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शनिवार, मई 24, 2014

अब प्रधानमंत्री मोदी को इस साल पाकिस्तान जाने का एलान करना चाहिए

मोदी-शरीफ के लिए यह ऐतिहासिक मौका है जब वे संबंधों को बेहतर बनाने की नींव रख सकते हैं 

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने भारत के प्रधानमंत्री नियुक्त नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण में आने का न्यौता स्वीकार कर लिया है. अगर शरीफ को निमंत्रण प्रधानमंत्री नियुक्त नरेन्द्र मोदी की साहसिक कूटनीतिक पहल है तो मानना होगा कि शरीफ ने उसे स्वीकार करके कहीं ज्यादा साहस का परिचय दिया है.
यह उन सभी कथित ‘पाकिस्तान विशेषज्ञों’ और ‘सुरक्षा और कूटनीतिक विशेषज्ञों’ को भी करारा जवाब है जो यह दावा कर रहे थे कि शरीफ के लिए भारत आने का फैसला करना मुश्किल होगा क्योंकि पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार यानी शरीफ की नहीं चलती है और वहां सेना और आई.एस.आई की अनुमति के बिना वे एक कदम भी नहीं उठा सकते हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि ये वही हित समूह और विशेषज्ञ हैं जो भारत और पाकिस्तान के संबंधों को सामान्य और बेहतर नहीं होने देते हैं. ऐसे तत्व दोनों देशों के विदेश-रक्षा प्रतिष्ठानों और सरकार के अंदर भी है. उनके हित दोनों के देशों के टकराव में हैं और उसी में उनकी विशेषज्ञता फलती-फूलती है. एक बार फिर से टी.वी चैनलों पर दिखने लगे हैं.

यह सही है कि ऐसे हित समूह और विशेषज्ञ दोनों देशों में हैं जिनकी पूरी विशेषज्ञता दोनों देशों के बीच अविश्वास को और बढ़ाने और टकराव को बनाए रखने में दिखाई पड़ती है. वे अतीतजीवी हैं और दोनों देशों को उसी का बंधक बनाकर रखना चाहते हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे तत्वों में सबसे आगे दोनों देशों की वे धार्मिक-राजनीतिक कट्टरपंथी ताकतें भी हैं जिनकी राजनीतिक दूकान एक-दूसरे देश के विरोध और भावनाएं भड़काकर ही चलती हैं. वे यह जमीन आसानी से नहीं छोड़ने को तैयार नहीं हैं क्योंकि इससे उनकी राजनीति के खत्म होने के खतरे हैं.
ऐसे तत्व खुद प्रधानमंत्री नियुक्त मोदी और पाक प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की अपनी पार्टियों और गठबंधन के साथियों में भी हैं. हैरानी की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री नियुक्त नरेन्द्र मोदी की पाक प्रधानमंत्री को शपथ ग्रहण में बुलाने के ‘मास्टरस्ट्रोक’ का सबसे कड़ा विरोध शिव सेना जैसी उग्र अंधराष्ट्रवादी पार्टियां कर रही हैं.
यही नहीं, खुद संघ परिवार और भाजपा इस फैसले का उत्साह से स्वागत नहीं कर पा रहे हैं और इसके महत्व को कम करने के लिए इसे सिर्फ ‘शिष्टाचार’ आमंत्रण और मुलाकात बता रहे हैं. हालाँकि यह सिर्फ शिष्टाचार मुलाकात नहीं है और भारत-पाकिस्तान के बीच के जटिल कूटनीतिक रिश्तों को देखते हुए सिर्फ ‘शिष्टाचार’ मुलाकात के कोई मायने भी नहीं हैं.

यह भी कि अगर यह सिर्फ एक शिष्टाचार मुलाकात है तो इसमें साहसिक पहल क्या है? उम्मीद यही करनी चाहिए कि मोदी सरकार भारत-पाकिस्तान संबंधों को सामान्य और बेहतर बनाने के लिए इस मौके को सिर्फ शिष्टाचार मुलाकात तक सीमित नहीं रहने देगी और उससे आगे बढ़ेगी.

यह ठीक है कि खुद चुनावों से पहले तक भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के बतौर नरेन्द्र मोदी ने न सिर्फ यू.पी.ए सरकार की पाकिस्तान के प्रति नरम रवैये की कड़ी आलोचना की और उसके प्रति सख्त रुख अपनाने की वकालत की. इसके अलावा भाजपा के अनेक नेताओं का पाकिस्तान विरोध जगजाहिर है.
लेकिन इसके बावजूद अगर प्रधानमंत्री नियुक्त नरेन्द्र मोदी पाकिस्तान से संबंध बेहतर बनने के लिए पहल कर रहे हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए. उनसे यह अपेक्षा है कि वे नवाज़ शरीफ के भारत आने के फैसले को बेकार नहीं जाने देंगे और इस मौके को दोनों देशों के संबंधों को बेहतर बनाने के लिए इस्तेमाल करेंगे.
इस दिशा में सबसे बेहतर कदम यह हो सकता है कि शरीफ से द्विपक्षीय मुलाकात और चर्चा के बाद प्रधानमंत्री शरीफ के निमंत्रण को स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री मोदी इस साल पाकिस्तान जाने का एलान करें.

इससे दोनों देशों के बीच विभिन्न मुद्दों पर रुकी बातचीत को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी और संबंधों में एक स्थिरता और गतिशीलता आएगी. अनिश्चितता खत्म होगी. इससे उन कट्टरपंथी तत्वों और आतंकवादियों को जवाब मिलेगा जो दोनों देशों के बीच संबंधों को सामान्य होने से रोकने के लिए हर तिकडम करते हैं. 

अगर यह साफ़ और पहले से तय होगा कि मोदी पाकिस्तान जाएंगे तो इससे उन निहित तत्वों को जोखिम लेने और आतंकवादी हमलों या सैन्य हरकतों के जरिये बातचीत और कूटनीतिक प्रयासों को पटरी से उतारने का मौका नहीं मिलेगा. वैसे भी दो पडोसी देशों के बीच उनके राष्ट्राध्यक्षों को आने-जाने में इतना संकोच और सोच-विचार करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. कई बार आने-जाने से भी रास्ते खुलते जाते हैं.             

शुक्रवार, मई 17, 2013

मुद्रा कोष के हाथ में है पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था का भविष्य

भ्रष्ट पाकिस्तानी शासक वर्ग पूरी तरह परजीवी हो चुका है और नवाज़ शरीफ उसके जाने-पहचाने प्रतिनिधि हैं  

पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की सरकार के सामने सबसे पहली और बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था को संभालने की है. अर्थव्यवस्था की हालत बहुत नाजुक है. वर्ष २००८ के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से पाकिस्तान की जी.डी.पी की औसत वृद्धि दर मात्र ३ फीसदी रह गई है.
यही नहीं, बढ़ते व्यापार और चालू खाते के घाटे के बीच सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि देश के पास सिर्फ दो महीने के आयात के लिए विदेशी मुद्रा बची है. डालर के मुकाबले पाकिस्तानी रुपया लगातार लुढ़कता जा रहा है. रेटिंग एजेंसी स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स ने पाकिस्तान की विदेशी मुद्रा में कर्ज की रेटिंग ‘बी’ से घटाकर ‘सी.सी.सी प्लस’ कर दी है जो दिवालिया होने से कुछ ही पायदान ऊपर है.
हैरानी की बात नहीं है कि जब पाकिस्तान चुनावों के बुखार में डूबा हुआ था, वहां की कामचलाऊ सरकार अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ) से ५ से ८ अरब डालर के कर्ज के लिए बातचीत कर रही थी. इस सिलसिले में उसने आई.एम.एफ के अलावा अमेरिकी विदेश मंत्रालय के अधिकारियों से भी बातचीत की है और कर्ज के लिए समझौते का मसौदा तैयार कर लिया है.

अब इसपर दस्तखत करने का फैसला नवाज़ शरीफ की सरकार को करना है. हालाँकि उनके पास सीमित विकल्प हैं और उनकी सरकार चाहे तो अर्थव्यवस्था की बेहतरी के वैकल्पिक माडल को आजमा सकती है लेकिन शरीफ के पिछले अतीत और हालिया बयानों को देखते हुए इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि वे वैकल्पिक रास्ता चुनेंगे.

आश्चर्य नहीं होगा कि जल्दी ही शरीफ के घोषित वित्त मंत्री इसहाक डार वाशिंगटन में आई.एम.एफ के दरवाजे पर खड़ा दिखाई दें. इससे पहले आसिफ अली ज़रदारी की सरकार ने भी २००८ में ऐसे ही हालत में फंसी अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए आई.एम.एफ से ७.६ अरब डालर के कर्ज के समझौते पर दस्तखत किये थे.
८० के दशक से पाकिस्तान आई.एम.एफ से कई बार कर्ज ले चुका है. अब हालत यह हो चुके हैं कि
इस कर्ज की भरपाई के लिए भी कर्ज लेना पड़ रहा है. इसके बावजूद नवाज़ शरीफ की सरकार एक बार फिर आई.एम.एफ के भरोसे है और उसे उम्मीद है कि पाकिस्तान के रणनीतिक महत्व को देखते हुए अमेरिका उसे यह कर्ज जरूर दिलवाएगा.
लेकिन आई.एम.एफ के कर्ज मुफ्त में नहीं आता है. उसके साथ शर्तें भी होती है और माना जा रहा है कि इस बार उसकी शर्तें कुछ ज्यादा ही कड़ी होंगी क्योंकि उसके पिछले कर्ज की शर्तों को लागू करने में बरती गई ढिलाई से वह नाराज है. यहाँ तक कि उसने इस नाराजगी में २०११ में कर्ज की किस्त निलंबित कर दी थी.

आई.एम.एफ की मांग है कि पाकिस्तान सरकार सरकारी कंपनियों का निजीकरण करे, सब्सिडी में कटौती करे खासकर बिजली आदि की दरों में इजाफा करे और टैक्स आधार को बढ़ाकर राजस्व वसूली बढ़ाए और राजकोषीय घाटा घटाए. हालाँकि आई.एम.एफ की ये मांगें नई नहीं हैं और पाकिस्तान की अर्थनीति पिछले तीन दशकों से ज्यादा समय से कमोबेश उसी के बताये रास्ते पर चल रही है.

लेकिन पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को आर्थिक संकटों से निजात नहीं मिल पा रही है और कुछ सालों में वह घूम-फिरकर वैसे ही संकट के मुहाने पर खड़ी हो जाती है. इसके बावजूद नवाज़ शरीफ आई.एम.एफ की मांगों को खुशी-खुशी स्वीकार करने के लिए तैयार हैं क्योंकि वे और उनकी पार्टी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के घोषित समर्थक हैं.
यही नहीं, वे बहुत गर्व से दावा करते हैं कि पाकिस्तान में आर्थिक सुधारों की शुरुआत उन्होंने ही की थी. यह दावा काफी हद तक सही है. पिछली बार जब शरीफ प्रधानमंत्री बने थे, उन्होंने बैंकों से लेकर अन्य दूसरी सरकारी कंपनियों के निजीकरण को आगे बढ़ाया था.
इसके लिए हजारों कर्मचारियों की छंटनी भी की थी. लेकिन शरीफ की सत्ता से बेदखली के बावजूद आर्थिक सुधार जारी रहे. पहले जनरल परवेज़ मुशर्रफ और बाद में ज़रदारी की सरकारों ने भी उसी एजेंडे को आगे बढ़ाया.
इस मामले में भारत और पाकिस्तान में कोई खास फर्क नहीं है. इन दोनों देशों में सरकारों के बदलने के बावजूद आर्थिक नीतियों में कोई खास बदलाव नहीं होता है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार हो या सैनिक सरकार और उसका रंग और झंडा चाहे जो हो लेकिन आर्थिक नीतियों के मामले में सबने विश्व बैंक-मुद्रा कोष निर्देशित नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को ही आगे बढ़ाया है.

हैरानी की बात नहीं है कि एक बार फिर सत्ता संभालने से पहले ही नवाज़ शरीफ ने साफ़ कर दिया है कि वे अपने पिछले कार्यकाल के एजेंडे को ही आगे बढ़ाएंगे.

इसका अर्थ यह है कि आनेवाले महीनों में बिजली की भारी किल्लत और कटौती के बावजूद बिजली की दरों में इजाफा होगा. इसके साथ ही, दूसरी अनिवार्य सेवाओं और वस्तुओं की कीमतों में भी बढ़ोत्तरी तय है.
यही नहीं, अगले एक महीने के अंदर इस सरकार को अगले वित्तीय वर्ष का सालाना बजट भी पेश करना है जिसमें आई.एम.एफ की शर्तों के मुताबिक, राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए किफायतशारी (आस्ट्रीटी) पर जोर दिया जाएगा. इसका सीधा अर्थ यह है कि आमलोगों खासकर गरीबों पर और अधिक बोझ डाला जाएगा.
नई सरकार से राहतों की उम्मीद कर रहे लोगों के लिए यह जले पर नमक छिड़कने जैसा होगा क्योंकि पिछले तीन-चार सालों से लगातार महंगाई की ऊँची दर ने उनका जीना मुहाल कर रखा है.
लेकिन अर्थव्यवस्था की बदतर होती हालत को सुधारने के नामपर एक बार फिर उनसे कुर्बानी देने की मांग की जाएगी. लेकिन असल सवाल यह है कि क्या लोग इस कुर्बानी के लिए तैयार होंगे?

यह सवाल इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि सत्ता में वापसी के बावजूद शरीफ को न तो एकतरफा जनादेश है और न ही पाकिस्तान की विभाजित राजनीति और समाज में आमलोगों को नाराज करके वह बहुत दिनों तक सत्ता में टिके रह पाएंगे.

इस लिहाज से उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती सत्ता में वापसी के बाद न सिर्फ लोगों के समर्थन को
बनाए रखना बल्कि उसके दायरे को बढ़ाना और उनका भरोसा जीतना भी है.

लेकिन यह आसान नहीं है क्योंकि इसके लिए वैकल्पिक अर्थनीति और राजनीति जरूरी है. मुश्किल यह है कि शरीफ के पास न तो कोई वैकल्पिक आर्थिक और राजनीति सोच और दृष्टि है और न ही वैकल्पिक रास्ते तलाशने की राजनीतिक इच्छाशक्ति दिख रही है.
अफ़सोस की बात यह है कि नवाज़ शरीफ और उनके पीछे खड़े पाकिस्तानी शासक वर्गों की सारी उम्मीदें आई.एम.एफ-विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक के कर्जों और अमेरिका और दूसरे विकसित पश्चिमी देशों से मिलनेवाले अनुदानों पर टिकी हैं.
उनका सबसे बड़ा ट्रंप कार्ड यह है कि अमेरिका और बाकी पश्चिमी देश उसे आर्थिक रूप से दिवालिया नहीं होने देंगे क्योंकि उसकी राजनीतिक अस्थिरता का जोखिम वे नहीं उठा सकते हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि पाकिस्तानी शासक वर्ग पूरी तरह से परजीवी हो चुका है. इसका एक बड़ा सबूत यह है कि वह न सिर्फ विदेशी कर्ज और अनुदान पर जीवित है बल्कि वह पाकिस्तान के आंतरिक संसाधनों को भी घुन की तरह चाट रहा है.

क्या यह सिर्फ संयोग है कि पाकिस्तान में चाहे वह आसिफ ज़रदारी की सरकार हों या नवाज़ शरीफ की- दोनों ही भ्रष्टाचार और सार्वजनिक धन की लूट के मामले में एक-दूसरे से होड़ करते नजर आते हैं? कहने की जरूरत नहीं है कि भ्रष्टाचार और सार्वजनिक धन की खुली लूट ने पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को अंदर से खोखला कर दिया है.

इसके सबसे बड़े लाभार्थी के बतौर पाकिस्तानी शासक वर्ग में न तो वह नैतिक साहस बचा है और न ही तैयारी कि वह नए पाकिस्तान के लिए वैकल्पिक राह ले सके.
इसके उलट आशंका यह है कि जल्दी ही नई सरकार और उसकी जीत का उत्साह राजनीतिक-आर्थिक चुनौतियों की गर्मी में भाप की तरह उड़ जाएगा और रोजमर्रा के मुद्दों और राजनीतिक उठापटक के बीच यह सरकार भी अर्थव्यवस्था और आम पाकिस्तानी नागरिकों के लिए बोझ ही साबित हो.
क्या नवाज़ शरीफ इस आशंका को गलत साबित कर पाएंगे?
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 18 मई को प्रकाशित टिप्पणी)