सोमवार, फ़रवरी 07, 2011

महंगाई के बहाने खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत देने की तैयारी

महंगाई के आगे घुटने टेक चुकी है सरकार


अब इस तथ्य में कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि यू.पी.ए सरकार ने महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती महंगाई के आगे घुटने टेक दिए हैं. वह मान चुकी है कि महंगाई पर काबू पाना उसके वश की बात नहीं है. पहले यह कृषि मंत्री शरद पवार कहा करते थे लेकिन अब खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महंगाई पर नियंत्रण की समयसीमा देने से इंकार करते हुए यह कहकर अपनी लाचारगी स्वीकार कर ली है कि वे कोई ज्योतिषी नहीं हैं. उनसे पहले यू.पी.ए-प्रथम में वित्त मंत्री रहे और अब गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने भी यह स्वीकार किया किया कि, ‘मुझे यह साफ नहीं है कि हम महंगाई के सभी कारणों को भलीभांति समझ रहे हैं या हमारे पास इस महंगाई को रोकने के सभी औजार उपलब्ध हैं.’


ये सभी अकेले नहीं हैं. यू.पी.ए सरकार के सभी आर्थिक मैनेजर लगभग यही राग अलाप रहे हैं. चाहे योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया हों या प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी. रंगराजन या फिर खुद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी- सभी ने या तो यह कहकर हाथ खड़े कर दिए हैं कि सब्जियों की कीमतों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है या फिर ऐसे ही और बहाने बनाने में लगे हैं.

नतीजा, मनमोहन सिंह सरकार महंगाई पर काबू करने के नाम पर अँधेरे में तीर चला रही है या फिर मार्च तक मुद्रास्फीति (महंगाई नहीं) की दर गिरने के दावे कर रही है. कहने की जरूरत नहीं है कि उसकी यह उम्मीद सांखिकीय चमत्कार (बेस प्रभाव) पर टिकी है जिसके तहत पिछले वर्ष की ऊँची मुद्रास्फीति दर के कारण इस साल की बढ़ोत्तरी कम दिखने लगती है.

लेकिन खाद्य वस्तुओं की जबरदस्त महंगाई को लेकर सरकार के रवैये से साफ है कि वह महंगाई की आंधी के आगे शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छिपाकर उसके गुजरने का इंतज़ार कर रही है. अलबत्ता लोगों को दिखाने के लिए महंगाई पर काबू पाने के नाम पर कुछ टोटके भी करती रहती है जैसे जब प्याज की कीमतें आसमान छूने लगीं तो निर्यात पर प्रतिबन्ध और प्याज के आयात के साथ-साथ कुछ शहरों में चुनिन्दा ठिकानों पर ३५ से ४० रूपये किलो प्याज बेचने का फैसला. लेकिन वास्तविकता यह है कि ये सभी टोटके खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती महंगाई को रोकने में पूरी तरह से नाकाम साबित हुए हैं.

आश्चर्य नहीं कि इस बीच, महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई लगातार ऊँची बनी हुई है. हालात कितने खराब हैं, इसका अंदाज़ा सिर्फ इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर पिछले २४ महीनों से लगातार दोहरे अंकों में बनी हुई है. यह इसलिए अत्यधिक चिंताजनक है क्योंकि पिछले साल के आखिरी महीने और अब नए साल के पहले कुछ सप्ताहों में खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर वर्ष २००९ और वर्ष २०१० के शुरूआती महीनों की ऊँची मुद्रास्फीति दर के ऊपर आई है. उदाहरण के लिए, २५ दिसंबर’१० को खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर १८.३२ प्रतिशत पहुंच गई लेकिन यह इसलिए और भी चुभनेवाली थी क्योंकि उसके पिछले वर्ष १९ दिसम्बर’०९ को मुद्रास्फीति की दर १९.८३ प्रतिशत थी.

इसका अर्थ यह हुआ कि सिर्फ एक साल में अधिकांश खाद्य वस्तुओं की कीमतों में औसतन कोई ३८ फीसदी की वृद्धि हो चुकी है. सच पूछिए तो यह महंगाई के ऊपर रिकार्डतोड़ महंगाई का मामला है. इससे यह भी पता चलता है कि खुद सरकार मुद्रास्फीति के मामले में वर्ष २००९ के जिस उंचे बेस प्रभाव के कारण पिछले साल नवंबर-दिसंबर तक मुद्रास्फीति की दर में गिरावट की उम्मीद पाले हुए थी, वह कामयाब नहीं हुई.

हालांकि मनमोहन सिंह सरकार अब भी इस उंचे बेस प्रभाव के कारण मार्च-अप्रैल तक मुद्रास्फीति की दर में गिरावट पर उम्मीद टिकाये हुए है लेकिन उसके सफल होने के आसार कम ही दिख रहे हैं. दूसरे, अगर ऐसा होता भी है कि उंचे बेस के कारण मुद्रास्फीति की दर ८-९ फीसदी तक आ जाती है तो यह महंगाई में कम नहीं होगी.

लेकिन सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि जो सरकार खाद्य वस्तुओं की महंगाई को रोकने के मामले में अपनी लाचारगी जाहिर कर चुकी है, वह इस मौके का फायदा उठाकर खुदरा व्यापार को बड़ी विदेशी पूंजी के लिए खोलने को बेचैन दिख रही है. इस साजिशी सिद्धांत (कांसपिरेसी थियरी) को अगर अनदेखा भी कर दिया जाए कि सब्जियों समेत खाद्य वस्तुओं की कीमतों में जानबूझकर भारी इजाफा कराया गया ताकि खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का माहौल बनाया जा सके.

लेकिन इस संयोग को कैसे अनदेखा किया जा सकता है कि इस महंगाई के लिए खुदरा व्यापारियों को जिम्मेदार ठहराकर सरकार खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के प्रस्ताव को आगे बढ़ा रही है. उल्लेखनीय है कि महंगाई पर दो दिनों की मैराथन बैठक के बाद केन्द्र सरकार के बयान में सबसे महत्वपूर्ण घोषणा इसी बाबत थी.

ऐसी खबरें हैं कि मनमोहन सिंह सरकार जल्दी ही कैबिनेट में खुदरा क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए पूरी तरह से खोलने का प्रस्ताव ला सकती है. केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया जिस तरह से इसके पक्ष में बैटिंग कर रहे हैं और हालिया विवादों और कारपोरेट युद्ध के बीच यू.पी.ए सरकार नव उदारवादी सुधारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए मौके की तलाश कर रही है, उसमें आश्चर्य नहीं होगा, अगर सरकार इस बारे में बजट सत्र के पहले फैसला कर ले. यही नहीं, अमेरिका से लेकर यूरोपीय संघ तक यू.पी.ए सरकार पर खुदरा व्यापार को बड़ी विदेशी पूंजी के लिए खोलने का दबाव बनाए हुए हैं.

हालांकि यह तय है कि इससे खाद्य वस्तुओं की महंगाई में कोई कमी नहीं होगी बल्कि उल्टे उसके स्थाई हो जाने की आशंका अधिक है. सच तो यह है कि मौजूदा महंगाई के पीछे एक बड़ी वजह खुदरा व्यापार और अनाजों के कारोबार के क्षेत्र में मौजूद बड़ी भारतीय कंपनियां हैं. यही नहीं, वाल मार्ट जैसी कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां होलसेल-कैश एंड कैरी बाज़ार में पहले से मौजूद हैं.

इन सभी देशी-विदेशी कंपनियों में ही बड़े पैमाने पर जमाखोरी करने की क्षमता है. खाद्य वस्तुओं और सब्जियों आदि की महंगाई का फायदा उठाने में वे भी पीछे नहीं रही हैं. इसका सबूत यह है कि अधिकांश बड़ी कंपनियों के स्टोर्स में प्याज और टमाटर से लेकर अन्य खाद्य वस्तुओं की कीमतों में कोई खास फर्क नहीं दिखाई दे रहा है.

लेकिन महंगाई के वास्तविक कारणों की पड़ताल करने के बजाय हमेशा की तरह यू.पी.ए सरकार अपने बचाव में बहाने ढूंढने में लगी है. वह पिछले दो सालों से लगातार इस तेज महंगाई के लिए तीन कारण बता रही है. पहला, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जिंसों खासकर पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ रहे हैं. दूसरे, देश में किसानों की स्थिति बेहतर करने के लिए उनकी फसलों की न्यूनतम कीमत में भी काफी बढ़ोत्तरी की गई है.

तीसरे, लोगों की आय में इजाफा होने के कारण भी खाद्य वस्तुओं की मांग बढ़ी है. यू.पी.ए सरकार के मुताबिक इन तीनों कारणों से खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ी हैं. साथ ही, वह जमाखोरी और मुनाफाखोरी से लड़ने में राज्य सरकारों की ढिलाई को भी निशाना बनाती रही है.

लेकिन ये सभी कारण पूरी सच्चाई का बयान नहीं करते हैं. अधिक से अधिक इन्हें अर्ध सत्य माना जा सकता है. सच यह है कि महंगाई इन तीन कारणों से इतर वजहों से भी बढ़ रही है. बेलगाम महंगाई के लिए एक साथ कई कारण जिम्मेदार हैं. सबसे महत्वपूर्ण कारण है, खाद्यान्नों की उत्पादन वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है बल्कि कई मामलों में गिरावट आ रही है. यह कृषि क्षेत्र में पिछले कई वर्षों की गतिरुद्धता का नतीजा है.

इसके लिए और कोई नहीं, मौजूदा सरकार और उसकी नीतियां जिम्मेदार हैं. असल में, उत्तर उदारीकरण दौर में यह मान लिया गया कि कृषि क्षेत्र को बाईपास करके भी सेवा और उद्योग क्षेत्र के बूते ऊँची वृद्धि दर हासिल की जा सकती है. इस कारण, पिछले डेढ़-दो दशकों में कृषि क्षेत्र की जमकर उपेक्षा की गई है. कृषि में सार्वजनिक निवेश में काफी गिरावट आई.

इसी उपेक्षा का नतीजा अब हमारे सामने है. यह एक मायने में कृषि क्षेत्र का बदला भी है, दुर्भाग्य से जिसकी कीमत आज आम आदमी, मध्य और निम्न मध्यवर्ग उठा रहा है. मौजूदा महंगाई का दूसरा बड़ा कारण यह है कि कृषि जिंसों में वायदा कारोबार को बढ़ावा देने की नीति के कारण सट्टेबाजी काफी ज्यादा बढ़ गई है. इस सट्टेबाजी का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले वर्ष २००९-१० में देश के सभी जिंस बाजारों में कुल ७७,६४,७५४ करोड़ रूपये का वायदा कारोबार हुआ जो वर्ष २००८-०९ की तुलना में ४८ प्रतिशत ज्यादा है. यह राशि भारत के वर्ष ०९-१० के कुल सालाना बजट से ७.५ गुना ज्यादा है.

इसके साथ ही, कृषि उत्पादों के कारोबार में कई बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के घुसने के कारण जमाखोरी, कालाबाजारी और मुनाफाखोरी बढ़ी है. सरकार उनके आगे लाचार सी दिख रही है. इसके अलावा महंगाई का चौथा सबसे बड़ा कारण सरकार की अक्षमता, लापरवाही, नीतिगत विफलता और महंगाई से लड़ने के मामले में सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति का न होना है. अक्सर यह देखा जा रहा है कि महंगाई के मुद्दे पर न सिर्फ केन्द्र और राज्य सरकारों में कोई तालमेल नहीं है बल्कि केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के बीच भी जमकर खींचातानी होती रहती है.

हैरानी की बात यह है कि इस बार भी जब प्याज के दाम तेजी से बढ़े तो सरकार सोती हुई मिली. हालांकि तथ्य यह है कि खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय में १४ जिंसों (प्याज सहित) की देश के ३७ बाजारों में खुदरा और थोक कीमतों की नियमित निगरानी की उच्च स्तरीय व्यवस्था है. यही नहीं, कई प्रमुख मंत्रालयों के सचिवों की एक समिति भी समय-समय पर आवश्यक खाद्य वस्तुओं की कीमतों, आपूर्ति, उत्पादन और निर्यात-आयत पर निगाह रखती है. कैबिनेट की कीमतों पर एक अलग कमिटी है लेकिन यह जानते हुए भी कि बेमौसमी बारिश से प्याज की फसल खराब हो गई है और इसके कारण कीमतें बढ़ सकती हैं, किसी भी स्तर पर कोई अग्रिम पहल नहीं हुई.

यही नहीं, सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि केन्द्र सरकार खुद सबसे बड़ी जमाखोर बन गई है. खाद्य संकट और कीमतों के आसमान छूने के बावजूद सरकार के गोदामों में ३० नवंबर’१० को गेहूं और चावल का रिकार्ड ४.८४ करोड़ टन भंडार था जो बफर के नार्म के तीन गुने से ज्यादा है. लेकिन सरकार इस अनाज को बाज़ार में उतारने और पी.डी.एस के जरिये गरीबों और जरूरतमंद लोगों तक पहुंचने के बजाय दबाकर बैठी हुई है. सरकार इस अनाज को सस्ते दामों पर बाजार में उतारने और पी.डी.एस के जरिये सभी को सस्ती दरों पर अनाज उपलब्ध कराने से इसलिए कतराती रही है क्योंकि इससे सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ जायेगा.

कहने की जरूरत नहीं है कि नव उदारवादी अर्थनीति के इस वित्तीय कठमुल्लावाद ने मनमोहन सिंह सरकार के हाथ बांध रखे हैं जिसके कारण वह महंगाई से लड़ने के लिए सरकारी अनाज भंडार का इस्तेमाल करने से कन्नी काटती रही है. ऐसे में, महंगाई नहीं बढ़ेगी तो और क्या होगा? साफ है कि यू.पी.ए सरकार वास्तव में, महंगाई से ईमानदारी नहीं लड़ रही है और न लड़ना चाहती है. ऐसे में, महंगाई की सुरसा को तांडव करने की खुली छूट मिल गई है.

('सामयिक वार्ता' के फरवरी'११ अंक में प्रकाशित)

1 टिप्पणी:

नई राह ने कहा…

खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश खोलने में सरकारी तर्क भले ही यह हो की इससे कीमते कम होगी, प्रतिस्पर्धा में आम जन को लाभ मिलेगा लेकिन सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए की कैश न कैर्री फोर्मेट में मौजूद रहने से छोटे छोटे खुदरा, थोक व्यपारी के रोजगार खत्म हो जाएगे साथ ही वालमार्ट जैसी बड़ी कंपनिया भारतीय बाज़ार में अपना एकाधिकार ज़माने की कोशिश में लग जएगी जोकि न सिर्फ भारतीय कंपनियों के लिए बल्कि भारतीय उपभोक्ताओ के लिए भी घातक सिद्ध होगा