कौन चाहता है भ्रष्टाचार से लड़ना?
पिछले सप्ताह वाशिंगटन से यह खबर आई कि इस दशक की शुरुआत से लेकर 2008 के बीच भ्रष्टाचार और अवैध तरीकों से कमाई गई कोई 125 अरब डालर (5875 अरब रूपये) की रकम गैरकानूनी तरीके से देश से बाहर चली गई. ग्लोबल फिनांशियल इंटीग्रिटी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में जी.डी.पी की तेज वृद्धि दर के साथ भ्रष्टाचार में भी उसी गति से वृद्धि हुई है. हैरानी की बात यह है कि इस चौंकानेवाली रिपोर्ट के बावजूद कहीं कोई खास हलचल नहीं हुई. जैसे खबर आई और वैसे ही चली गई.
हालांकि ईमानदार माने-जानेवाले प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करने (जीरो टोलरेंस पालिसी) की घोषणा कर रखी है लेकिन इस खबर के प्रति ठंडी प्रतिक्रिया से स्पष्ट है कि इससे किसी को कोई खास हैरानी नहीं हुई. यह स्वाभाविक भी है. जिस देश में भ्रष्टाचार सत्ता तंत्र के रंध्र-रंध्र में इस कदर घुस चुका हो कि कहने को ईमानदार प्रधानमंत्री भी दिल्ली में एक स्टेडियम तक बिना भ्रष्टाचार के नहीं बनवा सकते हों, वहां भ्रष्टाचार से कमाए गए 125 अरब डालर अवैध तरीके से विदेशों में ले जाने की खबर पर हलचल कैसे होगी?
सच तो यह है कि अब यह मान लिया गया है कि भ्रष्टाचार न सिर्फ इस पूरी व्यवस्था का एक अपरिहार्य हिस्सा है बल्कि इस व्यवस्था की गतिशीलता के लिए भ्रष्टाचार जरूरी है. इस मुद्दे पर सत्ता तंत्र में एक आम सहमति बन चुकी है कि भले भ्रष्टाचार और अनियमितताएं हों लेकिन विकास के काम चलते रहने चाहिए. आश्चर्य नहीं कि इस सहमति के इर्द-गिर्द ही एक मध्यवर्गीय सोच बनाई जा रही है कि अगर विकास परियोजनाओं में थोड़ा-बहुत भ्रष्टाचार भी हो रहा हो तो चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि काम तो हो रहा है.
यही कारण है कि केन्द्र और कई राज्यों में कई अफसरों, मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के बारे में भ्रष्टाचार और अनियमितताओं की गंभीर शिकायतों के बावजूद उन्हें इस आधार पर समर्थन मिलता रहा है कि कम से कम वे काम तो कर रहे हैं. इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि “काम होगा तो भ्रष्टाचार होगा” के तर्क के आधार पर पिछले दिनों राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में भ्रष्टाचार और अनियमितता की शिकायतों को ख़ारिज करने की कोशिश की गई.
तर्क दिया गया कि इसके आलोचक राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में हो रहे काम को नहीं देख रहे हैं. वे यह नहीं देख रहे हैं कि किस तरह से दिल्ली को सजाया-संवारा जा रहा है और लोगों की सुविधा के लिए विशाल इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया जा रहा है.
तात्पर्य यह कि विकास चाहिए तो भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करने के लिए तैयार रहना चाहिए. यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि जब देश में 1991 में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू की गई तो यह दावा किया गया था कि लाइसेंस-परमिट-इन्स्पेक्टर राज खत्म करने से अर्थव्यवस्था में खुलापन आएगा और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा.
लेकिन पिछले दो दशकों के भारतीय अनुभव और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल से लेकर ग्लोबल फिनांशियल इंटीग्रिटी की ताजा रिपोर्ट से यह साफ है कि उदारीकरण के बाद देश में भ्रष्टाचार घटा नहीं बल्कि बढ़ा है. यही नहीं, जैसाकि ताजा जी.एफ.आई रिपोर्ट कहती है, तेज रफ़्तार से बढ़ती अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार का आकार भी कई गुना बढ़ गया है.
आश्चर्य नहीं कि आज एक-एक सौदे में हजारों करोड़ के वारे-न्यारे हो रहे हैं. जब झारखंड जैसे अत्यंत गरीब राज्य का एक निर्दलीय मुख्यमंत्री कुछ ही महीनों में पांच हजार करोड़ रूपये से अधिक कमा लेता है तो बाकी महानुभावों के बारे में अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. सबसे ताजा उदाहरण २ जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में हुई अनियमितता है जिसमें माना जा रहा है कि सरकारी खजाने को लगभग 70 हजार करोड़ रूपये का चूना लगा है लेकिन भ्रष्टाचार के प्रति ‘शून्य सहनशीलता’ का ऐलान करनेवाले प्रधानमंत्री की इस मामले में सहनशीलता गौर करनेवाली है.
भ्रष्टाचार के प्रति यू.पी.ए सरकार की सहनशीलता का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि पिछले आठ महीनों में देश भर में सूचना के अधिकार के जरिये भ्रष्टाचार और अनियमितताओं की पोल खोलने वाले आठ कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है लेकिन असली हत्यारे खुलेआम घूम रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि ये सामान्य हत्याएं नहीं हैं.
इनके जरिये न सिर्फ सच को दबाने और भ्रष्टाचारियों को बचाने की कोशिश की जा रही है बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठानेवाले सभी लोगों को चेतावनी दी जा रही है कि अगर वे चुप नहीं रहे तो उनका भी हश्र अमित जेठवा जैसा ही होगा.
यही नहीं, भ्रष्टाचार के प्रति यू.पी.ए सरकार के रवैये का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि काफी टालमटोल करने के बाद उसने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठानेवालों (व्हिसलब्लोवर) को कानूनी संरक्षण देने के लिए जो विधेयक संसद में पेश किया है, वह न सिर्फ आधा-अधूरा और सीमित है बल्कि उससे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठानेवालों पर खतरा और बढ़ जायेगा.
दरअसल, एक ऐसे कानून की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी जिसके जरिये उन सरकारी और निजी संस्थानों के अंदर और उससे बाहर भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायत करनेवाले व्यक्ति को बदले की कार्रवाई और किसी भी तरह के उत्पीडन, परेशानी और नुकसान से बचाने की पक्की व्यवस्था की जा सके.
उल्लेखनीय है कि विधि आयोग ने 2001 में ही इस कानून का एक मसौदा सरकार को सौंप दिया था. लेकिन भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने का दावा करनेवाली सरकारें चुप्पी मारे बैठी रहीं. इस बीच, सार्वजनिक क्षेत्र की दो बड़ी कंपनियों- राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण और इंडियन आयल में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठानेवाले सत्येन्द्र दुबे की 2003 और मंजुनाथ षणमुगम की 2005 में निर्मम हत्या कर दी गई. इन हत्याओं ने एक बार फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ संस्थानों के अंदर सिटी बजानेवालों की सुरक्षा के सवाल को शिद्दत से उठा दिया लेकिन सरकार वायदे के बावजूद ऐसा कानून लाने से कतराती रही.
लेकिन हाल के वर्षों में इस तरह के कानून की जरूरत इसलिए और भी बढ़ गई क्योंकि सूचना के अधिकार का कानून बनने के बाद संस्थानों के अंदर और बाहर काफी लोग इस कानून का इस्तेमाल करने लगे. लेकिन उन्हें इसका खामियाजा भी उठाना पड़ा है. उनमें से कई लोगों को ताकतवर मंत्रियों-नेताओं, अफसरों, ठेकेदारों और अपराधियों के चौगुटे की नाराजगी और हमलों का भी सामना करना पड़ रहा है.
खासकर पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करके भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करनेवाले कई लोगों की हत्यायें हुई हैं, उसके बाद तो यह अनिवार्य हो गया है कि ऐसा कानून जल्दी से जल्दी लाया जाए.
लेकिन संसद में पेश इस विधेयक का मसौदा निराश करता है. पहली बात तो यह है कि इस विधेयक के दायरे से निजी क्षेत्र को बाहर रखा गया है. यह हैरान करनेवाला है. क्या लगातार फैलते और बढ़ते निजी क्षेत्र में भ्रष्टाचार नहीं है? क्या निजी क्षेत्र की हजारों कंपनियों में आम निवेशकों के अलावा सरकारी बैंकों-वित्तीय संस्थाओं का पैसा नहीं लगा हुआ है? क्या सत्यम जैसे घोटालों के सामने आने के बाद यह जरूरी नहीं हो जाता है कि निजी क्षेत्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठानेवालों को पूरा संरक्षण दिया जाए?
यह इसलिए भी जरूरी है कि बहुतेरे मामलों में सरकारी अफसरों और नेताओं को रिश्वत खिलाने में निजी कंपनियां ही पहल करती हैं. अगर उनके कर्मचारियों और अफसरों को भी इस कानून के तहत संरक्षण मिले तो शायद निजी क्षेत्र की भ्रष्ट बनाने की कोशिशों पर कुछ लगाम लग सके.
दूसरे, इस विधेयक में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठानेवालों की सुरक्षा और इस कानून को लागू कराने का जिम्मा बतौर नोडल एजेंसी केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सी.वी.सी) को दिया गया है. लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के मामले में सी.वी.सी के अब तक के रिकार्ड को देखते हुए कोई खास उम्मीद नहीं बनती है. सी.वी.सी की संरचना, संसाधनों और चरित्र के मद्देनजर यह कहना गलत नहीं होगा कि यह उसके बस की बात नहीं है.
कौन नहीं जानता कि सी.वी.सी एक सरकारी शोपीस है और हाल में, उसके मुखिया की नियुक्ति को लेकर जिस तरह का विवाद हुआ, उससे भी जाहिर है कि वह आगे भी क्या करेगी. सवाल यह भी है कि अगर भ्रष्टाचार की शिकायत सी.वी.सी के ही किसी अधिकारी के खिलाफ हो तो उसकी जांच कौन करेगा?
तीसरे, इस विधेयक में परोक्ष रूप से उन लोगों की पहचान उजागर करने का भी चोर दरवाजा खोल दिया गया है जबकि ऐसे किसी कानून में सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान भ्रष्टाचार के खिलाफ सूचना देनेवालों की पहचान को किसी भी कीमत पर गोपनीय रखना होना चाहिए. दुनिया भर में जहां भी ऐसा कानून बना है, उसमें सबसे ज्यादा ध्यान इसी बात का रखा गया है. लेकिन इसमें यह प्रावधान किया गया है कि किसी सरकारी या सार्वजनिक संस्थान में भ्रष्टाचार की शिकायत मिलने पर सी.वी.सी उस शिकायत को जांच के लिए संबंधित संस्थान के प्रमुख के पास भेजेगी.
लेकिन अगर उस संस्थान का प्रमुख ही उस मामले में सीधे या परोक्ष रूप से शामिल हो, जैसाकि अधिकांश मामलों में होता है, तो फिर जांच और शिकायतकर्ता का क्या होगा? यह तो चोर को ही जांच और शोर मचानेवाले की हिफाजत का जिम्मा सौंपने जैसा है. साफ है कि इससे इस कानून का उद्देश्य पूरी तरह से पराजित हो जाता है.
यही नहीं, विधेयक में भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायत करनेवालों को किसी भी तरह के उत्पीडन से बचाने और उत्पीड़कों के खिलाफ कार्रवाई के मामले में भी सख्त प्रावधान नहीं किए गए हैं. विधेयक की धारा 10 में सिर्फ इतना कहा गया है कि सक्षम प्राधिकारी उत्पीड़कों के खिलाफ ‘उचित कार्रवाई’ करेंगे. लेकिन स्पष्ट प्रावधान न होने के कारण यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि प्रभावशाली अपराधी कितनी आसानी से बच निकलेंगे.
चौथे, इस विधेयक में कहा गया है कि भ्रष्टाचार की गुमनाम शिकायतें नहीं स्वीकार की जाएंगी. लेकिन क्यों? सच पूछिए तो सरकार को सूचनाओं की विश्वसनीयता की चिंता करनी चाहिए न कि वह सूचना किसने दी है. मौजूदा माहौल में जब भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठानेवाले मारे जा रहे हों और जोखिम इतना अधिक हो, ऐसे कितने लोग होंगे जो अपने नाम के साथ शिकायत करेंगे. कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार को गुमनाम शिकायतों की प्राथमिक जांच करनी चाहिए और अगर लगता है कि शिकायत में दम है तो उसकी पूरी जांच करनी चाहिए.
पांचवें, इस विधेयक में एक बिल्कुल अटपटा प्रावधान यह भी किया गया है कि अगर भ्रष्टाचार होने के पांच साल बाद कोई शिकायत की जाती है तो उसकी कोई जांच नहीं कराई जायेगी. इसका मतलब यह हुआ कि यू.पी.ए सरकार के प्रथम कार्यकाल के पहले दो वर्षों में हुए भ्रष्टाचार की अब जांच नहीं कराई जा सकती है. इस तरह, यह प्रावधान एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में हुए सभी घोटालों को इस कानून के दायरे और जांच से मुक्त कर देता है. यू.पी.ए की ओर से एन.डी.ए को इससे अच्छा उपहार और क्या हो सकता है?
कुल-मिलाकर, ऐसा लगता है कि यह विधेयक भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने और अपनी जान जोखिम में डालनेवालों के लिए नहीं बल्कि भ्रष्ट लोगों को संरक्षण देने के मकसद से लाया जा रहा है. इससे सरकार की असली मंशा का पता चलता है. क्या अब भी यह दोहराना होगा कि प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के खिलाफ चाहे जितनी ‘शून्य सहनशीलता’ की बातें करें लेकिन सच्चाई यह है कि भ्रष्टाचार के प्रति सत्ता तंत्र की सहनशीलता लगातार बढ़ती और संस्थाबद्ध होती जा रही है.
दूसरी ओर, भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठानेवालों के प्रति सत्ता और प्रशासन तंत्र की असहनशीलता किस हद तक बढ़ती जा रही है, इसका अंदाज़ा अमित जेठ्वाओं की हत्याओं से लगाया जा सकता है.
(जनसत्ता में २८ सितम्बर को प्रकाशित लेख)
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