत्र के खराब प्रदर्शन के बावजूद जी.डी.पी की वृद्धि दर पर कोई खास असर नहीं पड़नेवाला है. इस कारण उन्हें लगने लगा कि कृषि क्षेत्र की कोई खास परवाह करने की जरूरत नहीं है.

यही नहीं, आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं ने इस आधार पर यह मान लिया कि भारतीय अर्थव्यवस्था ने विकास की प्रक्रिया में कृषि की प्राथमिक भूमिका से सीधे छलांग लगाकर सेवा आधारित विकास के दौर में पहुंच गई है जिसमें कृषि की अत्यंत सीमित और उद्योग की उससे कुछ अधिक लेकिन सेवा क्षेत्र की सबसे बड़ी भूमिका होती है.

इस सोच के पीछे वजह यह थी कि जी.डी.पी में कृषि क्षेत्र का योगदान घटते हुए २० फीसदी (अभी १४.६ फीसदी) से भी नीचे पहुंच गया जबकि सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़ते हुए ५० फीसदी (अभी ५७.२ फीसदी) के ऊपर पहुंच गया. इससे उत्साहित नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों ने यहां तक दावा करना शुरू कर दिया कि भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि और उद्योग क्षेत्र को बाईपास करके सेवा क्षेत्र के हाइवे पर फर्राटा भरने लगी है.

कहा जाने लगा कि भारतीय अर्थव्यस्था दुनिया की अन्य विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तरह सेवा क्षेत्र पर आधारित विकास के दौर में पहुंच गई है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस ‘समझदारी’ के आधार पर यह तर्क दिया जाने लगा कि अर्थव्यवस्था की तेज रफ़्तार को बनाए रखने के लिए उसके असली इंजन सेवा क्षेत्र और कुछ हद तक उद्योग क्षेत्र पर अधिक जोर दिए जाने की जरूरत है.

इस तर्क को विश्व बैंक और उस जैसी अन्य आर्थिक-वित्तीय कंसल्टेंसी कंपनियों ने भी खूब बढ़ावा दिया. उन्होंने भी कहना शुरू किया किया कि भारत को खाद्यान्नों आदि के उत्पादन की चिंता करने की जरूरत नहीं है. उसे सेवा और उद्योग क्षेत्र पर जोर देना चाहिए और उससे होने वाली आय से जरूरत का अनाज अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से आयात कर लेना चाहिए.

नतीजा यह कि पिछले दो दशकों में कृषि क्षेत्र को उसके हाल पर छोड़ दिया गया. कृषि क्षेत्र की उपेक्षा का अंदाज़ा सिर्फ एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश लगातार गिरता गया है. खुद सरकार के आर्थिक समीक्षा (२००९-१०) के मुताबिक, छठी पंचवर्षीय योजना (१९८०-८५) के बाद से लगातार नवीं पंचवर्षीय योजना (१९९७-२००२) तक कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में कटौती जारी रही. समीक्षा के अनुसार, छठी योजना में कृषि क्षेत्र में ६४०१२ करोड़ रूपये का सार्वजनिक निवेश हुआ जो सातवीं योजना में यह घटकर ५२१०८ करोड़ रूपये, आठवीं योजना में ४५५६५ करोड़ रूपये और नवीं में और गिरकर मात्र ४२२२६ करोड़ रूपये रह गया.

हालांकि यू.पी.ए सरकार का दावा है कि दसवीं पंचवर्षीय योजना (२००२-०७) में कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाकर ६७२६७ करोड़ रूपये हो गया लेकिन गौर से देखिए तो यह निवेश इस बढ़ोत्तरी के बावजूद छठी योजना के निवेश से थोड़ा सा ही अधिक हो पाया है. इसका अर्थ यह हुआ कि कृषि क्षेत्र के लिए यू.पी.ए के ‘नई डील’ के दावों के बावजूद तथ्य यह है कि अब भी कृषि में सार्वजनिक निवेश १९८०-८५ के स्तर तक ही पहुंच पाया है. आश्चर्य नहीं कि पिछले दो-ढाई दशकों की इस उपेक्षा के कारण कृषि क्षेत्र गहरे संकट में फंस गया है. नतीजा, कृषि क्षेत्र के इस चौतरफा संकट की कीमत पूरे देश के साथ-साथ किसान और आम उपभोक्ता सभी चुका रहे हैं.

इस संकट का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में कृषि उत्पादन की वृद्धि दर जनसंख्या की वृद्धि दर से भी कम हो गई है. आर्थिक समीक्षा (२००८-०९) के अनुसार, १९९० से २००७ के बीच कृषि उत्पादन की वृद्धि दर सालाना औसतन मात्र १.२ प्रतिशत रह गई है जो कि जनसंख्या की सालाना वृद्धि दर १.७ प्रतिशत से कम है. इससे ज्यादा बड़ा संकट और क्या हो सकता है?

यह साफ तौर पर खाद्य संकट को न्यौता है. हैरानी की बात नहीं है कि देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्नों की उपलब्धता घटती जा रही है. तेज आर्थिक विकास के बावजूद रंगराजन समिति ने खाद्य सुरक्षा कानून के मुद्दे पर एन.ए.सी के प्रस्ताव को इस आधार पर ख़ारिज कर दिया कि आबादी के ७५ प्रतिशत लोगों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने भर अनाज उपलब्ध नहीं है.

सच यह है कि अगर इस देश में सभी लोग दो जून भरपेट भोजन करने लगें तो देश में अनाज की भारी किल्लत पैदा हो जायेगी. वास्तव में, खाद्य वस्तुओं की भारी महंगाई बाज़ार का अपना एक मेकेनिज्म है जिसके जरिये वह खाद्यान्नों को आबादी के एक बड़े हिस्से की पहुंच से दूर कर देता है. यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि देश की आबादी के लगभग २२ प्रतिशत हिस्से को हर दिन भूखे पेट सोना पड़ता है. भूखमरी का यह साम्राज्य कृषि संकट का ही एक और चेहरा है.

असल में, कृषि क्षेत्र जिस जबरदस्त संकट में फंसा हुआ है, उसका एक असर बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्याओं में दिखाई पड़ रहा है, दूसरी ओर, इसका नतीजा यह हुआ है कि खाद्यान्नों और अन्य खाद्य वस्तुओं के उत्पादन में उतार-चढ़ाव और किल्लत के कारण उनकी कीमतें आसमान छू रही है और तीसरी ओर, खाद्यान्न उत्पादन में कभी आत्मनिर्भर हो चुका देश एक बार फिर आयात निर्भरता की तरह बढ़ रहा है. यही नहीं, कृषि क्षेत्र की दो फीसदी से भी कम की सालाना औसत वृद्धि दर के कारण अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि दर को भी झटके लगते दिख रहे हैं.

निश्चय ही, यह अर्थव्यवस्था के मैनेजरों के लिए बड़ा सबक है. कृषि क्षेत्र की अब और उपेक्षा देश के लिए बहुत भारी पड़ सकती है. अफसोस की बात यह है कि पिछले दो दशकों की निरंतर उपेक्षा से कृषि क्षेत्र जिस गहरे संकट में फंस गया है, उससे निकलने के लिए जितने बड़े, व्यापक और साहसिक उपायों और फैसलों की जरूरत है, उसे देखते यू.पी.ए सरकार के सीमित और कामचलाऊ उपायों से कुछ खास नहीं बदलनेवाला है. साफ है कि सरकार का जवाब कृषि संकट की व्यापकता के मुताबिक नहीं है. यह एक बड़ी दुर्घटना को आमंत्रण है.

(दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में ५ फरवरी'११ को प्रकाशित)