बुधवार, अक्टूबर 06, 2010

अमीर होता मीडिया, गरीब होता मीडिया

पार्ट:तीन

राजनीतिक रिपोर्टिंग का मतलब 'बाईट जर्नलिज्म' या लाबीईंग नहीं है  

अफसोस की बात यह है कि चैनलों की राजनीतिक रिपोर्टिंग इसके उलट बयानबाजियों, आरोप-प्रत्यारोपों और मिलने-टूटने से आगे नहीं बढ़ पाती है. उससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि ज्यादातर राजनीतिक रिपोर्टर विभिन्न राजनीतिक बीट कवर करते हुए इस कदर ‘स्टाकहोम सिंड्रोम’ के शिकार हो गए हैं कि वे उन पार्टियों और उनके बड़े नेताओं के माउथपीस से बन गए हैं.

उनमें से कई अपनी खबरों के राजनीतिक स्रोतों (बड़े नेताओं) को खुश और संतुष्ट करने के चक्कर में अपनी स्वतंत्रता भी गिरवी रखने में संकोच नहीं करते हैं. कई जानेमाने राजनीतिक रिपोर्टर और संपादक पार्टियों और नेताओं से सीधे-सीधे इस कदर जुड चुके हैं कि उनसे तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और संतुलित रिपोर्ट की अपेक्षा करना बेकार है.


अक्सर उनकी राजनीतिक रिपोर्टिंग एक नेता या राजनीतिक धड़े का मीडिया के जरिये दूसरे नेता या राजनीतिक धड़े को संबोधन प्रतीत होती है. सबसे खतरनाक बात तो यह हुई है कि कई बड़े राजनीतिक संपादक और टी.वी पत्रकार नेताओं की किचेन कैबिनेट के हिस्सा बन गए हैं. वे नेताओं, उनके गुटों/धडों और दूसरे नेताओं और उनके गुटों/धडों के बीच, पार्टियों और पार्टियों के बीच और मंत्रियों-नेताओं और कारपोरेट समूहों के बीच लाबीइंग भी करने लगे हैं. मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, अफसरों की नियुक्ति में भूमिका निभाने लगे हैं. जाहिर है कि ऐसे राजनीतिक रिपोर्टर और संपादक स्वतंत्र और तथ्यपूर्ण राजनीतिक रिपोर्टिंग करने में सक्षम नहीं रह गए हैं. उनसे आप पूर्वाग्रहयुक्त, पक्षपातपूर्ण और आधी-अधूरी रिपोर्टों के अलावा और कोई उम्मीद नहीं कर सकते हैं.

दूसरी ओर, चैनलों में ऐसे राजनीतिक रिपोर्टर हैं जो भारतीय राजनीति के बारे में अपनी अज्ञानता, नासमझी और आधे-अधूरे ज्ञान के कारण बाईट पत्रकारिता पर निर्भर हैं. उनसे आप इससे अधिक की अपेक्षा नहीं कर सकते हैं. चूँकि उन्हें भारत के राजनीतिक इतिहास, प्रक्रियाओं और संरचना या उसमें कांग्रेस या भाजपा या वामपंथी पार्टियों के इतिहास, उनके विकास और राजनीतिक स्थिति या राजनीतिक मुद्दों का ज्ञान नहीं है, इसलिए वे राजनीतिक रिपोर्टिंग करने में मानसिक तौर पर अक्षम हैं.

यह सिर्फ संयोग है कि चैनल ने उन्हें राजनीतिक रिपोर्टिंग में लगा दिया है. चैनल की उनसे सिर्फ यह अपेक्षा होती है कि वे नेताओं की बाईट इकठ्ठा करके ले आयें और कभी-कभार जरूरत पड़ने पर लाइव ओ.बी में पार्टियों और नेताओं के दफ्तरों में सुनी अफवाहों, कानाफूसी और गप्पों को दोहरा दें.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि इन दो तरह के राजनीतिक रिपोर्टरों और संपादकों के बीच राजनीतिक रिपोर्टिंग लगातार खुद ही कमजोर और अप्रासंगिक होती जा रही है. सत्ता शीर्ष की राजनीति की गणेश परिक्रमा के कारण उसका जमीन और लोगों से सम्बन्ध काफी हद तक कट गया है.

कहना गलत नहीं होगा कि सतह की राजनीतिक हलचलों, सरगर्मियों और परिवर्तनों के बारे में चैनलों के अधिकांश स्टार राजनीतिक रिपोर्टरों की कोई पकड़ नहीं रह गयी है. आश्चर्य नहीं कि २००४ के आम चुनावों में अख़बारों के साथ चैनल भी वोटरों के रुझान का अंदाज़ा लगाने में मत खा गए. इसके बाद कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश विधानसभा चुनावों और पिछले आम चुनाव के बारे में भी चैनल लोगों का मूड भांपने में नाकाम रहे.

यह इसलिए भी आश्चर्य की बात है क्योंकि चैनल खुद को चुनावों का विशेषज्ञ समझते हैं और वे आमतौर पर चुनावों की कवरेज के लिए काफी तैयारी भी करते हैं. लेकिन सभी तैयारियों के बावजूद वे अक्सर चुनावों की राजनीतिक कवरेज को नेताओं की साउंड बाईट, आरोप-प्रत्यारोप और शोर-शराबे से आगे नहीं ले जा पाते हैं. इसमें मुद्दों के बजाय ज्यादा जोर व्यक्तित्वों पर होता है. इस रिपोर्टिंग की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह लोगों को राजनीतिक रूप से जागरूक और शिक्षित करने के बजाय उन्हें कुछ नेताओं और उनके सतही और ओछे मुद्दों तक सीमित करते देते हैं.

लेकिन इसके लिए अकेले राजनीतिक रिपोर्टर ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि चैनलों के संपादक भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने चैनलों में राजनीति को काफी हद तक अछूत सा बना दिया है. लेकिन इन दोनो से अधिक वे राजनीतिक और आर्थिक प्रक्रियाएं जिम्मेदार हैं जिसमें अराजनीतिकरण की राजनीति को बहुत सोच-समझकर आगे बढ़ाया गया है. समाचार चैनल उस विशाल-सर्वव्यापी नव उदारवादी प्रोजेक्ट के महत्वपूर्ण हिस्से भर है जो अर्थनीति को राजनीति के नियंत्रण से अलग करने की राजनीति की वकालत करता रहा है.

सच्चाई यह है कि यह एक ऐसी राजनीति है जिसका इरादा अधिकांश लोगों को राजनीति से दूर रखने का है. यह राजनीति को सिर्फ वोटिंग तक सीमित रखने चाहती है. इसके लिए वह ऐसी राजनीतिक रिपोर्टिंग को बढ़ावा देती है जो राजनीति को कुछ पार्टियों और उनके नेताओं के अत्यंत संकीर्ण दायरे में सीमित रखे. जाहिर है कि ऐसी राजनीतिक रिपोर्टिंग को आगे बढ़ाने का फायदा यह है कि उसमें वे जरूरी सवाल और मुद्दे सिरे से गायब रहते हैं जो मौजूदा राजनीति को लोगों के प्रति जवाबदेह और उत्तरदायी बनाने के लिए जरूरी हैं.

साथ ही, राजनीतिक रिपोर्टिंग को हाशिए पर डालने का सबसे बड़ा फायदा यह भी है कि सत्ता या विपक्ष में बैठे राजनेताओं और पार्टियों से कोई असुविधाजनक सवाल नहीं पूछेगा. दोहराने की जरूरत नहीं है कि जब समाचार चैनलों के प्राइम टाइम पर राजनीतिक संपादक राखी सावंत से ‘देश को बिगाड़ने’ के बारे में सवाल पूछ रहा होता है या दूसरा राजनीतिक संपादक डिम्पी महाजन से राहुल महाजन से उसके बिगड़ते रिश्तों पर इंटरव्यू कर रहा होता है या चैनलों पर राजनीतिक खबरों के बजाय मनोरंजन का डंका बज रहा होता है तो सबसे अधिक खुश सत्ता और विपक्ष में बैठे राजनेता ही होते हैं क्योंकि वे न सिर्फ असुविधाजनक सवालों के जवाब देने से बच गए बल्कि आराम से सो सकते हैं.

इसलिए यह मुद्दा सिर्फ राजनीतिक रिपोर्टिंग और पत्रकारिता के क्षय और राजनीतिक रिपोर्टरों के हाशियाकरण भर का नहीं है बल्कि इससे राजनीति और सत्ता तंत्र को जिम्मेदार और जवाबदेह बनाने का बड़ा सवाल भी जुड़ा हुआ है. राजनीतिक रिपोर्टिंग के कमजोर और क्षरित होने का अर्थ है कि हमारी राजनीति और लोकतंत्र भी कमजोर और छीज रहे हैं.

अब इसमें कोढ़ में खाज जैसी एक और खतरनाक प्रवृत्ति पेड न्यूज की जुड़ गई है जो चैनलों की रही-सही विश्वसनीयता को भी खत्म कर रही है. राजनीति से पैसा बनाने के इस सांस्थानिक उपक्रम से चैनल मुनाफा चाहे जितना बना लें लेकिन यह उनकी राजनीतिक रिपोर्टिंग और उससे बढ़कर संपादकीय स्वतंत्रता की ताबूत में आखिरी कील की तरह होगी.

दरअसल, विचार करने की बात यह है कि उत्तर उदारीकरण दौर में जब मीडिया कंपनियों का मुनाफा लगातार बढ़ रहा है और वे आर्थिक रूप से समृद्ध और सुदृढ़ हो रही हैं, उस समय भारतीय लोकतंत्र और राजनीति वैचारिक रूप से दरिद्र और कमजोर हो रही है.

समाचार मीडिया को भी इसकी कुछ जिम्मेदारी लेनी ही होगी. उसे अपने अंदर झांकना चाहिए और यह देखना चाहिए कि राजनीतिक पत्रकारिता और रिपोर्टिंग की उपेक्षा करके वह किन शक्तियों को मजबूत और किन्हें कमजोर कर रही है?

निश्चय ही, चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टिंग की यह दुर्दशा सभी के लिए चिंता और शोक का विषय होना चाहिए न कि ‘मुझे क्या फर्क पड़ता है’ वाली निरपेक्षता और उदासी का.

पुनश्च : ऐसा नहीं है कि कोई उम्मीद नहीं बची है. इस टिप्पणी के लिखे जाने के दौरान ही एन.डी.टी.वी इंडिया पर अखिलेश शर्मा और मनीष कुमार की झारखंड में बी.जे.पी की सरकार बनाने के पीछे की पूरी कहानी दिखाई गई. निश्चय ही, यह एक अच्छी और प्रभावी राजनीतिक रिपोर्टिंग का उल्लेखनीय उदाहरण है. लेकिन सवाल है कि चैनलों में ऐसी स्टोरीज आकाश कुसुम क्यों हो गई हैं?

समाप्त

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