भाजपा और दूसरे विपक्षी दल गुड़ खाकर गुलगुले से
परहेज करने का नाटक कर रहे हैं
यह उनके २००४ के घोषणापत्र में भी था जिसमें खुदरा व्यापार में २६ फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत देने का वायदा किया गया था. यह ठीक है कि भाजपा ने २००९ के आम चुनावों में अपने घोषणापत्र में खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का विरोध किया था.
कहने का गरज यह कि भाजपा की मूल आर्थिक नीतियों में कोई बदलाव नहीं आया है और वह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के प्रति अभी भी उतनी ही प्रतिबद्ध है जितनी २००४ में थी. ऐसे में सवाल यह उठता है कि एक ओर आर्थिक सुधारों का समर्थन और दूसरी ओर, खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का विरोध की विसंगति को भाजपा का अवसरवाद क्यों न माना जाए?
गौरतलब है कि यू.पी.ए सरकार के ताजा आर्थिक फैसलों का बचाव करते हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने यह तर्क दिया कि अगर सरकार ये फैसले नहीं करती तो स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स जैसी विदेशी क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग गिरा देती जिससे देश से विदेशी पूंजी का पलायन तेज हो जाता और देश फिर से १९९१ की तरह के आर्थिक संकट में फंस जाता.
अफ़सोस की बात यह है कि कई राज्यों में इन नीतियों के खिलाफ लड़ रहे लोगों को इसी विपक्ष की सरकारों का दमन झेलना पड़ रहा है. इसलिए यह जरूरी हो गया है कि खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के विरोध के सवाल पर हो रही बहस के दायरे को फैलाया जाए और जैसे पूरी दुनिया में इन नीतियों को लेकर बहस तेज हुई है, वैसे ही देश में भी इस बहस को तेज किया जाए.
इस मायने में खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के खिलाफ खुद शासक वर्गों के अंदर से उठे विरोध ने पिछले दो दशकों में पहली बार नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के विरोध के मुद्दे को राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर ला दिया है. इसने इन आर्थिक नीतियों के खिलाफ लड़ रही जनांदोलन की ताकतों के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप का मौका खोला है. उन्हें इस मौके को चूकना नहीं चाहिए.
('दैनिक भास्कर' के नई दिल्ली संस्करण में 21 सितम्बर को आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित टिप्पणी)
यू.पी.ए सरकार के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले ताजा
फैसलों के खिलाफ सरकार की सबसे प्रमुख सहयोगी ममता बैनर्जी के सरकार से हटने और
समर्थन वापस लेने और लगभग समूचे विपक्ष के सड़कों पर उतर कर ‘भारत बंद’ आयोजित करने
के बावजूद सबसे हैरान करनेवाली बात यह है कि भाजपा के नेतृत्ववाली एन.डी.ए और कथित
तीसरे मोर्चे की पार्टियां और नेता बहुत चतुराई से इस विरोध को समूची नव उदारवादी
आर्थिक नीतियों के बजाय सिर्फ कुछ तात्कालिक मुद्दों तक सीमित रखने की कोशिश कर
रहे हैं.
लेकिन उनकी यह चालाकी छुपाये छुप नहीं रही है. गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज
वाली उनकी इस अवसरवादी अदा ने उनकी स्थिति हास्यास्पद बना दी है. यही कारण है कि खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश और डीजल और रसोई गैस
की बढ़ी कीमतों के खिलाफ उनके आंदोलन की विश्वसनीयता नहीं बन पा रही है.
विपक्षी
दलों खासकर भाजपा पर यह आरोप लग रहा है और उसमें काफी सच्चाई भी है कि जब वे खुद
सत्ता में थे तो वे इन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को जोरशोर से लागू करते रहे
जिनके अगले चरण के बतौर यू.पी.ए सरकार ने खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए
खोलने का फैसला किया है.
उल्लेखनीय है कि भाजपा के नेतृत्ववाली एन.डी.ए सरकार ने
सबसे पहले पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को तय करनेवाली प्रशासनिक मूल्य व्यवस्था
(ए.पी.एम) को समाप्त करते हुए पेट्रोल और डीजल आदि की कीमतों को बाजार के हवाले कर
दिया था.
यही नहीं, तत्कालीन एन.डी.ए सरकार ने 2002 में न सिर्फ खुदरा व्यापार में
विदेशी पूंजी को इजाजत देने को लेकर एक विस्तृत नोट तैयार किया था बल्कि उस सरकार
में वित्त मंत्री रहे जसवंत सिंह ने २००४ के आम चुनावों से पहले एक अंग्रेजी अखबार
को दिए इंटरव्यू में स्पष्ट तौर पर कहा था कि सत्ता में वापसी पर वे खुदरा व्यापार
को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के प्रति प्रतिबद्ध हैं. यह उनके २००४ के घोषणापत्र में भी था जिसमें खुदरा व्यापार में २६ फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत देने का वायदा किया गया था. यह ठीक है कि भाजपा ने २००९ के आम चुनावों में अपने घोषणापत्र में खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का विरोध किया था.
निश्चय ही, किसी भी लोकतांत्रिक और गतिशील पार्टी की तरह भाजपा को
अपने विचार बदलने की पूरी आज़ादी है लेकिन उसने अब तक विचारों में आए बदलाव की
तार्किक वजह नहीं बताई है. उसने यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि विचारों में आया यह
बदलाव सिर्फ एक मुद्दे तक सीमित है या नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का समग्र विरोध
कर रही है?
असल में, यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भाजपा घोषित तौर पर नव
उदारवादी आर्थिक नीतियों की समर्थक रही है और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने को लेकर
अपनी प्रतिबद्धता दोहराती रही है. यही नहीं, भाजपा का यह दावा भी रहा है कि वह
जनसंघ के जमाने से अर्थव्यवस्था के उदारीकरण, खुले बाजार और निजीकरण की समर्थक रही
है और इस अर्थ में वह देश में उदारीकरण की नीतियों की सबसे पुरानी और वास्तविक
समर्थक पार्टी है.
हालाँकि भाजपा और खासकर संघ समर्थित कुछ अनुषांगिक संगठन गाहे-बगाहे
स्वदेशी अर्थनीति की बातें भी करते रहे हैं लेकिन यह किसी से छुपा नहीं है कि
एन.डी.ए के छह सालों से अधिक के कार्यकाल में स्वदेशी का क्या हश्र हुआ और अब तो
उसका कोई नामलेवा भी नहीं रहा. कहने का गरज यह कि भाजपा की मूल आर्थिक नीतियों में कोई बदलाव नहीं आया है और वह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के प्रति अभी भी उतनी ही प्रतिबद्ध है जितनी २००४ में थी. ऐसे में सवाल यह उठता है कि एक ओर आर्थिक सुधारों का समर्थन और दूसरी ओर, खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का विरोध की विसंगति को भाजपा का अवसरवाद क्यों न माना जाए?
आखिर खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का मुद्दा आर्थिक सुधारों के
अगले चरण से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है और आर्थिक सुधारों का मतलब अर्थव्यवस्था को
अधिक से अधिक देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए खोलने, विनियमन (डी-रेगुलेशन), विनिवेश
के जरिये निजीकरण, खुले बाजार को प्रोत्साहन और सरकारी खर्चों खासकर सब्सिडी में
कटौती रहा है.
ऐसे में, यह कैसे हो सकता है कि अर्थव्यवस्था के अधिकांश क्षेत्रों
के लिए विदेशी पूंजी को अमृत बताया जाए और कुछ क्षेत्रों के लिए उसे जहर घोषित कर
दिया जाए? अगर खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी खतरा है तो वह बैंकिंग, बीमा,
पेंशन, शेयर बाजार से लेकर विभिन्न उद्योगों और इन्फ्रास्ट्रक्चर में कैसे
फायदेमंद और सुरक्षित है? अगर खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई अर्थव्यवस्था के लिए
खतरनाक है तो शेयर बाजार में आनेवाले विदेशी संस्थागत निवेशक (एफ.आई.आई) यानी
आवारा पूंजी कैसे सुरक्षित और लाभकारी है?
इसीलिए असली मुद्दा वे नव उदारवादी आर्थिक नीतियां हैं जिनके तहत
पिछले दो दशकों में हुए आर्थिक सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को न सिर्फ विदेशी
पूंजी की बैसाखी के भरोसे खड़ा कर दिया है बल्कि विदेशी पूंजी पर उसकी अति निर्भरता
ने उसे विदेशी निवेशकों, कंपनियों और रेटिंग एजेंसियों के भयादोहन के आगे झुकने के
लिए मजबूर कर दिया है. गौरतलब है कि यू.पी.ए सरकार के ताजा आर्थिक फैसलों का बचाव करते हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने यह तर्क दिया कि अगर सरकार ये फैसले नहीं करती तो स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स जैसी विदेशी क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग गिरा देती जिससे देश से विदेशी पूंजी का पलायन तेज हो जाता और देश फिर से १९९१ की तरह के आर्थिक संकट में फंस जाता.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि जिन आर्थिक सुधारों को अर्थव्यवस्था और
देश की हर मर्ज की दवा बताया जा रहा था, उससे वे मर्ज खत्म तो नहीं हुए, उल्टे और
बिगड़ गए हैं. यहाँ तक कि आर्थिक सुधारों की शुरुआत करते हुए यह दावा किया गया था
कि इससे लाइसेंस, कोटा-परमिट और इंस्पेक्टर राज खत्म होगा और उसके कारण देश में
भ्रष्टाचार खत्म या कम हो जाएगा.
लेकिन आर्थिक सुधारों के इन दो दशकों में
भ्रष्टाचार के मामलों की संख्या और उनका आकार कई गुना बढ़ गया है. इसी तरह से इन नव
उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण गैर बराबरी तेजी से बढ़ रही है, गरीबी घट नहीं रही
है, बेरोजगारी जस की तस है, कृषि संकट बढ़ता जा रहा है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं
और मानव विकास के सूचकांकों पर देश लगातार पिछड़ता जा रहा है.
यही नहीं, विपक्ष की नींद भले अब खुली हो लेकिन तथ्य यह है कि इन
नीतियों का पूरे देश में विरोध बढ़ता जा रहा है. पूरे देश में जगह-जगह आमलोग खासकर
किसान, आदिवासी, श्रमिक, दलित ‘जल-जंगल-जमीन और खनिजों’ की कारपोरेट लूट के खिलाफ
लड़ रहे हैं. अफ़सोस की बात यह है कि कई राज्यों में इन नीतियों के खिलाफ लड़ रहे लोगों को इसी विपक्ष की सरकारों का दमन झेलना पड़ रहा है. इसलिए यह जरूरी हो गया है कि खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के विरोध के सवाल पर हो रही बहस के दायरे को फैलाया जाए और जैसे पूरी दुनिया में इन नीतियों को लेकर बहस तेज हुई है, वैसे ही देश में भी इस बहस को तेज किया जाए.
इस मायने में खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के खिलाफ खुद शासक वर्गों के अंदर से उठे विरोध ने पिछले दो दशकों में पहली बार नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के विरोध के मुद्दे को राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर ला दिया है. इसने इन आर्थिक नीतियों के खिलाफ लड़ रही जनांदोलन की ताकतों के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप का मौका खोला है. उन्हें इस मौके को चूकना नहीं चाहिए.
('दैनिक भास्कर' के नई दिल्ली संस्करण में 21 सितम्बर को आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित टिप्पणी)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें