शहर वह जो अमीर मन भाए उर्फ स्वर्ग से विदाई
“भाईयों और बहनों!
अब ये आलिशान इमारत/ बन कर तैयार हो गयी है.
अब आप यहाँ से जा सकते हैं.
अपनी भरपूर ताक़त लगाकर
आपने ज़मीन काटी/ गहरी नींव डाली,
मिटटी के नीचे दब भी गए.
आपके कई साथी.
.........हम अमन चैन/ सुख-सुविधा पसंद करते हैं/ लेकिन आप मजबूर करेंगे
तो हमे कानून का सहारा लेने पडेगा/ पुलिस और ज़रुरत पड़ी तो/ फौज बुलानी होगी
हम कुचल देंगे/ अपने हाथों गढे / इस स्वर्ग में रहने की/ आपकी इच्छा भी कुचल देंगे
वर्ना जाइए
टूटते जोडों, उजाड़ आँखों की/ आँधियों, अंधेरों और सिसकियों की/ मृत्यु गुलामी/ और अभावों की अपनी
बे-दरो-दीवार दुनिया में
चुपचाप
वापिस
चले जाइए!”
कवि गोरख पांडे की मशहूर कविता ‘स्वर्ग से विदाई’ की ये पंक्तियां एक बार फिर जिन्दा हो उठी हैं. गोरख जी ने ये लंबी कविता १९८२ में एशियाड खेलों की तैयारी के दौरान बड़े पैमाने पर देश भर से दिल्ली लाए गए हजारों मजदूरों को जिस तरह से खेलों के उद्घाटन से पहले ही राजधानी को साफ सुथरा और खूबसूरत बनाने के नाम पर खदेड़ा गया, उसपर तंज करते हुए यह कविता लिखी थी.
एक बार फिर दिल्ली में कामनवेल्थ खेलों के उद्घाटन से पहले लाखों की तादाद में मजदूरों को राजधानी से जबरदस्ती वापस भेजने की पुलिसिया कार्रवाई ने ‘स्वर्ग से विदाई’ की याद ताजा कर दी है. दिल्ली पुलिस शहर के विभिन्न इलाकों में बसे लाखों प्रवासी मजदूरों को उपयुक्त पहचानपत्र न होने के नाम पर न सिर्फ शहर छोड़ने की धमकी दे रही है बल्कि गाड़ियों और बसों में भरकर जबरदस्ती रेलवे स्टेशन पर पटक आ रही है.
नतीजा, दिल्ली के विभिन्न स्टेशनों पर बेमौसम हजारों प्रवासी मजदूरों की भीड़ लगी हुई है. ट्रेनें खचाखच भरी हुई चल रही है. आमतौर पर ऐसी भीड़ दशहरा, दिवाली, छठ और होली के मौके पर होती है. लेकिन मजदूरों से राजधानी को खाली कराने की मुहिम के कारण अचानक दिल्ली के स्टेशनों पर भारी भीड़ उमड़ पड़ी है. हालांकि दो अख़बारों दिल्ली में इस बाबत रिपोर्ट छपने के बाद पुलिस ऐसी किसी मुहिम से इंकार कर रही है लेकिन उसके लिए भी इस कड़वी सच्चाई को छुपा पाना मुश्किल हो रहा है.
असल में, कामनवेल्थ खेलों के बहाने दिल्ली को जब से मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के शब्दों में कहें तो ‘शंघाई और पेरिस की तरह खूबसूरत और विश्वस्तरीय शहर’ बनाने की मुहिम शुरू हुई है, राजधानी से मजदूरों और गरीबों को खदेड़ने का अभियान जारी है.
पिछले दो-तीन वर्षों से दिल्ली में एक ओर कामनवेल्थ खेलों के नाम पर नए-नए स्टेडियम, खेल गांव, फ्लाईओवर, मेट्रो और अन्य शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर पर हजारों करोड़ रूपया झोंका जा रहा है, वहीँ दूसरी ओर, शहर के अधिकांश इलाकों से गरीबों की झुग्गी बस्तियों को जबरन खाली कराके उन्हें राजधानी से बाहर खदेड़ने का सिलसिला भी लगातार जारी रहा है.
एक मोटे अनुमान के मुताबिक पिछले तीन वर्षों में दिल्ली के विभिन्न इलाकों से ५० से ज्यादा छोटी-बड़ी झुग्गी बस्तियों को बड़ी बेदर्दी से उजाड़ा गया है जिनमें लगभग चार से पांच लाख छोटे-मोटे काम करके आजीविका चलानेवाले गरीब और मजदूर रहते थे. उनमें से काफी को शहर के बाहर बवाना में ले जाकर बसाया गया, जहां हालत झुग्गियों से भी बदतर है. शहर से बाहर खदेड़ दिए जाने के कारण उन्हें काम-धंधे से भी हाथ धोना पड़ा और आजीविका चलाना मुश्किल हो गया है.
इसके बावजूद जो झुग्गियां/मलिन और गरीबों की बस्तियां किसी भी कारण से बच गईं, उन्हें कामनवेल्थ खेलों के लिए आ रहे विदेशी मेहमानों की नजर से दूर रखने के लिए एक से एक नायब उपाय किए जा रहे हैं. इन बस्तियों को चारों ओर से टिन और बांस की दीवारों से घेर करके उनपर कामनवेल्थ की होर्डिंग लगाई जा रही हैं ताकि देश की गरीबी को छुपाया जा सके.
यही नहीं, दिल्ली में पिछले तीन महीने से शहर से भिखारियों और निराश्रितों को भी धरने-पकड़ने और शहर से बाहर भेजने का अभियान चल रहा है. ऐसा नहीं है कि राजधानी को भिखारियों और निराश्रितों से ‘मुक्त’ कराने का यह अभियान चोरी-छिपे या चुपचाप चल रहा हो बल्कि दिल्ली सरकार का समाज कल्याण विभाग बाकायदा अख़बारों में बयान और विज्ञापन देकर नागरिकों से भिखारियों को पकडवाने में सहयोग की अपील कर रहा है.
ऐसा नहीं है कि राजधानी को केवल गरीबों, मजदूरों, भिखारियों, निराश्रितों आदि से ही खाली और मुक्त कराया जा रहा है बल्कि शहर को खूबसूरत बनाने और उससे अधिक दिखाने की सनक का आलम यह है कि पिछले दो-तीन महीने से पूरे शहर में सडकों के किनारे ठेले लगानेवाले वेंडर, फल-सब्जी बेचनेवाले और दूसरे छोटे-मोटे काम करके अपना पेट पालनेवालों को भी हटाने की मुहिम चली हुई है. इसके कारण, शहर के अधिकांश इलाकों खासकर दक्षिण, मध्य, उत्तर और पश्चिम दिल्ली में लाखों रेहड़ी-पटरीवालों की आजीविका संकट में पड़ गई है.
जैसे इतना काफी नहीं हो, केन्द्र और दिल्ली सरकार ने घोषित-अघोषित तौर पर खेलों के दौरान शहर के अंदर चलनेवाली छोटी-मोटी औद्योगिक इकाइयों और प्रतिष्ठानों को बंद रखने का हुक्म जारी कर दिया है. जाहिर है कि उनमें काम करनेवाले लाखों श्रमिकों और कर्मचारियों की भी छुट्टी हो गई है, जिन्हें बंदी के दौरान का वेतन नहीं मिलेगा.
यही नहीं, दिल्ली सरकार ने दिल्ली के मुख्य क्षेत्रों में १६०० से ज्यादा ब्ल्यूलाइन बसों को बंद करके नई लो फ्लोर ए.सी और नान-ए.सी बसें शुरू की हैं लेकिन ए.सी बसों का किराया इतना अधिक है कि अधिकांश गरीब और निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों के लिए काम की जगह पहुँचना आफत हो गया है.
जाहिर है कि ये सभी साँस रोके कामनवेल्थ खेलों के खत्म होने का इंतज़ार कर रहे हैं. उनमें से बहुतों को उम्मीद है कि खेलों के समाप्त होने के बाद शायद उन्हें फिर रेहड़ी-पटरी लगाने का मौका मिलेगा या मजदूरी करने के लिए शहर में ही कहीं ठौर मिल पायेगा. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या कामनवेल्थ खेलों के बाद दिल्ली में गरीबों के लिए रहना मुमकिन हो पायेगा? दिल्ली से जिस तरह से गरीबों को उजाड़ा गया है, उसके बाद उन्हें शहर में शायद ही कहीं सिर छुपाने की जगह मिले?
खुद मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने स्वीकार किया है कि दिल्ली में खेलों के बाद ३० लाख से ज्यादा लोगों के लिए सिर छुपाने की जगह नहीं होगी जिनमें से आधे प्रवासी मजदूर होंगे. मान लीजिए कि इनमें से एक बड़ा हिस्सा अगर दिल्ली के बाहर के इलाकों में भी रहे तो उसे हर दिन आने-जाने में बसों-मेट्रो के किराये में अपनी दिहाड़ी का ५० प्रतिशत खर्च करना पड़ेगा. दूसरे, इन्फ्रास्ट्रक्चर पर भारी खर्च के बाद दिल्ली जिस तरह से महँगी हुई है, उसमें बहुत गरीबों, मजदूरों की तो छोडिये, निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए भी टिक पाना मुश्किल हो जायेगा.
साफ है कि शीला दीक्षित की दिल्ली उर्फ पेरिस से गरीबों की विदाई का ऐलान हो चुका है. यह और बात है कि इस दिल्ली को सजाने के लिए इन्हीं गरीबों और मजदूरों ने दिन-रात सर्दी-गर्मी-बरसात की परवाह किए बिना खून-पसीना बहाया है. खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कामनवेल्थ खेलों के लिए निर्माण स्थलों पर हुई दुर्घटनाओं में १०० से अधिक मजदूरों की जान चली गई और उससे कई गुना घायल हो गए. लेकिन शायद ही किसी को पूरा मुआवजा मिला हो. श्रम कानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई गईं और मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित मजदूरी भी नहीं दी गई.
लेकिन शीला दीक्षित के राज में वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने के लिए यह तो जरूरी नहीं है न कि मजदूरों को भी वर्ल्ड क्लास सुविधाएँ दी जाएं?!!
('समकालीन जनमत' के अक्तूबर अंक में प्रकाशित आलेख)
1 टिप्पणी:
Îð¹ ÌðÚÔU §´UâæÙ •¤è ãUæÜÌ vØæ ãUæ𠻧üU Ö»ßæ٠畤ÌÙæ ÕÎÜ »Øæ §´UâæÙ .....»æ´ß ×ð´ ÂñÎæ ãUæð•¤ÚU ÁÕ ÂɸU çܹ•¤ÚU •¤æð§üU §´UâæÙ àæãUÚU ×ð´ ¿Üæ ÁæÌæ ãñU Ìæð ©Uâð »æ´ß ß ©Uâ×ð´ ÚUãÙð ßæÜð Üæð» »´Îð ß ¥âzØ Ü»Ùð Ü» ÁæÌð ãñ´UÐ ãU×æÚÔU Îðàæ •¤æ Öè ãUæÜ çȤÜãUæÜ ØãUè ãUæÜ ãñUÐ çÁÙ ×ÁÎêÚUæð´ Ùð çÎ„è •¤æð ¿×•¤æØæ ©U‹ãð´U ãUè ç΄è âð ÎêÚU 畤Øæ Áæ ÚUãUæ ãñUÐ •¤æò×Ù ßðËÍ •ð¤ Ùæ× ÂÚU ¥æ× ¥æÎ×è •¤æð ÂÚÔUàææ٠畤Øæ Áæ ÚUãUæ ãñUÐ ÂãUÜð ãUÁæÚUæð´ •¤ÚUæðǸ M¤Â° ÜêÅUæ° ¥Õ çÁÙ•¤è ÁðÕ âð ©Uâ Âñâ𠕤æð çÙ•¤æÜæ »Øæ ãñU ©Uâð ãUè ÕæãUÚU 畤Øæ Áæ ÚUãUæ ãñU Ìæ畤 ç΄è çßÎðàæè Üæð»æð´ •¤æð »´Îè Ù Ü»èÐ Ìæ畤 çÎ„è ¥´ÌÚUæCýUèØ àæãUÚU Ü»ð, §UâçÜ° Ûæé‚»è ÛææðÂçǸØæð´ ß ©UÙ×ð ÚUãUÙð ßæÜð Üæð»æð´ •¤æð Öè ãUÅUæØæÐ
एक टिप्पणी भेजें