शनिवार, फ़रवरी 05, 2011

कृषि क्षेत्र की लंबी उपेक्षा का नतीजा है यह महंगाई

जनसंख्या की वृद्धि दर से भी कम हो गई है खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि दर


खाद्यान्नों और खाद्य वस्तुओं की किल्लत और महंगाई के कारण कृषि क्षेत्र एक बार फिर सुर्ख़ियों में है. लेकिन अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि पिछले दो वर्षों से खाद्यान्नों और अन्य खाद्य वस्तुओं की कीमतों में भारी उछाल, अत्यधिक उतार-चढ़ाव और लगातार बढ़ोत्तरी एक तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था के नव उदारवादी आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं से कृषि क्षेत्र का बदला है.

असल में, जिन आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं ने यह मान लिया था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र यानी कृषि क्षेत्र को बाईपास करके भी ऊँची विकास दर हासिल की जा सकती है, इसलिए कृषि क्षेत्र पर बहुत ध्यान देने की जरूरत नहीं है, उनकी सोच पर यह कृषि क्षेत्र का पलटवार है.

उल्लेखनीय है कि पिछले दो-ढाई दशकों खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के नशे में कृषि क्षेत्र की जमकर उपेक्षा की गई है. इस उपेक्षा की वजह यह रही है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में कृषि क्षेत्र की औसतन सालाना दो फीसदी से भी कम की वृद्धि दर के बावजूद सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) की वृद्धि दर औसतन ७ से ८ फीसदी तक पहुंच गई.

अर्थव्यवस्था के इस प्रदर्शन से आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं को यह खुशफहमी हो गई कि कृषि क्षेत्र के खराब प्रदर्शन के बावजूद जी.डी.पी की वृद्धि दर पर कोई खास असर नहीं पड़नेवाला है. इस कारण उन्हें लगने लगा कि कृषि क्षेत्र की कोई खास परवाह करने की जरूरत नहीं है.

यही नहीं, आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं ने इस आधार पर यह मान लिया कि भारतीय अर्थव्यवस्था ने विकास की प्रक्रिया में कृषि की प्राथमिक भूमिका से सीधे छलांग लगाकर सेवा आधारित विकास के दौर में पहुंच गई है जिसमें कृषि की अत्यंत सीमित और उद्योग की उससे कुछ अधिक लेकिन सेवा क्षेत्र की सबसे बड़ी भूमिका होती है.

इस सोच के पीछे वजह यह थी कि जी.डी.पी में कृषि क्षेत्र का योगदान घटते हुए २० फीसदी (अभी १४.६ फीसदी) से भी नीचे पहुंच गया जबकि सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़ते हुए ५० फीसदी (अभी ५७.२ फीसदी) के ऊपर पहुंच गया. इससे उत्साहित नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों ने यहां तक दावा करना शुरू कर दिया कि भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि और उद्योग क्षेत्र को बाईपास करके सेवा क्षेत्र के हाइवे पर फर्राटा भरने लगी है.

कहा जाने लगा कि भारतीय अर्थव्यस्था दुनिया की अन्य विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तरह सेवा क्षेत्र पर आधारित विकास के दौर में पहुंच गई है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस ‘समझदारी’ के आधार पर यह तर्क दिया जाने लगा कि अर्थव्यवस्था की तेज रफ़्तार को बनाए रखने के लिए उसके असली इंजन सेवा क्षेत्र और कुछ हद तक उद्योग क्षेत्र पर अधिक जोर दिए जाने की जरूरत है.

इस तर्क को विश्व बैंक और उस जैसी अन्य आर्थिक-वित्तीय कंसल्टेंसी कंपनियों ने भी खूब बढ़ावा दिया. उन्होंने भी कहना शुरू किया किया कि भारत को खाद्यान्नों आदि के उत्पादन की चिंता करने की जरूरत नहीं है. उसे सेवा और उद्योग क्षेत्र पर जोर देना चाहिए और उससे होने वाली आय से जरूरत का अनाज अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से आयात कर लेना चाहिए.

नतीजा यह कि पिछले दो दशकों में कृषि क्षेत्र को उसके हाल पर छोड़ दिया गया. कृषि क्षेत्र की उपेक्षा का अंदाज़ा सिर्फ एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश लगातार गिरता गया है. खुद सरकार के आर्थिक समीक्षा (२००९-१०) के मुताबिक, छठी पंचवर्षीय योजना (१९८०-८५) के बाद से लगातार नवीं पंचवर्षीय योजना (१९९७-२००२) तक कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में कटौती जारी रही. समीक्षा के अनुसार, छठी योजना में कृषि क्षेत्र में ६४०१२ करोड़ रूपये का सार्वजनिक निवेश हुआ जो सातवीं योजना में यह घटकर ५२१०८ करोड़ रूपये, आठवीं योजना में ४५५६५ करोड़ रूपये और नवीं में और गिरकर मात्र ४२२२६ करोड़ रूपये रह गया.

हालांकि यू.पी.ए सरकार का दावा है कि दसवीं पंचवर्षीय योजना (२००२-०७) में कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाकर ६७२६७ करोड़ रूपये हो गया लेकिन गौर से देखिए तो यह निवेश इस बढ़ोत्तरी के बावजूद छठी योजना के निवेश से थोड़ा सा ही अधिक हो पाया है. इसका अर्थ यह हुआ कि कृषि क्षेत्र के लिए यू.पी.ए के ‘नई डील’ के दावों के बावजूद तथ्य यह है कि अब भी कृषि में सार्वजनिक निवेश १९८०-८५ के स्तर तक ही पहुंच पाया है. आश्चर्य नहीं कि पिछले दो-ढाई दशकों की इस उपेक्षा के कारण कृषि क्षेत्र गहरे संकट में फंस गया है. नतीजा, कृषि क्षेत्र के इस चौतरफा संकट की कीमत पूरे देश के साथ-साथ किसान और आम उपभोक्ता सभी चुका रहे हैं.

इस संकट का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में कृषि उत्पादन की वृद्धि दर जनसंख्या की वृद्धि दर से भी कम हो गई है. आर्थिक समीक्षा (२००८-०९) के अनुसार, १९९० से २००७ के बीच कृषि उत्पादन की वृद्धि दर सालाना औसतन मात्र १.२ प्रतिशत रह गई है जो कि जनसंख्या की सालाना वृद्धि दर १.७ प्रतिशत से कम है. इससे ज्यादा बड़ा संकट और क्या हो सकता है?

यह साफ तौर पर खाद्य संकट को न्यौता है. हैरानी की बात नहीं है कि देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्नों की उपलब्धता घटती जा रही है. तेज आर्थिक विकास के बावजूद रंगराजन समिति ने खाद्य सुरक्षा कानून के मुद्दे पर एन.ए.सी के प्रस्ताव को इस आधार पर ख़ारिज कर दिया कि आबादी के ७५ प्रतिशत लोगों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने भर अनाज उपलब्ध नहीं है.

सच यह है कि अगर इस देश में सभी लोग दो जून भरपेट भोजन करने लगें तो देश में अनाज की भारी किल्लत पैदा हो जायेगी. वास्तव में, खाद्य वस्तुओं की भारी महंगाई बाज़ार का अपना एक मेकेनिज्म है जिसके जरिये वह खाद्यान्नों को आबादी के एक बड़े हिस्से की पहुंच से दूर कर देता है. यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि देश की आबादी के लगभग २२ प्रतिशत हिस्से को हर दिन भूखे पेट सोना पड़ता है. भूखमरी का यह साम्राज्य कृषि संकट का ही एक और चेहरा है.

असल में, कृषि क्षेत्र जिस जबरदस्त संकट में फंसा हुआ है, उसका एक असर बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्याओं में दिखाई पड़ रहा है, दूसरी ओर, इसका नतीजा यह हुआ है कि खाद्यान्नों और अन्य खाद्य वस्तुओं के उत्पादन में उतार-चढ़ाव और किल्लत के कारण उनकी कीमतें आसमान छू रही है और तीसरी ओर, खाद्यान्न उत्पादन में कभी आत्मनिर्भर हो चुका देश एक बार फिर आयात निर्भरता की तरह बढ़ रहा है. यही नहीं, कृषि क्षेत्र की दो फीसदी से भी कम की सालाना औसत वृद्धि दर के कारण अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि दर को भी झटके लगते दिख रहे हैं.

निश्चय ही, यह अर्थव्यवस्था के मैनेजरों के लिए बड़ा सबक है. कृषि क्षेत्र की अब और उपेक्षा देश के लिए बहुत भारी पड़ सकती है. अफसोस की बात यह है कि पिछले दो दशकों की निरंतर उपेक्षा से कृषि क्षेत्र जिस गहरे संकट में फंस गया है, उससे निकलने के लिए जितने बड़े, व्यापक और साहसिक उपायों और फैसलों की जरूरत है, उसे देखते यू.पी.ए सरकार के सीमित और कामचलाऊ उपायों से कुछ खास नहीं बदलनेवाला है. साफ है कि सरकार का जवाब कृषि संकट की व्यापकता के मुताबिक नहीं है. यह एक बड़ी दुर्घटना को आमंत्रण है.

(दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में ५ फरवरी'११ को प्रकाशित)

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