राजनीति का असली अखाडा बन है टी.वी का पर्दा
टी.वी का पर्दा राजनीति का असली अखाडा बन है. टी.वी पर ही शह और मात होने लगी है. २४ घंटों के न्यूज चैनलों के कारण राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों का संवेदी सूचकांक (पोल्सेक्स) घंटे-घंटे में चढ़ने-उतरने लगा है. प्रधानमंत्री संसद में बयान नहीं दे पाते तो वे टी.वी के कैमरों पर बोलते हैं. उसका जवाब तुरंत विपक्ष के नेता देते हैं. सब कुछ लाइव है. राजनीति लाइव हो चुकी है.
कोयला आवंटन पर सी.ए.जी की रिपोर्ट, विपक्ष के आरोपों, सरकार के बचाव और सिविल सोसायटी की ओर से दोनों पर लगाये आरोपों ने भारी कन्फ्यूजन पैदा कर दिया है. इसके कारण राष्ट्रीय राजनीति में भी भारी कन्फ्यूजन का माहौल है. दर्शक हैरान हैं. लेकिन न्यूज चैनल इस कन्फ्यूजन को दूर करने के बजाय और बढ़ाने में लगे हुए हैं.
इसके कारण देश की बेशकीमती प्राकृतिक सम्पदा के लूटखसोट पर राजनीति तो बहुत हो रही है लेकिन अफसोस की बात यह है कि साउंडबाईट के बढते शोर में चोर को भाग निकलने का मौका मिल जा रहा है.
('तहलका' के 15 सितम्बर अंक में प्रकाशित स्तम्भ)
कोयला खदानों के आवंटन में धांधली पर सी.ए.जी की रिपोर्ट और उसपर संसद
में मचे हंगामे के बाद से देश भर में कोयला घोटाला न्यूज मीडिया की सुर्ख़ियों में
है. इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग पर अड़े विपक्ष ने संसद के मॉनसून
सत्र को ठप्प कर दिया.
नतीजा, इस मुद्दे पर बहस का मंच संसद के बजाय न्यूज चैनलों
के स्टूडियो हो गया और वहीं कांग्रेस और भाजपा के नेता और मंत्री ‘तू-तू-मैं-मैं’
और एक-दूसरे को नंगा करते नजर आने लगे. इसमें कोई नई बात नहीं है. संसद चले या
नहीं, संसद सत्र हो या नहीं लेकिन चैनलों पर बिला नागा इस या उस मुद्दे पर बहस से
लेकर महाबहस चलती रहती है.
ऐसा लगता है जैसे चैनलों के स्टूडियो ने संसद की जगह ले ली है. यह भारतीय
राजनीति के सम्पूर्ण टीवीकरण का एक और उदाहरण है. सच पूछिए तो राजनीति टी.वी के
जरिये ही हो रही है. राजनेता और राजनीतिक पार्टियां टी.वी को ध्यान में रखकर
राजनीतिक आयोजन और पहलकदमियां लेने लगी हैं. टी.वी का पर्दा राजनीति का असली अखाडा बन है. टी.वी पर ही शह और मात होने लगी है. २४ घंटों के न्यूज चैनलों के कारण राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों का संवेदी सूचकांक (पोल्सेक्स) घंटे-घंटे में चढ़ने-उतरने लगा है. प्रधानमंत्री संसद में बयान नहीं दे पाते तो वे टी.वी के कैमरों पर बोलते हैं. उसका जवाब तुरंत विपक्ष के नेता देते हैं. सब कुछ लाइव है. राजनीति लाइव हो चुकी है.
सचमुच, न्यूज चैनलों ने भारतीय राजनीति को बदल दिया है. चैनलों के
कारण भारतीय राजनीति ज्यादा गतिशील और त्वरित हुई है और एक हद तक जवाबदेह और
पारदर्शी भी हुई है लेकिन इससे कहीं ज्यादा उसमें ड्रामे का महत्व बढ़ा है, तर्क और
तथ्य की जगह वाक्पटुता या कहें कि गले की ताकत और प्रदर्शन क्षमता ने ले ली है और बहस
का मतलब शोर-शराबा होता जा रहा है.
इन सबके बीच राजनीतिक पत्रकारिता का
‘चाल-चरित्र-चेहरा’ काफी बदल सा गया है और वह चाहे-अनचाहे साउंडबाईट और पी.आर
पत्रकारिता में बदलती जा रही है. यही नहीं, साउंडबाईट, लाइव और स्टूडियो बहस के
बीच फाइलों-दस्तावेजों और स्रोतों पर आधारित खोजी पत्रकारिता तो जैसे अतीत की बात
हो गई है.
कोयला घोटाले को ही लीजिए. इस मुद्दे पर चैनलों ने दिनों-घंटों का एयर
टाइम खर्च किया है, खूब हंगामी बहसें हुई हैं, लाइव प्रेस कांफ्रेंसों में
आरोप-प्रत्यारोप हुए हैं लेकिन इन सबके शोर-शराबे के बीच स्पष्टता कम और भ्रम
(कन्फ्यूजन) ज्यादा बढ़ गया है. कोयला आवंटन पर सी.ए.जी की रिपोर्ट, विपक्ष के आरोपों, सरकार के बचाव और सिविल सोसायटी की ओर से दोनों पर लगाये आरोपों ने भारी कन्फ्यूजन पैदा कर दिया है. इसके कारण राष्ट्रीय राजनीति में भी भारी कन्फ्यूजन का माहौल है. दर्शक हैरान हैं. लेकिन न्यूज चैनल इस कन्फ्यूजन को दूर करने के बजाय और बढ़ाने में लगे हुए हैं.
असल में, चैनलों पर छा गए साउंडबाईट पत्रकारिता की यह सबसे बड़ी विफलता
है. वह राष्ट्रीय राजनीति की मौजूदा गुत्थियों को सुलझाने और सच्चाई को सामने लाने
में नाकाम रहे हैं क्योंकि उनसे यह अपेक्षा थी और है कि वे कोयला घोटाले की
बारीकियां को खोलेंगे, उसकी स्वतंत्र पड़ताल करेंगे, उसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य
में रखेंगे और दर्शकों के लिए उसके मायने बतलायेंगे.
उदाहरण के लिए, जिन ५७ कोयला
ब्लाकों का आवंटन हुआ है, उसकी लाभार्थी कम्पनियाँ कौन सी हैं, उनकी किस योग्यता
पर यह आवंटन हुआ, उसका उन्हें क्या फायदा हुआ, वे कोयले की खुदाई क्यों नहीं शुरू
कर पाईं और विभिन्न राज्य सरकारों की इसमें क्या भूमिका रही है?
ये कुछ सवाल हैं लेकिन
ऐसे बहुतेरे सवाल है जिनका उत्तर मिलना अभी बाकी है. लेकिन चैनलों की ‘आरामतलब
पत्रकारिता’ पार्टी कार्यालयों की साउंडबाईट और स्टूडियो बहसों से बाहर निकलने और
मेहनत करने के लिए तैयार नहीं दिख रही है. इसके कारण देश की बेशकीमती प्राकृतिक सम्पदा के लूटखसोट पर राजनीति तो बहुत हो रही है लेकिन अफसोस की बात यह है कि साउंडबाईट के बढते शोर में चोर को भाग निकलने का मौका मिल जा रहा है.
('तहलका' के 15 सितम्बर अंक में प्रकाशित स्तम्भ)
1 टिप्पणी:
टीवी चैनलों पर कृत्रिम संसदीय माहौल कोई खराब चीज नहीं लेकिन आपने सही कहा कि सिर्फ इसी माहौल को बनाए रखने की कीमत पत्रकारीय शोध की बलि नहीं होनी चाहिए।
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