अतीत से भागिए मत, उसे बदलिए
अयोध्या विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच के फैसले ने संवैधानिक मूल्यों और कानून के राज में भरोसा करनेवाले सभी लोगों को हिला कर रख दिया है. उच्च न्यायालय ने फैसले के लिए कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों के बजाय जिस तरह से संकीर्ण और पिछड़ी धार्मिक आस्थाओं और विश्वास को आधार बनाया है, मिथ और इतिहास को गड्डमड्ड कर दिया है, वह आधुनिक संविधान और कानून के राज के लिए बहुत खतरनाक नजीर बन सकता है.
बहुतेरे कानूनविदों ने इस फैसले की इस आधार पर ठीक ही आलोचना की है कि यह कानून पर आधारित न्यायिक फैसला कम और न्यायिक प्रक्रिया के दायरे से बाहर निकलकर पंचायत की तर्ज पर किया गया राजनीतिक फैसला अधिक लगता है.
लेकिन दूसरी ओर, मीडिया के बड़े हिस्से, कई जानेमाने बुद्धिजीवियों और सिविल सोसाइटी के नेताओं ने ‘सभी पक्षों को खुश करनेवाले’ इस फैसले का इस आधार पर स्वागत भी किया है कि इससे दोनों पक्षों - हिंदू और मुस्लिम समुदाय – में सुलह और समझौते का रास्ता साफ होगा. कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता के नए मसीहा दिग्विजय सिंह के मुताबिक मौजूदा स्थियों में इससे बेहतर फैसला नहीं हो सकता था.
इन सभी लोगों को इस फैसले में इसलिए भी ‘उम्मीद की किरण’ दिखाई दे रही है कि उच्च न्यायालय के फैसले को लेकर जताई जा रही तमाम आशंकाओं और चेतावनियों के बावजूद देश में शांति और सामान्य स्थिति बनी रही. इससे उत्साहित इन लोगों का तर्क है कि देश १९९२ से बहुत आगे निकल आया है और अब समय आ गया है कि जब पीछे देखने के बजाय आगे देखा जाए.
इन उदार धर्मनिरपेक्ष महानुभावों के कहने का तात्पर्य यह है कि कानूनी खामियों और सीमाओं के बावजूद इस फैसले को स्वीकार कीजिये क्योंकि २१वीं सदी के इस दशक में अतीत के इस बोझ- अयोध्या विवाद - को उतार फेंकने का यह अच्छा मौका है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश ८०-९० के सांप्रदायिक उन्माद और विध्वंस के आत्मघाती दशक से आगे बढ़ना चाहता है और बढ़ भी रहा है.
लेकिन सवाल यह है कि वह आगे कैसे बढ़े जब न्यायालय धार्मिक आस्थाओं और विश्वासों पर फैसला देकर उसे फिर से १६वीं शताब्दी में खींच ले जाना चाहता है? देश आगे कैसे बढ़े जब ‘न्याय’ उन सांप्रदायिक उन्मादियों के साथ खड़ा नजर आता हैं जो देश को मध्ययुगीन अंध आस्था से बाहर नहीं निकलने देने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं?
आश्चर्य नहीं कि फैसले से पहले तक धार्मिक आस्था और विश्वासों को कानून और न्याय प्रक्रिया से ऊपर माननेवाले संघ ब्रिगेड ने न्यायालय के फैसले का न सिर्फ स्वागत किया है बल्कि सबसे पहले शांति-सौहार्द्र और सुलह-समझौते की बातें करनी शुरू कर दीं हैं. कल से लेकर आज तक जो “मंदिर वहीँ बनाएंगे” का नारा लगाते नहीं थकते, उनकी मांग है कि इस फैसले को सभी- खासकर मुस्लिम स्वीकार कर लें और वहां ‘भव्य राममंदिर’ बनाने में योगदान करें.
उनका भी कहना है कि सुप्रीम कोर्ट जाने के बजाय सुलह-समझौते का रास्ता बेहतर है. लेकिन उनके लिए सुलह-समझौते का एक ही मतलब है कि मुस्लिम समुदाय उदारता दिखाते हुए कोर्ट के फैसले के तहत मिली एक तिहाई जमीन के मालिकाने को भी ‘भव्य मंदिर’ निर्माण के लिए छोड़ दे.
इसके बावजूद बहुतेरे उदारवादियों को लगता है कि अब अतीत को भुलाकर आगे बढ़ने की जरूरत है तो ऐसा लगता है कि इतिहास से नजरें चुराने की कोशिश की जा रही है. सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि ये सभी भलेमानुष इस बात को लेकर डरे हुए और परेशान हैं कि इस फैसले की आलोचना या विरोध करने से अयोध्या विवाद को लेकर अतीत की कडवी स्मृतियाँ फिर ताजा हो जाएंगी, पुराने जख्म याद आयेंगे और दोनों समुदायों में कड़वाहट बढ़ सकती है. लेकिन याद रखना चाहिए कि इतिहास से नजरें चुरानेवाले उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं.
असल में, जो इतिहास से जितना भागते हैं, इतिहास उनका उतना ही पीछा करता है. लैटिन अमेरिका पर अपनी हालिया किताब से मशहूर हुए उरुग्वाई लेखक एदुआर्दो गलिआनो के मुताबिक, “कुछ लोग इस दोषपूर्ण विचार की वकालत करते हैं कि याद रखना बहुत घातक होता है क्योंकि याद रखने से इतिहास खुद को एक दु:स्वपन की तरह दोहरा सकता है..लेकिन यह स्मृति दोष है जो इतिहास को दोहराने और एक दु:स्वपन की तरह दोहराने का मौका देता है. स्मृति दोष का अर्थ है अपराधियों को खुली छूट और खुली छूट का मतलब है अपराधों को और बढ़ावा.”
कहने की जरूरत नहीं है कि अयोध्या मामले में भी ‘आगे बढ़ने’ की वकालत करनेवाले अपनी तमाम अच्छी मंशाओं के बावजूद इसी स्मृति दोष के शिकार हैं. उनके इस स्मृति दोष का राजनीतिक फायदा सांप्रदायिक उन्मादी शक्तियों को हो रहा है जो बड़ी चालाकी से अपने जघन्य अपराधों पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं.
आखिर इसे कैसे और क्यों भुलाया जाना चाहिए कि अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद को एक बड़े सांप्रदायिक फासीवादी प्रोजेक्ट के तहत उठाया और जबरदस्त सांप्रदायिक मुहिम के बतौर आगे बढ़ाया गया? इसे कैसे अनदेखा किया जा सकता है कि आर.एस.एस और उसके अनुषंगी संगठनों -विहिप,बजरंग दल आदि और बाद में सीधे भाजपा के नेतृत्व में चले ‘मंदिर वहीँ बनाएंगे’ के जहरीले सांप्रदायिक अभियान में हजारों निर्दोष लोगों की जानें चली गईं?
इसे कैसे माफ़ किया जा सकता है कि मामले के कोर्ट में होने के बावजूद ६ दिसंबर’९२ को अयोध्या में कानून और संविधान को खुलेआम ठेंगा दिखाते हुए बाबरी मस्जिद गिरा दी गई? इसे कैसे भुला जा सकता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने देश को भरोसा दिया था कि मस्जिद वहीँ बनाई जायेगी?
सवाल है कि अगर यह सब भुलाकर आगे बढ़ने की बात हो रही है तो फैसले के तुरंत बाद वहां ‘भव्य मंदिर’ बनाने की याद क्यों हो आई? क्या मंदिर इस भूलने और आगे बढ़ने में शामिल नहीं है? असल में, जो लोग भी भूलने और माफ़ करके आगे बढ़ने की बात कर रहे हैं, वे परोक्ष रूप से संघ परिवार की चुनिन्दा और धूर्ततापूर्ण स्मृति दोष की राजनीति का समर्थन कर रहे हैं जो मस्जिद को भूलने और भव्य मंदिर को याद रखने की वकालत करती है.
अफसोस की बात यह है कि अयोध्या विवाद में न्यायालय का फैसला भी इसी चुनिन्दा स्मृति दोष से ग्रस्त नजर आता है. न्यायालय के फैसले पर यह सवाल उठ रहा है कि उसने ९२ में बाबरी मस्जिद को गिराए जाने का उल्लेख क्यों नहीं किया है?
यह ठीक है कि बाबरी मस्जिद को गिराए जाने का आपराधिक मुक़दमा अलग से चल रहा है लेकिन इस सवाल को अनदेखा कैसे किया जा सकता है कि अगर ९२ में बाबरी मस्जिद को आपराधिक षड्यंत्र के तहत गिराया नहीं गया होता तो भी क्या उच्च न्यायालय के तीनों माननीय जज उसे आस्था और विश्वास के आधार पर राम जन्मभूमि घोषित करते हुए बाकी विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला कर पाते?
पूर्व सालिसिटर जनरल टी.आर अन्ध्यारुजीना का यह कहना बिल्कुल तार्किक है कि इस फैसले ने एक तरह से बाबरी मस्जिद को गिराए जाने को कानूनी जामा पहना दिया है क्योंकि न्यायालय का आदेश इस आधार पर है कि आज उस विवादित स्थल पर कोई मस्जिद नहीं है. उनका यह भी कहना है कि यह फैसला एक तरह से कानून अपने हाथ में लेनेवाले उपद्रवियों को पुरस्कृत करने की तरह है.
अतीत के बोझ से मुक्त होना और आगे देखने की बातें ठीक हैं लेकिन इतिहास का यह भी सबक है कि सांप्रदायिक अपराध और अन्याय को न्याय घोषित करके और उसके आधार पर होनेवाला कोई भी सुलह-समझौता स्थाई नहीं हो सकता है. यह मांग करके एक खतरनाक नजीर कायम करने की कोशिश की जा रही है.
हालिया इतिहास गवाह है कि अयोध्या में १९४९ में मस्जिद में मूर्तियां रखने से लेकर ‘मंदिर वहीँ बनाएंगे’ के सांप्रदायिक अभियान के बाद मस्जिद का ताला खुलवाने, शिलान्यास करवाने, मस्जिद ढहाने और अब विवादित भूमि को रामलला का जन्मस्थान घोषित करने तक अन्याय का सिलसिला इसी सुलह-समझौते और ‘आगे देखने’ की आड़ में चला है.
निश्चय ही, मुस्लिम समुदाय इससे आहत और छला हुआ महसूस कर रहा है. उसमें बेचैनी और गुस्सा भी है. उसका अलगाव और बढ़ा है. इसके बावजूद उसने बहुत सब्र और परिपक्वता का परिचय दिया है. लेकिन जो लोग इस बात से निश्चिंत से हो गए हैं कि फैसले के बाद भी देश में शांति और सामान्य स्थिति बनी हुई है और इसे इस बात के सबूत के रूप में देख रहे हैं कि अयोध्या मुद्दा लोगों के लिए बेमानी हो चुका है, वे गलती कर रहे हैं.
यह शांति और सामान्यता सतह के ऊपर की शांति है जिसके नीचे चल रही बेचैनी, अलगाव और गुस्से की हलचल को सुनना और समझना जरूरी है. इस शांति और सामान्यता को स्थाई बनाने के लिए लोगों में जिसकी लाठी उसकी भैंस के बजाय कानून के राज के प्रति विश्वास पैदा करना होगा जो तर्क और तथ्य आधारित न्याय के बिना असंभव है.
दरअसल, यह मसला सिर्फ अयोध्या की बाबरी मस्जिद तक सीमित नहीं है. देश में सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति करनेवाली शक्तियों के लिए अयोध्या विवाद देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के उनके लंबे राजनीतिक अभियान का एक पड़ाव भर है. पहली बात तो यह है कि सुलह-समझौते की बातें उनके शब्दकोष में केवल दिखाने के लिए हैं. टकराव हमेशा से उनकी राजनीति की बुनियाद में रहा है.
उनके पास अयोध्या विवाद जैसे ज्वलनशील मामले अनगिनत हैं. याद रखिये कि भारत जैसे बहु सांस्कृतिक, बहु भाषी, बहु धार्मिक, बहु एथनिक और विभिन्नताओं वाले देश में अनेक ऐतिहासिक कारणों से ऐसी कई सांप्रदायिक-एथनिक दरारें (फाल्टलाइन्स) हैं जिनका राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने में सांप्रदायिक शक्तियां कभी पीछे नहीं रहती हैं.
वह फिर मौके की तलाश में हैं. यह ठीक है कि जनता द्वारा पहले २००४ और फिर २००९ के आम चुनावों में नकारे जाने के बाद ये शक्तियां कमजोर हुई हैं लेकिन अयोध्या विवाद में न्यायालय के फैसले के बाद इनका हौसला बढ़ा है. उनकी मंशा और कोशिश यही है कि एक बार फिर अयोध्या विवाद को राष्ट्रीय राजनीति की धुरी बना दिया जाए.
लेकिन इसका जवाब कांग्रेस की तरह न तो अयोध्या मुद्दे से नजरें चुराकर और राजनीतिक पलायन से दिया जा सकता है और न ही सुलह-समझौते के नाम पर अयोध्या मामले में न्यायिक अन्याय को स्वीकार करने की वकालत करके दिया जा सकता है.
असल मुद्दा है साम्प्रदायिकता से सीधी लड़ाई का. लेकिन अफसोस की बात यह है कि जब भी साम्प्रदायिकता से सीधी लड़ाई का मौका आता है, खुद को साम्प्रदायिकता विरोध और धर्मनिरपेक्षता का चैम्पियन बतानेवाली कांग्रेस घबराने और लड़खड़ाने लगती है. वह तय नहीं कर पाती है कि दायें जाए या बाएं जाए?
नतीजा, वह लीपापोती पर उतर आती है या साम्प्रदायिकता के आदमखोर से समझौते की कोशिश करने लगती है. एक बार फिर कांग्रेस की लड़खड़ाहट, लीपापोती और समझौते की कोशिशें साफ दिख रही हैं. लेकिन इससे सांप्रदायिक शक्तियों का हौसला और बढ़ रहा है. वे अयोध्या से लेकर कश्मीर तक पर कांग्रेस को घेरने में जुट गई हैं.
यह अच्छा संकेत नहीं है. लेकिन यह समझना जरूरी है कि कांग्रेस जेनेटिक तौर पर साम्प्रदायिकता से लड़ने में अक्षम है. वह जिस नरम हिन्दुवाद की राजनीति करती है, वह गरम हिन्दुवाद से कैसे लड़ सकता है? दूसरे, कांग्रेस की साम्प्रदायिकता विरोध की राजनीति का एजेंडा वोटों के ध्रुवीकरण से मिलनेवाले राजनीतिक फायदे तक सीमित है. यही समस्या सपा-बसपा और राजद जैसी दूसरी राजनीतिक पार्टियों के साथ भी है. इस मामले में कांग्रेस के साथ-साथ उनकी भी पोल खुल चुकी है.
दरअसल, साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी सच्ची लड़ाई हर तरह से उससे बेहतर राजनीति के जरिये ही लड़ी जा सकती है. मध्ययुगीन पिछड़ी राजनीति का मुकाबला आधुनिक और प्रगतिशील राजनीति ही कर सकती है. एक ऐसी राजनीति जो गरीब-गुरबों के हक-हुकूक, रोजी-रोटी, इज्जत के साथ एक बेहतर भारत बनाने की लड़ाई में विश्वास करती हो, वही स्थाई रूप से साम्प्रदायिकता के शेर को काबू में कर सकती है.
अफसोस, इस मामले में कांग्रेस या सपा-राजद जैसों की राजनीति कोई उम्मीद नहीं पैदा करती. अयोध्या के फैसले के बाद उभरती राष्ट्रीय राजनीति का सबसे बड़ा सबक यही है.
(जनसत्ता, ११ अक्तूबर'१०)
2 टिप्पणियां:
निश्चय ही, मुस्लिम समुदाय इससे आहत और छला हुआ महसूस कर रहा है. उसमें बेचैनी और गुस्सा भी है. उसका अलगाव और बढ़ा है. इसके बावजूद उसने बहुत सब्र और परिपक्वता का परिचय दिया है. लेकिन जो लोग इस बात से निश्चिंत से हो गए हैं कि फैसले के बाद भी देश में शांति और सामान्य स्थिति बनी हुई है और इसे इस बात के सबूत के रूप में देख रहे हैं कि अयोध्या मुद्दा लोगों के लिए बेमानी हो चुका है, वे गलती कर रहे हैं. " its very unfortunate to see you louding voice abt muslims' hurt sentiments and their grieves in your last couple of articles.pl do not provoke sentiments in the name of secularism. This is the main problems with you and such kind of pseudo secularists. they just provoke and keep on doing it without any suggesting any possible solution. In last 17 yrs, muslims have become mature enough to seggregate the actual secularists and not pseudos like you,who take an advantage to highlight their journalism. i have been avid reader of your blogs but been disappointed. you do not talk about solutions always talk about problems, i have been reading it in your blogs.Pl have some foresight and provide some solutions but keep hammerining on problems..all the best sanjeev
आनन्द सर आपका
सबसे बड़ा दुःख यही है कि अदालत ने हिन्दुओं के पक्ष में फ़ैसला क्यों दिया? जबकि आप
काफ़ी पहले से न्यायालय का सम्मान, अदालत की गरिमा, लोकतन्त्र आदि की दुहाई दे रहे थे और अब जबकि साबित हो गया कि वह जगह राम जन्मभूमि ही है तो अचानक
आपको
इतिहास-भूगोल-अर्थशास्त्र सब याद आने लगा है। जब संघ
कहता था
कि "आस्था का मामला न्यायालय तय नहीं कर सकती" तो आप लोग
जमकर कुकड़ूं-कूं किया करते थे, अब पलटी मारकर खुद ही कह रहे हैं कि "आस्था का मामला हाईकोर्ट ने कैसे तय किया? यही राम जन्मभूमि है, अदालत ने कैसे माना?"…
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