देश सांस्थानिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई हार चुका है
इस खबर से शायद ही किसी को हैरानी हुई होगी कि दुनिया के भ्रष्टतम देशों की काली सूची में भारत तीन पायदान और खिसककर ८७वें स्थान पर पहुंच गया है. इस सूची में भारत के और नीचे गिरने की वजह कामनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार की खबरों को माना जा रहा है जिसके कारण दुनिया भर में उसकी खासी किरकिरी हुई है. यह जानकर भी शायद ही किसी को हैरानी होगी कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा इस सप्ताह जारी भ्रष्ट देशों सूची में भारत का स्थान चीन, ब्राजील, भूटान, दक्षिण अफ्रीका, बोत्सवाना जैसे दर्जनों देशों से भी नीचे है.
इससे कुछ ही दिनों पहले ही ग्लोबल फिनांशियल इंटीग्रिटी रिपोर्ट आई थी जिसके मुताबिक इस दशक की शुरुआत से लेकर वर्ष २००८ के बीच देश से भ्रष्ट तरीकों से कमाए गए लगभग १२५ अरब डालर (५८७५ अरब रूपये) देश से बाहर चले गए. इस जानकारी ने भी शायद ही किसी को चौंकाया हो. कारण, यह चर्चा आम जनमानस में बहुत पहले से है कि देश में सार्वजनिक सम्पदा और संसाधनों की लूट और भ्रष्ट तरीकों से कमाए गए पैसे का एक बड़ा हिस्सा विदेशी बैंकों खासकर स्विस बैंक में चला जाता है. कुछ रिपोर्टों के मुताबिक स्विस बैंकों में सबसे अधिक पैसा भारतीयों का लगभग १.४ खरब डालर जमा है. पिछले चुनावों के दौरान यह मुद्दा विपक्ष ने उछाला भी था. लेकिन ‘रात गई, बात गई’ की तर्ज पर चुनाव बीत जाने के साथ यह मुद्दा भी नेपथ्य में चला गया.
असल में, यह भ्रष्टाचार के प्रति सार्वजनिक जीवन में बढ़ती स्वीकार्यता और सहनशीलता का सबूत है. आश्चर्य नहीं कि सुप्रीम कोर्ट को भी हाल में आजिज आकार तंज करना पड़ा कि क्यों न भ्रष्टाचार को कानूनी मान्यता दे दी जाए? लेकिन भ्रष्टाचार को आधिकारिक तौर पर कानूनी मान्यता भले हासिल नहीं हो पर सभी व्यावहारिक अर्थों में भ्रष्टाचार को सांस्थानिक और अलिखित कानूनी मान्यता मिल चुकी है. आज भ्रष्टाचार सार्वजनिक जीवन के रंध्र-रंध्र में इस कदर समा गया है कि वह उसकी सबसे बड़ी पहचान बन गया है. यह एक आम धारणा बन चुकी है कि सत्ता के शीर्ष से लेकर उसके सबसे निचले पायदान तक बिना हथेली गर्म किए या ‘कट’ दिए या ‘सुविधा शुल्क’ चुकाए कोई काम या फ़ाइल आगे नहीं बढ़ सकती है.
अब तो हालत यह हो गई है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार को लेकर कोई शिकायत करने पर राजनेता और पार्टियां, दूसरी पार्टियों के भ्रष्टाचार के उदाहरण गिनाने लगती हैं. इस आरोप-प्रत्यारोप में मूल मुद्दा अक्सर पीछे छूट जाता है. भ्रष्टाचार के आरोपों में अब शायद ही कोई मंत्री या मुख्यमंत्री या केन्द्रीय मंत्री इस्तीफा देता है. यह भ्रष्टाचार के प्रति बढ़ती सहनशीलता का ही एक और प्रमाण यह है कि पिछले कुछ महीनों में सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करके सरकारी संस्थानों में भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का पर्दाफाश करने वाले आठ कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई लेकिन किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी.
हद तो यह कि सार्वजनिक तौर पर इस धारणा को धीरे-धीरे मान्यता मिलती जा रही है कि सार्वजनिक-सांस्थानिक व्यवस्था की गतिशीलता और बेहतर कार्यक्षमता के लिए भ्रष्टाचार की ‘चिकनाई’ (ग्रीज) जरूरी हो गई है. इसे एक तरह का अनिवार्य ‘प्रोत्साहन’ मान लिया गया है जो नौकरशाही और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं को सक्रियता की शर्त बन गया है. आश्चर्य नहीं कि अगर किसी के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत करने पर आपको यह तर्क सुनने को मिले कि कोई बात नहीं, काम तो हो रहा है. कई भ्रष्ट मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की इस बात के लिए खुलकर प्रशंसा सुनने को मिल जाती है कि वे काम तो कर रहे हैं. यानी भ्रष्टाचार नहीं, काम देखिये.
गरज यह कि विकास चाहिए तो भ्रष्टाचार सहने के लिए तैयार रहिये क्योंकि उसके बिना व्यवस्था काम ही नहीं करती है. इस तरह, भ्रष्टाचार अब सार्वजनिक जीवन का ऐसा सत्य है जिसके अलावा बाकी सभी बातें मिथ्या लगती हैं. जब प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहनशीलता (जीरो टालरेंस) की बातें करते हैं, सुप्रीम कोर्ट के जज भ्रष्टाचार पर तंज करते हैं, विपक्षी दल के नेता स्विस बैंकों से कालाधन वापस लाने की मुहिम चलाने का ऐलान करते हैं और मीडिया में भ्रष्टाचार के किस्से छपते हैं तो यह सभी बातें भ्रष्टाचार के अमर सत्य के आगे ‘मिथ्या’ लगती हैं.
यह इतना बड़ा ‘सच’ है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जितने अभियान चलते हैं, जितने कानून बनते हैं, जितने छापे पड़ते हैं, भ्रष्टाचार के तहत मांगी जानेवाली घूस, सुविधा शुल्क या किकबैक की रकम उसी अनुपात में और बढ़ जाती है. सिद्धांत बिल्कुल स्पष्ट है: “जितना अधिक जोखिम, उतनी बड़ी घूस की रकम.” यही कारण है कि कई विश्लेषक भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाये जाने या इसे रोके जाने के उपाय करने को गैरजरूरी मानने लगे हैं. उनके मुताबिक इससे कोई फायदा तो नहीं होता उल्टे बेवजह भ्रष्टाचार की लागत बढ़ जाती है.
इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सार्वजनिक जीवन और संस्थाओं से भ्रष्टाचार के निर्मूलन को लेकर कैसी निराशा और हताशा का माहौल है. सवाल है कि क्या भ्रष्टाचार को और बढ़ने से रोका या उसपर अंकुश लगाया जा सकता है? इसका उदास करनेवाला उत्तर है कि नहीं. असल में, मौजूदा व्यवस्था में भ्रष्टाचार को काबू में करना लगभग नामुमकिन हो चुका है. इसकी दो वजहें हैं. पहली यह कि भ्रष्टाचार इस व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है. उसने सांस्थानिक भ्रष्टाचार का रूप ले लिया है. दूसरे कि व्यवस्था के अंदर वास्तव में, भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई लड़ना नहीं चाहता है.
इसलिए देश में, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई एक डान क्विक्जोटी लड़ाई बन चुकी है जो घाव पहुंचने से अधिक हवा में तलवार भांजने की लड़ाई है. इसलिए आश्चर्य नहीं होगा अगर अगले कुछ वर्षों में भ्रष्ट देशों की काली सूची में भारत और नीचे लुढक जाए. लेकिन वास्तव में, इसकी चिंता किसे है जब देश वित्त मंत्री के शब्दों में, नौ प्रतिशत की जादुई वृद्धि दर छूने के करीब है, हर ओर विकास का फील गुड है और बाजारों में गुलाबी माहौल है? आखिर भ्रष्टाचार और 'कार्पोरेट विकास' के बीच चोली-दामन का साथ है. पी. साईंनाथ के शब्दों को कुछ तोड़-मरोडकर कहूं तो ‘भ्रष्टाचार सभी को लुभाता है.’
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में ३० अक्तूबर'१० को प्रकाशित)
2 टिप्पणियां:
bahoot sahi aap ka lekh www.tarangbharat.com per bhi lag gaya hai
एक धारणा यह भी बन रही है कि आज इमानदार सिर्फ वही है जिसे भष्टाचार करने का मौका नहीं मिल पाया है या फिर जो किसी डर के मारे अपना हाथ साफ नहीं कर सका है। बेइमानी तो हमारे खून में समाहित हो चुकी है। चपरासी से लेकर जज ,गुरू से चेला और पंडित से जजमान तक सब भ्रष्टाचार रूपी मल में आकंठ डूबे हुए हैं। बेइमानी और इमानदारी की रेखा लगातार पतली होती जा रही है । शायद एक समय ऐसा भी आए जब इनमें अंतर कर पाना असंभव हो जाए। भ्रष्टाचार शिष्टाचार में बदल रहा है।
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