युवा आगे की ओर देख रहे हैं लेकिन उन्हें आगे का एजेंडा भी चाहिए
यू.पी.ए सरकार के कर्ता-धर्ताओं के साथ-साथ अधिकांश समाचार माध्यमों और उनके टिप्पणीकारों को लगता है कि आशंकाओं और चेतावनियों के विपरीत अयोध्या विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद पूरे देश में शांति और सद्भाव का बने रहना इस बात का सबूत है कि देश ८० और ९० के दशक के सांप्रदायिक उन्माद से बाहर आ चुका है.
वे इसे इस रूप में देख रहे हैं कि पिछले दो दशकों में देश में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की लहर के बीच युवाओं की जो नई पीढ़ी जवान हुई है, वह अतीत में अटके रहने के बजाय आगे की ओर देख रही है. इन टिप्पणीकारों का यह भी मानना है कि इस युवा पीढ़ी के सपने, आकांक्षाएं, उम्मीदें और जरूरतें बिल्कुल अलग हैं. उसपर अतीत का बोझ नहीं है और वह धार्मिक उन्माद और झगडों के तंग दायरे के बजाय मेल-मिलाप की खुली दुनिया में जीना चाहती है.
यह सच है लेकिन पूरा सच नहीं है. यह कहना गलत नहीं होगा कि नई पीढ़ी हमेशा आगे देखना चाहती है. चाहे वह आज की युवा पीढ़ी हो या ८०-९० के दशक की युवा पीढ़ी. लेकिन इसके साथ ही, यह भी याद रखना चाहिए कि युवा पीढ़ी कोई एकरूपी इकाई नहीं है बल्कि उसमें भी विभिन्नताएं और श्रेणियाँ हैं.
उदाहरण ९० के दशक में युवाओं का एक हिस्सा अगर राम जन्मभूमि निर्माण के लिए चले सांप्रदायिक अभियान में कारसेवकों की अगली कतार में शामिल था तो दूसरी ओर, एक हिस्सा सामाजिक न्याय की लड़ाई में अपना भविष्य देख रहा था और तीसरी ओर, युवाओं का एक छोटा लेकिन प्रभावी हिस्सा क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव के संघर्ष के साथ खड़ा था.
याद कीजिये, बाबरी मस्जिद गिराए जाने के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश के कई विश्वविद्यालयों में हुए छात्रसंघ चुनावों में आइसा के नेतृत्व में इन युवाओं ने “दंगा नहीं, रोजगार चाहिए, जीने का अधिकार चाहिए” नारे के साथ सांप्रदायिक ताकतों को धूल चटा दी. इसके बाद ही, पूरे प्रदेश में ऐसा माहौल बना कि जबरदस्त सांप्रदायिक उभार के बावजूद १९९३ में उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा ने भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया.
कहने का आशय यह है कि अपने मिजाज और सोच से युवा भविष्य की ओर देखनेवाला होता है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अतीत से उसका कोई रिश्ता नहीं होता है.
दूसरे, अगर आगे की ओर कुछ नहीं दिख रहा हो, भविष्य के सपनों के साथ तालमेल नहीं बैठ रहा हो और एक निराशा का माहौल हो, तो वही युवा जो स्वाभाव और सोच से आगे देखनेवाले होते हैं, पलटकर पीछे भी देखने लगते हैं. वे अतीत से ही प्रेरणा लेने लगते हैं. अतीत का महिमामंडन उन्हें आकर्षित करने लगता है.
८० और ९० के दशकों में इसकी झलक मिल चुकी है. इसलिए यह मानकर चलना ठीक नहीं है कि युवा पीढ़ी खुद-ब-खुद प्रगतिशील विचारों के साथ खड़ी हो जायेगी बल्कि उन्हें अपने प्रगतिशील एजेंडे के साथ जोड़ने के लिए सांप्रदायिक-उन्मादी शक्तियों की तुलना में ज्यादा गंभीर और ईमानदार प्रयास करने होंगे.
असल में, साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी लड़ाई युवाओं को तब तक बहुत आकर्षित नहीं कर सकती जब तक कि वह देश के सामने उससे बेहतर प्रगतिशील राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक एजेंडा न पेश करे. तात्पर्य यह कि अयोध्या विवाद पर कोर्ट के फैसले के बाद देश में कायम ‘शांति और सौहार्द्र’ के ‘सामान्य’ माहौल के आधार पर यह निष्कर्ष निकाल लेना थोड़ी जल्दबाजी होगी कि देश अब १९९२ से आगे बढ़ना चाहता है या युवा पीढ़ी अतीत के बजाय आगे की ओर देख रही है. यह चीजों को देखने का बहुत सतही तरीका है. इसमें अति सामान्यीकरण के साथ-साथ साम्प्रदायिकता को लेकर निश्चिंत हो जाने का भी खतरा है.
मुझे यह कहने के लिए माफ़ कीजिये लेकिन देश में इस ‘सामान्य’ से दिख रहे माहौल में छिपे ‘असामान्य’ को पढ़ने-देखने की जरूरत है. इतिहास गवाह है कि कई बार जब सतह पर सब कुछ बहुत सामान्य और शांत दिख रहा होता है, तब सतह के नीचे काफी बेचैनी, हलचल और उथल-पुथल चल रही होती है. उसे सतह से ऊपर आने के लिए सिर्फ एक चिंगारी की जरूरत होती है.
मौजूदा ख़ामोशी को भी इसलिए सुनने की जरूरत है क्योंकि देश में सांप्रदायिक फाल्टलाईन्स भी मौजूद हैं और उन्हें भुनाने के लिए हमेशा तत्पर रहनेवाली सांप्रदायिक शक्तियां भी कमजोर होने के बावजूद मौके की तलाश में हैं.
यही कारण है कि चाहे देश में सब कुछ कितना भी ‘सामान्य और शांत’ क्यों नहीं दिख रहा हो, इन सांप्रदायिक शक्तियों को नजरअंदाज़ करना मुश्किल है. हाई कोर्ट के फैसले के बाद उनमें नई जान आ गई है. इतिहास का अगर कोई सबक है तो वह यह कि वे चुप नहीं बैठेंगे.
उनकी ओर से ‘भव्य मंदिर’ बनाने का अभियान कभी भी शुरू हो सकता है. इसके अलावा भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिनको उठाकर सांप्रदायिक गोलबंदी तेज करने की कोशिश शुरू हो सकती है. इसके संकेत भी मिलने लगे हैं.
दूसरी ओर, मुस्लिम समुदाय खासकर उसके युवाओं के एक हिस्से में बढ़ती बेचैनी, अलगाव, हताशा और गुस्से की भावना को भी अनदेखा करना मुश्किल है. इस बेचैनी, अलगाव और हताशा का सम्बन्ध सिर्फ बाबरी मस्जिद के विध्वंस से नहीं है बल्कि उसके बाद गुजरात में हुए राज्य प्रायोजित नरसंहार से भी है.
यही नहीं, इस अलगाव और हताशा के बीच मुस्लिम युवाओं के एक हिस्से के बीच ‘बदले’ की अंध भावना भी जगह बना रही है. इंडियन मुजाहिदीन जैसे घरेलू संगठनों का खड़ा होना इसका सबूत है. दूसरी ओर, ‘अभिनव भारत’ जैसे संगठनों का सिर उठाना भी इस बात का प्रमाण है कि स्थितियां ‘सामान्य’ नहीं हैं.
याद रखिये कि ‘मुदहूँ आँख, कतहूँ कछु नाहिं’ वाली शुतुरमुर्गी मानसिकता से स्थितियाँ ‘सामान्य’ होनेवाली नहीं हैं. वास्तव में, स्थितियां तब तक सामान्य नहीं हो सकती हैं, जब तक सभी समुदायों खासकर अल्पसंख्यक समुदायों में यह विश्वास न पैदा किया जाए कि वे भी इस देश के पहले दर्जे के नागरिक हैं और इस देश में उनका भी भविष्य है. यह भी कि कानून की निगाह में सभी बराबर हैं और देश में कानून का राज है. साथ ही, देश के तमाम संसाधनों पर उनका भी उतना ही हक है जितना बाकी समुदायों का.
अफसोस की बात यह है कि पिछले कुछ दशकों में यह विश्वास बुरी तरह से टूटा है. हाई कोर्ट के फैसले से यह विश्वास बहाल नहीं हुआ है, उल्टे और दरक गया है. जाहिर है कि बिना विश्वास के किसी भी मेलमिलाप और सुलह की जमीन बहुत भुरभुरी होती है और उसका स्थायित्व हमेशा संदेहों के घेरे में होता है.
न्याय पर टिकी शांति स्थाई और अन्याय पर टिकी शांति हमेशा अस्थाई और असामान्य होती है. इसलिए यहां यह समझना जरूरी है कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी लड़ाई न्याय को आधार बनाकर ही लड़ी जा सकती है.
यह लड़ाई सिर्फ गाल बजाकर नहीं बल्कि एक बेहतर और न्यायपूर्ण समाज बनाने के सपने के साथ शुरू होनेवाली व्यापक बदलाव की लड़ाई का हिस्सा बनकर ही लड़ी जा सकती है. युवा आगे की ओर देख रहे हैं लेकिन उन्हें बेहतर भविष्य की गारंटी देनेवाला आगे का एजेंडा भी चाहिए.
('राष्ट्रीय सहारा' के 'हस्तक्षेप' के ९अक्तूबर'१०)
2 टिप्पणियां:
yuvao ke liye bannewale agende aur uske netritva se aur bhi kafi apekshaye badh gayi hain sir. ummid hai ki aisha koi agenda banega jo bhadosemand aur parinamkari ho payega.
"bhavishya yuvaao ka hai par vartmaan to aur bhi adhik yuvaao ka hai."
aahat jara jara si aa rahi hai sir...
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