खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, अक्टूबर 13, 2012

महंगा पड़ सकता है खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का सौदा

वालमार्ट का विरोध तो खुद अमेरिका में भी बढ़ रहा है


खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने के फैसले के पैरोकारों का दावा है कि दुनिया के अधिकांश देशों में खुदरा व्यापार में न सिर्फ बड़ी घरेलू संगठित कंपनियां काम कर रही हैं बल्कि विदेशी पूंजी यानी बड़ी विदेशी कंपनियों को भी इजाजत दी गई है. उनका यह भी दावा है कि इसका उन देशों के किसानों, उपभोक्ताओं और अर्थव्यवस्था सभी को लाभ हुआ है.
यही नहीं, उनमें से अधिकांश देशों में बड़ी देशी-विदेशी खुदरा व्यापार कंपनियों के साथ न सिर्फ छोटे किराना व्यापारियों का कारोबार भी मजे में चल रहा है बल्कि उनका व्यापार फला-फूला है. तात्पर्य यह कि दुनिया के अधिकांश देशों के अनुभव के मद्देनजर खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी आने से डरने की जरूरत नहीं है क्योंकि इससे नुकसान नहीं के बराबर या बहुत कम है, उल्टे फायदा अधिक है.
लेकिन यह पूरा सच नहीं है. अगर खुदरा व्यापार में बड़ी संगठित कंपनियों की मौजूदगी से फायदा ही फायदा होता तो खुद अमेरिका के न्यूयार्क जैसे शहर में वालमार्ट को स्टोर खोलने से मना नहीं किया जाता. इससे पहले कैलिफोर्निया और शिकागो की नगर परिषदों ने भी बड़ी खुदरा कंपनियों को स्टोर्स खोलने के फैसले पर रोक लगाने का फैसला किया था.

यही नहीं, अमेरिका में वालमार्ट के तौर-तरीकों खासकर श्रमिक विरोधी और पर्यावरण विरोधी रवैये की आलोचना और विरोध नई बात नहीं है. इसके अलावा दुनिया के और भी देशों में खुदरा व्यापार में बड़ी कंपनियों खासकर विदेशी पूंजी को इजाजत देने का मुद्दा विवादों में रहा है क्योंकि उसके फायदों की तुलना में नकारात्मक प्रभावों की चिंता ज्यादा दिखाई देती रही है.

आश्चर्य नहीं कि कई देशों ने खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति नहीं दी है या कई प्रतिबंधों के साथ सीमित इजाजत दी है. दूसरी बात यह है कि हरेक देश के अर्थतंत्र की अपनी विशेषताएं हैं, अपनी घरेलू परिस्थितियां हैं जिसमें खुदरा व्यापार की खास जगह है.
भारत में खुदरा व्यापार इसलिए एक अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र है क्योंकि कृषि के बाद सबसे अधिक लोगों को रोजगार इसी क्षेत्र में मिला हुआ है और कोई २० करोड़ लोगों की आजीविका इसपर निर्भर है. प्रति एक लाख की आबादी पर खुदरा दूकानों के घनत्व के मामले भारत दुनिया में पहले स्थान पर है. इस कारण उसकी दुनिया के अन्य देशों से तुलना करते हुए भी एक सावधानी जरूरी है.
तथ्य यह है कि दुनिया के विभिन्न देशों में संगठित खुदरा व्यापार कंपनियों खासकर विदेशी पूंजी और बड़ी विदेशी कंपनियों को प्रोत्साहित करने के नतीजे मिले-जुले हैं. कुछ देशों में संगठित खुदरा कंपनियों के विस्तार के बावजूद छोटे किराना दुकानदार भी बचे हुए हैं और कई देशों में बड़ी खुदरा कंपनियों की मौजूदगी के कारण छोटे किराना दुकानदारों को टिके रहने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है और कई देशों में संगठित कंपनियों और उनके बड़े स्टोर्स से मुकाबले में छोटे किराना दुकानदार तेजी से उजड़े हैं. कई देशों में ये बड़ी कम्पनियाँ खुद नाकाम साबित हुई हैं.

अगर दुनिया के विकसित देशों के उदाहरण पर गौर करें जहाँ खुदरा व्यापार में बड़ी संगठित कम्पनियाँ और बड़े स्टोर्स बहुत पहले से हैं तो इस तथ्य को अनदेखा कर पाना मुश्किल है कि इन देशों जैसे अमेरिका, ब्रिटेन और पश्चिमी यूरोप आदि में ७० से ८५ फीसदी खुदरा व्यापार पर बड़ी संगठित कंपनियों का कब्ज़ा है.
दूसरी ओर, विकासशील देशों के खुदरा व्यापार में बड़ी कंपनियों का हिस्सा अभी भी ५० फीसदी से कम है. जैसे ब्राजील और थाईलैंड में ४० फीसदी, कोरिया में ३५ फीसदी, चीन और मलेशिया में २० फीसदी के आसपास है. इनकी तुलना में भारत के खुदरा व्यापार में संगठित कंपनियों का हिस्सा मात्र ४ से ५ फीसदी के बीच है.
लेकिन सी.आई.आई-बोस्टन कंसल्टिंग समूह की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष २०२० तक भारत में कुल खुदरा व्यापार लगभग १.२५ खरब डालर का हो जाएगा और उसमें बड़ी कंपनियों यानी संगठित क्षेत्र का हिस्सा लगभग २६० अरब डालर का होगा यानी वे २० फीसदी बाजार पर कब्ज़ा कर लेंगी.
सवाल यह है कि क्या बड़ी कंपनियों के इस विस्तार और बाजार के पांचवें हिस्से पर कब्जे के कारण छोटे किराना दुकानदारों का एक हिस्सा विस्थापित नहीं होगा? इस प्रश्न के उत्तर में खुद प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी. रंगराजन ने माना है कि संगठित खुदरा कंपनियों के विस्तार से खुदरा व्यापारियों का एक हिस्सा विस्थापित होगा.

दुनिया के कई देशों के उदाहरणों से भी इसकी पुष्टि होती है. ब्रिटेन में १९८१ से ९९ के बीच छोटे किराना दुकानों की संख्या ५६८६२ से घटकर २५८०० रह गई. पश्चिमी यूरोप में ७० से ८० के दशक में कोई चार लाख छोटे दुकानदारों को अपना धंधा बंद करना पड़ा. इसी तरह अर्जेंटीना में १९८३ से ९३ के बीच कोई ३० फीसदी यानी लगभग ६४१९८ छोटी किराना दुकानें बंद हो गईं और खुदरा व्यापार में रोजगार में २६ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई.

उधर, इंडोनेशिया ने २००२-०३ में सिर्फ एक साल में ९ फीसदी छोटी किराना दुकानें बंद हो गईं जबकि चिली में १९९१ से ९५ के बीच खाने-पीने की छोटी दुकानों की संख्या में कोई २० फीसदी की कमी दर्ज की गई.
यहाँ चीन की चर्चा भी जरूरी है क्योंकि खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के पैरोकार उसका उदाहरण भी बहुत देते हैं लेकिन वे भूल जाते हैं कि चीन और भारत में आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां बिलकुल अलग हैं. वहां १९५९ से लेकर ८० के दशक के आखिर तक निजी खुदरा व्यापार प्रतिबंधित था और ९० के दशक शुरुआत में वहां विदेशी पूंजी को कई शर्तों के साथ इजाजत दी गई तो उस समय उसके खुदरा बाजार के ४१ फीसदी हिस्से पर बड़ी सरकारी कंपनियों, २७ फीसदी पर सहकारी समितियों और कोई २० फीसदी पर निजी और छोटे खुदरा व्यापारियों का कब्ज़ा था.
इससे साफ़ है कि चीन और भारत के खुदरा व्यापार के स्वरुप में बुनियादी अंतर है और वहां इतने लोगों की रोजी-रोटी दांव पर नहीं लगी है. इसके बावजूद सच्चाई यह है कि हाल के वर्षों में वहां भी बड़ी विदेशी खुदरा कंपनियों के तौर-तरीकों के खिलाफ लोगों की नाराजगी बढ़ी है. इसके अलावा इन दावों में भी बहुत दम नहीं है कि विदेशी खुदरा कंपनियों के आने से किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को फायदा होगा.

दुनिया के अनेक देशों के उदाहरणों से स्पष्ट है कि इन दावों और वास्तविक तथ्यों के बीच खासा फासला है. अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक, थाईलैंड में यह पाया गया कि वहाँ रेहडी-पटरीवालों की तुलना में बड़े सुपर स्टोर्स में कीमतें १० फीसदी अधिक थीं. इसी तरह के उदाहरण अर्जेंटीना, वियतनाम और मेक्सिको जैसे देशों में भी दिखाई पड़े.

यही हाल किसानों को लाभ पहुंचाने के दावों का है. इससे बड़ा मजाक कुछ नहीं हो सकता है कि बड़ी विदेशी खुदरा कम्पनियाँ के आने से किसानों को ऊँची कीमत से लेकर कोल्ड स्टोरेज जैसी सुविधाएँ मिलेंगी. अगर ऐसा होता तो दुनिया के सबसे अमीर देशों में जहाँ ८० फीसदी से ज्यादा खुदरा व्यापार पर बड़ी कंपनियों का कब्ज़ा है, वहाँ की सरकारों को अपने किसानों को भारी सब्सिडी नहीं देनी पड़ती.
यह किससे छुपा है कि अमेरिका से लेकर यूरोप तक के किसानों को वहां की सरकारें अरबों डालर की सालाना सब्सिडी देती है. अलबत्ता इस सब्सिडी पर वहाँ की बड़ी खुदरा कंपनियों से लेकर खाद्य कारोबार में लगी कंपनियों का कारोबार चल रहा है.
यह ठीक है कि शुरू में ये कम्पनियाँ बाजार पर कब्ज़ा करने के लिए किसानों को अच्छी कीमत और उपभोक्ताओं को सस्ता सामान बेचें लेकिन असल चिंता यह है कि अगले १० सालों में जब वे छोटे किराना दुकानदारों को मुकाबले से बाहर कर देंगे, उसके बाद क्या होगा?

दुनिया के तमाम देशों यहाँ तक कि अमेरिका के उदाहरणों से साफ़ है कि उस समय ये कम्पनियाँ न किसानों और दूसरे आपूर्तिकर्ताओं को अच्छी कीमत देती हैं और न ही उपभोक्ताओं को सस्ता माल बेचती हैं. यही नहीं, खुदरा बाज़ार पर उनके वर्चस्व की कीमत उन लाखों छोटे दूकानदारों को अपनी आजीविका गँवा कर चुकानी पड़ती है.

सवाल यह है कि क्या देश इस महंगे सौदे के लिए तैयार है?

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में 13 अक्तूबर को प्रकाशित टिप्पणी)                           

बुधवार, सितंबर 26, 2012

क्या मौजूदा कड़े फैसलों और आर्थिक सुधारों का कोई विकल्प नहीं है?

आम आदमी के लिए कड़ी और कार्पोरेट्स के लिए मुलायम है यू.पी.ए सरकार 

यू.पी.ए सरकार हालिया कड़े आर्थिक फैसलों और आर्थिक सुधारों खासकर खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) के फायदों को गिनवाने में जुटी हुई है. लेकिन उसके आर्थिक मैनेजर इन फैसलों के पीछे सरकार की मजबूरियों भी बताना नहीं भूल रहे हैं.

यहाँ तक कि खुद प्रधानमंत्री ने भी ‘राष्ट्र के नाम सन्देश’ में उन मजबूरियों और चुनौतियों का उल्लेख करते हुए कहा है कि अगर सरकार ये कड़े फैसले नहीं करती तो अर्थव्यवस्था की स्थिति और बिगड़ सकती थी और देश संकट में फंस सकता था. उन्होंने बढ़ती डीजल सब्सिडी के कारण बढ़ते राजकोषीय घाटे और अर्थव्यवस्था में देशी-विदेशी निवेशकों के कमजोर पड़ते विश्वास का खास तौर से जिक्र किया है.

दूसरी ओर, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने भी स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया है कि अगर यू.पी.ए सरकार ये कड़े फैसले नहीं करती और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की पहल नहीं करती तो अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां भारत की क्रेडिट रेटिंग और गिरा देतीं, जिससे देश से विदेशी पूंजी का पलायन शुरू हो जाता, नया निवेश नहीं आता और इससे रूपये की कीमत और गिर जाती और देश एक बार से १९९१ वाले आर्थिक संकट में फंस सकता था. इन दोनों बयानों से साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार ने ये फैसले मजबूरी और दबाव में भी लिए हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि ये तर्क नव उदारवादी अर्थनीति के शास्त्रीय तर्क है. वह और उसके पैरोकार संकट को हमेशा एक अवसर की तरह देखते हैं. इस मायने में उसका सबसे बड़ा तर्क आर्थिक संकट स्वयं है.

इसलिए नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के समर्थक नीति निर्माता और सरकारें जानबूझकर संकट पैदा करती हैं और उसे इस स्थिति तक बिगड़ने देती हैं कि आमलोगों के पास उसे स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प न बचे. इसके लिए आर्थिक संकट के कारणों को न सिर्फ जानबूझकर छुपाया जाता है बल्कि बड़ी चतुराई से संकट के लिए आमलोगों को ही जिम्मेदार भी ठहरा दिया जाता है.
उदाहरण के लिए ताजा मामले को ही लीजिए. इसमें कोई शक नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था संकट में है. जी.डी.पी वृद्धि दर लगातार गिर रही है. चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून’१२) में जी.डी.पी की वृद्धि दर मात्र ५.५ प्रतिशत दर्ज की गई है. सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि बीते चार महीनों (अप्रैल-जुलाई) में औद्योगिक वृद्धि दर मात्र ०.१ फीसदी रही है.

इसका अर्थ यह है कि औद्योगिक क्षेत्र एक तरह से मंदी की चपेट में है. यही हाल अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों का भी है. निर्यात में गिरावट जारी है. महंगाई काबू में नहीं आ रही है. अर्थव्यवस्था के संकट का असर रोजगार पर भी दिखने लगा है. रोजगार के नए अवसर पैदा नहीं हो रहे हैं और मौजूदा नौकरियों पर भी छंटनी की तलवार चलने लगी है.

स्थिति सचमुच गंभीर है. लेकिन सवाल यह है कि यह स्थिति क्यों आई और यहाँ तक कैसे पहुंची? क्या इसके लिए वही नव उदारवादी आर्थिक नीतियां और आर्थिक सुधार जिम्मेदार नहीं हैं जिन्हें पिछले दो दशकों से देश की सभी सरकारें पूरे उत्साह और आस्था से लागू करती रही हैं?

क्या यह सच नहीं है कि मौजूदा आर्थिक संकट की जड़ें वैश्विक आर्थिक संकट खासकर अमेरिका और यूरोप के आर्थिक-वित्तीय संकट से जुडी हुई हैं जहाँ इन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का बोलबाला है?
दूसरे, यह आर्थिक संकट आज अचानक नहीं आया है. इसके संकेत सबसे पहले अमेरिकी आर्थिक संकट की शुरुआत में २००७-०८ में ही दिखने लगे थे और जो किसी न किसी रूप में अर्थव्यवस्था में लगातार दिख रहा था. खासकर मौजूदा संकट के अनेकों संकेत पिछले कई महीनों से दिख रहे थे

लेकिन फिर भी यू.पी.ए सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही और स्थिति को बिगड़ने दिया गया. यह सच है अमेरिकी आर्थिक मंदी से पैदा हुए घरेलू आर्थिक संकट से निपटने के लिए यू.पी.ए सरकार ने २००८ में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट क्षेत्र को कुल दो लाख करोड़ रूपये से अधिक का बचाव पैकेज दिया था जिससे भारत को कुछ हद तक उस संकट से उबरने में मदद मिली थी.

कहने की जरूरत नहीं है कि उस समय जब देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कारपोरेट क्षेत्र को बचाव पैकेज दिया गया तो उसके कारण राजकोषीय घाटे में हुई बढ़ोत्तरी की चिंता किसी को नहीं हुई. लेकिन आज उसी बढ़े हुए राजकोषीय घाटे का बोझ यह कहते हुए आमलोगों पर डाला जा रहा है कि इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है.

प्रधानमंत्री ने भी ‘राष्ट्र के नाम सन्देश’ में कहा कि अगर सब्सिडी कम नहीं की गई तो शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए पैसा ही नहीं बचेगा क्योंकि ‘पैसा पेड़ पर नहीं लगता है.’ लेकिन सवाल यह है कि एक ऐसे समय में जब महंगाई खुद सरकारी आंकड़ों में दोहरे अंकों में है और आम आदमी पिछले तीन साल से अधिक समय से ऊँची महंगाई की मार से त्रस्त है, उस समय क्या सरकार के पास सब्सिडी कटौती और उसका बोझ लोगों पर डालने के अलावा कोई विकल्प नहीं था?
सच यह है कि सरकार के विकल्प थे लेकिन सरकार ने उन विकल्पों को आजमाने की कोशिश नहीं की क्योंकि वह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट क्षेत्र को नाराज करने का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं थी.

उदाहरण के लिए, केन्द्र सरकार हर साल देशी-विदेशी बड़ी पूंजी, कारपोरेट क्षेत्र, अमीरों, उच्च मध्यवर्ग आदि को कारपोरेट टैक्स, आयकर और सीमा शुल्क-उत्पाद कर आदि में पांच लाख करोड़ रूपये से अधिक की छूट और रियायतें देती है. खुद वित्त मंत्रालय के मुताबिक, वर्ष २०११-१२ में यू.पी.ए सरकार ने अमीरों और कार्पोरेट्स को कोई ५.११ लाख करोड़ रूपये की छूट और रियायतें दीं. हालाँकि सरकार इसे सब्सिडी नहीं कहती है लेकिन यह भी सब्सिडी ही है.

इसके बावजूद सरकार ने इस सब्सिडी में कटौती की कोई कोशिश नहीं की और यह साल दर साल बढ़ता जा रहा है. लेकिन इसे कभी भी बढ़ते राजकोषीय घाटे की वजह नहीं बताया जाता है. तथ्य यह है कि अमीरों और कार्पोरेट्स पर इस अतिरिक्त दयानतदारी के कारण भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात दुनिया के अधिकांश विकसित और विकासशील देशों की तुलना में काफी कम है.

भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात १०.६ फीसदी है जोकि दुनिया के विकसित देशों के समूह ओसेड के औसत से आधे से भी कम है. खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने स्वीकार किया है कि इस मामले में भारत दुनिया के उन चंद चुनिन्दा देशों में है जहाँ टैक्स-जी.डी.पी इतना कम है. इसके पीछे की वजह भी किसी से छुपी नहीं है.
खुद वित्त मंत्री के मुताबिक, भारत में कारपोरेट टैक्स की दरें ३० फीसदी है लेकिन छूट/रियायतों के कारण प्रभावी कारपोरेट टैक्स की दर मात्र २४ फीसदी है और उसमें भी सैकड़ों कम्पनियाँ ऐसी हैं जो १० से २२ फीसदी की दर से ही टैक्स देती हैं.

मजे की बात यह है कि भारत में कारपोरेट टैक्स और आयकर की मौजूदा दरें दुनिया के कई विकसित पूंजीवादी देशों की तुलना में काफी कम हैं जहाँ इन टैक्सों की दरें ३५ से ४५ फीसदी तक हैं. साफ़ है कि मौजूदा ढांचे में ही सरकार की आय में बढ़ोत्तरी की भारी गुंजाइश है.

निश्चय ही, इस मामले में कड़े फैसले लेने की जरूरत है. लेकिन सवाल यह है कि क्या वह केवल आम आदमी पर बोझ डालनेवाले कड़े फैसले करेगी और अमीरों/कार्पोरेट्स के प्रति मुलायम बनी रहेगी?

क्या यू.पी.ए सरकार में वह राजनीतिक इच्छाशक्ति है कि वह राजकोषीय घाटे को कम करने और शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और ढांचागत क्षेत्रों के विकास और विस्तार के लिए अधिक धन खर्च करने के लिए कुछ बोझ कार्पोरेट्स और अमीरों पर भी डालेगी?

अगर वह सिर्फ टैक्स-जी.डी.पी अनुपात को मौजूदा १०.६ फीसदी से २००७-०८ के १२ फीसदी तक ले जाए और अमीरों/कार्पोरेट्स को मिलनेवाली छूट/रियायतों में २५ फीसदी की कटौती कर सके तो सरकार को कुल चार लाख करोड़ रूपये से अधिक की आय हो सकती है जिससे राजकोषीय घाटे को कम करने के साथ आम आदमी के कल्याण में भी खर्च किया जा सकता है. इसके साथ ही अगर सरकार भ्रष्टाचार और काले धन की अर्थव्यवस्था पर ऐसी ही सख्ती दिखाए तो टैक्स-जी.डी.पी अनुपात १५ फीसदी तक पहुँच सकता है जिससे न्यूनतम तीन लाख करोड़ रूपये और आ सकते हैं. 
यही नहीं, इससे विदेशी पूंजी पर भारतीय अर्थव्यवस्था की निर्भरता कम होगी जो मौजूदा समय में उसके भयादोहन की एक सबसे बड़ी वजह बना हुआ है. विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए सरकार को अत्यंत संवेदनशील खुदरा व्यापार का क्षेत्र विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर गार को ठन्डे बस्ते में डालने और वोडाफोन जैसी कंपनियों की टैक्स बचा ले जाने को अनदेखा करने जैसे फैसले करने पद रहे हैं.

लेकिन असल सवाल यह है कि क्या यू.पी.ए सरकार ये कड़े फैसले करने के लिए तैयार है?

(दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 26 सितम्बर को प्रकाशित लेख)

मंगलवार, सितंबर 25, 2012

कुछ लाख अमीरों/कार्पोरेट्स के फायदे के लिए करोड़ों को संकट में डालने के खतरे

खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के निहितार्थ


यू.पी.ए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी अटूट निष्ठा को फिर से साबित करने का फैसला कर लिया है. उसने एक झटके में सब्सिडी कटौती, सरकारी कंपनियों के विनिवेश और अर्थव्यवस्था के संवेदनशील क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का एलान करके आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर मुहर लगा दी है.

खासकर गठबंधन सरकार के सबसे प्रमुख सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस और लगभग समूचे विपक्ष के खुले विरोध के बावजूद सरकार ने जिस तरह से खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का एलान किया है, उससे साफ़ हो गया है कि कांग्रेस के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व ने यह तय कर लिया है कि मौजूदा राजनीतिक संकट से बाहर निकलने के लिए देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को खुश करना और उसका समर्थन और विश्वास हासिल करना सबसे ज्यादा जरूरी है.

हालाँकि सरकार का दावा है कि खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का फैसला इस मुद्दे से जुड़े सभी पक्षों से बातचीत और विचार-विमर्श और उनकी चिंताओं को पूरी तरह ध्यान में रखते हुए लिया गया है. देशी खुदरा व्यापारियों और उनके हितों की सुरक्षा के पर्याप्त प्रावधान किये गए हैं.
यही नहीं, उद्योग और वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा के मुताबिक, इस फैसले से किसानों को उनके उत्पादों की अधिक और वाजिब कीमत मिलेगी, उपभोक्ताओं को सस्ता सामान मिलेगा और युवाओं को बड़े पैमाने पर रोजगार मिलेगा. उनके दावों पर भरोसा करें तो देश में कृषि संकट से लेकर महंगाई और बेरोजगारी जैसी बड़ी और मुश्किल समस्याओं का हल खुदरा व्यापार में बड़ी विदेशी पूंजी खासकर वालमार्ट, टेस्को, कार्फूर और मेट्रो जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने से निकलेगा.
लेकिन तथ्य कुछ और ही कहानी कहते हैं. दुनिया भर में खुदरा व्यापार में बड़ी और संगठित कंपनियों के प्रवेश के अनुभवों और भारत में खुदरा व्यापार की विशेष स्थिति को ध्यान में रखें तो यू.पी.ए सरकार का यह फैसला देश की बड़ी आबादी के लिए घातक और विनाशकारी साबित हो सकता है.
यह ठीक है कि इस फैसले से आबादी के एक बहुत छोटे से हिस्से खासकर बड़े कारपोरेट समूहों, अमीरों, उच्च मध्यवर्ग और बड़े किसानों को फायदा होगा. निश्चय ही, बड़ी खुदरा विदेशी कंपनियों के विशाल स्टोर्स में खरीददारी का आकर्षण मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं को ललचा रहा है और इनमें कुछ लाख युवाओं को रोजगार भी मिलेगा. यह भी सही है कि शुरू में बड़ी विदेशी कंपनियों के साथ आनेवाले निवेश के कारण अर्थव्यवस्था में उछाल भी दिख सकती है.

लेकिन असल सवाल यह है कि यह किस कीमत पर होगा? इसमें कोई दो राय नहीं है कि बड़ी और संगठित देशी-विदेशी खुदरा कंपनियों की जबरदस्त आर्थिक ताकत, नेटवर्क और मार्केटिंग के आगे छोटे-मंझोले और यहाँ तक कि बड़े देशी खुदरा व्यापारियों का भी प्रतियोगिता में लंबे समय तक टिकना बहुत मुश्किल होगा.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बड़ी देशी-विदेशी खुदरा कंपनियों के पास अथाह पूंजी है और इस कारण वे छोटे-मंझोले प्रतियोगियों को बाजार से बाहर करने के लिए लंबे समय तक घाटा खाकर भी सस्ता बेच सकते हैं. यह सिर्फ कोरी आशंका नहीं है बल्कि दुनिया के कई देशों और यहाँ तक कि खुद अमेरिका के उदाहरण से इसकी पुष्टि होती है जहाँ कई शोधों से यह तथ्य सामने आया है कि जिन भी इलाकों में बड़ी खुदरा कंपनियों के स्टोर्स खुले, वहां बड़े पैमाने पर छोटे स्टोर्स बंद हुए.
भारत के लिए इसके गंभीर मायने हैं जहाँ कृषि के बाद खुदरा व्यापार में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मिला हुआ है. एक मोटे अनुमान के मुताबिक, देश में कोई १.४ करोड़ खुदरा दूकानें हैं जिनमें कोई चार करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है. अगर इनमें से हर व्यक्ति के परिवार को औसतन चार से पांच का माना जाए तो कोई १६ से २० करोड़ लोगों की आजीविका इन छोटी-मंझोली किराना दुकानों के भरोसे है.

असल में, ऐसे खुदरा व्यापार में ऐसे लोगों की संख्या भी अच्छी-खासी है जिन्हें कोई और रोजगार-धंधा नहीं मिला और वे घर के बाहर छोटी दूकान या रेहडी लगाकर आजीविका कमाने लगते हैं. यही कारण है कि छोटी खुदरा दूकानों के घनत्व के मामले में भारत दुनिया में अव्वल है और यहाँ प्रति एक हजार की आबादी पर ११ छोटी किराना दुकानें हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि बड़ी विदेशी खुदरा कंपनियों और उनके स्टोर्स से सबसे अधिक खतरा इन्हीं खुदरा व्यापारियों को ही है जिनके पास बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों और उनके आक्रामक मार्केटिंग से निपटने की क्षमता और तैयारी बिलकुल नहीं है. यह सही है कि सभी छोटे-मंझोले खुदरा व्यापारी एकबारगी नहीं खत्म हो जाएंगे और उनका एक छोटा सा हिस्सा फिर भी बचा रहेगा लेकिन इसके साथ ही यह भी तय है कि उनका एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाएगा.
मान लीजिए कि छोटे-मंझोले खुदरा व्यापारियों का ५० फीसदी भी मुकाबले में बाहर हो गया तो इसका मतलब होगा कोई दो करोड़ लोगों की आजीविका और उनपर निर्भर ८ करोड़ लोगों की रोजी-रोटी पर संकट क्योंकि संगठित और बड़ी देशी-विदेशी खुदरा कम्पनियों में कुछ लाख लोगों को तो रोजगार मिल सकता है लेकिन सभी दो करोड लोगों के उसमें एडजस्ट होने की गुंजाइश नहीं है.
सवाल यह है कि क्या सरकार के पास उनके लिए रोजगार और रोजी-रोटी का कोई वैकल्पिक उपाय है? याद रहे कि कृषि पर पहले से ही ६० फीसदी आबादी निर्भर है और उसका बड़ा हिस्सा उससे बाहर निकलने के मौके की तलाश में है. दूसरी ओर, उद्योगों में भी रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं या बहुत नगण्य वृद्धि हुई है.

यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में तेज आर्थिक वृद्धि के बावजूद ‘रोजगारविहीन विकास’ (जाबलेस ग्रोथ) बहुत बड़ा मुद्दा बन गई है. ऐसे में, खुदरा व्यापार का क्षेत्र जो कम निवेश और साधनों के बावजूद आजीविका कमाने का अवसर देता है, उसे बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के हवाले करके करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी दांव पर लगाने का आर्थिक और सामाजिक तर्क समझ से बाहर है.

इसी तरह किसानों और उपभोक्ताओं को फायदे की बात भी एक मिथ है जिसे तथ्य की तरह प्रचारित किया जा रहा है. अगर बड़ी खुदरा कंपनियों से किसानों को इतना ही फायदा होता तो खुद अमेरिका और यूरोप में सरकारों को किसानों को अरबों डालर की सब्सिडी क्यों देनी पड़ रही है?
सच्चाई यह है कि बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों से भारतीय किसान खासकर छोटे-मंझोले किसान मोलतोल नहीं कर पायेंगे और दूसरे, मौजूदा बिचौलियों की जगह सूट-बूट और टाई वाले बिचौलिए आ जायेंगे. ऐसे में, इस बात की बहुत कम उम्मीद है कि किसानों को उनकी फसल और उत्पादों की उचित कीमत मिल पाएगी.
इसी तरह उपभोक्ताओं को भी शुरू में आकर्षित करने के लिए बड़ी कम्पनियाँ सस्ता सामान जरूर बेच सकती हैं लेकिन जब छोटे-मंझोले खुदरा व्यापारी उनके मुकाबले में बाहर हो जाएंगे और बड़ी कंपनियों का एकाधिकार सा हो जाएगा, उस समय उन्हें उपभोक्ताओं का खून चूसने में जरा भी देर नहीं लगेगी.

सरकार का दावा है कि बड़ी देशी-विदेशी खुदरा कंपनियों के गैर-प्रतियोगी तौर-तरीकों पर प्रतिस्पर्द्धा आयोग निगाह रखेगा. लेकिन हकीकत सभी जानते हैं कि बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के आर्थिक-राजनीतिक रसूख के आगे नियामक संस्थाएं किस तरह से ‘बुरा न देखने-सुनने-बोलने वाले बन्दर’ बन जाती हैं.

इसी तरह सरकार का यह दावा भी बेमानी है कि खुदरा व्यापार में आनेवाली बड़ी विदेशी कम्पनियाँ देशी लघु और मंझोले उद्योगों से ३० फीसदी उत्पादों की खरीददारी करेंगी और कुल विदेशी निवेश का ५० फीसदी कोल्ड स्टोरेज जैसे बैक-एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने में खर्च करेंगी. सच यह है कि ये शर्तें सिर्फ दिखावा हैं और व्यवहार में शायद ही कभी लागू होती हैं.
ताजा मामला ही लीजिए. एकल ब्रांड खुदरा व्यापार में सौ फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत देते हुए यू.पी.ए सरकार ने ३० फीसदी अनिवार्य घरेलू खरीददारी की शर्त लगाई थी लेकिन छह महीने से भी कम समय में स्वीडिश कंपनी आइकिया के दबाव में उसमें ढील देने की घोषणा कर दी है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि एक बार जब ये बड़ी कम्पनियाँ देश के अंदर आ जायेंगी, उसके बाद उन्हें किसी भी शर्त में बांधना संभव नहीं रह जाता है. उल्टे वे कम्पनियाँ सरकारों पर शर्त थोपने लगती हैं. ऐसे एक नहीं, अनेकों उदाहरण हैं जब बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों ने न सिर्फ पहले स्वीकार किये गए शर्तों को नहीं माना बल्कि सरकारों को उन्हें बदलने के लिए मजबूर कर दिया है.

आखिर खुदरा व्यापार क्षेत्र को खोलने का फैसला सरकार बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के दबाव में ही कर रही है. ऐसे में भला कौन मानेगा कि यू.पी.ए या भविष्य की कोई सरकार ४३० अरब डालर के सालाना कारोबार वाली अमेरिकी खुदरा व्यापार कंपनी वालमार्ट से शर्तें मनवा सकेगी? 
 
 
 
(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के 27 सितम्बर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)                            

शनिवार, सितंबर 22, 2012

खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के विरोध का अवसरवाद और उसकी सीमाएं

भाजपा और दूसरे विपक्षी दल गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज करने का नाटक कर रहे हैं  


यू.पी.ए सरकार के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले ताजा फैसलों के खिलाफ सरकार की सबसे प्रमुख सहयोगी ममता बैनर्जी के सरकार से हटने और समर्थन वापस लेने और लगभग समूचे विपक्ष के सड़कों पर उतर कर ‘भारत बंद’ आयोजित करने के बावजूद सबसे हैरान करनेवाली बात यह है कि भाजपा के नेतृत्ववाली एन.डी.ए और कथित तीसरे मोर्चे की पार्टियां और नेता बहुत चतुराई से इस विरोध को समूची नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के बजाय सिर्फ कुछ तात्कालिक मुद्दों तक सीमित रखने की कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन उनकी यह चालाकी छुपाये छुप नहीं रही है. गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज वाली उनकी इस अवसरवादी अदा ने उनकी स्थिति हास्यास्पद बना दी है. यही कारण है कि खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश और डीजल और रसोई गैस की बढ़ी कीमतों के खिलाफ उनके आंदोलन की विश्वसनीयता नहीं बन पा रही है.
विपक्षी दलों खासकर भाजपा पर यह आरोप लग रहा है और उसमें काफी सच्चाई भी है कि जब वे खुद सत्ता में थे तो वे इन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को जोरशोर से लागू करते रहे जिनके अगले चरण के बतौर यू.पी.ए सरकार ने खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का फैसला किया है.
उल्लेखनीय है कि भाजपा के नेतृत्ववाली एन.डी.ए सरकार ने सबसे पहले पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को तय करनेवाली प्रशासनिक मूल्य व्यवस्था (ए.पी.एम) को समाप्त करते हुए पेट्रोल और डीजल आदि की कीमतों को बाजार के हवाले कर दिया था.
यही नहीं, तत्कालीन एन.डी.ए सरकार ने 2002 में न सिर्फ खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने को लेकर एक विस्तृत नोट तैयार किया था बल्कि उस सरकार में वित्त मंत्री रहे जसवंत सिंह ने २००४ के आम चुनावों से पहले एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में स्पष्ट तौर पर कहा था कि सत्ता में वापसी पर वे खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के प्रति प्रतिबद्ध हैं.
यह उनके २००४ के घोषणापत्र में भी था जिसमें खुदरा व्यापार में २६ फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत देने का वायदा किया गया था. यह ठीक है कि भाजपा ने २००९ के आम चुनावों में अपने घोषणापत्र में खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का विरोध किया था.

निश्चय ही, किसी भी लोकतांत्रिक और गतिशील पार्टी की तरह भाजपा को अपने विचार बदलने की पूरी आज़ादी है लेकिन उसने अब तक विचारों में आए बदलाव की तार्किक वजह नहीं बताई है. उसने यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि विचारों में आया यह बदलाव सिर्फ एक मुद्दे तक सीमित है या नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का समग्र विरोध कर रही है?
असल में, यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भाजपा घोषित तौर पर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की समर्थक रही है और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराती रही है. यही नहीं, भाजपा का यह दावा भी रहा है कि वह जनसंघ के जमाने से अर्थव्यवस्था के उदारीकरण, खुले बाजार और निजीकरण की समर्थक रही है और इस अर्थ में वह देश में उदारीकरण की नीतियों की सबसे पुरानी और वास्तविक समर्थक पार्टी है.         
हालाँकि भाजपा और खासकर संघ समर्थित कुछ अनुषांगिक संगठन गाहे-बगाहे स्वदेशी अर्थनीति की बातें भी करते रहे हैं लेकिन यह किसी से छुपा नहीं है कि एन.डी.ए के छह सालों से अधिक के कार्यकाल में स्वदेशी का क्या हश्र हुआ और अब तो उसका कोई नामलेवा भी नहीं रहा.

कहने का गरज यह कि भाजपा की मूल आर्थिक नीतियों में कोई बदलाव नहीं आया है और वह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के प्रति अभी भी उतनी ही प्रतिबद्ध है जितनी २००४ में थी. ऐसे में सवाल यह उठता है कि एक ओर आर्थिक सुधारों का समर्थन और दूसरी ओर, खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का विरोध की विसंगति को भाजपा का अवसरवाद क्यों न माना जाए?

आखिर खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का मुद्दा आर्थिक सुधारों के अगले चरण से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है और आर्थिक सुधारों का मतलब अर्थव्यवस्था को अधिक से अधिक देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए खोलने, विनियमन (डी-रेगुलेशन), विनिवेश के जरिये निजीकरण, खुले बाजार को प्रोत्साहन और सरकारी खर्चों खासकर सब्सिडी में कटौती रहा है.
ऐसे में, यह कैसे हो सकता है कि अर्थव्यवस्था के अधिकांश क्षेत्रों के लिए विदेशी पूंजी को अमृत बताया जाए और कुछ क्षेत्रों के लिए उसे जहर घोषित कर दिया जाए? अगर खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी खतरा है तो वह बैंकिंग, बीमा, पेंशन, शेयर बाजार से लेकर विभिन्न उद्योगों और इन्फ्रास्ट्रक्चर में कैसे फायदेमंद और सुरक्षित है? अगर खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक है तो शेयर बाजार में आनेवाले विदेशी संस्थागत निवेशक (एफ.आई.आई) यानी आवारा पूंजी कैसे सुरक्षित और लाभकारी है?    
इसीलिए असली मुद्दा वे नव उदारवादी आर्थिक नीतियां हैं जिनके तहत पिछले दो दशकों में हुए आर्थिक सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को न सिर्फ विदेशी पूंजी की बैसाखी के भरोसे खड़ा कर दिया है बल्कि विदेशी पूंजी पर उसकी अति निर्भरता ने उसे विदेशी निवेशकों, कंपनियों और रेटिंग एजेंसियों के भयादोहन के आगे झुकने के लिए मजबूर कर दिया है.

गौरतलब है कि यू.पी.ए सरकार के ताजा आर्थिक फैसलों का बचाव करते हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने यह तर्क दिया कि अगर सरकार ये फैसले नहीं करती तो स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स जैसी विदेशी क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग गिरा देती जिससे देश से विदेशी पूंजी का पलायन तेज हो जाता और देश फिर से १९९१ की तरह के आर्थिक संकट में फंस जाता.       
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि जिन आर्थिक सुधारों को अर्थव्यवस्था और देश की हर मर्ज की दवा बताया जा रहा था, उससे वे मर्ज खत्म तो नहीं हुए, उल्टे और बिगड़ गए हैं. यहाँ तक कि आर्थिक सुधारों की शुरुआत करते हुए यह दावा किया गया था कि इससे लाइसेंस, कोटा-परमिट और इंस्पेक्टर राज खत्म होगा और उसके कारण देश में भ्रष्टाचार खत्म या कम हो जाएगा.
लेकिन आर्थिक सुधारों के इन दो दशकों में भ्रष्टाचार के मामलों की संख्या और उनका आकार कई गुना बढ़ गया है. इसी तरह से इन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण गैर बराबरी तेजी से बढ़ रही है, गरीबी घट नहीं रही है, बेरोजगारी जस की तस है, कृषि संकट बढ़ता जा रहा है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं और मानव विकास के सूचकांकों पर देश लगातार पिछड़ता जा रहा है.
यही नहीं, विपक्ष की नींद भले अब खुली हो लेकिन तथ्य यह है कि इन नीतियों का पूरे देश में विरोध बढ़ता जा रहा है. पूरे देश में जगह-जगह आमलोग खासकर किसान, आदिवासी, श्रमिक, दलित ‘जल-जंगल-जमीन और खनिजों’ की कारपोरेट लूट के खिलाफ लड़ रहे हैं.

अफ़सोस की बात यह है कि कई राज्यों में इन नीतियों के खिलाफ लड़ रहे लोगों को इसी विपक्ष की सरकारों का दमन झेलना पड़ रहा है. इसलिए यह जरूरी हो गया है कि खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के विरोध के सवाल पर हो रही बहस के दायरे को फैलाया जाए और जैसे पूरी दुनिया में इन नीतियों को लेकर बहस तेज हुई है, वैसे ही देश में भी इस बहस को तेज किया जाए.

इस मायने में खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के खिलाफ खुद शासक वर्गों के अंदर से उठे विरोध ने पिछले दो दशकों में पहली बार नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के विरोध के मुद्दे को राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर ला दिया है. इसने इन आर्थिक नीतियों के खिलाफ लड़ रही जनांदोलन की ताकतों के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप का मौका खोला है. उन्हें इस मौके को चूकना नहीं चाहिए.

('दैनिक भास्कर' के नई दिल्ली संस्करण में 21 सितम्बर को आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित टिप्पणी) 

बुधवार, सितंबर 19, 2012

नव उदारवादी ‘झटका उपचार’ का नया दौर

यह अर्थनीति के राजनीति से स्वतंत्र होने की निशानी है

पहली किस्त

यू.पी.ए सरकार ने एक झटके में ताबड़तोड़ डीजल-रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी से लेकर अर्थव्यवस्था के संवेदनशील क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और सार्वजानिक क्षेत्र की कई कंपनियों के विनिवेश जैसे कई बड़े और विवादास्पद फैसलों का एलान करके संकट में फंसी अर्थव्यवस्था पर ‘झटका उपचार’ (शॉक थेरेपी) को आजमाने की कोशिश की है.
 
चौंकने की जरूरत नहीं है. यह बाकायदा ‘झटका उपचार’ ही है और यह भारत में कोई पहली बार नहीं आजमाया जा रहा है. याद रहे, १९९१ में नरसिम्हा राव सरकार और तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने इसी अंदाज़ में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी. यही नहीं, भारत के अलावा और भी कई देशों में इस ‘झटका उपचार’ यानी शॉक थेरेपी को आजमाया जा चुका है.
असल में, ‘झटका उपचार’ (शॉक थेरेपी) नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में ७० से लेकर ९० के दशक तक मुक्त बाजार और व्यापार आधारित बाजारोन्मुख आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का सबसे कुख्यात तरीका रहा है. अमेरिकी नव उदारवादी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन को इसका प्रमुख सिद्धांतकार और रचनाकार माना जाता है.

फ्रीडमैन के नेतृत्व में ही सबसे पहले ७० के दशक के मध्य में लातिनी अमेरिकी देश चिली में तानाशाह जनरल पिनोशे की सरकार ने ‘झटका उपचार’ के तहत अर्थव्यवस्था के बड़े पैमाने पर निजीकरण, खुले व्यापार, विदेशी पूंजी को न्यौता, सामाजिक कल्याण की योजनाओं को समेटने या उनके बजट में भारी कटौती जैसे कदम एक झटके में उठाये थे और लोगों को संभलने का मौका भी नहीं दिया था.

उल्लेखनीय है कि उससे पहले अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सी.आई.ए ने चिली में वामपंथी राष्ट्रपति साल्वाडोर अलेंदे की लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को जनरल पिनोशे की अगुवाई में सैनिक तख्तापलट के जरिये हटाने में सक्रिय भूमिका निभाई थी. यह चिली के लोगों के लिए पहला शॉक था और यह किसी से छुपा नहीं है कि उसके बाद बड़े पैमाने पर राजनीतिक खासकर वामपंथी नेताओं-कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई और उनका उत्पीडन किया गया.
उसके बाद अर्थव्यवस्था के त्वरित ‘सम्पूर्ण रूपांतरण’ की नव उदारवादी परियोजना के तहत मिल्टन फ्रीडमैन और उनके शिकागो स्कूल के अर्थशास्त्रियों के नेतृत्व में अर्थव्यवस्था को ‘झटका उपचार’ दिया गया जिसका मुख्य जोर निजीकरण, मुक्त बाजार, खुले व्यापार, विदेशी पूंजी और सामाजिक कल्याण की योजनाओं को समेटने पर था.
यह सब एक झटके और ताबड़तोड़ अंदाज़ में किया गया और इसके पीछे फ्रीडमैन का तर्क यह था कि अर्थव्यवस्था में अचानक, अत्यधिक तेजी और बड़े पैमाने पर किये गए बदलावों से आमलोगों में जो मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया होगी उससे उन्हें उन बदलावों के साथ सामंजस्य बैठाने में मदद मिलेगी. फ्रीडमैन ने इसे बाकायदा ‘झटका उपचार’ (शॉक ट्रीटमेंट) का नाम दिया.

इसके बाद लातिन अमेरिका के अन्य देशों जैसे ब्राजील, अर्जेंटीना और उरुग्वे आदि में भी ७० के दशक के उत्तरार्ध में अमेरिका समर्थित सैनिक या तानाशाह सरकारों ने मिल्टन फ्रीडमैन और उनके शिकागो स्कूल के अर्थशास्त्रियों के नेतृत्व में ‘झटका उपचार’ के साथ नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को जोर-जबरदस्ती लागू किया. जल्दी ही लातिन अमेरिका इन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की सबसे बड़ी प्रयोगस्थली बन गया.

इसी दौर में खुद अमेरिका में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और ब्रिटेन में प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने इन नव उदारवादी सुधारों को जोरशोर से आगे बढ़ाया. इन सुधारों का सबसे अधिक जोर निजीकरण खासकर सार्वजनिक सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने, सामाजिक कल्याण की योजनाओं में कटौती, अमीरों और कार्पोरेट्स के लिए टैक्सों में कटौती, विनियमन (डी-रेगुलेशन), मुक्त बाजार और व्यापार और ट्रेड यूनियनों को खत्म करना था. कहने की जरूरत नहीं है कि इन सुधारों के सिद्धांतकार मिल्टन फ्रीडमैन थे जिनकी किताब ‘पूंजीवाद और आज़ादी’ (कैपिटलिज्म एंड फ्रीडम) इन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की बाइबिल बन गई थी.
दरअसल, फ्रीडमैन की मुक्त बाजार वैचारिकी का सार यह था कि सरकारों को कंपनियों के मुनाफे की राह में आनेवाले हर कानून और नियमों को खत्म कर देना चाहिए. सरकारों को कारोबार और उत्पादन से हट जाना चाहिए और हर उस सरकारी उपक्रम को निजी कंपनियों को सौंप देना चाहिए जिन्हें वे मुनाफे के साथ चला सकते हैं.

सरकारों को सामाजिक कल्याण के उपायों को या तो बंद कर देना चाहिए या उनके बजट में भारी कटौती करनी चाहिए. शिक्षा और स्वास्थ्य समेत सभी सार्वजनिक सेवाओं का निजीकरण कर देना चाहिए. यही नहीं, सरकारों की भूमिका सीमित होनी चाहिए और उन्हें बाजार में हस्तक्षेप करने से परहेज करना चाहिए. उन्हें टैक्सों में कटौती करनी चाहिए. कीमतें और मजदूरी/वेतन बाजार के भरोसे छोड़ देनी चाहिए.

इसी दौर में लातिन अमेरिकी देशों में नव उदारवादी सुधारों के ‘झटका उपचार’ की कथित ‘सफलताओं’ से उत्साहित अमरीका ने विश्व बैंक-मुद्रा कोष को आगे करके ‘वाशिंगटन सहमति’ के नाम पर एशिया और अफ्रीका के आर्थिक संकट में फंसे देशों में भी कर्ज के बदले इन नव उदारवादी सुधारों को शर्त की तरह थोपना शुरू किया.
यही समय था जब सोवियत रूस और पूर्वी यूरोप में समाजवादी प्रोजेक्ट अपने ही अंतर्विरोधों के कारण ढह रहा था और ‘पूंजीवाद और पूंजीवादी उदार लोकतंत्रों का कोई विकल्प नहीं है’ की घोषणा के साथ ‘इतिहास के अंत’ एलान किया जा रहा था. इसी दौरान रूस में राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के नेतृत्व में रूस में समाजवादी अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने की मुहिम में एक बार फिर ‘झटका उपचार’ का खुलकर इस्तेमाल किया गया और उसके प्रमुख रचनाकार अमेरिकी अर्थशास्त्री जैफ्री साक्स थे जो बोलीविया में यह प्रयोग कर चुके थे.
रूस में साक्स के नेतृत्व में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और संसाधनों का ताबड़तोड़ और झटके के साथ निजीकरण शुरू हुआ. सरकारी कंपनियों और संसाधनों को औने-पौने दामों में अमीरों और अभिजनों को बेच दिया गया जिसका नतीजा हुआ कि रूस में मुट्ठी भर अत्यधिक अमीर अभिजनों का एक ऐसा प्रभावशाली और ताकतवर समूह उभर आया जो आज रूस पर राज कर रहा है.

इसके साथ ही सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को खत्म किया गया, सार्वजनिक सेवाओं का निजीकरण किया गया और मुक्त बाजार की नीतियों को आगे बढ़ाया गया. नतीजे में, रूसी जनता के बड़े हिस्से को बहुत तकलीफदेह परिस्थितियों का सामना करना पड़ा और गरीबी-बेरोजगारी और गैर बराबरी तेजी से बढ़ी.

इधर भारत में १९९१ में भुगतान संतुलन के संकट से निपटने के नामपर कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने अर्थव्यवस्था को ‘झटका उपचार’ देने के लिए विश्व बैंक-मुद्रा कोष की मदद से देशी डाक्टर खोज निकाला. यह किसी से छुपा नहीं है कि कांग्रेस के राजनेता न होने के बावजूद और बिना चुनाव जीते भी डा. मनमोहन सिंह को १९९१ में वित्त मंत्री बनाया गया और उन्होंने झटके के साथ वाशिंगटन सहमति के तहत ढांचागत समायोजन कार्यक्रम को लागू करना शुरू कर दिया.
इसके तहत निजीकरण, विनियमन, सब्सिडी कटौती, रूपये का अवमूल्यन, विदेशी निवेश, मुक्त बाजार और खुला व्यापार की नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाया गया. इसके बाद पिछले दो दशकों में क्या हुआ, यह इतिहास सबको पता है.
इस दौरान केन्द्र या राज्यों में आनेवाली सभी रंगों और झंडों की सरकारों ने आँख मूंदकर और पहले से ज्यादा उत्साह से यह तर्क देते हुए नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया है कि इनका कोई विकल्प नहीं है.

यही कारण है कि ताजा आर्थिक सुधारों के बारे में कैबिनेट के फैसलों की जानकारी दे रहे केन्द्रीय उद्योग और वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा से जब पत्रकारों ने पूछा कि विपक्ष के कड़े विरोध को देखते हुए आप विदेशी कंपनियों और निवेशकों को कैसे आश्वस्त करेंगे कि सरकार बदलने की स्थिति में खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की नीति को पलटा नहीं जाएगा, उन्होंने पलटकर सवाल दागा कि पिछले बीस वर्षों में आर्थिक सुधारों से संबंधित कौन सा फैसला पलटा गया है?

यह एक ऐसा तथ्य है जिसे नकारना मुश्किल है और जो यह बताता है कि देश में अर्थनीति, राजनीति से बहुत पहले स्वतंत्र हो चुकी है....

जारी.....कल पढ़िए दूसरी और आखिरी किस्त

('जनसत्ता' के 19 सितम्बर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)