सोमवार, सितंबर 10, 2012

संकट में भारतीय अर्थव्यवस्था : लेकिन यह संकट किसका है?

अर्थव्यवस्था जब कुलांचे भर रही थी, तब भी आम आदमी का हाल बुरा था 

पहली किस्त

भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट गहराता जा रहा है. यह संकट कई रूपों में दिखाई पड़ रहा है. लेकिन सरकार और गुलाबी अखबार आर्थिक विकास दर यानी जी.डी.पी की वृद्धि दर में आ रही गिरावट से सबसे ज्यादा चिंतित और परेशान हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि जब तक जी.डी.पी की वृद्धि दर ८ और ९ फीसदी से ऊपर चल रही थी, सरकार से लेकर शेयर बाजार तक और देशी-विदेशी निवेशकों/कार्पोरेट्स से लेकर विश्व बैंक-मुद्रा कोष, मूडीज और स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स जैसी देशी-विदेशी संस्थाओं तक सभी सातवें आसमान पर थे.
हर ओर बूम और जश्न का माहौल था, जी.डी.पी को दोहरे अंकों में ले जाने के दावे थे और गुलाबी कारपोरेट मीडिया में भारतीय अर्थव्यवस्था की कामयाबियों और आर्थिक महाशक्ति बनने की संभावनाओं की सुर्खियाँ छाई हुई थीं.
लेकिन पिछले डेढ़ साल में इन सबका सुर बदल चुका है. कहा जा रहा है कि ‘भारत की कहानी’ (इंडिया स्टोरी) खत्म हो चुकी है. कारण, पिछले वित्तीय वर्ष २०११-१२ में आर्थिक विकास यानी सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) की वृद्धि दर में तेज गिरावट दर्ज की गई है. उल्लेखनीय है कि वित्तीय वर्ष २०११-१२ में जी.डी.पी की वृद्धि दर ६.५ फीसदी रही जोकि उसके पिछले साल (२०१०-११) की उच्च जी.डी.पी वृद्धि दर ८.४ फीसदी से लगभग २ फीसदी कम है.

सबसे ज्यादा चिंता इस बात पर जताई जा रही है कि पिछले वित्तीय वर्ष की चौथी और आखिरी तिमाही में जी.डी.पी की वृद्धि दर लुढककर मात्र ५.३ फीसदी रह गई जोकि पिछले नौ वर्षों में अर्थव्यवस्था का सबसे खराब प्रदर्शन है.

यही नहीं, चालू वित्तीय वर्ष २०१२-१३ की पहली तिमाही (अप्रैल-जून’१२) के जी.डी.पी के आंकड़े नहीं आए हैं लेकिन इस दौरान औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि दर के नकारात्मक रहने और दूसरे सूचकांकों के लचर प्रदर्शन को देखते हुए आशंका यह है कि इस तिमाही में जी.डी.पी में वृद्धि दर ५ से ६ फीसदी के बीच रहेगी.
इसके बावजूद प्रधानमंत्री और उनकी सलाहकार परिषद को लगता है कि इस साल जी.डी.पी की वृद्धि दर पिछले साल की तुलना में बेहतर रहेगी. लेकिन अर्थव्यवस्था की मौजूदा ढीली हालत खासकर यूरोपीय और वैश्विक आर्थिक संकट, देश में सूखे और बढ़ती मुद्रास्फीति-ब्याज दरों आदि के कारण अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी की वृद्धि दर में और गिरावट दर्ज की जाएगी और यह ५.५० से ६ फीसदी के बीच रहेगी.
यहाँ तक कि रिजर्व बैंक ने भी जी.डी.पी वृद्धि का अनुमान घटाकर ६ फीसदी कर दिया है. इन अनुमानों के मद्देनजर कई विदेशी रेटिंग एजेंसियों जैसे मूडीज, स्टैण्डर्ड एंड पुअर्स और फिच ने यू.पी.ए सरकार को “नीतिगत लकवे” का शिकार बताते हुए भारत में निवेश सम्बन्धी रेटिंग में कटौती करके उसे नकारात्मक श्रेणी में डाल दी है और चेतावनी दी है कि अगर अगले कुछ महीनों में इसमें सुधार नहीं हुआ तो भारत की रेटिंग को जंक यानी निवेश के लायक नहीं श्रेणी में डाल दिया जायेगा.

इसके बाद से सरकार के अंदर और बाहर कारपोरेट समूहों और उनके लाबी संगठनों में हडकंप और घबराहट का माहौल है. ऐसा लगता है जैसे जी.डी.पी की वृद्धि दर में ८ या ९ फीसदी से गिरावट के साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठ जाएगा और सब कुछ खत्म हो जाएगा.           

यह ठीक है कि आज अर्थव्यवस्था संकट में है. लेकिन सवाल यह है कि क्या जब अर्थव्यवस्था आठवें या नवें आसमान पर चढ़ी हुई थी, उस समय कोई संकट नहीं था और सब कुछ अच्छा चल रहा था?
याद रहे कि जी.डी.पी की वृद्धि दर २००५-०६ से लेकर ०७-०८ तक तीन वर्षों तक ९ फीसदी से ऊपर रही लेकिन अमेरिका में सब प्राइम संकट के बाद आई वैश्विक मंदी के दौरान २००८-०९ में यह गिरकर ६.७ फीसदी रह गई. लेकिन यू.पी.ए सरकार द्वारा घोषित ‘स्टिमुलस पैकेज’ और २००९ के आम चुनावों से पहले की चुनावी तोहफों से अर्थव्यवस्था ने फिर रफ़्तार पकड़ी और २००९-१० और १०-११ में जी.डी.पी की रफ़्तार फिर उछलकर ८.४ फीसदी तक पहुँच गई.
कहने की जरूरत नहीं है कि उस समय हर ओर “इंडिया स्टोरी” की चर्चा हो रही थी. शेयर बाजार से लेकर देशी-विदेशी निवेशक तक और रेटिंग एजेंसियों से लेकर गुलाबी अखबारों तक सब बम-बम थे. लेकिन क्या अर्थव्यवस्था के साथ सब अच्छा चल रहा था और कोई संकट नहीं था?

सच यह है कि संकट उस समय भी था लेकिन वह संकट की मार सिर्फ आम आदमी यानी गरीबों, बेरोजगारों, बीमारों, भूखमरी के शिकार लोगों, आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर पड़ रही थी. अर्थव्यवस्था जी.डी.पी की कसौटी पर जरूर अच्छा कर रही थी और उसका फायदा भी मुट्ठी भर देशी-विदेशी कार्पोरेट्स, निवेशकों, अमीरों, उच्च मध्यवर्ग और मध्य वर्ग के एक हिस्से को मिल रहा था लेकिन आम लोगों का हाल बुरा था.

इसकी वजह यह है कि एक तो जी.डी.पी आधारित यह आर्थिक विकास का यह नव उदारवादी माडल कुछ खास क्षेत्रों और वर्गों तक सीमित था और दूसरे, आर्थिक विकास की प्रक्रिया विषमतापूर्ण और गैर बराबरी को बढ़ानेवाली थी. इस कारण इस आर्थिक विकास में आम लोगों की हिस्सेदारी नहीं थी. उल्टे इसके लिए उन्हें कीमत चुकानी पड़ रही थी.
उदाहरण के लिए, जब अर्थव्यवस्था जब तेज रफ़्तार से कुलांचे भर रही थी, उस समय रोजगार की वृद्धि दर कछुए की चाल से सरक रही थी. एन.एस.एस.ओ के ताजा ६६ वें दौर के सर्वेक्षण के मुताबिक, वर्ष २००४-०५ से ०९-१० के बीच सिर्फ १० लाख नए रोजगार के अवसर पैदा हुए जबकि सरकार का दावा हर साल ५० लाख रोजगार के नए अवसर पैदा करने का था.
दूसरी ओर, समावेशी विकास के दावों के बीच देश में गैर बराबरी भी तेजी से बढ़ रही है. हालाँकि यह देखने-समझने के लिए आंकड़ों और सर्वेक्षण की जरूरत नहीं है कि ग्रामीण और शहरी इलाकों में गरीबों और अमीरों के बीच खाई कितनी तेजी से बढ़ रही है लेकिन खुद सरकारी आंकड़े भी इसकी पुष्टि कर रहे हैं.

हाल ही में जारी एन.एस.एस.ओ के ६८ वें दौर (२०११-१२) के उपभोग व्यय सर्वेक्षण के नतीजों के मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे अमीर दस फीसदी लोगों और सबसे गरीब दस फीसदी लोगों की आय के बीच का अनुपात २००४-५ के ४.९ से बढ़कर ६.९ हो गया है जबकि शहरी क्षेत्रों में सबसे अधिक आय वाले दस फीसदी लोगों और सबसे कम आय वाले दस फीसदी लोगों की आय का अनुपात २००४-०५ के ८.४ से बढ़कर १०.९ हो गया है.

साफ़ है कि तेज आर्थिक विकास के बावजूद उससे निकलनेवाली समृद्धि में आमलोगों को उनका वास्तविक देय नहीं मिल रहा है. यह समझने के लिए अर्थशास्त्री होना जरूरी नहीं है कि जब जी.डी.पी की तीव्र वृद्धि दर के बावजूद रोजगार में बहुत नगण्य वृद्धि हो रही है तो ऐसे “रोजगारविहीन विकास” के बीच गैर बराबरी नहीं तो और क्या बढ़ेगी?
हैरानी की बात नहीं है कि इसी दौर में आसमान छूती महंगाई खासकर खाद्य पदार्थों की महंगाई ने गरीबों का जीना दूभर कर दिया है. याद रहे कि इस तरह की महंगाई गरीबों पर दोहरे टैक्स की तरह है. लेकिन जले पर नमक छिड़कने की तरह यू.पी.ए सरकार का दावा है कि यह महंगाई इसलिए बढ़ी है क्योंकि किसानों को उनकी उपज की अधिक कीमत दी जा रही है और ग्रामीण गरीबों की आय में मनरेगा के कारण इजाफा हुआ है.
लेकिन तथ्य यह है कि देश में हर महीने ७० किसान आत्महत्या कर रहे हैं. खुद सरकार द्वारा दी गई सूचना के मुताबिक, वर्ष २००८ से २०११ के बीच ३३३४ किसानों ने आत्महत्या की है. आरटीआई के तहत कृषि मंत्रालय के कृषि एवं सहकारिता विभाग से मिली जानकारी के अनुसार, इन तीन सालों में सबसे अधिक महाराष्ट्र में 1,862 किसानों ने आत्महत्या की जबकि आंध्रप्रदेश में 1,065, कर्नाटक में 371 किसानों ने आत्महत्या की. इस दौरान में पंजाब में 31 किसानों ने आत्महत्या की जबकि केरल में 11 किसानों ने कर्ज से तंग आ कर मौत को गले लगाया.

आरटीआई के तहत मिली जानकारी के अनुसार, देश भर में सबसे अधिक किसानों ने सूदखोरों से कर्ज लिया है. देश में किसानों के 1,25,000 परिवारों के सूदखोरों एवं महाजनों से कर्ज लिया है जबकि 53,902 किसान परिवारों ने व्यापारियों से कर्ज लिया. बैंकों से 1,17,100 किसान परिवारों ने कर्ज लिया जबकि कोओपरेटिव सोसाइटी से किसानों के 1,14,785 परिवारों ने कर्ज लिया.
साफ़ है कि किसानों को अगर ऊँची कीमतें मिल रही होतीं तो उन्हें आत्महत्या करने की नौबत नहीं आती. लेकिन जाहिर है कि गुलाबी अखबारों और रेटिंग एजेंसियों के लिए यह अर्थव्यवस्था का संकट नहीं है. उन्हें इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि जी.डी.पी की तेज रफ़्तार के बावजूद रोजगार वृद्धि की दर नगण्य है और देश में गैर बराबरी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है. उन्हें यह संकट नहीं लगता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि जी.डी.पी की ऊँची दर को भारत की सभी समस्याओं का इलाज बतानेवाले नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों को यह भी अर्थव्यवस्था का संकट नहीं लगता है कि जी.डी.पी की रफ़्तार तेज करने के नाम पर इन वर्षों में जिस तरह से सार्वजनिक संसाधनों- जल-जंगल-जमीन और खनिजों की लूट हुई है और सेज जैसी विकास योजनाओं के जरिये गरीब किसान-आदिवासियों को उनकी जमीनों और जंगलों से बेदखल किया गया है, उसके कारण लाखों लोग विस्थापित हुए हैं, अपनी आजीविका के साधनों से वंचित हो गए हैं और उन इलाकों का पर्यावरण तबाह हो गया है.

जारी ........ 


('सामयिक वार्ता' के सितम्बर अंक में प्रकाशित लेख की पहली किस्त)

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