शनिवार, मई 30, 2009

मीडिया में इतिहास और अनुपात बोध का एनीमिया


आनंद प्रधान


क्या समाचार मीडिया को इतिहास और अनुपात बोध का एनीमिया (रक्ताल्पता) हो गया है? क्या वह, विवेक और तर्क के बजाय भावनाओं से अधिक काम लेने लगा है? खासकर टी वी समाचार चैनलों में इतिहास और अनुपात बोध की अनुपस्थिति कुछ ज्यादा ही संक्रामक रोग की तरह फैलती जा रही है। समाचार चैनल इस कदर क्षणजीवी होते जा रहे हैं कि लगता ही नहीं है कि उस क्षण से पीछे और आगे भी कुछ था और है। समाचार चैनलों की स्मृति दोष की यह बीमारी अखबारों को भी लग चुकी है।

आम चुनाव 2009 और उसके नतीजों को ही लीजिए। पहली बात यह है कि बिना किसी अपवाद अधिकांश समाचार चैनलों और अखबारों के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण, एक्जिट पोल, चुनावी भविष्यवाणियां और पूर्वानुमान एक बार फिर मतदाता के मन को भांपने मे नाकामयाब रहें। लेकिन इसके लिए खेद जाहिर करने और नतीजों की तार्किक व्याख्या करने के बजाय चुनाव नतीजों को एक चमत्कार की तरह पेश किया गया। ऐसा लगा जैसे कांग्रेस को अकेले दम पर बहुमत मिल गया हो और भाजपा से लेकर वामपंथी पार्टियों और क्षेत्रीय दलों का पूरी तरह से सफाया हो गया हो।

सच है कि सफलता से ज्यादा सफल कुछ नही होता है और सफलता के अनेकों साथी होते है। चैनलों और अखबारों के पत्रकारों और विश्लेषकों पर ये दोनों बातें सबसे अधिक लागू होती है। चुनाव नतीजों का बारीकी से विश्लेषण करने के बजाय कांग्रेस की जीत और भाजपा और तीसरे मोर्चे के हार के लिए ज्यादातर अति-सरलीकृत कारण गिनाये गए जिनमें सामान्य इतिहास और अनुपात बोध का स्पष्ट अभाव था। इस इतिहास बोध के अभाव के कारण चुनावी नतीजों का विश्लेषण और जनादेश की व्याख्या इतनी भावुक, आत्मगत, पक्षपातपूर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त और एकतरफा थी कि जिसे इतिहास का ज्ञान नही होगा, उसे लगेगा जैसे कोई क्रांति हो गयी हो।

जाहिर है कि समाचार मीडिया कांग्रेस की जीत के उन्माद और आनंदोत्सव में ऐसे डूबा हुआ है कि किसी विश्लेषक को कांग्रेस की चुनाव रणनीति और अभियान मे कोई कमी नही दिख रही है। उसके मुताबिक, कांग्रेस इस जीत के साथ एक ऐसी पार्टी बन चुुकी है जिसमें कोई कमी नही है। यही नहीं, कांग्रेस अचानक ऐसा पारस पत्थर बन गयी जिसे छूकर ममता बैनर्जी से लेकर करूणानिधि तक मामूली पत्थर से सोना बन गए हैं। राहुल राग का तो खैर कहना ही क्या?

दूसरी ओर, समाचार मीडिया को एनडीए खासकर भाजपा और तीसरे मोर्चे मे माकपा की चुनावी रणनीति और अभियान में ऐसा कुछ नही दिखा जो सही था। यह साबित करने की कोशिश की गयी कि अब क्षेत्रीय दलों का जमाना गया, वामपंथी दल इतिहास बन जाएंगे और तीसरे-चैथे मोर्चे के सत्तालोलुप नेताओ को कूडेदान मे फेक दिया है। इसके अलावा भी बहुत कुछ और कहा गया जो विश्लेषण कम और भावोद्वेग अधिक था।

यहां इतिहास को याद करना बहुत जरूरी है। कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकारों का एक इतिहास रहा है और एक वर्तमान भी है। बहुत दूर न भी जाएं तो 1984 में मिस्टर क्लीन राजीव गांधी आज से कही ज्यादा भारी बहुमत और उससे भी अधिक उम्मीदों के साथ सत्ता में पहुंचे थे। उसके बाद क्या हुआ,वह बहुत पुराना इतिहास नही है। यही नही, कांग्रेस को इसबार लालू-मुलायम-मायावती और जयललिता जैसों की बैसाखी से भले मुक्ति मिल गयी हो लेकिन खुद कांग्रेसी इनसे कम नहीं हैं।

कांग्रेस खुद एक गठबंधन है जिसमे सत्ता के त्यागी, संत और सेवक कम और सत्ता के आराधक ज्यादा हैं। कांग्रेस मे सत्ता की मलाई में अपने-अपने हिस्से के लिए खींचतान कोई नई बात नही है। इसे देश ने पहले भी देखा है और आगे भी देखेगा। अगर रातों-रात ममता बैनर्जी और करूणानिधि बदल न गये हों तो देश उनके नखरे, रूठने और मनाने के नाटक आगे भी देखेगा।

याद रखिए, कांग्रेस का एक चरित्र है, एक संस्कृति है और एक इतिहास भी है। इसी तरह, सत्ता का भी अपना एक चरित्र, इतिहास और संस्कृति है। आमतौर पर इसमें रातो-रात बदलाव नही आता। लेकिन मीडिया इसे जानबूझकर अनदेखा कर रहा है। इसके कारण धीरे-धीरे यह स्मृति दोष की बीमारी बनती जा रही है। इस बीमारी ने उसे न सिर्फ दूर तक देख पाने में अक्षम बना दिया है बल्कि उसे निकट दृष्टि दोष की समस्या का भी सामना करना पड़ रहा है।

शुक्रवार, मई 22, 2009

कारपोरेट भ्रष्टाचार और बिजनेस पत्रकारिता

आनंद प्रधान
बिजनेस पत्रकारिता फिर सवालों के घेरे में है। शेयर बाजार की नियामक संस्था-सेबी ने मनोरंजन उद्योग की एक जानी-मानी कंपनी पिरामिड साइमिरा के शेयरों की कीमतों में तोड़मरोड़ (मैनिपुलेषन) करने के आरोप में कंपनी के एक एनआर आई प्रोमोटर, सीईओ और बाजार के कई और आपरेटरों के साथ देश के सबसे बड़े मीडिया समूह- बेनेट कोलमैन के गुलाबी बिजनेस दैनिक के एक वरिश्ठ पत्रकार राजेष उन्नीकृश्णन को शेयर बाजार में कारोबार करने से प्रतिबंधित कर दिया है। सेबी ने इन सभी को जालसाजी में शामिल पाया है।
इन जालसाजों ने सेबी के एक फर्जी पत्र के जरिए बाजार में अफवाह फैलाकर हजारों निवेषकों को लाखों रूपए का चूना लगा दिया। इस घोटाले के मुख्य जालसाज और पिरामिड के प्रोमोटर ने पिछले साल 22 दिसम्बर को पत्रकार उन्नीकृश्णन और पी आर मैनेजर राकेश शर्मा की मिलीभगत से सिर्फ कुछ घंटो में 20 लाख रूपए से अधिक कमा लिए थे।
कहने की जरूरत नहीं है कि पिरामिड साइमिरा प्रकरण ने शेयर बाजार से लेकर कारपोरेट जगत में पर्दे के पीछे चल रहे घोटालों, जालसाजियों, अनियमिताओं और भ्रश्टाचार के मामलों में बिजनेस पत्रकारों की प्रत्यक्ष और परोक्ष मिलीभगत, मौन सहमति या उसे जानबूझकर अनदेखा करने की तेजी से बढ़ती प्रवृत्ति को एक बार फिर उजागर कर दिया है।
बिजनेस पत्रकारिता के लिए यह चिंता और शर्म की बात है। शेयर बाजार की जालसाजी के मामले में देश के सबसे बड़े गुलाबी अखबार के एक वरिष्ठ पत्रकार का शामिल होना कोई पहली घटना नहीं है। कुछ सालों पहले भी इसी अखबार के एक और पत्रकार को ऐसी ही एक जालसाजी में शामिल पाया गया था। आश्चर्य की बात यह है कि जालसाजी के इन मामलों में छोटे अखबारों और चैनलों के बिजनेस पत्रकार नहीं बल्कि बड़े अखबारों और चर्चित बिजनेस चैनलों के स्टार बिजनेस पत्रकार शामिल पाए गए हैं जो मोटी तनख्वाहें पाते हैं।
यह चिंता की बात इसलिए भी है कि बिजनेस पत्रकारिता के कामकाज और तौर-तरीकों को लेकर काफी समय से सवाल उठ रहे हैं। पिछले साल सत्यम घोटाले के पर्दाफाश के बाद भी यह सवाल उठा था कि बिजनेस पत्रकारों को इतने बड़े घोटाले की भनक क्यों नहीं लगी?
इसमेें कोई दो राय नहीं है कि अगर सत्यम घोटाले में उसके मालिक रामलिंग राजू की जालसाजियों को समय रहते पकड़ने में सेबी, आॅडिटर्स,स्वतंत्र निदेषक, कंपनी लॉ बोर्ड से लेकर तमाम एजेंसियां नाकाम रहीं तो खुद को स्मार्ट बतानेवाली बिजनेस पत्रकारिता भी उसे सूंघने और समय रहते अपने पाठकों और दर्शकों को सचेत करने में विफल रही। सत्यम प्रकरण बिजनेस पत्रकारिता की विफलता का अकेला उदाहरण नहीं है।

इससे पहले भी शेयर बाजार में जितनी बार घोटाले हुए, बिजनेस पत्रकार और मीडिया न सिर्फ सोते हुए पाए गए बल्कि उनमें से अधिकांष घोटालेबाजों को महिमामंडित करने में जुटे हुए देखे गए। याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि चाहे वह बिग बुल कहे जानेवाला हर्शद मेहता रहा हो या केतन पारीख-बिजनेस मीडिया उनका आखिर-आखिर तक दीवाना बना रहा।
सच तो यह है कि शेयर बाजार में हर बड़े उछाल (बुल रन) में बिजनेस मीडिया की सबसे बड़ी भूमिका रही है। बिजनेस मीडिया के बड़े स्टार पत्रकारों और जानकारों ने हमेशा बिना कोई सवाल उठाए शेयर बाजार की कृत्रिम उछाल को वास्तविक और फंडामेंटल्स के अनुकूल बताने के लिए सच्चे-झूठे तर्क खोजने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी।
सचमुच, यह सोचने का समय आ गया है कि बिजनेस पत्रकारिता के साथ बुनियादी रूप से कहां गड़बड़ी है? इस सवाल का जवाब खोजना इसलिए जरूरी हो गया है कि बिजनेस मीडिया के बारे में यह आम धारणा लगातार मजबूत होती जा रही है कि वह पूरी तरह से कारपोरेट जगत और बाजार का पेड चाकर बन गया है और वह वॉचडाग की भूमिका को छोड़कर पी आर पत्रकारिता का पर्याय बन गया है।
अगर इस धारणा को समाप्त करने के लिए तत्काल गंभीर उपाय और बिजनेस पत्रकारों के लिए आचार संहिता को कड़ाई से लागू करने के प्रयास नहीं किए गए तो देश में तेजी से फल-फूल रहा बिजनेस मीडिया अपनी साख गंवा देगा। खतरे की घंटी बज चुकी है।

सोमवार, मई 18, 2009

इस जनादेश के सबक

आनंद प्रधान
मतदाताओं ने एक बार फिर राजनीतिक विश्लेषकों से लेकर चुनावी भविष्यवक्ताओं और यहां तक कि राजनीतिक दलों को भी चैका दिया है। किसी ने भी ऐसे परिणाम की उम्मीद नही की थी। ऐसे संकेत थे कि कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभरकर सामने आएगा लेकिन वह अकेले सत्ता के इतने करीब पहंुच जाएगा, इसका एहसास किसी को नही था। खुद कांग्रेस को यह उम्मीद नहीं थी कि उसे 200 के आस-पास और यूपीए को 260 सीटों के करीब सीटें आ जाएंगी। इसीलिए चुनावों के दौरान और मतगणना से पहले सरकार बनाने के लिए जोड़तोड़ और सौदेबाजी की चर्चाएं खूब जोर-शोर से चलती रहीं।
लेकिन ऐसा लगता है कि मतदाताओं को यह सब पसंद नही आया। उसने साफ तौर पर जोड़तोड़ और सौदेबाजी की राजनीति को नकार दिया है। इसमे कोई दो राय नहीं है कि यह छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों और सत्ता के भूखे नेताओं के अवसरवाद और निजी स्वार्थो की ‘सिनीकलश् राजनीति के खिलाफ जनादेश है। यह भाजपा की साम्प्रदायिक और बड़बोली राजनीति की भी हार है। इसके साथ ही यह माकपा की तथाकथित तीसरे मोर्चे की उस राजनीति के खिलाफ भी जनादेश है जिसने कांगे्रस और भाजपा का विकल्प देने के नाम पर एक ऐसा अवसरवादी और सत्तालोलुप गठजोड़ खड़ा करने की कोशिश की जिसका एक मात्र मकसद सत्ता की मलाई मे अपनी हिस्सेदारी हासिल करने के लिए मोलतोल की ताकत जुटाना था।
ऐसा कहने के पीछे कांग्रेस की जीत को कम करके आंकने की कोशिश नही है। निश्चय ही, इस जीत का श्रेय कांग्रेस को मिलना चाहिए। इसमे भी कोई ‘ाक नही है कि यह यूपीए से अधिक कांग्रेस की जीत है और कांग्रेस नेतृत्व को इसका श्रेय मिलना ही चाहिए। उसने अवसरवादी गठबंधनों और जोड़तोड़ की राजनीति के खिलाफ बह रही हवा के रूख को समय रहते भांप लिया। यही कारण है कि चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस ने एक बड़ा राजनीतिक जोखिम लिया। उसने यह ऐलान कर दिया कि इन चुनावों में वह राष्ट्रीय स्तर पर यूपीए जैसे किसी गठबंधन के तहत किसी दल या दलों के साथ कोई गठबंधन करने के बजाय राज्य स्तर पर गठबंधन करेगी। इस फैसले के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने यूपीए गठबंधन के कई घटक दलों की नाराजगी के बावजूद उत्तरप्रदेश और बिहार में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया।
कांग्रेस को इसका फायदा भी मिला है। उत्तरप्रदेश और बिहार में मुलायम सिंह, मायावती, लालू प्रसाद और रामविलास पासवान की संकीर्ण और अवसरवादी राजनीति को तगड़ा झटका लगा है। खासकर उत्तरप्रदेश में मायावती और मुलायम सिंह की कीमत पर कांग्रेस को न सिर्फ अपना पैर जमाने की जगह मिल गयी है बल्कि वह एक बड़ी ताकत के रूप मे उभर कर सामने आ गयी है। यही नही, उसने महाराष्ट्र जैसे राज्य में गठबंधन के बावजूद ‘ारद पवार जैसे महत्वाकांक्षी राजनेता को काबू मे रखने मे कामयाबी हासिल की है।
यह किसी से छिपा नही है कि एक राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस कभी भी गठबंधन की राजनीति के साथ सहज महसूस नही करती है। हालांकि 2004 में उसे मजबूरी में यूपीए गठबंधन के तहत राज चलाना पड़ा लेकिन उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और गठबंधन के दबावों के बीच एक घोषित-अघोषित संघर्ष लगातार जारी रहा। यह सच है कि गठबंधन राजनीति के प्रति भाजपा जितनी लचीली और समावेशी है, उतनी कांग्रेस नही हो सकती है। इसकी वजह यह है कि देश के उन सभी राज्यों में जहां क्षेत्रीय दलो का उभार हुआ है, वहां उनका सीधा मुकाबला कांग्रेस से है या किसी न किसी रूप में कांग्रेस के राजनीतिक हित जुड़े हुए है।
ऐसे में, कांग्रेस के लिए गठबंधन खासकर उन क्षेत्रीय दलों के साथ हमेशा से असहज रहा है जो कांग्रेस की कीमत पर उभर कर सामने आए हैं। यही कारण है कि उत्तर भारत के राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण दो राज्यों-उत्तरप्रदेश और बिहार में कभी मायावती और कभी मुलायम और लालू के साथ हेलमेल करने के बावजूद कांग्रेस अपने पुनरोदय के लिए हमेशा बेचैन रही है। राष्ट्रीय राजनीति मे अपनी कंेद्रीयता बनाये रखने के लिए भी यह जरूरी है कि कांग्रेस उत्तरप्रदेश और बिहार में अपनी खोई राजनीतिक जमीन हासिल करे। मुलायम सिंह, लालूप्रसाद, रामविलास पासवान और मायावती की संकीर्ण निजी स्वार्थो की सिनीकल राजनीति ने कांग्रेस को यह मौका दे भी दिया है।
कई राजनीतिक विश्लेषकों की यह राय काफी हद तक ठीक प्रतीत होती है कि यह क्षेत्रीय राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की छुद्र व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और ब्लैकमेल की राजनीति के खिलाफ एक स्थिर सरकार के पक्ष में जनादेश है। यही कारण है कि हारने के बावजूद भाजपा खुश है कि यह राष्ट्रीय दलों के पक्ष मे जनादेश है। निश्चय ही, यह जनादेश क्षेत्रीय दलों खासकर गैर कांग्रेस-गैर भाजपा दलों के लिए चेतावनी की घंटी है। उनकी नग्न अवसरवादी, सत्तालोलुप, स्वार्थी और भ्रष्ट राजनीति ने लोगों को सबसे अधिक निराश किया है। अपने राजनीतिक पतन के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं।
लेकिन क्षेत्रीय दलों और उनके तथाकथित तीसरे मोर्चे के इस राजनीतिक पतन और कांग्रेस के उभार के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना अभी जल्दबाजी होगी कि भारतीय राजनीति द्विदलीय होने की ओर बढ़ रही है और तीसरी राजनीति के लिए जगह खत्म हो रही है। सच यह है कि कांग्रेस का मुकाबला करने में भाजपा की नाकामयाबी ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि राष्ट्रीय राजनीति में एक तीसरी जगह की मांग मौजूद है। यही नही, इससे पहले कई भाजपा ‘ाासित राज्यों में भाजपा का मुकाबला करने में कांग्रेस की विफलता से भी यह स्पष्ट है कि राष्ट्रीय राजनीति में एक वास्तविक गैर कांग्रेस- गैर भाजपा विकल्प के लिए जगह मौजूद है।
ऐसे तीसरे विकल्प के लिए जगह इसलिए भी मौजूद है कि दोनों तथाकथित राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भाजपा के बीच नीतियों और कार्यक्रमों के स्तर पर बहुत फर्क नही रह गया है। दोनों दलों की आर्थिक वैचारिकी और नीतियों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। दोनों नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की खुली समर्थक हैं। विदेश नीति के मामले में भी दोनों में कोई खास फर्क नही है। दोनों अमेरिकी खेमे का हिस्सा बनने के लिए एक दूसरे से बढ़कर प्रयास करते रहे हैं। आंतरिक सुरक्षा के मामले में भी दोनों पार्टियां लगभग एक ही तरह से सोचती हैं। यही नहीं, उन दोनों के बीच साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता को लेकर जो फर्क दिखाई भी पड़ता है, वह दिखाने का फर्क अधिक है। सच यह है कि भाजपा कट्टर हिन्दुत्व और कांग्रेस नरम हिन्दुत्व की राजनीति करती रही है।
यही कारण है कि कांग्रेस, भाजपा का और भाजपा, कांग्रेस का वास्तविक विकल्प नहीं है। हालांकि ‘ाासक वर्ग की हरसंभव कोशिश यह है कि राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय राजनीति को इन्हीं दोनों पार्टियों के बीच सीमित कर दिया जाए। लेकिन जमीनी हालात इसके ठीक विपरीत हैं। मौजूदा आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक नीतियों के कारण लगातार हाशिए पर ढकेले जा रहे गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों-आदिवासियों, अल्पसंख्यकांे और निम्न मध्यवर्गीय तबकों में गहरी बेचैनी है। पिछले पांच वर्षो में सेज से लेकर बड़े उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण और खनन के पट्टों के खिलाफ देश भर में जनसंघर्षों की एक बाढ़ सी आ गयी है। निश्चय ही, इस बेचैनी का विकल्प देने में कांग्रेस और भाजपा अपनी राजनीति के कारण अक्षम है।
लेकिन इस बेचैनी और सड़को की लड़ाई को एक मुकम्मल राजनीतिक विकल्प देने में तथाकथित तीसरे मोर्चे की पार्टियां खासकर माकपा और वाम मोर्चा पूरी तरह से नाकाम रहे है। उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक विफलता यह है कि आर्थिक नीतियों के मामले में वे भी उन्हीं नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के पैरोकार बन गये हैं जिसके खिलाफ लड़ने का नाटक करते रहते हैं। तथ्य यह है कि पश्चिम बंगाल में माकपा को नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को हिंसक तरीके से लागू करने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है। इसी तरह, लोगों ने चंद्रबाबूु नायडु को इन आर्थिक नीतियों को जोर-शोर से लागू करने के लिए अब तक माफ नहीं किया है। मुलायम सिंह को भी अमर सिंह-अनिल अंबानी के निर्देशन में कारपोरेट समाजवाद की कीमत अबतक चुकानी पड़ रही हैं।
इसलिए जो विश्लेषक कांग्रेस की जीत और वामपंथी पार्टियों की करारी हार को इस रूप में पारिभाषित कर रहे है कि यह नवउदारवादी आर्थिक को बेरोकटोक आगे बढ़ाने का जनादेश है, वह इस जनादेश की न सिर्फ गलत व्याख्या कर रहे है बल्कि उसे अपनी संकीर्ण हितों में इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस की नई सरकार ने अगर इस जनादेश को आम आदमी के हितों की कीमत पर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का जनादेश समझकर आगे बढ़ने की कोशिश की तो उसे भी इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। उसे यह याद रखना चाहिए कि पार्टी को आर्थिक सुधारों के पैरोकारों के विरोध के बावजूद नरेगा जैसी योजनाओं और किसानों की कर्जमाफी का राजनीतिक लाभ मिला है। यहीं नहीं, उसने अपने चुनाव घोषणापत्र में तीन रूपए किलो चावल और गेहूं देने का वायदा किया है।
इसके बावजूद यह कांग्रेस को पूरा जनादेश नही है. उसे लोकसभा की एक तिहाई से कुछ ही अधिक सीटें और तीस फीसदी से कम वोट मिले हैं। एक तरह से मतदाताओं ने कांग्रेस को एक नियंत्रित जनादेश दिया है कि वह मौजूदा वैश्विक मंदी, पड़ोसी देशों की राजनीतिक अस्थिरता और घरेलू राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए एक समावेशी राजनीतिक आर्थिक एजेंडे पर संभल संभल कर चले। कांग्रेस ने अगर इस नियंत्रित जनादेश को मनमानी करने का लाइसेंस समझ लिया तो वह ना सिर्फ अपने साथ धोखा करेगी बल्कि जनादेश का भी अपमान होगा। कांग्रेस में ऐसी मनमानी करने की प्रवृत्ति रही है लेकिन कांग्रेस नेतृत्व को इस लोभ से बचना चाहिए। हालांकि उसे ऐसा करने के लिए उकसाने वाले देसी विदेशी ताकतें सक्रिय हो गई हैं। लेकिन उसे संयम बरतना होगा। यह इसलिए भी जरूरी है कि यूपीए सरकार पर अंकुश रखने के लिए 2004 की तरह इस बार वाम मोर्चा नहीं होगा।
कुछ राजनीतिक विश्लेषक और खुद कांग्रेस पार्टी के अंदर बहुत लोग वाम मोर्चे के शिंकजे से मुक्ति पाने पर खुशियां मना रहे हैं। निश्चय ही, वाम मोर्चा को पहले यूपीए सरकार का समर्थन करने और उसके बाद हताशा में एक सिद्धांतहीन, अवसरवादी और साख खोए नेताओं का तीसरा मोर्चा बनाने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि कांग्रेस को गरीबों और कमज़ोर वर्गों को राहत देने के एजेंडे और जबावदेही से मुक्ति मिल गई हो। अच्छी बात यह हुई है कि मतदाताओं ने वामपंथी दलों को विपक्ष में बैठक में बैठने का जनादेश दिया है। उन्हें ना सिर्फ इसका सम्मान करना चाहिए बल्कि इसके सबक को भी ईमानदारी से समझना चाहिए। इसका सबक यह है कि शासक वर्गों की साख खो चुकी पार्टियों के साथ खड़े होने से उन पार्टियों की तो साख और चमक लौट आती है लेकिन वाम राजनीति अपनी धार, साख और चमक खो देती है।

उम्मीद करनी चाहिए कि माकपा वाम मोर्चे की दुर्गति से सबक लेकर चंद्रबाबू नायडू से लेकर नवीन पटनायक और नीतिश कुमार तक को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट बांटने और मायावती से लेकर जयललिता को कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बताने की अवसरवादी राजनीति करने की बजाय देशभर में सभी वाम-लोकतांत्रिक शक्तियों को साथ लेकर एक वास्तविक विपक्ष खड़ा करने की पहल करेगी। यह विपक्ष सिर्प संसद तक नहीं बल्कि संसद से बाहर जनता के बीच और सड़कों पर दिखना चाहिए। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि भाजपा भी विपक्ष में चैन से नहीं बैठने वाली है। आशंका है कि वह विपक्ष की जगह का इस्तेमाल करके अपनी नफरत और विभाजन की राजनीति को परवान चढ़ाने की कोशिस करे। वामपंथी-लोकतांत्रिक शक्तियों को विपक्ष से भी भाजप को बेदखल करने के लिए रोज़ी रोटी के सवालों को जनसंघर्षों का मुद्दा बनाना पड़ेगा।

लेकिन इसके लिए माकपा और वाम मोर्चे को ईमानदारी से पहल करनी होगी। खासकर माकपा को ना सिर्फ निर्मम आत्मविश्लेषण करना होगा बल्कि देश भर की वाम –लोकतांत्रिक शक्तियों का विश्वास हासिल करने के लिए अपनी गलतियों को स्वीकार करने से नहीं हिचकिचाना चाहिए। इसकी शुरुआत नंदीग्राम , सिंगूर और लालगढ़ के लिए सार्वजनिक माफी मांग करके हो सकती है। क्या माकपा इस ईमानदार पहल के लिए तैयार है ?

बुधवार, मई 13, 2009

तीसरे मोर्चे की मृग मरीचिका और सीपीआईएम

आनंद प्रधान


नतीजे आने से पहले ही तथाकथित तीसरे मोर्चे में भगदड़ शुरू हो गयी है। इसकी शुरूआत तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के नेता के चंद्रशेखर राव ने लुधियाना में एनडीए की रैली में शिरकत करके कर दी है। टी आर एस आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी, सीपीआई-एम और सीपीआई के साथ महागठबंधन (महाकुटामी) में शामिल है जो राज्य में तीसरे मोर्चे का प्रतिनिधित्व कर रहा है। हालांकि संख्या के लिहाज से टी आर एस के तीसरा मोर्चा छोड़ने से कोई बड़ा फर्क नहीं आएगा लेकिन उसके जाने के प्रतीकात्मक राजनीतिक महत्त्व को नजरअंदाज करना मुश्किल है।
दरअसल, टी आर एस जिस तरह से तीसरा मोर्चा छोड़कर गया है, वह इस कथित गैर कांग्रेस और गैर भाजपा मोर्चे के अवसरवादी, विचारविहीन और सत्ता लोलुप चरित्र को उजागर करता है। दोहराने की जरूरत नहीं है कि यह मोर्चा किसी समान वैचारिक सोच, राजनीतिक-आर्थिक कार्यक्रम और एजेंडे के आधार पर कांग्रेस और भाजपा के बरक्स किसी टिकाउ वैकल्पिक दृष्टि के तहत नहीं बल्कि राज्य स्तरीय तात्कालिक रानीतिक जरूरतों और मजबूरियों के कारण खड़ा हुआ है। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि किसी को पता नही है कि इस कथित तीसरे मोर्चे में कौन है और कौन नही? यही नही, इस मोर्चे में नीतियां, कार्यक्रम और विचार नहीं बल्कि व्यक्तिवादी नेता और उनके निजी हित सबसे उपर हैं। इसलिए अमीबा की तरह टूटना और बिखरना उसकी नियति है।
जाहिर है कि टीआरएस का जाना इसकी शुरूआत भर है। इसमें कोई आश्चर्य और हैरान होने की बात नहीं है। अलबत्ता 13 मई और खासकर 16 मई के बाद तीसरे मोर्चे का टिके रहना सबसे बड़ा चमत्कार होगा। यह चमत्कार सिर्फ एक ही स्थिति में हो सकता है। अगर मई को मतगणना के बाद कांगेस और भाजपा की सीटें 250 से कम रह जाएं जिसकी उम्मीद फिलहाल बहुत कम है। इसलिए नहीं कि राजनीतिक रूप से ऐसा संभव नहीं है। सच यह है कि शासक वर्ग की दोनों प्रतिनिधि पार्टियां और उनके गठबंधन (यूपीए और एनडीए) न सिर्फ अपनी साख और चमक खो-चुके हैं बल्कि उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय राजनीति दो धु्रवीय नहीं हो पा रही है। साफ है कि इन दोनों पार्टियों और उनके गठबंधनों से इतर एक वैकल्पिक और वास्तविक तीसरे मोर्चे के लिए जगह मौजूद है।
यही कारण है कि शासक वर्गो की अनिच्छा के बावजूद चुनावों से पहले हर बार एक तीसरा मोर्चा खड़ा करने और कांग्रेस और भाजपा से असंतुष्ट मतदाताओं के वोटों को समेटने के प्रयास शुरू हो जाते हैं। लेकिन इस तथाकथित तीसरे मोर्चे की भी अब पोल खुल चुकी है। जनता के सामने यह साफ हो चुका है कि यह सिर्फ नाम का तीसरा मोर्चा है। अंतर्वस्तु (कंटेंट) के स्तर पर वह कहीं से भी कांग्रेस और भाजपा से बुनियादी तौर पर नहीं है। उसमें नीतियों और कार्यक्रमों के स्रत्तर पर कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्ववाले गठबंधनोें का विकल्प बनने की इच्छा कभी नहीं दिखी। अगर वह कुछ है तो अधिक से अधिक चुनावों के पहले और कई बार चुनावों के बाद राजनीतिक परिस्थितियों के कारण बना एक तात्कालिक, अस्थायी, अवसरवादी और सत्ता की गोंद से चिपका एक ऐसा मोर्चा जो हर बार लोगों की उम्मीदों और अपेक्षाओं को पूरा को पूरा करने में नाकाम रहा है।
आश्चर्य नहीं कि इस तथाकथित तीसरे मोर्चे के अधिकांश घटक दल पिछले दो दशकों में कभी न कभी या तो भाजपा और उसके नेतृत्ववाले एनडीए या फिर कांग्रेस और उसके नेतृत्ववाले यूपीए गठबंधन या फिर दोनों ही गठबंधनों में शामिल रहकर सत्तासुख उठा चुके हैं। जाहिर है कि तीसरे मोर्चे के इन दलों और नेताओं के लिए कांग्रेस और भाजपा में से कोई अछूत नहीं रह गया है। टीआरएस ने जितनी आसानी और सहजता से यूपीए से तीसरा मोर्चा और तीसरा मोर्चा से एनडीए की यात्रा की है,
उसके बाद तीसरे मोर्चे के गैर कांग्रेसवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे वैचारिक आधारों का खोखलापन एकबार फिर उजागर हो गया है। जाहिर है कि टीआरएस कोई अपवाद नहीं बल्कि तीसरे मोर्चे का नियम है। मोर्चे के कई और साथी जैसे एआईडीएम के (जयललिता), बीजेडी (नवीन पटनायक), बसपा (मायावती), टीडीपी (चंद्रबाबू) आदि किस राह जाएंगे, किसी को पता नहीं है ?
यही नहीं, इस कथित तीसरे मोर्चे के कई संभावित साथी जैसे एनसीपी (शरद पवार), जेडीयू (नीतिश कुमार) आदि का भी कोई ठिकाना नहीं है कि वे किस घाट उतरेंगे? इसका सबूत यह है कि सभी कह रहे हैं कि उनके सभी विकल्प खुले हैं। 16 मई के बाद वे कहीं भी जा सकते हैं और बिल्ली के भाग्य से छींका फूट गया तो यहां भी दावत उड़ा सकते हैं। ऐसा लगता है जैसे तीसरा मोर्चा विकल्प नहीं बल्कि कोई प्लेटफार्म है जहां सभी अपनी-अपनी ट्रेनों का इंतजार कर रहे हैं। जो ट्रेन सत्ता तक ले जाएगी, उसी की सवारी करने के लिए सब बेचैन हैं।
इन सबके बीच सबसे हैरान करनेवाली भूमिका इस कथित तीसरे मोर्चे के वैचारिक अगुवा सीपीआई-एम की है। उसने जिस तरह से जोड़तोड़ करके और ‘कहीं का ईट, कहीं का रोड़ा, भानुमती का कुनबा जोड़ाश् की तर्ज पर जयललिता से लेकर मायावती तक और नवीन पटनायक से लेकर नीतिश कुमार तक सबको धर्मनिरपेक्षता का सर्टिफिकेट बांटते हुए कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बताना शुरू किया, वह उसकी राजनीति के वैचारिक दिवालिएपन का ही एक और सबूत है। असल में, भारतीय राजनीति में तथाकथित तीसरे मोर्चे खासकर तीसरे मोर्चे की सरकारों के प्रयोग के बुरी तरह पिट जाने के बावजूद सीपीआई-एम अब भी उस बंदरिया की तरह अपनी छाती से चिपकाए हुए है जिसे पता नहीं कि उसका बच्चा मर चुका है।
यही नहीं, कथित तीसरे मोर्चे की संभावित सरकार को लेकर सीपीआई-एम का अतिरिक्त उत्साह समझ से बाहर है। ऐसा लगता है कि तीसरे मोर्चे की सरकार को लेकर उसके अतिरिक्त उत्साह की वजह यह है कि वह खुद भी इस सरकार में शामिल होने के लिए बेचैन है। हालांकि वह अच्छी तरह से जानती है कि कांग्रेस के समर्थन और जयललिताओं, नवीन पटनायकों,शरद पवारों आदि के नेतृत्व में चलनेवानी इस सरकार में उसकी भूमिका न सिर्फ सीमित होगी बल्कि वह उसकी नीतियों और कार्यक्रमों को भी प्रभावित नहीं कर पाएगी। इसके बावजूद वह तीसरे मोर्चे की सरकार के लिए जिस तरह से बैचैन है, उससे साफ है कि वह इस बार अपनी पिछली ‘ऐतिहासिक भूलश् को दुरूस्त करने के लिए तैयार है। यहां उल्लेख करना जरूरी है कि सीपीआई-एम ने 1996 की ऐतिहासिक भूल को सुधारने के लिए पिछले दस वर्षो में अपने राजनीतिक कार्यक्रम से वे सभी बाधाएं एक-एक करके निकाल दी हैं जो उसे किसी बुर्जुआ सरकार में शामिल होने से रोकते थे।
इस तरह, सीपीआई-एम इसबार सरकार में शामिल होने के लिए तैयार बैठी है। लेकिन यह एक और ‘ऐतिहासिक भूलश् होगी। यह सीपीआई-एम समेत वाम मोर्चे के सभी दलों को पता है कि इसबार पार्टी और वाम मोर्चे दोनों को 2004 की तुलना में कम सीटें आएंगी। 2004 में 60 से अधिक सीटें आने के बावजूद वाम मोर्चा सीपीआई-एक के नेतृत्व में यूपीए सरकार में इसलिए शामिल नहीं हुआ था कि वह उस सरकार की नीतियों कों प्रभावित करने की स्थिति में नही है। सवाल यह है कि अब ऐसा क्या चमत्कार हो गया है। या होने की उम्मीद है कि सीटें घटने के बावजूद पार्टी को विश्वास है कि वह तीसरे मोर्चे की सरकार की नीतियो को प्रभावित करने की स्थिति में है। खासकर एक ऐसी सरकार की नीतियों को जो कांग्रेस की दया पर निर्भर होगी और जिसमें नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के घोषित चैम्पियनों से लेकर भाजपा से हेलमेल रखनेवाले ‘धर्मनिरपेक्षश् मसीहा भी होंगे।
सच यह है कि सीपीआई-एम तीसरे मोर्चे की सरकार की रट लगाकर देश को नहीं खुद को बेवकूफ बना रही है। टीआरएस के साथ-साथ धर्मनिरपेक्षता के नए चैम्पियन नीतिश कुमार ने एनडीए के साथ खड़े होकर दिखा दिया है कि वे सीपीआई- एम की बेवकूफी में शामिल होने को तैयार नहीं हैं। बेहतर होता कि सीपीआई-एम तीसरे मोर्चे के अपने मुगालते से बाहर आती और कांग्रेस को समर्थन देने या लेने के मुद्दे पर कभी नरम और कभी गरम होने का नाटक करने के बजाय साफ-साफ एलान करती कि वह विपक्ष में बैठेगी। यही नीतिगत और राजनीतिक रूप से सही फैसला होगा। सीपीआई-एम ने पहले से किसी निश्चित,ठोस और घोषित तीसरे मोर्चे की सरकार के लिए जनादेश नहीं मांगा है क्योंकि ऐसा कोई मोर्चा वास्तव में नहीं है। इसलिए उसे जोड़तोड़ और अवसरवादी समझौते करके तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने के बजाय विपक्ष में बैठने के लिए तैयार रहना चाहिए।
सीपीआई-एम और वाम मोर्चे को 16 मई के बाद ‘सभी विकल्प खुले हैंश् वाली अवसरवादी और सत्तालोलुप राजनीति में नहीं पड़ना चाहिए, अन्यथा उसकी बची-खुची साख मिट्टी में मिल जाएगी। उसे विपक्ष में बैठने से संकोच नहीं करना चाहिए। असल में, मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय राजनीतिक- आर्थिक संकट के मद्देनजर देश को एक ताकतवर, प्रभावशाली, सक्रिय और लड़ाकू विपक्ष चाहिए जो देश के आम-अवाम के हितों की लड़ाई संसद से सड़क तक लड़ने के लिए तैयार रहे। विपक्ष मे बैठकर सीपीआई-एम और वाम मोर्चा सरकार में कही ज्यादा प्रभावित कर पाएंगे। इसके उलट इस बात की आशंका अधिक है कि सरकार में शामिल होकर वे खुद नव उदारवादी नीतियों से अधिक प्रभावित हो जाएं जैसाकि प. बंगाल में वाम मोर्चे की सरकार के साथ हो रहा है।
क्या प्रकाश करात सुन रहे है?

सोमवार, मई 11, 2009

मुस्लिम वोटों के लिए तीन बिल्लियों की लड़ाई में फायदा उठाने की कोशिश में बंदर

आनंद प्रधान

नई दिल्ली, 10 मई. उत्तर प्रदेश में पांचवे और आखिरी चरण में रूहेलखंड और तराई इलाके की 14 सीटों के लिए सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच तीन बिल्लियों की तरह ज़बरदस्त घमासान मचा हुआ है। यह राजनीतिक घमासान सिर्फ 14 सीटों में से ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के लिए ही नहीं बल्कि सूबे की राजनीति में निर्णायक मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर खींचने की लड़ाई का नतीजा है। इन सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की तादाद 18 फीसदी से लेकर 49 फीसदी तक है। रूहेलखंड इलाके की रामपुर, मुरादाबाद, सहारनपुर, बिजनौर, अमरोहा, संभल जैसी सीटों पर मुस्लिम समुदाय के रुझान से सूबे की भविष्य की राजनीति की दिशा भी तय होगी।



यही कारण है कि सपा और उसके नेता मुलायम सिंह के लिए रूहेलखंड की जंग राजनीतिक जीवन मरण की लड़ाई बन गई है। उनकी इस लड़ाई को इतना कठिन बनाने का श्रेय बसपा, कांग्रेस या भाजपा-रालोद जैसे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियो को नहीं बल्कि उनके सबसे पुराने और नए दोस्तों को जाता है। अपने सबसे पुराने साथियों में से एक और पार्टी का मुस्लिम चेहरा माने जाने वाले आज़म ख़ान की अपेक्षाकृत नए मगर पिछले कुछ वर्षों में सबसे करीब हो गए अमर सिंह के साथ छिड़ी खुली जंग ने पार्टी को लहूलुहान कर दिया है। दूसरी ओर नए राजनीतिक साथी कल्याण सिंह के राजनीतिक अतीत के बोझ ने मुलायम सिंह को ना सिर्फ कमज़ोर और हल्का कर दिया है बल्कि उनका ध्यान भी भंग कर दिया है। घर के अंदर मची रार को सुलझाने में नाकाम मुलायम सिंह की स्थिति उस सेनापति की तरह हो गई है जिसकी ना सिर्फ सेना अंदर से बंट गयी है बल्कि जो खुद दुविधा में फंस गया है।


इस दुविधा और घर में छिड़ी जंग का असर मुलायम के चेहरे साफ झलकती लाचारी में दिख रहा है। इसका असर मुलायम के साथ साथ सपा कार्यकर्ताओं के मनोबल पर भी पड़ा है। सपा के अंदर अमर सिंह बनाम आज़म ख़ान की खुली लड़ाई के कारण पार्टी कितनी कमज़ोर हुई है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस इलाके में सपा के चार प्रमुख मुस्लिम नेता--- सलीम शेरवानी, शाहिद सिद्दीकी, शफ़ीकुर्ररहमान बर्क और इस्लाम साबिर अंसारी पार्टी छोड़कर कांग्रेस और बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। ये सभी मुस्लिम नेता अपनी अपनी सीटों पर सपा की राह रोककर खड़े हो गए हैं। कांग्रेस के टिकट पर सलीम शेरवानी बदायूं में और बसपा के टिकट पर शाहिद सिद्दीकी बिजनौर, शफ़ीकुर्ररहमान बर्क संभल और इस्लाम साबिर अंसारी बरेली में सपा के लिए बड़ी चुनौती बन गए हैं।


रूहेलखंड में मुलायम सिंह के लिए उनके नए राजनीतिक साथी कल्याण सिंह भी एक बड़ा बोझ साबित हो रहे हैं। मुस्लिम समुदाय में इस दोस्ती को लेकर कितनी बेचैनी और गुस्सा है, इसका अंदाज़ा अब मुलायम सिंह को भी हो रहा है। एटा में जिस तरह से हज़ारों मुस्लिम मतदाताओं ने कल्याण सिंह को वोट ना देकर मतदान का बहिष्कार किया, उससे साफ हो गया कि पूर्वांचल से लेकर मध्य और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मतदाताओं के बीच मुलायम कल्याण दोस्ती को लेकर पैदा हुई नाराज़गी और बेचैनी इस बार सपा को कितनी भारी पड़ने वाली है। हालांकि सपा ने 14 में से 5 सीटें मुस्लिम समुदाय को देकर स्थिति संभालने की कोशिश की है लेकिन पिछले कुछ दिनों में आज़म ख़ान के खुलकर बगावती तेवर अपना लेने और कल्याण सिंह को निशाने पर लेने के कारण सपा का खेल बिगड़ता दिख रहा है।


कांग्रेस और बसपा इसका फायदा उठाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस ने मुस्लिम समुदाय के 6 और बसपा ने 5 प्रत्याशियों को टिकट देकर सपा के किले में सेंध लगाने की कोशिश की है। कांग्रेस और बसपा का रास्ता इसलिए भी आसान हो गया है क्योंकि अजीत सिंह ने भाजपा के साथ हाथ मिला लिया है। 2004 में इन 14 सीटों में कांग्रेस को सिर्फ एक सीट ( शाहजहांपुर) और बसपा को कोई सीट नहीं मिली थी, लेकिन इसबार सपा के कमज़ोर पड़ने के कारण कांग्रेस कम से कम 4 सीटों- रामपुर ( बेगम नूरबानो), मुरादाबाद ( मो. अज़हरुद्दीन) , बदायूं ( सलीम शेरवानी) और धारूहेड़ा ( जितिन प्रसाद) पर मुख्य लड़ाई में आ गई है। कई और सीटों पर भी कांग्रेस को पिछली बार से अधिक वोट मिलेंगे।



इसी तरह, बसपा भी बिजनौर ( शाहिद सिद्दकी), सहारनपुर ( जगदीश सिंह राणा), संभल (शफ़ीकुर्ररहमान बर्क), अमरोहा ( मौदूद मदनी), बदायूं ( डीपी यादव) , आंवला ( कुंवर सर्वराज सिंह) , बरेली (इस्लाम साबिर अंसारी) , खीरी ( इलियास आज़मी) शाहजहांपुर ( सुनीता सिंह) , धारूहेड़ा ( राजेश वर्मा) और नगीना ( रामकिशन) में कड़ा मुकाबला कर रही है। बसपा इसबार अपना खाता खोल सकती है।


लेकिन इस इलाके में सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच मुस्लिम समुदाय को अपने पाले में खींचने की इस बिल्ली लड़ाई में भाजपा-रालोद गठबंधन बंदर की तरह फायदा उठाने की कोसिश कर रहा है। पिछली बार भाजपा को दो और रालोद को एक सीट मिली थी। इसबार यह गठबंधन 14 में से 9 सीटों पर अपने लिए अच्छी संभावना देख रहा है। वोटों के बिखराव के कारण भाजपा रालोद गठबंधन को पिछलीबार की तुलना में इस बार कुछ सीटों का फायदा हो सकता है। उस स्थिति में जब एक-एक सीट के लिए घमासान मचा हुआ है, भाजपा-रालोद को यह एक बोनस की तरह दिख रहा है। यह बोनस राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए और यूपीए दोनों गठबंधन के बीच कांटे की लड़ाई में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।

शुक्रवार, मई 01, 2009

राष्ट्रीय राजनीति में उत्तरप्रदेश की पुनर्वापसी : क्या दिल्ली जाने का रास्ता इस बार लखनऊ से होकर गुजरेगा?


आनंद प्रधान


कहते हैं कि दिल्ली जाने का रास्ता लखनऊ होकर गुजरता है। देश में आजादी के बाद हुए पहले नौ आम चुनावों तक यह राजनीतिक मुहावरा बिल्कुल सटीक था। जिस भी पार्टी ने उत्तरप्रदेश की अधिकांश सीटें जीतीं, केन्द्र में सरकार बनाने का मौका उसे ही मिला। पहले 40 वर्षों में केंद्र में कांग्रेस के एकछत्र राज और यहां तक कि जब 1977 और फिर 1989 में केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तो उसमें भी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका उत्तरप्रदेश की ही थी। सिर्फ इसलिए नहीं कि उत्तरप्रदेश में तब किसी अन्य राज्य की तुलना में काफी अधिक 85 सीटें थीं बल्कि इसलिए भी कि पहले राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के एकछत्र वर्चस्व के लिए जरूरी आधार मुहैया करानेवाले इंद्रधनुषी सामाजिक गठबंधन - ब्राह्मण, मुसलमान और दलित की प्रयोगभूमि उत्तरप्रदेश ही था और राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देनेवाले सामाजिक गठबंधन-पिछड़ी और मध्यवर्ती जातियों का उभार भी यहीं हुआ।


लेकिन 1989 के बाद मंडल, मंदिर और दलित दावेदारी की तीन अलग-अलग धाराओं की राजनीति का अखाड़ा बन गए उत्तरप्रदेश की राष्ट्रीय राजनीति में हैसियत लगातार कमजोर होती चली गयी है। 90 के दशक मंे ऐसा लगने लगा कि उत्तरप्रदेश की राष्ट्रीय राजनीति खासकर केंद्र की सत्ता से विदाई हो गयी है। उत्तरप्रदेश ने ऐसी राह पकड़ ली जो दिल्ली नहीं जाती थी। 1991 में भारतीय जनता पार्टी मंदिर और राम लहर पर चढ़कर राज्य 85 में 51 सीटें जीत ले गयी लेकिन केंद्र में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार ने पांच साल तक राज किया। इसी तरह 1996 में उत्तरप्रदेश में 52 सीटें जीतने के बावजूद भाजपा केंद्र में सरकार नहीं बना पायी और वाजपेयी के नेतृत्ववाली सरकार सिर्फ 13 दिन में गिर गयी।

हालांकि 1998 में केंद्र में वाजपेयी के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि उत्तरप्रदेश की राष्ट्रीय राजनीति में वापसी हो गयी है लेकिन सच्चाई यह थी कि उत्तरप्रदेश में 57 सीटें जीतने के बावजूद वाजपेयी सरकार की चाभी भाजपा के पास नहीं बल्कि तमिलनाडु की नेता जयललिता के पास थी। जयललिता ने 1999 में वाजपेयी सरकार गिराकर यह साबित भी कर दिया। 1999 में हुए चुनावों के बाद एक बार फिर केंद्र में वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी लेकिन उसमें उत्तरप्रदेश की भूमिका बहुत सीमित रह गयी थी क्योंकि प्रदेश मे भाजपा की सीटें घटकर लगभग आधी यानी 29 रह गयीं। दूसरी ओर, सपा, बसपा और कांग्रेस ने लगभग 50 सीटें जीतीं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में अप्रासंगिक बनी रहीं।

पिछले लोकसभा चुनावों में उत्तरप्रदेश में सपा को 35 सीटें मिलीं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में वह हाशिए पर ही पड़ी रही। कांग्रेस के नेतृत्व में बनी यूपीए सरकार को समर्थन देने के बावजूद सपा और उसके साथ-साथ उत्तरप्रदेश केन्द्रीय सत्ता से अलग-थलग ही पड़े रहे। यहां तक कि वे दोनों राष्ट्रीय राजनीति में एक मजबूत विपक्ष की धुरी भी नहीं बन पाए। अपनी ही राजनीतिक मजबूरियों के कारण सपा न तो पूरी तरह से केंद्रीय सत्ता और उसकी धुरी बनी कांग्रेस के साथ रह पायी और न ही गैर कांग्रेस-गैर भाजपा विपक्ष का नेतृत्व कर पायी।

आज स्थिति यह है कि सपा न कांगे्रस के साथ है और न उससे दूर है, न वह तीसरे मोर्चे में है और न उससे दूर है। वह त्रिशंकु की तरह कथित चैथे में है जो चुनावों के बाद किस घाट लगेगा, किसी को पता नहीं है। लेकिन उत्तरप्रदेश की राजनीति में सपा अब भी एक मजबूत ताकत बनी हुई है। वह 2004 के चुनावों की तरह सीटें तो नहीं जीत पाएगी लेकिन सवाल यह है कि अपनी मौजूदा रणनीति के कारण क्या वह चुनावों के बाद भी राष्ट्रीय राजनीति में अलग-थलग ही पड़ी रहेगी या केंद्रीय सत्ता में भागीदार बनेगी?

दूसरी ओर, 2007 के विधानसभा चुनावों में शानदार जीत के साथ राज्य में अकेले दम पर सत्ता में पहुँचने वाली बसपा पर सभी की निगाहें हैं। बसपा की नेता और राज्य की मुख्यमंत्री मायावती ने अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं कभी नहीं छुपाई हैं। वे उत्तरप्रदेश में दलित की बेटी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट मांग रही हैं। लेकिन उनके सामने राज्य में 2007 के प्रदर्शन को दोहराने और राष्ट्रीय राजनीति में खुद को सर्व स्वीकार्य बनाने की कठिन चुनौती है। उत्तरप्रदेश में यह लगभग आम राय है कि मायावती 2007 के विधानसभा चुनावों के प्रदर्शन को दोहरा नहीं पाएंगी। इसकी वजह यह है कि न सिर्फ उनके चुनाव जीताऊ सामाजिक गठबंधन में छीजन आई है बल्कि वे कुछ हद तक शुरुआती सत्ता विरोधी (एंटी इन्कम्बेंसी) भावना का भी सामना कर रही हैं। इस कारण उन्हें 50-55 सीटें तो आती नहीं दिख रही हैं और इस बात के आसार बढ़ रहे हैं कि वे 30-35 सीटें जीतकर भी पिछली बार के मुलायम सिंह की तरह राष्ट्रीय राजनीति में अलग-थलग ही पड़ी रहें।

तो क्या इसका यह अर्थ है कि राष्ट्रीय राजनीति में खासकर केंद्र की सत्ता से उत्तरप्रदेश का अलगाव बना रहेगा? इसका ठीक-ठीक उत्तर 16 मई के बाद ही मिलेगा लेकिन इतना तय है कि पिछले दो दशक से राष्ट्रीय राजनीति में हाशिए पर पड़े उत्तरप्रदेश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट गया है। इसलिए भी हुआ है कि इन वर्षों में केन्द्रीय सत्ता ने उत्तरप्रदेश की उपेक्षा की है और एक गरीब और पिछड़ा राज्य होने के कारण उसे जितने संसाधन मुहैया कराए जाने चाहिए थे, उनसे महरूम रखा गया है।

लेकिन उत्तरप्रदेश की यह उपेक्षा सिर्फ इसलिए नहीं हुई है कि उसकी राजनीति,राष्ट्रीय राजनीति की विपरीत दिशा पकड़कर चलने की आदती हो गयी है बल्कि इस उपेक्षा के लिए राज्य का वह राजनीतिक नेतृत्व अधिक जिम्मेदार रहा है जिसकी राजनीतिक दृष्टि सत्ता से बाहर कुछ नहीं देख पाती है। उसने ईमानदारी से न तो राज्य और न ही केंद्र में एक सक्रिय, प्रभावी और सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाया है। सपा और बसपा केंद्र की राजनीति में और कांग्रेस और भाजपा राज्य की राजनीति में एक मजबूत विपक्ष की भूमिका भी निभाते तो उत्तरप्रदेश की ऐसी अनदेखी नहीं होती जैसी पिछले डेढ़-दो दशकों में हुई है।

असल में, इससे पता चलता है कि इन चारों राजनीतिक दलों का संघर्ष की राजनीति से कोई रिश्ता नहीं रह गया है। उनका सारा जोर जोड़तोड़ करके सत्ता हासिल करने पर रहता है। लेकिन अगर किसी कारण सत्ता से दूर रह गए तो वे विपक्ष की भूमिका ईमानदारी से निभाने के बजाय निष्क्रियता और सत्तापरस्ती के शिकार हो जाते हैं। राज्य की राजनीति में कांग्रेस और भाजपा की मौजूदा स्थिति उनकी इसी निष्क्रियता और सत्तापरस्ती का नतीजा है। दूसरी ओर, सपा और बसपा के लिए अपने-अपने नेता के व्यक्तिगत हित और सत्ता स्वार्थ इतने बलवान हैं कि वे राष्ट्रीय राजनीति में किसी स्थायी,नीतिगत और व्यापक मोर्चे के हिस्सा बनने की पात्रता ही नहीं रखते हैं।

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि राष्ट्रीय राजनीति में उत्तरप्रदेश का कोई महत्व नहीं है। उत्तरप्रदेश के महत्व को सभी अच्छी तरह समझ रहे हैं। उसके बढ़ते महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कंेद्र की सत्ता के सभी दावेदारों ने राज्य में पूरी ताकत झोंक रखी है। कोई भी बिना लड़े, राज्य की एक ईंच राजनीतिक जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। इस मायने में उत्तरप्रदेश का राष्ट्रीय राजनीति में पुर्नप्रवेश हो रहा है क्योंकि केंद्र की सत्ता के सभी दावेदारों पता चल गया है कि दिल्ली का पक्का रास्ता लखनऊ होकर ही जाता है। प्रदेश की राजनीति में मायावती के उभार के बाद किसी के लिए उत्तरप्रदेश की अनदेखी करना संभव नहीं रह गया है। नतीजा चाहे जा आए लेकिन इसबार दिल्ली में लखनऊ की तूती बोलेगी।