कर्नाटक के बारे में मेरी टिप्पणी पर ‘फेसबुक’ के मेरे कई नौजवान दोस्त नाराज हैं. उनका ख्याल है कि कर्नाटक में भाजपा जो कुछ भी कर रही है, वह कांग्रेस को उसी की भाषा में करारा जवाब है. युवा साथी संदीप झा का कहना है कि ‘दुश्चरित्र दलों के दुष्कृत्यों का भाजपा ने उसी अंदाज़ में जवाब दिया तो कईयों के पेट में मरोड़ उठ गया. जनता द्वारा चुनी हुई सरकार को गिराने की कोशिश को चुपचाप बर्दाश्त कर लेते और कांग्रेस-जे.डी(एस) की सरकार बनवाने में मदद करते तो आपलोगों को अच्छा लगता.’
उन्हें यह भी लगता है कि मुख्य विपक्षी दल के विन्ध्य के उस पार विस्तार को कांग्रेस अब तक पचा नहीं पाई है. इसलिए वह उसे गिराने के लिए राज्यपाल का इस्तेमाल कर रही है. केरल में पहली विपक्षी सरकार गिराने से लेकर अब तक कांग्रेस की मानसिकता नहीं बदली है. संदीप के अनुसार ‘कांग्रेस का वश चलता तो देश की सभी गैर कांग्रेस सरकारों को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लगा देती.’
मेरे एक और दोस्त आलोक कुमार की भी शिकायत कुछ ऐसी ही है. उनके मुताबिक कर्नाटक में भाजपा की आलोचना करनेवाले ‘कांग्रेस को उसी की भाषा में दिए गए जवाब से तिलमिलाए लोगों का रूख है.’ आलोक का मानना है कि ‘देश में जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार नहीं है. कर्नाटक की सरकार पांच साल के लिए चुनी गई है, इसलिए शांत रहा जाए.’ आलोक ने भी राज्यपालों के कांग्रेसी एजेंट की तरह काम करने की तीखी आलोचना की है.
निश्चय ही, कांग्रेस और जे.डी (एस) जैसी पार्टियों की करतूतों को कभी भी अनदेखा और माफ़ नहीं किया जाना चाहिए. यह भी सौ फीसदी सही है कि देश में भ्रष्ट, दलाल, अनैतिक और पतित राजनीतिक संस्कृति की जन्मदाता कांग्रेस ही है. लेकिन क्या इस आधार पर भाजपा को भ्रष्ट और पतित राजनीति करने का लाइसेंस मिल जाता है?
मुझे उम्मीद है कि मेरे नौजवान दोस्त भी यह स्वीकार करेंगे कि भाजपा इस भ्रष्ट और पतित कांग्रेसी संस्कृति में में पूरी तरह से रंग चुकी है. दोनों में कोई फर्क नहीं है, सिवाय इसके कि एक कट्टर सांप्रदायिक पार्टी है और दूसरी अवसरवादी और साफ्ट सांप्रदायिक पार्टी. अफसोस की बात यह है कि आज तीसरे मोर्चे की भी सभी पार्टियां इस कांग्रेसी संस्कृति की सबसे बड़ी झंडाबरदार बन चुकी हैं.
इसलिए सवाल है कि क्या कर्नाटक में भाजपा सचमुच कांग्रेस को उसी की भाषा में जवाब दे रही है या यह खुद भाजपा के अपने ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ और ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ की राजनीति की शर्मनाक वास्तविकता है? कर्नाटक में भाजपा कांग्रेस को उसी की भाषा में जवाब दे रही है या भाजपा की यही भाषा है? कृपया, तथ्यों पर गौर कीजिये.
२००७ के चुनावों में कर्नाटक में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया था और येदियुरप्पा ने निर्दलियों की मदद से दक्षिण भारत में पहली भाजपा सरकार बनाई थी. निर्दलियों ने इसकी पूरी कीमत वसूली. २००८ में भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व की सहमति से येदियुरप्पा ने अपनी सरकार की स्थिरता के लिए खरीद-फरोख्त का खेल शुरू किया. ‘आपरेशन कमाल’ के तहत एक दर्जन से अधिक कांग्रेस और जे.डी (एस) विधायकों को तोडा गया.
साफ है कि शुरुआत किसने की? लेकिन इसके बावजूद वे माइनिंग किंग रेड्डी बंधुओं की खुली बगावत को नहीं रोक सके. रेड्डी बंधुओं ने किस तरह से दो सप्ताह तक भाजपा की दक्षिण भारत की पहली सरकार को राजनीतिक रूप से पंगु और बंधक बना करके रखा, यह किसी से छुपा नहीं है.
पूरे देश ने देखा कि किस तरह से भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व और येदियुरप्पा को रेड्डी बंधुओं के आगे समर्पण करना पड़ा. जाहिर है कि यह सब कांग्रेस की शह पर नहीं हुआ था. यह भाजपा की अपना ‘चाल,चरित्र और चेहरा’ था.
इसके बाद भी, पिछले ढाई वर्षों में भाजपा की कर्नाटक इकाई और सरकार जिस तरह से गुटों में बंटी और सत्ता की मलाई में हिस्से के लिए आपस में खुलेआम लड़ती-झगडती रही है, वह कांग्रेस और अन्य पार्टियों की सरकारों से किसी मामले में बेहतर नहीं बल्कि बदतर ही रहा है. मंत्री बनने के लिए सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शन, धरना और पार्टी से बगावत तक हो गई.
असल में, कर्नाटक में कांग्रेस और जे.डी (एस) भाजपा के खुद के घर मची घमासान का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं. इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि राज्यपाल कांग्रेस के एजेंट की तरह से काम कर रहे हैं.
इसीलिए, कर्नाटक में येदियुरप्पा की अवैध सरकार का जाना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है कि कांग्रेस और जे.डी (एस) को एक अवसरवादी और खरीद-फरोख्त पर खड़ी की गई सरकार न बनाने दिया जाए. कर्नाटक में चाहे भाजपा हो या कांग्रेस-जे.डी(एस)- किसी को लोकतंत्र को रौंदने और उसके साथ बलात्कार करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है. इसके लिए लोकतंत्र में सबसे बेहतर तरीका जनता के पास वापस जाना है. साफ है कि नए चुनावों के अलावा और कोई रास्ता नहीं है.
लोहिया ने कहा था कि ‘जिन्दा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं.’ कर्नाटक की जनता भी पांच साल इंतज़ार करने के लिए तैयार नहीं है.
(जल्दी ही, भाजपा की राजनीति पर कुछ और बातें..इंतजार कीजिये... )
2 टिप्पणियां:
निश्चय ही बीजेपी जो कभी पार्टी विद डिफरेंस कहती थी खुद को..। वह डिफरेंस चुक गया है। बीजेपी उसी ढर्रे पर चल पड़ी है, आज से नही बहुत दिनों से। और येन-केन-प्रकारेण सत्ता हथियाना ही पार्टी का मूल अजेंडा हो, तो सपा, बसपा, आरजेडी..कांग्रेस जैसे दलों से कैसे अलग है बीजेपी?
jaise des ke sare channel v akhbar ek jaise nazar aate hain vaise hi congress o bjp ek jaisi hai.kisi party main koi fark nahi hai.pure des ki sanskriti se vivedhta ko khatam kiya ja raha hai. pure desh ka congressikarn ho raha hai. islye logon ka vishvas na Bjp per hain na congress per aur na hi lal jande per. sab ek thali ke hain.karnatak main kahann mafia sarkar per havey hai.delhi ke naton ki vo khatirdari karte hain.islye makhi dikhne ke bad b bjp use niglane ka priyas ker rahi hai.partion aur naton ka doglapan des ke liye khtrnak sabit ho raha hai. commonwelth ko dekha nahi kya? dogla koun nahi hai sabi ko samaj main aata hai.
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