पार्ट:दो
आइये राजनीतिक रिपोर्टिंग का मर्सिया पढ़ें
अगर आपने पिछले महीने राजनीतिक गहमा-गहमियों के बीच ‘स्टार न्यूज’ पर उसके राजनीतिक संपादक को राखी सावंत से इंटरव्यू करते देखा हो तो आप चैनलों राजनीतिक रिपोर्टिंग के अप्रासंगिक होने का सहज ही अंदाज़ा लगा सकते हैं.
जाहिर है कि यह परिघटना सिर्फ कुछ चैनलों तक सीमित नहीं है और अधिकांश हिंदी चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टिंग इसी तरह हाशिए पर चली गई है. स्वतंत्र मीडिया शोध संस्था- सेंटर फार मिडिया स्टडीज के एक सर्वेक्षण के मुताबिक २००५ से २००७ के बीच हिंदी और अंग्रेजी के छह समाचार चैनलों के प्राइम टाइम (रात ८ बजे से १० बजे) पर राजनीतिक कवरेज में ५० प्रतिशत से अधिक की गिरावट दर्ज की गई.
इस सर्वेक्षण के अनुसार इन चैनलों पर २००५ में प्राइम टाइम पर राजनीतिक रिपोर्टिंग को कुल २३.१ प्रतिशत की जगह मिली जो २००७ में घटकर मात्र १०.०९ प्रतिशत रह गई. हालांकि सी.एम.एस की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक २००९ में आम चुनावों और कई विधानसभा चुनावों के कारण राजनीतिक रिपोर्टिंग में वृद्धि दर्ज की गई और वह बढ़कर २०.३६ प्रतिशत हो गई. लेकिन यहां गौर करनेवाली बात यह है कि २००९ में आम चुनावों के बावजूद राजनीतिक कवरेज २००५ की तुलना में कम ही है.
दूसरी बात यह है कि जिन छह समाचार चैनलों - डी.डी. न्यूज, आज तक, एन.डी.टी.वी २४x7, सी.एन.एन-आई.बी.एन, स्टार न्यूज और जी न्यूज का सर्वेक्षण किया गया, उनमें एक सरकारी और दो अंग्रेजी के चैनल शामिल थे. इन तीनों चैनलों के कारण नतीजे फिर भी उतने निराशाजनक नहीं दिखाई पड़ते हैं, जितनी की स्थिति वास्तव में खराब है.
सच पूछिए तो अगर केवल हिंदी के प्रमुख प्राइवेट समाचार चैनलों के प्राइम टाइम का अध्ययन किया जाए तो उससे राजनीतिक रिपोर्टिंग की वास्तविक दुर्दशा का अंदाज़ा चल सकता है. तथ्य यह है कि हिंदी के अधिकांश निजी समाचार चैनलों के प्राइम टाइम पर हर किस्म का मनोरंजन- कामेडी, रियलिटी शो, सिनेमा, स्पोर्ट्स, अजीबोगरीब खबरें और सेलेब्रिटीज गासिप छा गया है.
सी.एम.एस के सर्वेक्षण के मुताबिक २००५ में मनोरंजन की खबरों को सिर्फ ६.१ प्रतिशत जगह मिली थी लेकिन २००७ में लगभग ढाई गुने से ज्यादा की वृद्धि के साथ १६.१५ प्रतिशत तक पहुंच गई. हालांकि पिछले साल चुनावों के कारण मनोरंजन की खबरों/कार्यक्रमों का कवरेज थोड़ा गिरकर १०.१३ प्रतिशत हो गया लेकिन स्थिति एक बार फिर वही ढाक के तीन पात वाली हो गई है.
किसी भी आम दिन किसी निजी हिंदी समाचार चैनल को शाम ७ बजे से ११ बजे के बीच देख लीजिए, आपको चैनलों से गायब होती राजनीतिक रिपोर्टिंग का अंदाज़ा लग जायेगा. हालत इतनी खराब हो गई है कि अब कई बार ऐसा होता है कि किसी बड़े राजनीतिक संकट या उठापटक, उथलपुथल, सरगर्मी और परिवर्तन की खबर को भी कई निजी चैनल कवर करने लायक नहीं मानते हैं या उसकी सतही/चलताऊ सी रिपोर्ट दिखाकर चुप हो जाते हैं.
यहां तक कि संसद के महत्वपूर्ण सत्रों के दौरान भी संसदीय कार्यवाहियों और राजनीतिक सरगर्मियों को तब तक नजरंदाज किया जाता है, जब तक कि कोई बड़ा हंगामा न हो जाए. इस तरह, राजनीतिक रिपोर्टिंग का सबसे जरूरी पक्ष संसद सत्र की रिपोर्टिंग का मतलब आमतौर पर हंगामा रिपोर्टिंग हो गया है.
हैरानी की बात यह है कि हिंदी समाचार चैनलों की तुलना में अंग्रेजी के समाचार चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टिंग और कवरेज फिर भी ज्यादा और बेहतर है. अंग्रेजी के चैनल आमतौर पर राजनीतिक रिपोर्टिंग में कमी की भरपाई प्राइम टाइम की नियमित राजनीतिक चर्चाओं से कर लेते हैं लेकिन हिंदी चैनलों पर राजनीतिक चर्चाएं अपवादस्वरूप ही दिखाई-सुनाई पड़ती हैं. यह तथ्य इसलिए हैरान करता है क्योंकि आमतौर पर हिंदी के दर्शकों को राजनीतिक रूप से अधिक सजग, सचेत और सक्रिय माना जाता है.
राजनीति में उसकी गहरी दिलचस्पी से इंकार नहीं किया जा सकता है. यह मानने के पीछे आधार यह है कि चुनावों में सबसे अधिक वोटर गरीब, निम्न मध्यमवर्ग, सामान्य मध्यमवर्ग से ही निकलता है जो आमतौर पर हिंदी के समाचार चैनल देखता है. यही नहीं, यही दर्शक हैं जो आज भी बड़े-छोटे शहरों, कस्बों, जिलों और गांव की चाय की दुकानों और चट्टियों पर राजनीतिक घटनाक्रम पर सबसे अधिक चर्चाएं करते दिख जाते हैं.
सवाल है कि राजनीतिक पत्रकारिता और रिपोर्टिंग को समाचार चैनलों से इस तरह से बेआबरू करके क्यों बाहर कर दिया गया है? असल में, व्यापक अर्थों में समाचार मीडिया के इस अराजनीतिकरण की प्रक्रिया की शुरुआत ८० के दशक के आखिरी वर्षों में ‘टाइम्स आफ इंडिया’ जैसे अंग्रेजी अख़बारों से हुई जिसने जल्दी ही हिंदी अख़बारों को भी अपनी जद में ले लिया.
हालांकि इसकी शुरुआत राजनीतिक खबरों के प्रति ‘एक्सेसिव ओब्शेसन’ को कम करने और अन्य विषयों/मुद्दों को भी उपयुक्त कवरेज देने के तर्क के साथ किया गया लेकिन जल्दी ही यह उत्तर उदारीकरण ‘आई हेट पोलिटिक्स’ पीढ़ी के मीडिया मालिकों और संपादकों के नेतृत्व में समाचार मीडिया के अराजनीतिकरण के अभियान में बदल गया.
राजनीति की जगह समाचार मीडिया में मनोरंजन की हलकी-फुलकी खबरों, स्पोर्ट्स, सिनेमा और पेज-थ्री आदि की बाढ़ सी आ गई. पेज-थ्री केवल पेज थ्री तक सीमित नहीं रहा बल्कि पेज-वन पर आ धमका. जाहिर है कि उसी अनुपात में राजनीति और आम जनजीवन से जुड़े मुद्दों की कवरेज भी घटती गई. इसके बावजूद यह कहना पड़ेगा कि ९० के दशक के शुरूआती वर्षों तक अधिकांश हिंदी अख़बारों और १९९५ में शुरू हुए ‘आज तक’ (दूरदर्शन पर आधे घंटे की बुलेटिन) का मुख्य स्वर राजनीतिक ही था.
उनमें राजनीतिक खबरों और रिपोर्टिंग को पर्याप्त जगह मिलती थी. शायद इसकी वजह यह भी थी कि ९० का दशक राजनीतिक रूप से बहुत झंझावाती था और मंडल-मंदिर, उदारीकरण-भूमंडलीकरण और बसपा के उभार के बीच राजनीति को नजरंदाज करना किसी के लिए भी असंभव था.
लेकिन इस दशक में 24X7 समाचार चैनलों के आगमन और उनके बीच बढ़ती प्रतियोगिता का सबसे ज्यादा नकारात्मक असर उनके कंटेंट पर ही पड़ा. राजनीतिक रिपोर्टिंग हाशिए पर धकेल दी गई और मनोरंजन का साम्राज्य स्थापित हो गया. यह क्यों हुआ?
इसका एक तर्क खुद सफल टी.वी संपादक रहे उदयशंकर से सुनिए- “..आज लोगों की दिलचस्पी राजनेताओं में कम हो गई है. इसके लिए जिम्मेदार भी खुद नेता हैं. आज कुछ बोलते हैं, कल कुछ. क्या आपको लगता है कि अम्बिका सोनी, अहमद पटेल, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली जैसे नेता जो रोज बयानबाजी करते रहते हैं, उन्हें कोई देखना और सुनना चाहता है. एक ही बात हर रोज. एक दूसरे की खिंचाई. एक दूसरे को नीचा दिखाने की गन्दी राजनीति. लोग बोर हो चुके हैं.” (हंस, जनवरी, २००७)
हालांकि उदयशंकर यह मानते हैं कि लोग खुद से जुड़ी राजनीतिक खबरें जैसे चुनाव या बजट देखना पसंद करते हैं. लेकिन चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टिंग की घटती जगह के लिए वह राजनीतिक रिपोर्टरों को भी जिम्मेदार ठहराते हैं- “हमारे राजनीतिक रिपोर्टरों को भी समझने की जरूरत है. उस लेवल पर भी दिमागी दिवालियापन है. राजनीतिक रिपोर्टिंग का मतलब यह तो नहीं हो सकता है कि कौन नेता कहां जा रहा है, किससे मिल रहा है, आज उसने प्रेस कांफ्रेंस में क्या कहा, आज उसने किसको गलियां दी, आज कहां फीता काटा, आज रैली कहां की, रैली में राष्ट्र के नाम सन्देश क्या दिया, गरीबी हटाने के प्रति कितनी चिंता व्यक्त की...ये सब फालतू बाते हैं. सच यह है कि राजनीतिक रिपोर्टिंग कई बार इसी दायरे में सिमटी होती है, इसलिए भी उसे जगह नहीं मिल पाती है.”
उदयशंकर की समाचार चैनलों के राजनीतिक रिपोर्टरों के बारे में यह राय काफी हद तक सच्चाई के करीब है लेकिन यह अधूरी सच्चाई है. पूरी सच्चाई यह है कि राजनीतिक रिपोर्टरों के दिवालिएपन के लिए उनके संपादक भी उतने ही जिम्मेदार हैं जिन्होंने पूरी टी.वी पत्रकारिता को बाईट पत्रकारिता में सीमित कर दिया है, जो घटनाओं से आगे प्रक्रियाओं को देखने-पकड़ने के लिए तैयार ही नहीं होते हैं और जिनके लिए राजनीति का मतलब सिर्फ चुनाव और बजट यानी घटनाएं हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि राजनीति का मतलब सिर्फ नेता और उनके क्रियाकलाप नहीं होते हैं. राजनीति का मतलब सिर्फ पार्टियों और उनके नेताओं के बयान भी नहीं हैं. राजनीति का मतलब सिर्फ नेताओं के भाषण, वायदे और दावे भर नहीं हैं.
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि यह सब राजनीति नहीं है. यह ठीक है कि वास्तविक राजनीति इससे आगे जाती है. राजनीतिक रिपोर्टिंग के लिए असली चुनौती इसी वास्तविक राजनीति को पकडना होना चाहिए. अगर कोई राजनेता किसी नेता से मिलता है या कोई बयान देता है या किसी की आलोचना करता है या कोई घोषणा करता है तो खबर सिर्फ वह मुलाकात या बयान या आलोचना या घोषणा भर नहीं है बल्कि व्यापक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य और सन्दर्भों में उसके मायने तलाशना, बयान में जो नहीं कहा गया, जो घोषणा नहीं की गई और जो छुपाने की कोशिश की जा रही है, उसे खोजना राजनीतिक रिपोर्टिंग का उद्देश्य होने चाहिए.
जारी...
1 टिप्पणी:
प्रभाष जोशी याद आ गए...
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